गुरुवार, 5 मई 2011

कंधार...सफ़र का सफ़र


हमें कला - ख़ासकर फ़िल्मों के सन्दर्भ में - ईरान का आजीवन ऋणी रहना होगा, ये बात तो है कि अच्छी फ़िल्में दुनिया भर में बनती हैं, लेकिन उनका विषय इतना बड़ा और व्याप्त होता है कि वे कई फ़िल्म-फिल्मकारों को पीछे रख, वाहवाही बटोरती हैं. जब फ़िल्म में विषय एकदम ज़मीन से जुड़े हुए और किसी बड़ी चीज़ से सम्बन्ध रखते हुए नहीं होते हैं, तब उस फ़िल्म को ईरानियन-सिनेमा का हिस्सा कहा जा सकता है, भले ही कोई भी देश न क्यों न हो. कम संसाधनों, ज़्यादा ज़रूरतों, और उससे भी विराट महत्वाकांक्षाओं से लबरेज़ फ़िल्में इस ज़मीन की ख़ूबियों में से एक है. माजिद मजीदी, ज़फर पनाही और मोहसिन माखमलबाफ़ जैसे नाम यहाँ उल्लेखनीय हैं.

तो,
मोहसिन माखमलबाफ़ के पिटारे से साल २००१ में आई थी यह फ़िल्म, नाम कंधार...फ़िल्म में कंधार कोई जगह नहीं है, न ही कोई समय....फ़िल्म में यह एक 'अभीष्ट' है, जिस तक पहुँचने में अफगानिस्तान की सारी दिक्कतें उभरकर सामने आती हैं, वह दिक्कतें बहुत बड़ी तो नहीं, लेकिन छोटी भी नहीं हैं. फ़िल्म, कहानी के नहीं बल्कि बुर्क़े के इर्द-गिर्द घूमती है.

नफ़स
, एक ख़ूबसूरत लड़की, जिन्हें शायद एक ख़त मिला अपनी बहन का और वह भाग आईं दूर कनाडा से अफ़गानी सरज़मीं पर...क्योंकि उन्हें डर है ग्रहण के दिन अपनी बहन को खो देने का. एक तरफ़ जहाँ समूचा देश युद्ध से भागा-भागा फ़िर रहा है....लोकतंत्र-जनतंत्र एकदम कमज़ोर है...मुजाहिद्दीन समाज का एक हिस्सा बन चुके हैं...जहाँ उन्हें 'पेट्रोल' कहा जाता है, जो कभी-कभी पेट्रोल नहीं होते तो लुटेरे होते हैं...गाड़ी, कपडा, चूड़ियाँ और लत्ते सब छीन कर निकल लेते हैं, वहीँ दूसरी तरफ़ अपनी नफ़स हैं, जो इन सब के दरम्यान एक रिकॉर्डर, जो उनके शब्दों में उनका 'ब्लैक बॉक्स' है, लेकर चलती हैं, जिसमें सारे लोगों और सारी बातों का घर होता रहता है.

ये घर
ख़ाक का भी है, जिसे अपनी नफ़स से अजीब-सा स्नेह हो गया है...वह हमेशा उन्हें एक कंकाल से उतारी अंगूठी बेचना चाहता है, जिसका रंग शायद उनकी आँखों से मिलता है. ख़ाक मदरसे से निकाल दिया गया एक विद्यार्थी है, जो क़ुरान को आयतों को बाक़ायदा उच्चारित नहीं कर सका, बदमाश बच्चा सिर्फ़ उसकी धुन को गा रहा है, उसे कम मतलब है कि उसके साथ के बच्चे कलाश्निकोव और शमशीर के गुणों और उनके इस्तेमाल के बारे में क्या-कितना जानते हैं? हिलते वक़्त उसकी पीठ दुखती है और उसे मना करने में कोई डर भी नहीं है, कि मुझे नहीं हिलना. बच्चा पैसे उगाहने वाला है, उसे पचास हज़ार अफ़गानी और पचास हज़ार डॉलर में अंतर नहीं पता, गाना सुनाने तक के वह एक-एक डॉलर ले लेता है, अंगूठी का भी एक डॉलर.

कहानी की शुरुआत से सारथी बदलते रहते हैं, यात्री एक ही रहता है, रास्ता भी एक, कंधार भी एक. पहले आता है पायलट, फ़िर वह इंसान जो नफ़स को अगले शादीशुदा और भविष्य में लुटने वाले सारथी की पत्नी बनाता है, फ़िर ख़ाक, फ़िर एक अभिनेता जो एक डॉक्टर नहीं है और 'ब्लैक अमेरिकन' है, फ़िर यू.एन.ओ. के सहायता शिविरों से टांगें लेकर....शायद...उन्हें बेचने वाला लूला अफ़गान. नफ़स का किरदार सभी के साथ सहज है, उनके साथ को आत्मसात करती हुई वह सफ़र में आगे की राह देख़ रही है.


