मंगलेश डबराल
बड़े दिनों के बाद संगीत सुना. भीमसेन जोशी का यमन. पुरानी रिकार्डिंग है इसलिए उसमें एक ख़ास तरह का एकाकीपन लगता है. भीमसेन जोशी का एक पुराना इंटरव्यू कुछ दिन पहले पढ़ा था : 'अंततः जब आप संगीत प्रस्तुत करते हैं तो वह आपकी पूरी साधना की शक्ति का ऐसा क्षण होता है जब आप राग यमन या भैरवी से आप सिर्फ़ किसी एक प्रतिमा को नहीं, बल्कि समूची सृष्टि को अलंकृत कर सकते हैं.' यमन राग-संगीत का बचपन है. छात्रों को शुरुआत में सिखलाया जानेवाला सात सुरों का पहला राग. छात्रों से लेकर पंडितों-उस्तादों तक सभी इसे गाते हैं, लेकिन समूची सृष्टि को रंजित करनेवाली उदात्तता तक बहुत कम लोग ले जा पाते हैं. ज़्यादातर लोग यमन का शरीर ही गाते रहते हैं. फ़िल्म संगीत में भी भैरवी और यमन का ही सबसे ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है. उसके स्वर इतने आम, इतने चौतरफ़ और इतने अपने हैं कि उस साधारणता को असाधारण तक ले जाना काफ़ी कठिन है. अमीर ख़ां साहब का यमन इसी मानी में बेजोड़ है : कजरा कैसे डारूं, और ऐसो सुघर सुंदरवा बालमवा या एक बहुत पुराना, शायद 'क्षुधित पाषाण' फ़िल्म का गाना - अवगुण न कीजिए गुनिजन - और वह एक अद्भुत बंदिश जिसके फ़ारसी बोल समझ नहीं आते. वह अमीर खुसरू की रचना है. विलायत ख़ां साहब भी यमन के मुरीद थे और ग्वालियर घराने का भी यह प्रिय राग है. निराला का अन्तिम दिनों का वह गीत याद आता है : इमन बजा, न बजा, मन बजा. कभी-कभी सुन्दर यमन को सुनते हुए घिरते अँधेरे वाले आसमान में एक चाँद कल्पना में दिखता है जिसकी असंख्य अंगुलियाँ शाम के सांवले रंग को, उसकी केश-राशि को सहलाती हुई लगती हैं.
(मंगलेश डबराल की पुस्तक "कवि का अकेलापन " से साभार, पृष्ठ संख्या १९२, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष २००८, मूल्य २५० रूपये)
[यह सारवान वक्तव्य कई कारणों से ज़रूरी है. एक उदास कारण यह है कि फ़िलहाल भीमसेन जोशी गम्भीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भरती हैं. लेकिन शोक सामयिक है. भीमसेन जोशी की शख़्सियत और अवदान, संगीत और यह सोचता हुआ गद्य - ऐसी सभी चीज़ें मिलकर हमें शोक के पार ले जाएंगी. ज़िन्दगी ऐसे तत्वों से निर्मित होनी चाहिए, मसलन ऐसे वाक्यों से कि 'यमन राग-संगीत का बचपन है'; 'ज़्यादातर लोग यमन का शरीर ही गाते रहते हैं'. कौन कह सकता है कि हम यहाँ सिर्फ़ यमन सुनना सीखते हैं ? एक असली वाक्य में न जाने कितने लोगों के स्वर, ख़यालात, आकांक्षाएं और इच्छाएं गूंजती हैं. ऐसी रचना हमेशा समवेत प्रतिफल है. - व्योमेश शुक्ल]
(मंगलेश डबराल की पुस्तक "कवि का अकेलापन " से साभार, पृष्ठ संख्या १९२, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष २००८, मूल्य २५० रूपये)
[यह सारवान वक्तव्य कई कारणों से ज़रूरी है. एक उदास कारण यह है कि फ़िलहाल भीमसेन जोशी गम्भीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भरती हैं. लेकिन शोक सामयिक है. भीमसेन जोशी की शख़्सियत और अवदान, संगीत और यह सोचता हुआ गद्य - ऐसी सभी चीज़ें मिलकर हमें शोक के पार ले जाएंगी. ज़िन्दगी ऐसे तत्वों से निर्मित होनी चाहिए, मसलन ऐसे वाक्यों से कि 'यमन राग-संगीत का बचपन है'; 'ज़्यादातर लोग यमन का शरीर ही गाते रहते हैं'. कौन कह सकता है कि हम यहाँ सिर्फ़ यमन सुनना सीखते हैं ? एक असली वाक्य में न जाने कितने लोगों के स्वर, ख़यालात, आकांक्षाएं और इच्छाएं गूंजती हैं. ऐसी रचना हमेशा समवेत प्रतिफल है. - व्योमेश शुक्ल]
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