शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

दीवान - १ : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चन्द रोज़ और मिरी जान !
  
चन्द रोज़ और मिरी जान! फ़क़त चन्द ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है मा'
ज़ूर
हैं हम
जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पर ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है, गुफ़्तार पे ता'ज़ीरें हैं

अपनी हिम्मत है कि हम फ़िर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैवन्द लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र, कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं

अ'र्सए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे-नाम गराँबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है


ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो-रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बे-सूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार 

चन्द रोज़ और मिरी जान ! फ़क़त चंद ही रोज़ !
 
[अजदाद = पूर्वज, मा'ज़ूर = मजबूर, महबूस = बंदी, अ'र्सए-दहर = संसार का मैदान, गराँबार = बोझिल, आलाम = दुःख ]

(फ़ैज़ की ये नज़्म नक़्शे-फ़रियादी से, इसी के साथ बुद्धू-बक्सा पर शायरी के स्तम्भ "दीवान" की शुरुआत हुई है, ये कहने की बात नहीं कि यहाँ पर उन शायरों को पढ़ा जाएगा, जिनका होना आज की हिन्दी कविता को भाषा और शिल्प, दोनों ही माध्यमों में अलंकृत करता है. फ़ैज़ उन शायरों की कड़ी से एक हैं. भाषा पर फ़ैज़ का जो प्रभाव रहा है, उससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता है. फ़ैज़ की शायरी में इश्क़ और आन्दोलन का जो मिश्रित रूप मिलता है, वह अपने में अनूठा है. बुद्धू-बक्सा पर फ़ैज़ दूसरी दफ़ा)

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