("उद्बोधन" शीर्षक से बुद्धू-बक्सा पर एक नए स्तम्भ का आगाज़ हो रहा है, जिसके अन्तर्गत प्रेरणादायी और अपने हर आयाम से ज़रूरी वक्तव्यों का संकलन किया जाएगा. १९६३ में हावर्ड ज़िन हुक्मउदूली की वजह से स्पेलमैन कॉलेज से निकाल दिए गए, जहाँ वह इतिहास विभाग की एक पीठ पर थे. उन्होंने अपने उन छात्रों का पक्ष लिया था जिनके साथ वह नस्ली ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ चलाये जा रहे आन्दोलन में शामिल थे और जिन्होंने तभी यथास्थितिवादी कॉलेज प्रबंधन से विद्रोह किया था. मई २००५ में मानद उपाधि ग्रहण करने और दीक्षांत भाषण देने के लिए एक बार फिर उन्हें स्पेलमैन बुलाया गया. वहाँ पर उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य में उन सभी समस्याओं का हल मिलता है जो हर छोटे से छोटे समय पर आवाम से जुड़ी हुई पाई जाती हैं, उन सभी निकृष्ट बातों से अलग, जिनके बिना किसी आवाम / देश की कल्पना करना असम्भव है. यह उसी भाषण का लिखित पाठ है. अंग्रेजी से अनुवाद व्योमेश शुक्ल. बुद्धू-बक्सा व्योमेश जी का आभारी है.)
निराशा के ख़िलाफ़
बयालीस साल बाद स्पेलमैन वापस बुलाये जाने से मैं गहराई से अभिनंदित हुआ हूँ. मैं संकाय और प्रबंध समिति के सदस्यों, ख़ास तौर से आपके अध्यक्ष बेवरली टेटम का, मुझे बुलाने का निर्णय लेने के लिए शुक्रगुज़ार हूँ. और डायहेन कैरोल और वर्जीनिया डेविस फ्लॅाएड के साथ यहाँ होना तो बहुत ख़ास है.
बयालीस साल बाद स्पेलमैन वापस बुलाये जाने से मैं गहराई से अभिनंदित हुआ हूँ. मैं संकाय और प्रबंध समिति के सदस्यों, ख़ास तौर से आपके अध्यक्ष बेवरली टेटम का, मुझे बुलाने का निर्णय लेने के लिए शुक्रगुज़ार हूँ. और डायहेन कैरोल और वर्जीनिया डेविस फ्लॅाएड के साथ यहाँ होना तो बहुत ख़ास है.
लेकिन ये आपका दिन है - आज स्नातक हो रहे छात्रों का. आप और आपके परिवारों के लिये ये ख़ुशी का दिन है. मैं जानता हूँ कि भविष्य के लिये आपके पास अपनी उम्मीदें होंगी, इसलिए, मेरे लिये यह बताना किंचित् पूर्वग्रहयुक्त होगा कि मुझे आपसे क्या उम्मीदें हैं, लेकिन ये बिल्कुल वही उम्मीदें हैं जो मुझे अपने नाती-पोतों से भी हैं,
मेरी पहली उम्मीद है कि इस समय की दुनिया के हालात देखकर आप ज्यादा निराश न हों. निराश होना बहुत आसान है क्योंकि हमारा देश युद्ध झेल रहा है, फिर से एक युद्ध, युद्ध के बाद युद्ध - और हमारी सरकार साम्राज्य विस्तार के लिये आमादा दिखाई दे रही है. इस देश में ग़रीबी है, बेघरी है, बग़ैर स्वास्थ्य के ज़िंदा लोग हैं, और ठूँस-ठूँस कर भरी हुई कक्षाएँ हैं, लेकिन हमारी सरकार, जिसके पास ख़र्च करने के लिये खरबों डालर हैं, अपनी निधियाँ युद्ध में ज़ाया कर रही है. अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और मध्यपूर्व में करोड़ों लोगों को मलेरिया और ट्यूबरकुलौसिस और एड्स का सामना करने के लिये साफ पानी और दवाओं की ज़रूरत है, लेकिन हमारी सरकार, जिसके पास हज़ारों की तादाद में नाभिकीय हथियार हैं, और ज़्यादा संहारक हथियारों पर प्रयोग कर रही है. हाँ, इन सबसे निराश होना आसान है.
