सत्य क्या है? और सत्य की अवधारणा? चूँकि किसी सर्वव्याप्त, अतिमानवीय, वस्तुनिष्ठ शब्दावली में इसके वजन का कोई शब्द नहीं है, इसे मानवीय ही होना चाहिए.
और जबकि यह मनुष्य है, तो यह सीमित, पूर्ण रूप से क़ैद में है, अगर मानवीय संदर्भों में बात की जाय तो यह मानवीय-वातावरण के खांचों भीतर ही है. मनुष्य और सौन्दर्य/ अलंकार के बीच कोई कल्पित सम्बन्ध नहीं है, और यही सत्य पर भी लागू होता है. अपनी ही सीमाओं के भीतर रहकर महानता प्राप्त करना - जो कि यूक्लीडियन है और अनंत के साथ बहुत अल्प मेल्य हैं - यह दिखाना होता है कि हम सिर्फ़ मनुष्य हैं. व्यर्थ और मूल्यहीन है वह हर कोई, जो आत्मा की महानता के शिखर तक नहीं पहुँच पाता, एक लोमड़ी या एक मैदानी-चूहे जितना. शक्ति-संपन्न क्या है, इसका जवाब देने के लिए धर्म जैसे क्षेत्र का निर्धारण मानव ने किया. लेकिन अगर लाओ-त्जू की सुनें तो "इस संसार की सर्व-शक्तिमान संस्था/ वस्तु को न तो देखा जा सकता है, न तो सुना और न ही छुआ जा सकता है."
अनंत नियमों के बर्ताव से या हमारी पहुँच के बाहर बसने वाले अनंतता के नियमों से ईश्वर स्थापित होता है, न हो पाने की संभावना के साथ. इन्हीं 'पहुँच से बाहर रहने वाली चीज़ों' के सारतत्व को न पकड़ पाने वाले मनुष्य के लिए, ईश्वर वही अनजान और न जाने जा सकने वाली संभावना से भरी कोई संस्था है. नैतिक और व्यावहारिक शब्दों में - ईश्वर प्रेम है.
दूसरों के जीवन को बिगाड़े बग़ैर जीवन को जीने के लिए मनुष्य के पास एक आदर्श होना चाहिए. आदर्श - नियमों की दार्शनिक, नैतिक और आध्यात्मिक अवधारणा.
नैतिकता व्यक्ति के अन्दर ही निहित होती है. अक्सर नैतिकता के स्थान पर विचारों में छिछले तौर पर उपस्थित नैतिक-बोध को तरज़ीह दी जाती रही है. नैतिक-मूल्यों के स्थान का सम्भव हो पाना, नैतिकता की अनुपस्थिति में ही होता है....यह दीवालियेपन, खोखलेपन और मूल्यहीनता का द्योतक है. अग़र नैतिकता उपस्थित हो, तो उस बोध/मूल्य की ज़रूरत नहीं होती.
आदर्श पहुँच के बाहर होते हैं और इनके द्वारा इस तथ्यपरक सिद्धान्त को समझे जाने में मानव सभ्यता की महानता निहित है.
किसी पहुँच के भीतर रहने वाली वस्तु को प्रस्तुत करने की कोशिश और विशेषकर आदर्शों के विकृत करने वाले बहानों के सहज बोध, पागलपन के रास्ते दिखलाते हैं.
मनुष्य एक दूसरे से दूर जा चुका है. पहले यह देखा जा सकता था कि एक सामूहिक या सार्वजनिक कारण एक समाज का आधार हो सकता है, लेकिन यह एक भ्रम के अलावा कुछ नहीं था. लोग पिछले पचास सालों से झूठ और पाखण्ड से चोरी कर रहे और खेल रहे हैं, एक एकाकी विचारधारा और लक्ष्य को पाने के लिए वही एकता भरी युक्ति, लेकिन समाज अनुपस्थित. लोगों में एकता का प्रवाह तभी मुमकिन हो सकता है जब उस युक्ति का आधार नैतिकता हो और, निश्चय ही, उसका होना आदर्श के प्रभाव-क्षेत्र के भीतर हो.
यही कारण है कि श्रम का स्थान कभी ऊंचा नहीं हो पाया, साथ ही साथ यही 'तकनीकी विकास' के होने का कारण है. अग़र श्रम एक नैतिक आधार होता, एक पराक्रम की तरह, तो उन्नति का रुख़ प्रतिक्रियात्मक होता, जो कि निरर्थक होता.
लिओ टॉल्सटॉय का कहना है - यह दावा करने के लिए कि श्रम एक गुण है, एक बड़ी विकृति को तरज़ीह देना है जहाँ यह मनुष्य के आहार को गुण और नैतिकता के समान बनाने जैसा होगा.
वह जूते सीना चाह और बिलकुल ही अलग कारण के लिए हल चलाना चाह रहा था : एक ख़ास आवेग के साथ वह अपने मांस का अनुभव करने के लिए - जो कि एक गायक का मांस था.
