[यह गद्य मुझे इस बार कम परेशान कर रहा है. इस 'कम परेशानी' में मेरा उस रंग निर्देशक से कल की ही तारीख़ में हुआ सामना है, जब वह मुझसे फ़िल्में देखने-दिखाने का आग्रह करता है. वह कहता है कि उसके कलाकारों को फ़िल्मों के बारे में नहीं पता, और यह भी नहीं पता कि फ़िल्में देखकर क्या सोचा जाना चाहिए. फिर अगले वाक्य में रंग निर्देशक की ख़ुद की कलई भी खुलती है. ऐसे में एक 'कम परेशान' करने वाला गद्य और समीक्षात्मक टुकड़ा एक आश्वस्ति (और एक ईर्ष्या) के साथ आता है कि बहुत कुछ सीखना-देखना बचा हुआ है. अविनाश ने फ़िल्म महोत्सव से लौटकर दूसरी बार लिखा है. इसके लिए आभार व्यक्त करते हुए मैं यह कहूंगा कि जब यह तीसरी बार लिखा जाएगा, तो पाठकों की सिनेमाई मुस्तैदी की हमारी अभिलाषा कुछ और पूरी होगी.]
20 नवंबर 2017
‘‘प्रेम कहानियां मुझे परदे पर सुंदर नहीं लगतीं.’’
मैं चुपचाप उसके पीछे खड़ा उसे सुन रहा था. वह माजिद मजीदी की नवीनतम और 20-28 नवंबर 2017 के दरमियान गोवा में आयोजित 'भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव' के 48वें संस्करण की ओपनिंग फिल्म ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ को प्रेम-कहानी मानने से इनकार कर रहा था.
वह अपने तात्कालिक फैसलों में हांफ रहा था, जब मैंने पीछे से अपना दाहिना हाथ उसके कंधे पर रखा. उसने बहुत खुशी और ‘अरे...’ से मुझे देखा. हम दो बरस यानी दो महोत्सवों बाद मिल रहे थे. ‘अरे...’ इस काल और अवधि के दरमियान का एकमात्र शब्द है. ‘अरे...’ अब बढ़ता ही जाएगा...
21 नवंबर 2017
कल माजिद मजीदी ने ओपनिंग सेरेमनी में फरमाया कि भारत में भारत के लिए फिल्म बनाना उनका स्वप्न था, लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि इस स्वप्न को साकार करने के लिए यह क्यों जरूरी था कि फिल्म मुंबई में और हिंदी में ही बनाई जाए? अल्बानिया-ग्रीस से आई गेंटियन कोसी की फिल्म ‘डेब्रेक’ (2017) को अधूरा छोड़ इंडियन पैनोरमा की ओपनिंग फिल्म ‘पुष्कर पुराण’ में घुसते हुए उसने मुझसे कहा कि तुम गलती कर रहे हो, माजिद की मुंबई तुमने इससे पहले किस भारतीय या हिंदी फिल्म में देखी है, यह कहो...?
‘पुष्कर पुराण’ साल 1988 में आई ‘ओम दर बदर’ के करीब तीन दशक बाद प्रदर्शित कमल स्वरूप की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म है. यह राजस्थान में अजमेर के नजदीक बसे एक छोटे-से शहर पुष्कर को वहां हर साल अक्टूबर-नवंबर में आयोजित होने वाले मेले के बहाने खोलती है. धार्मिक और पौराणिक महत्व और मान्यताओं से जुड़ा यह मेला संसार भर में मशहूर है. आस्था यह है कि यहां ब्रह्मा का एकमात्र मंदिर है.
‘पुष्कर पुराण’ अरावली की पहाड़ियों के बीच पवित्र पुष्कर झील पर हो रहे सूर्योदय से शुरू होकर अपने प्रकाश को वहां तक ले जाती है, जहां एक पुष्कर के कई चेहरे नजर आते हैं. बगैर अटैच वाशरूम और सिंगल बैड वाला कमरा दिखाती हुई स्त्री, गाय के सहारे चोरों को पकड़वाने वाला अति धार्मिक किन्नर, पुराणों के अध्ययन के जरिए पुष्कर की धार्मिक कीर्ति को बताता हुआ युवक, विदेशी पर्यटक से विवाह करके जर्मनी-फ्रांस-स्विचरलैंड घूम चुका फतेह सिंह उर्फ फत्तू और पुष्कर के घरों की प्राचीन संरचनाओं पर मंडराते हुए लंगूर, कौए और रास्ता काट-काटकर जाती हुई बिल्लियां... ये दृश्य एक अजीब संगीत के बीच माहौल को डरावना और किसी अनिष्ट की आशंका से घिरा हुआ बनाते हैं.
यह चित्रात्मकता अपनी तरफ से कुछ नहीं कहती है. बस एक के बाद एक चेहरे सामने आते हैं— चलते हुए और ठहरे हुए भी, दोनों तरह के. ये चेहरे अपने बारे में बताते हुए पुष्कर के बारे में और पुष्कर के बारे में बताते हुए अपने बारे में बताते हैं. शापित देवी-देवताओं, ऊंटों की खरीद-फरोख्त, विदेशी पर्यटकों, धोखाधड़ी और अंधे विश्वासों से गुजरते हुए कमल स्वरूप का कैमरा बार-बार दूर या कहें ऊपर-ऊपर से बहुत मनोहर नजर आने वाले पुष्कर को भी कैद करता है. ड्रोन कैमरे का इस्तेमाल इस काम में और मदद पहुंचाता है.
वह फिनलैंड-जर्मनी से आई अकी करिस्मकी की फिल्म ‘द अदर साइड ऑफ होप’ (2017) और जापान से आई नाओमी कवासे की फिल्म ‘रेडिअंस’ (2017) में भी साथ रहा. ‘द अदर साइड ऑफ होप’ खालिद नाम के एक सीरियाई शरणार्थी के सफर को कहीं बहुत तकलीफ, तो कहीं बहुत व्यंग्य से कहती हुई नजर आती है और ‘रेडिअंस’ नेत्रहीनों के लिए फिल्म-लेखन करने वाली एक लड़की मिसाको की कहानी है जो अपनी पूर्णता में कविता, संगीत, दर्शन, फोटोग्राफी और पेंटिंग की ऊंचाइयों को सिनेमा के परदे पर छूती है.
वह चुप था और मैं प्रसन्न कि 82 देशों की 195 फिल्मों में मेरी चुनी हुई फिल्में, उसकी चुनी हुई भी थीं.
22 नवंबर 2017
इस रोज की शुरुआत पोलिश फिल्म ‘अमोक’ (2017) से और समाप्ति जर्मन फिल्म ‘फ्रीडम’ (2017) से हुई. बीच में ईरान से आई ‘डिसअपियरेंस’ (2017) और वियतनाम से आई ‘फादर एंड सन’ (2017) भी देखीं.
मैंने पाया कि खराब फिल्में उसे मुखर कर देती हैं, और बेहतर फिल्में मौन. वे फिल्में जो न खराब होती हैं, न बेहतर... उन पर वह दार्शनिक हो जाता है. उसने कहा कि आगे से वह स्क्रीनिंग शेड्यूल में ईरानियन फिल्मों की जगह फिनलैंड-फिलीपींस, और जर्मन-फ्रांसीसी फिल्मों की जगह ब्राजील-टर्की-ताईवान-कोरिया की फिल्मों को तरजीह देगा.
‘कंट्री फोकस’ में शामिल कनाडा की आठ फिल्मों, कैनेडियन फिल्म निर्देशक एटम इगोएन को लाइफटाइम अचीवमेंट सम्मान मिलने के उपलक्ष्य में उनकी तीन फिल्मों, जेम्स बॉन्ड फिल्म्स के पचास वर्ष पूरे होने के मौके पर इस सीरीज की नौ फिल्मों सहित यूके और यूएसए की एक भी फिल्म उसकी सूची में नहीं थी. उसने कहा मुझे अब उन सब फिल्मों से परहेज है जिनकी मूल भाषा अंग्रेजी या हिंदी है.