लेकिन मुझे कहने दें कि जो कुछ अभी मैंने आपको ब्यौरेवार बताया, क्यों उससे आपको निराश नहीं होना चाहिए..
मैं आप सबको याद दिला दूँ कि पचास साल पहले यहाँ दक्षिण में नस्ली भेदभाव उतनी ही सख़्ती से डटा हुआ था जितना दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद. राष्ट्रीय सरकारें, केनेडी और जॉनसन जैसे उदार राष्ट्रपतियों के बावजूद अश्वेतों के पीटे जाने, मार डाले जाने, और मतदान से वंचित किये जाने के दौरान किसी अलग रास्ते की तलाश में ही थीं. इसलिए दक्षिण के अश्वेत लोगों ने ख़ुद ही कुछ करने का फैसला किया.
उन्होंने बहिष्कार किया, विरोध किया, धरने और प्रदर्षन किए और प्रताड़ित हुए और जेल चले गये और कहीं-कहीं मार भी डाले गए, लेकिन आज़ादी की उनकी आवाज़ें जल्द ही पूरे देश और पूरी दुनिया में सुनी गईं, तब राष्ट्रपति और कॉंग्रेस ने भी अंततः वही किया जिसे शुरुआत में कर पाने में वे असफल रहे थे - उन्होंने संविधान के चौदहवें और पन्द्रहवें संशोधन को लागू किया. अनेक लोगों ने कहा था- दक्षिण कभी नहीं बदलेगा. लेकिन वह बदला. वह बदला क्योंकि आम लोग संगठित हुए, जोख़िम उठाया और व्यवस्था को चुनौती दी और हटे नहीं. यों, लोकतंत्र जीवित हो उठा. मैं आपको यह भी याद दिलाना चाहता हूँ कि जब वियतनाम युद्ध चल रहा था, और युवा अमेरिकी मर रहे थे और विकलांग होकर घर लौट रहे थे और सरकार वियतनाम के गाँवों पर बम गिरा रही थी - स्कूलों और अस्पतालों पर बम गिरा रही थी और बड़ी संख्या में साधारण लोगों की जान ले रही थी - युद्ध रोकने की कोशिश नाउम्मीद हो गई थी. लेकिन दक्षिणी आन्दोलन की तरह, लोग विरोध करने लगे और जल्द ही उसे रुकना पड़ा. यह एक राष्ट्रीय आन्दोलन था. सैनिक वापस लौट रहे थे और युद्ध की भर्त्सना कर रहे थे और नौजवान सेना में शामिल होने से इंकार कर रहे थे और युद्ध को ख़त्म होना पड़ा.
इस इतिहास का सबक यही है कि ये कभी न भूलें कि अगर आप सही हैं और अड़े रहते हैं तो चीज़ें बदल जाएँगी. सरकार जनता को बहकाने की कोशिश कर सकती है, अख़बार और टेलीविज़न भी ऐसा कर सकते हैं, लेकिन सचाई के पास ज़ाहिर होने का रास्ता है. एक सच में हज़ार झूठों से ज़्यादा ताक़त होती है. मैं जानता हूँ कि आपके पास करने के लिए दुनियावी कामकाज हैं - नौकरी हासिल करना, विवाह करना और बच्चे पैदा करना. आप समृद्ध हो सकते हैं और उन मायनों में सफल भी, जिन मायनों में हमारा समाज सफलता को परिभाषित करता है, वैभव, आनबान और इज्ज़त के ज़रिये. लेकिन एक अच्छे जीवन के लिये इतना पर्याप्त नहीं है.
टॉल्सटाय की कहानी "इवान इलीच की मृत्यु" को याद कीजिए. मृत्युशय्या पर पड़ा एक आदमी अपनी ज़िंदगी पर निगाह डालता है, कैसे उसने सब कुछ किया, नियमों का पालन किया, न्यायाधीश बना, शादी की, बच्चे पैदा किए और सफल आदमी माना गया. फिर भी अपने अंतिम लम्हों में वह वैफल्य का अनुभव कर रहा है. मशहूर उपन्यासकार हो जाने के बाद ख़ुद टॉल्सटाय ने यह तय किया था कि इतना भर होना पर्याप्त नहीं है, और उन्हें रूसी प्रतिष्ठान के व्यवहारों के ख़िलाफ ज़रूर आवाज़ लगानी होगी, उन्हें युद्ध और सैन्यवाद के विरुद्ध ज़रूर लिखना होगा.