अग़र न पकड़ में आ सकने वाले को पकड़ना नामुमकिन है, ईश्वर के सन्दर्भ से अलग, मनुष्य ने उसके होने को किसी भी तरह प्रामाणिक करार नहीं दिया.
अध्यात्म, दर्शन और कला - ये तीन स्तम्भ जिन पर विश्व स्थापित है - प्रतीकात्मक तौर पर अनंतता के विचार को संकुचित करने के लिए बनाए गए, लेकिन साथ ही साथ इनकी ख़ुद की उपलब्धता के प्रतीक के विरोध में(जो कि सही अर्थों में असम्भव है). मानव जाति ने इतने बड़े स्तर पर इसके अलावा कुछ नहीं पाया. स्वीकारोक्ति के साथ मनुष्य ने इसे बस नैसर्गिक आधार पर पा लिया, यह जाने बिना कि उसे ईश्वर(आसान यह रास्ता) या दर्शन(सारे कुछ का अर्थ, ज़िन्दगी तक का भी) या कला(नश्वरता) की ज़रूरत क्यों है.
यह कैसा प्रेरित विचार है जो कि अनंतता का विचार है और मनुष्य के अल्पकालिक जीवन के साथ रखा जा सकता है. सबसे विराट अवधारणा अनंत है. ऐसा नहीं है कि मनुष्य के इस सारी निर्मिति का मानदंड होने से मैं सहमत हूँ. पौधे भी तो हैं? यहाँ तो कोई मानदंड नहीं है. या यह शायद हर जगह उपस्थित हैं - ब्रह्माण्ड के हर छोटे से छोटे कण में भी. यह मनुष्य के लिए बहुत अच्छा नहीं होता; ऐसी बहुत-सी चीज़ें हैं जिन्हें उसे छोड़ना पड़ता; प्रकृति को उसकी ज़रूरत नहीं होती. कम से कम पृथ्वी पर तो मनुष्य को इसका आभास तो हो ही गया है कि वह अनंत के सम्मुख है.
या हो सकता है कि यह सिर्फ़ एक गड़बड़ी हो? सब कुछ के बाद भी कोई ये नहीं सिद्ध कर सकता कि इसका कोई मतलब है. निश्चय ही, दूसरे अर्थों में यदि कोई इसे सिद्ध करने का प्रयास करता(प्राकृतिक तौर पर अपने लिए) तो वह अपना आपा खो बैठता. उसकी ज़िन्दगी निरर्थक हो जाती.
एचजी वेल्स अपनी कहानी "द एप्पल" में बताते हैं कि कैसे लोग ज्ञान के पेड़ से लेकर सेब खाने में डरते थे. यह एक महान विचार है.
बिना किसी ख़ास मतलब के मैं आश्वस्त हूँ कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं होगा, एक शून्य होगा और जैसा कि चालाक लोग हमें भरोसा दिलाते हैं कि वहाँ एक स्वप्नहीन नींद होगी. किसी के भी पास उस तरह की स्वप्नहीन नींद नहीं है - जैसे कि एक व्यक्ति जब सो जाता है(जो उसे याद रहता है) और फ़िर जाग जाता है(यह भी उसे याद रहता है) लेकिन उसे यह कतई याद नहीं रहता कि उस दरम्यान क्या-क्या हुआ था - कुछ तो हुआ था, लेकिन उसे याद ही नहीं रहता कि क्या...
निश्चय ही जीवन में कोई ख़ास बिन्दु नहीं है...यदि वह बिन्दु होता, तो मनुष्य कभी स्वतंत्र नहीं होता, वह उस बिन्दु-विशेष का दास हो जाता और उसका जीवन बिलकुल ही नए मापदंड से निर्धारित होता, और यह दासता का मापदंड होता. एक जानवर की तरह, जिसके जीवन का बिन्दु उसका जीवन ही है, मनुष्य भी जातीय-निरंतरता का शिकार हो जाता.
एक जानवर अपनी दास-क्रियाएं वहाँ करता है क्योंकि उसे जीवन के उस बिन्दु का आभास है. इसीलिए उसके चारों तरफ़ का स्पेस बंधा हुआ है. दूसरी तरफ़ मनुष्य सम्पूर्णता की ख़्वाहिश के साथ होने का दावा करता है..
(महान रूसी फिल्मकार आन्द्रेइ तार्कोव्स्की की डायरी "टाइम विदइन टाइम" का अंश. तार्कोव्स्की की डायरी पढ़ते वक़्त कभी नहीं लगता कि आप कुछ कठिन चीज़ों को अपने ज़ेहन में उतार रहे हैं. ये बातें हमेशा धर्म और ईश्वर की आवश्यकता, दर्शन और कला की ज़रूरत और उनसे जुड़े हुए मानवीय आयामों के सन्दर्भ में होती हैं. अनुवाद : सिद्धान्त मोहन तिवारी)
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