23 नवंबर 2017
फिनलैंड की फिल्म ‘यूथेनाइजर’ (2017) देखने के बाद उसने कहा कि यह आपको बदलती है, इसलिए इसे रचना कह सकते हैं. यह फिल्म पशुओं के अधिकारों के बहाने मनुष्यों के मूल कर्तव्यों और उनके अधिकारों की खोज करती है. भारतीय दर्शकों को यह ‘गीता-दर्शन’ की याद दिला सकती है.
‘यूथेनाइजर’ से ‘छूटते ही’ फ्रांस-सेनेगल की ‘फेलिसिते’ (2017) की पकड़ में आ जाना, मृत्यु के शोक बाद शोक-गीत में डूब जाने सरीखा है और इसके ठीक बाद नीदरलैंड की ‘इन ब्लू’ (2017) आपको प्रेम के व्यापक अस्पष्ट में और रूस की ‘लवलेस’ (2017) प्रेम के व्यापक विघटन में ले जाती है. रात के बारह बज चुके होते हैं, जब जॉर्जिया की ‘खिबुला’ (2017) के निर्वासन से बाहर आने की कोशिश धीमे-धीमे नींद में ले चलती है.
24 नवंबर 2017
‘द स्क्वेअर’ कई वजहों से एक चर्चित फिल्म है. मानवीय कर्तव्यों की याद दिलाने वाले एक महानुभाव के ‘अन्य व्यवहार’ को यह फिल्म बहुत प्रतीकात्मक और विसंगत ढंग से दर्ज करती है. मैंने उसके मौन को भेदकर उससे जानना चाहा कि ‘द स्क्वेअर’ उसे कैसी लगी? उसने कहा, ‘‘कला कर्म से मुक्त होकर कूड़ा हो जाती है...’’ इस अधूरे वाक्य को उसने अजरबेजान से आई फिल्म ‘पोमग्रेनेट ऑचर्ड’ (2017) देखने बाद आगे बढ़ाया, ‘‘हमारी महान कला के आगे एक बहुत बड़ी आबादी अंततः इस फिल्म के बच्चे की तरह ही खड़ी है— अनारों से समृद्ध बगीचे में कलर-ब्लाइंडनेस से ग्रस्त.’’
ब्राजीलियाई फिल्म ‘नीस : ‘द हार्ट ऑफ मेडनेस’ (2015) की कथा साल 1944 के आस-पास की है. इस कथा की नायिका नीस एक मनोचिकित्सक है. वह अपने अस्पताल में स्किजोफ्रेनिक्स के लिए बिजली के झटकों वाले हिंसक उपचार के विरुद्ध है. वह मानती है कि पागलों की भी एक भाषा होती है, हमें उसे समझकर उनके उपचार की तरफ बढ़ना चाहिए. अपने समकालीन डॉक्टरों के उपहास से आहत नीस ऑक्यूपेशनल थेरेपी के इलाके में खेल, चित्रकला, कुत्तों और स्नेह के जरिए मनोपचार में नई क्रांति ले आती है. फिल्म के अंत में अभिनीत नीस के स्थान पर वास्तविक नीस का आना और यह कहना बहुत मानीखेज है कि जिंदगी जीने के एक हजार तरीके हैं, फर्क इससे ही पड़ता है कि आप कौन-सा तरीका चुनते हैं.
25 नवंबर 2017
महोत्सव आधा बीत चुका था, जब उसने जर्मनी-फ्रांस-बेल्जियम की ‘द यंग कार्ल मार्क्स’ (2017) और ताईवान की ‘द लास्ट पेंटिंग’ (2017) पर घेरा बनाते हुए कहा, आज दो से ज्यादा फिल्में नहीं देखूंगा.