'पेट्रोल' द्वारा अन्तिम सारथी के बारात में अवैध ढंग से घुसने के बाद पकड़ा जाने पर, वह अपना 'ब्लैक बॉक्स' लिए कंधार का सूरज देखती है. सबसे ज़रूरी यह है कि फ़िल्म कहीं बोझिल नहीं होती, जैसा अमूमन अफगानिस्तान पर बनी फ़िल्मों के साथ होता आया है, इन फ़िल्मों के झुण्ड में इतना कूड़ा कुछ 'अति-महत्वाकांक्षी' निर्देशक जोड़ देते हैं, जहाँ साँस लेने और किसी किरदार से प्रेम करने तक का स्पेस नहीं रह पाता. अगर कहानी के स्रोत को कुछ देर के लिए दरकिनार कर दें, तो फ़िल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है वह अब तक की 'ऑन-स्क्रीन हक़ीक़त' से अलग है. माइन्स से पैर-हाथ गँवा चुके लोग हमेशा नए पैरों के लिए न्यूनतम एक साल इंतज़ार करते हैं, और हर बार उन्हें मुजाहिद्दीन नहीं होने का भरोसा देना होता है. अभी तक फ़िल्मों के माध्यम से हम लोग जेहाद को जिस तरह से लेते आए थे, यह उससे ज़रूर कुछ अलग है.


आसमाँ से गिराए जा रहे 'परमानेंट' पैर किसी इंसान के माफ़िक गिरकर, दरख्तों से टकराते हैं और किसी सुपर-नैचुरल तरीक़े से माइन्स धमाकों में लंगड़े हुए लोग उन पैरों की ओर भागते हैं......जब तक ऐसे कलात्मक विचार हमारे जेहन में आते हैं, तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है और कुछ और नया सोचने के बजाय हम पुराने पर ही घिसटने लगते हैं.


नफ़स के किरदार में
निलोफर पाज़िरा हैं, जो बचपन में कनाडा स्थानांतरित हो गईं थी और सच में बहन के ख़त के बाद - जिसमें इक्कीसवीं सदी के पूर्ण ग्रहण को आत्महत्या करने की बात थी - वे कनाडा से अफगानिस्तान चली आई थीं, और कुछ-कुछ इन्हीं तरीक़ों से कंधार पहुँचती हैं. अधिकतर फिल्मांकन ईरान में हुआ था और कुछ अफगानिस्तान में, निआतक शरणार्थी शिविर में चोरी-छिपे किया गया था. इस फ़िल्म के लिए माखमलबाफ़ को यूनेस्को द्वारा फ्रेदेरीको फेलिनी पुरस्कार दिया गया. फ़िल्म के तथ्यों को ज़्यादा घसीट नहीं सकता, क्योंकि यह आत्मकथात्मक किस्म की फ़िल्म है, लेकिन सिनेमैटोग्राफी के क्षेत्र में इस फ़िल्म का कोई सानी नहीं.

फ़िल्म का संगीत शुद्ध हिन्दुस्तानी-शास्त्रीय है, कुछ-कुछ जगहों पर अफ़गानी टच देखने में मिलता है, बहरहाल, फ़िल्म का संगीत है तो
मोहम्मद रेज़ा दरविशी हैं.

एक बार फ़िर से सोचने की ज़रूरत है कि इतना परिपूर्ण होने के बाद भी हम क्यों नहीं अपने सोच का दायरा भूत, प्रेम, रोमांस, जातिवाद और दंगों से आगे बढ़ा पा रहे हैं. मैं ये नहीं कहता कि इन पर फ़िल्म बनाना ग़लत है, लेकिन एक ख़ास विषय पर आदि से अंत तक टिके रहना कहाँ की समझदारी है.... इस फ़िल्म को देखें और सोचें कि इसके पहले आपने क्या देखा था, जीवट, हिम्मत और दम-ख़म के बारे में फ़िर से सोचिये...इस बारे में भी सोचिये कि निर्मल-निर्बल होना कैसा होता है. कई तरह के 'एडाप्टिव प्रश्न' निकलते हैं इस फ़िल्म से, जिनका उत्तर देना बहुत ज़रूरी है और उनके उत्तर खोजना और भी मुश्किल.

2 टिप्पणियाँ:

सागर ने कहा…

मैं तो विदेशी फ़िल्में नहीं देख पाता (कारण इंग्लिश कमजोर होना है ) लेकिन मेरे कुछ दोस्त जम कर देखते हैं वो इरानी फिल्मों की काफी तारीफ भी करते हैं, ऐसा सुनता हूँ की संवेदनाएं जैसी वहां के निर्देशक पकड़ते हैं वो कहीं और देखने को नहीं मिलता... आम से आम कहानी में भी गज़ब की पकड़ दिखती है...

मैं यह लिंक उन्हें दे रहा हूँ, कुछ और बेहतर होगा. आपका शुक्रिया.

Manika ने कहा…

बहुत ही सुन्दर पोस्ट, चूँकि आप का ब्लॉग अन्य ब्लोग्स से हटकर है तो मेरी विनती है की आप इसकी अभिन्नता को सजोये रखिये ऐसी ही शानदार और रचनात्मक पोस्ट्स के साथ. इतनी बारीकी से किसी फिल्म की हर एक सामग्री को देखना आपके लिए ही संभव है, उतना तो नहीं पर शायद मैं भी अब आपसे कुछ देखना पढना सीखने लगी हूँ. शानदार पोस्ट के लिए हार्दिक बधाइयाँ....