मेरी कामना है कि अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए आप चाहे जो कुछ करें - आप अध्यापक बनें, या समाजसेवी, या उद्योगपति, या वकील या कवि या वैज्ञानिक - आपको इस दुनिया को अपने बच्चों की ख़ातिर अच्छा बनाने के लिए अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा लगाना होगा, दुनिया के सभी बच्चों के लिये. मुझे उम्मीद है कि आपकी पीढ़ी युद्ध के अंत की माँग करेगी, आपकी पीढ़ी ऐसा कुछ करेगी जो इतिहास में आजतक नहीं हुआ है और उन राष्ट्रीय सीमाओं को गिरा देगी जो इस पृथ्वी के अन्य मनुष्यों से हम लोगों को अलग-अलग कर देती है.
हाल ही में मैंने न्यूयॉर्क टाइम्स के मुखपृष्ठ पर एक तस्वीर देखी जिसे मैं अपने दिमाग़ से निकाल नहीं सकता. इसमे मेक्सिको से लगी हुई एरिज़ोना की दक्षिणी सीमा पर कुर्सियों पर आम अमेरिकी बैठे हुए थे. उनके पास बंदूकें थीं और वे उन मेक्सिकियों की ताक में थे जो सीमापार करके संयुक्त राज्य में घुसने की कोशिश करते. यह मेरे लिये भयावह था कि इक्कीसवीं सदी की इस कथित सभ्यता में हमने अपनी दुनिया के 200 नकली टुकड़े कर दिये हैं जिन्हें हम राष्ट्र कहते हैं, और हर उस आदमी को मार डालने के लिए तैयार बैठे हैं जो इनके बीच की सीमा के आर-पार जा रहा हो.
राष्ट्रवाद - यानी एक झण्डे के प्रति समर्पण, एक राष्ट्रगान के प्रति समर्पण, एक सरहद की इतनी विकरालता कि वो हमें हत्या के लिये उकसाए - क्या नस्लवाद, धार्मिक घृणा के साथ-साथ हमारे समय का जघन्यतम दुष्कृत्य नहीं है? सोचने के ऐसे तरीक़े बचपन से ही रोपे और सींचे जाते हैं और सिद्धान्त रूप में दिमाग़ में भर दिए जाते हैं, ये उनके लिये बहुत काम के होते हैं जो ताक़त में हैं और उनके लिए भीषण जो ताक़त के बाहर हैं.
यहाँ, संयुक्त राज्य में हम इस आस्था के साथ बड़े होते हैं कि हमारा देश दूसरों से भिन्न है, दुनिया में एक अपवाद है, अद्वितीय रूप से नैतिक है, कि हम सभ्यता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र की स्थापना के लिए ही दूसरों की ज़मीन में घुस जाते हैं. लेकिन अगर आप थोड़ा भी इतिहास जानते हैं तो आप यह भी जानते हैं कि यह बात सच नहीं है. अगर आप थोड़ा भी इतिहास जानते हैं तो आप यह भी जानते हैं कि इस महाद्वीप में हमने मूलनिवासियों की हत्याएँ कीं, मेक्सिको पर चढ़ाइयाँ कीं, क्यूबा और फिलीपींस में सेनाएँ भेज दीं. हमने बड़ी तादाद में लोगों को मार डाला, और हमने उन्हें लोकतंत्र या आज़ादी कुछ भी नहीं दिया. हम लोकतंत्र लाने के लिए वियतनाम में नहीं घुसे थे, नशीले पदार्थों का धंधा ख़त्म करने के लिए हमने पनामा में घुसपैठ नहीं की थी, अफगानिस्तान और इराक में हम आतंकवाद से लड़ने नहीं गए थे. हमारे लक्ष्य वही थे जो विश्व इतिहास में दूसरे साम्राज्यों के रहे हैं - कार्पोरेशंस के लिए और ज़्यादा मुनाफा, राजनेताओं के लिए और ज़्यादा ताक़त.
लगता है कि हमारे बीच के कवियों और कलाकारों के पास राष्ट्रवाद के इस रोग की स्पष्टतर समझ है. ख़ास तौर से अश्वेत रचनाकार अमेरिकी ’आज़ादी’ और ’लोकतंत्र' के वरदानों से कम से कम अभिभूत हैं, उन लोगों ने इन वरदानों का कम से कम उपभोग किया है. मैं लांग्स्टन ह्यूज, जोर नील हर्सटन, रिचर्ड राइट और जेम्स बॅाल्डविन की बात कर रहा हूँ.