26 नवंबर 2017
फिलीपींस की फिल्म ‘वुमन ऑफ द वीपिंग रिवर’ (2016) देखकर उसने कहा, ‘‘वे जिंदगियां जो सिनेमाघर के सम्मोहक अंधकार में हमारी आंखों के सामने परदे पर घूमती रहती हैं, उनके आस-पास अपार जल, अपार रेत, अपार उजाड़, अपार हरियाली, अपार प्यार, अपार उदासी, अपार दर्शन, अपार हिंसा है. संसार के अलग-अलग कोनों और भाषाओं से आई हुई इस अपारता में अपार आकर्षण है.’’ यह कहकर एक खालीपन में पूरा हंसते हुए उसने समुद्र-दर्शन की इच्छा व्यक्त की. बाद इसके कोई फिल्म देखना फिजूल था. हम समुद्र देखकर रात 10.45 पर INOX के अंधकार में लौटे— नरगिस अब्यार की ईरानियन फिल्म ‘नफ़स’ (2017) देखने के लिए.
27 नवंबर 2017
टर्की से आई ‘जेर’ (2017) देखने के बाद उसने कहा कि खोजने में उत्साह है और हर खोज में यातना, वियोग और मृत्यु शामिल है.
28 नवंबर 2017
इस महोत्सव की क्लोजिंग फिल्म ‘थिंकिंग ऑफ हिम’ के बाद हम इस सफर के आखिरी भोज्य के लिए गए और हमने प्रेम पर बात की.
‘थिंकिंग ऑफ हिम’ पाब्लो सीजर निर्देशित अर्जेंटीनियन फिल्म है. इसमें दो कहानियां एक साथ मिलती-चलती हैं. भूगोल के अध्यापक फेलिक्स को अपने तकलीफदेह वर्तमान से मुक्ति नहीं है. उसे एक रोज रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं की एक किताब मिलती है. कहानी यों आगे बढ़ती है कि श्वेत-श्याम हो गई स्क्रीन पर रवींद्रनाथ अर्जेंटीना आते हैं और लेखिका विक्टोरिया ओकंपो के मेहमान बनते हैं, और रंगीन स्क्रीन पर फेलिक्स शांतिनिकेतन आता है और कमली का मेहमान बनता है. प्रेम यहां पूर्ण नहीं है, लेकिन वह अपने प्रभाव में समग्र मानवता के लिए कल्याणकारी होने का स्वप्न संजोए है.
विदा होते हुए उसने कहा कि तुमने जो पिछली बार लिखा था, उसे मैंने पढ़ा था. मैंने सोचा था कि तुम मिलोगे तो इस पर तुमसे बात करूंगा. लेकिन तुम बराबर ‘नहीं मिलते’ रहे. दरअसल, मैं तुमसे कहना यह चाहता हूं कि तुम्हें और बेहतर गद्य के लिए कहानियों, तथ्यों, सूचनाओं और ‘रोचक जानकारियों’ से बचना चाहिए. तथ्य सौ जगह एक-से ही हैं, उन्हें आसानी से पाया जा सकता है.
तुम्हें अपने नजदीकी ‘काव्य-संसार’ से भी बचना चाहिए. तुम्हारी कोशिश केवल यह होनी चाहिए कि जो तुम कर रहे हो, उसे सबसे पहले वैसा बनाओ, जैसा वह है. वह अलग तब ही नजर आएगा, जब तुम उसे उन बातों से भर पाओगे जिन्हें अब तक इस प्रसंग में नहीं कहा गया है. सिनेमा इसलिए ही इस समय की केंद्रीय विधा है, क्योंकि सिनेमा वह दे रहा है जो दूसरे कला-माध्यम नहीं दे पाते, और इसलिए ही मैं यह कह रहा हूं कि दूसरे कला-माध्यमों को वह देने का यत्न करना चाहिए जो सिनेमा नहीं दे पाता है.
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