नाटक ही तो है...
ब्रेख्त के लिए महज़ यह काफ़ी नहीं है - वे इससे कहीं आगे जाते हैं. नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं, वह जीने की सक्रिय कला है, हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें. हक़ीक़त ही तो नाटक है....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
ब्रेख्त के लिए महज़ यह काफ़ी नहीं है - वे इससे कहीं आगे जाते हैं. नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं, वह जीने की सक्रिय कला है, हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें. हक़ीक़त ही तो नाटक है....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
समकालीन....यह शब्द आज काफ़ी विकृत हो चुका है. प्रायः उन सब लेखकों के लिए यह प्रयुक्त होता है जो आज जीवित हैं और लिख रहे हैं - अक्सर उनके लिए भी जो 'जीवित'' नहीं है और लिख रहे हैं.
उस रात 'टेरर ऐंड मिज़री' देखते हुए मैं पहली बार 'समकालीन' शब्द से परिचित हो पाया. यदि उसका कोई अर्थ है तो सिर्फ़ एक प्रयोग, जब आदमी के अस्तित्व की हर तह एक नए स्तर पर अप्रत्याशित अर्थ ग्रहण कर लेती है....जब बाह्य परिस्थिति एक बेडौल, विकृत छाया है (एक गूँगे दैत्य की मानिन्द), जो न कुछ कहती है, न हमारे सामने से हटती है, एक असह्य-सा दबाव, जिसे हर मनुष्य सोते-जागते अपने पर महसूस करता है. कुछ लेखक हैं, जो इस 'दैत्य' से मुक्ति पाने के लिए उसे अपने एक आत्मपरक प्रतीक में ढाल लेते हैं - तब 'बाह्य' इतना पराया, इतना डरावना नहीं रहता. काफ़्का, और एक दूसरे अर्थ में सार्त्र ऐसे ही लेखक हैं. यह एक रास्ता है, इस भयावह सुरंग से बाहर आने का - एक अमानवीय 'दैत्य' को निजी प्रतीक-द्वारा साधारण, औसत वास्तविकता में ढालने की प्रक्रिया.
उस रात 'टेरर ऐंड मिज़री' देखते हुए मैं पहली बार 'समकालीन' शब्द से परिचित हो पाया. यदि उसका कोई अर्थ है तो सिर्फ़ एक प्रयोग, जब आदमी के अस्तित्व की हर तह एक नए स्तर पर अप्रत्याशित अर्थ ग्रहण कर लेती है....जब बाह्य परिस्थिति एक बेडौल, विकृत छाया है (एक गूँगे दैत्य की मानिन्द), जो न कुछ कहती है, न हमारे सामने से हटती है, एक असह्य-सा दबाव, जिसे हर मनुष्य सोते-जागते अपने पर महसूस करता है. कुछ लेखक हैं, जो इस 'दैत्य' से मुक्ति पाने के लिए उसे अपने एक आत्मपरक प्रतीक में ढाल लेते हैं - तब 'बाह्य' इतना पराया, इतना डरावना नहीं रहता. काफ़्का, और एक दूसरे अर्थ में सार्त्र ऐसे ही लेखक हैं. यह एक रास्ता है, इस भयावह सुरंग से बाहर आने का - एक अमानवीय 'दैत्य' को निजी प्रतीक-द्वारा साधारण, औसत वास्तविकता में ढालने की प्रक्रिया.
ब्रेख्त भी यही करते हैं - किन्तु बिलकुल दूसरे ढंग से. 'बाह्य परिस्थिति' उनके लिए ऐतिहासिक है - सूक्ष्म अर्थ में नहीं - समय के हाड़-मांस ठोस पिंजर में आबद्ध, जिस सदी में हम जीते हैं, उसके सन्दर्भ में बेहद, इंटेंस राजनीतिक ! फासिज्म, बंदी-शिविर, नर-संहार....ये महज़ दीवार की छायाएँ नहीं, जिन्हें एक आत्मपरक प्रतीक दिया जा सके, क्योंकि ये स्वयं प्रतीक हैं, एक विघटन-प्रक्रिया के, जिसमें हम सब, अलग-अलग व्यक्ति की हैसियत से, शामिल हैं. यह आकस्मिक नहीं कि ब्रेख्त का नाटक देखते हुए अचानक एक ऐसा क्षण आता है, जब लगता है, जैसे थिएटर की दीवार के परे बरबस कुछ आवाज़ें भटक रहीं हैं, दरवाज़ा खटखटा रहा है - और हम - दर्शक और अभिनेता - समूचा मंच और 'एडिटोरियम' एक अजीब दबाव तले धँसने लगते हैं - सिर्फ़ एक उपाय है मुक्ति पाने का - हम बाहर निकल आएँ और इन 'आवाज़ों' के साक्षी हो सकें.
ब्रेख्त कम्युनिस्ट थे, क्योंकि उनके लिए कम्युनिस्ट होने के मानी बहुत सहज थे - समकालीन होना, दूसरे शब्दों में, अपने निजी घेरे के बाहर उन सब आवाज़ों का साक्षी होना, जो बीसवीं सदी के अँधेरे से टकराती हुई हमारे पास आती हैं.
(निर्मल वर्मा के यात्रा-संस्मरण "चीड़ों पर चाँदनी" से लिया गया अंश. ब्रेख्त की फोटो "गूगल" से साभार)
3 टिप्पणियाँ:
यह चयन और संयोजन बहुत उम्दा है सिद्धांत...खासकर ऐसी पुस्तकों और लेखकों के लेखन से जिन्हें हम बार बार पढ़ना चाहते हैं
बहुत सुंदर चयन है. ये मुद्दे बार-बार दिमाग़ में आते हैं, आसपास के कई लेखकों को पढ़ते हुए.
bahut marmik1
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