मैं द्वितीय विश्वयुद्ध का एक सेनानी रहा हूँ. वह एक ’अच्छा’ युद्ध माना जाता था, लेकिन मैं इस निष्कर्ष तक पहुँच गया हूँ कि युद्ध बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हैं और सिर्फ़ दूसरे युद्धों को बढ़ावा देते हैं. युद्ध सिपाहियों के दिमागों को ज़हरीला बना देते हैं, उन्हें हत्या और अत्याचार के लिए उकसाते हैं और राष्ट्र की आत्मा में विष भर देते हैं.
मेरी कामना है कि आप अपने बच्चों के लिए एक युद्धहीन विश्व की माँग करें. अगर हम एक ऐसा संसार चाहते हैं जिसमे सभी देशों के लोग एकदूसरे के भाई-बहन हों, दुनिया के सभी बच्चे हमारे बच्चे हों - तब युद्ध - जिनमें हमेशा सबसे ज़्यादा बच्चे ही निशाना बनते हैं - को समश्याओं को सुलझाने का रास्ता नहीं माना जा सकेगा.
मैं १९५६ से १९६३ के बीच, सात सालों तक स्पेलमैन कॉलेज की फैकल्टी में था. वह एक गर्मजोशी से भरा हुआ दौर था क्योंकि उन सालों में हमने जो भी दोस्त बनाए वे बाद के सभी वर्षों में हमारे दोस्त रहे. मेरी पत्नी रोज़लीन, मैं और मेरे दो बच्चे कैंपस में ही रहते थे. जब कभी हम क़स्बे की ओर जाते, गोरे लोग हमसे पूछते थे - ‘काले लोगों की जमात में रहना कैसा लगता है?’ बताना मुश्किल था. लेकिन हम ये जानते थे कि निचले अटलांटा में हमें लगता था कि हम किसी अनजानी जगह में हैं, और जब हम स्पेलमैन कैम्पस में वापस आए तो लगा कि घर में हैं. स्पेलमैन के वे साल मेरी ज़िंदगी के सबसे रोमांचक साल थे, और सर्वाधिक शिक्षाप्रद भी. मैंने अपने छात्रों को जितना सिखाया उससे कहीं ज़्यादा उनसे सीखा. वे दक्षिण में नस्ली ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ बीहड़ आन्दोलन के साल थे. और मैं उसमें शामिल हुआ, अटलांटा में, अल्बेनी में, जार्जिया में, सेल्मा, अल्बामा में, हैटिसबर्ग में, मिसिसिपी में, और ग्रीनवुड और इट्टा बेना और जैक्सन में. मैंने लोकतंत्र के बारे में सीखा, कि वह सरकार में से नहीं निकलता, ऊँचाईयों से नहीं आता, वह एकजुट होकर अन्याय के ख़िलाफ संघर्ष कर रहे लोगों से आता है. मैंने नस्ल के बारे में सीखा. मैंने सीखा कि कोई भी बुद्धिमान आदमी एक निश्चित बिंदु पर यह समझ जाता है कि नस्ल एक बनावटी चीज़ है, एक नकली चीज़, और अगर नस्ल मौजूद है (जैसा कार्नेल वेस्ट ने लिखा है) तो सिर्फ़ इसलिए कि कुछ लोग उसे मौजूद मानते हैं. यों ही, राष्ट्रवाद भी एक कृत्रिम-सी वस्तु है. मैंने सीखा कि किस चीज़ का वाकई हमारे लिए मतलब है - कि जो भी तथाकथित नस्ल और राष्ट्रीयता है - वह इंसान हैं और उनके बीच का प्यार.
मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मैं एक ऐसे दौर में स्पेलमैन में रहा जब मेरे छात्रों में ज़बर्दस्त क्रान्तिकारी बदलाव हो रहे थे और मैं उसे देख भी सका, वे छात्र जो बेहद नम्र थे, बेहद शान्त, और अचानक वे कैम्पस छोड़कर शहरों-क़स्बों की तरफ जा रहे थे, वहाँ उठ-बैठ रहे थे, गिरफ्तार हो रहे थे, और सम्पूर्ण ज्वाला और प्रतिकार के साथ जेलों से बाहर आ रहे थे. आप यह सबकुछ हैरी लेफेवर की क़िताब "अनडॅान्टेड बाइ द फाइट" में पढ़ सकते हैं. एक दिन मेरियन राइट (अब मेरियन राइट एडेलमैन), जो कॉलेज में मेरी छात्र थीं, और अटलांटा धरनों में सबसे पहले गिरफ्तार होने वालों में से एक, कैम्पस स्थित हमारे घर आईं, और उन्होंने हमें एक प्रतिवादपत्र दिखाया जिसे वे अपने हॉस्टल के बुलेटिन बोर्ड पर चिपकाने वाली थीं. उस प्रतिवादपत्र का शीर्षक स्पेलमैन में चल रहे रूपान्तरण के सारतत्व को व्यक्त कर रहा था. मेरियन ने पत्र के बिलकुल ऊपर लिखा था - जो लड़कियाँ धरना दे सकती हों, कृपया नीचे हस्ताक्षर करें.
मुझे उम्मीद है कि आप सिर्फ उस तरह सफल होकर संतुष्ट नहीं होंगे जिस तरह हमारा समाज सफलता की पैमाइश करता है, कि आप तब क़ायदे-कानूनों को नहीं मानेंगे जब वे अन्यायी हों, कि आप हिम्मत से पेश आएंगे जो मैं जानता हूँ कि आप में है. कुछ अद्भुत गोरे और काले लोग हमारे आदर्श हैं. अफ्रीकी अमेरिकियों से मेरा आशय कोंडोलीज़ा राइस, या कोलिन पॉवेल, या क्लैरेंस थामस से नहीं है. ये धनी और ताक़तवर लोगों के नौकर हो चुके हैं. मेरा मतलब डब्ल्यू, ई. बी. ड्युबाइस, मार्टिन लूथर किंग और मैल्कम, और मेरियन राइट एडेलमैन से है और जेम्स बॅाल्डविन और जोसेफिन बाकर सरीख़े अच्छे गोरे लोककवादियों ने भी शान्ति और न्याय के लिए प्रतिष्ठान का विरोध किया.
स्पेलमैन की मेरी एक और छात्रा एलिस वाकर, जो मेरियन की ही तरह इन सभी वर्षों में हमारी दोस्त रही हैं, एटंटन के एक बटाईदार किसान परिवार से आईं और एक मशहूर लेखिका हुईं. अपनी शुरूआती कविताओं में से एक में उन्होंने लिखा था :
ये सच है
मैंने हमेशा प्यार किया
हिम्मती लोगों को
काले नौजवान की तरह
जिसने कोशिश की
ढहा देने की
सारी बंदिशों को
अचानक,
जो चाहता था
तैरना
एक गोरे
समुद्र तट पर (अल्बामा के)
नग्न.
मैं आपको बहुत दूर चले जाने का मशविरा नहीं दे रहा हूँ, लेकिन आप निश्चित रूप से नस्ल और राष्ट्रवाद की बंदिशों को तोड़ने में मददगार हो सकते हैं. आप वह करें जो आप कर सकते हैं - आपको नायकोचित कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, बस कुछ न कुछ करते रहना है, उन दसियों लाख़ लोगों के साथ जों यों ही कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्योंकि यही सब कुछ न कुछ, इतिहास के एक ख़ास बिंदु पर, एक साथ मिल जाते हैं और दुनिया को बेहतर बना देते हैं.
अद्वितीय अफ्रीकी अमेरिकी लेखिका जोरा नील हर्सटन, जिन्होंने वह सब नहीं किया जो गोरे लोग उनसे चाहते थे, जिन्होंने वह सब भी नहीं किया जो काले लोग उनसे चाहते थे, जो ख़ुदी पर डटी रहीं, हमें बताती हैं कि उनकी माँ ने एक बार उनसे कहा था- सूर्य के लिये छलांग लगाओ, हो सकता है कि तुम उस तक न पहुँच पाओ, लेकिन कम से कम तुम ज़मीन से ऊपर उठ जाओगी.
आज यहाँ होकर, आप ख़ुद ब ख़ुद अपने पंजों पर खड़े हैं, छलांग के लिए तैयार.
मेरी कामना आपके लिए एक बेहतर जीवन की है.
(पहल के अन्तिम अंक में प्रकाशित)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें