इस बौद्धिक बियाबान में
देवी प्रसाद मिश्र
अपनी कविता को मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह लड़ने भिड़ने वाले आदमी की बेचैनी है. मैं कह सकता हूँ कि मैं कोई शाश्वततावादी लेखक नहीं हूं. प्रतीकवादी भी नहीं. बिंबवादी वगैरह भी नहीं. मतलब कि यह सब तो कविता में कहीं न कहीं होता ही है. मैं सत्ता से चिढ़ने वाला, उसके घपलों से विचलित होने वाला, सामाजिक हेरा फेरी से विकल होने वाला, खुद और खुदी से परेशान, खस्ताहाल, हवास खो बैठने वाला, विपक्ष की सबसे आखिरी बेंच पर हूट करने के लिये बैठा आदमी हूं. मैं विरोध में रहने का आदी हूं. अभिव्यक्ति पर पहरेदारी हो तो मुझ जैसे लेखक का संकट बढ़ जाता है. पता नहीं किस तरह की बात कहने पर आपको जेल में डाल दिया जाय, झूठे केस या मुकद्दमे में फंसा दिया जाय, आपको बदनाम किया जाय, जिस हाउसिंग सोसायटी में आप रहते हैं हो सकता है वे ही एक भीड़ बन जाएं कि आप भारतीय संस्कृति के विरुद्ध हैं. यह संशय मेरे भीतर हमेशा से रहा है लेकिन हाल के दिनों में वह बढ़ा है. मोदी जब बनारस चुनाव लड़ने गये थे तभी से यह खबर आने लगी थी कि भाजपा विरोधियों की कसकर तोड़ाई की जा रही है. बाद में यह काम छात्र संगठनों, गौरक्षकों, राष्ट्रभक्तों ने उठा लिया. इस भीड़गत लंपट अराजकता के पीछे सुचिंतित राजनीतिक सत्तात्मक प्रबंधन है - अब लोगों को बरगलाया नहीं जा सकता कि ये आदेश कहां से आ रहे हैं.
अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मैं डरा नहीं हूं. मैं क्षुब्ध हूं. मैं स्तंभित हूं और ठगा महसूस कर रहा हूं कि हिंदू - जो मैं भी हूं - के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना का कौन-सा खेल खेला जा रहा है. यह कौन सी खोखली सारहीन वस्तुविहीन ज़बान बोली जा रही है. यह शंकर, गांधी और राधाकृष्णन का हिंदूवाद तो कतई नहीं है. इसकी अंतर्वस्तु असहिष्णुता क्यों है? इस आक्रामकता का उपयोग जाति हटाने के बड़े सामाजिक आंदोलन लिये क्यों नहीं किया जा रहा? क्यों दहेज के विरुद्ध एक अभियान हिंदू फोल्ड में नहीं दिख रहा? क्यों हिंदू स्त्री को संपत्ति पर पुत्र वाले अधिकार नहीं हैं? पर्दा और बाल विवाह को लेकर हिंदूवादी संगठन क्यों कुछ नहीं करते दिख रहे? क्यों हिंदू की मुस्लिम-विरोधी लंपटीय एकता के छद्म पर इतना ज़ोर है? क्यों लोकतंत्र के बरक्स एक संविधानेतर भीड़तंत्र का सतत निर्माण हो रहा है? भयावह यह है कि बहुत फालतू किस्म की अंतर्वस्तु वाली फिल्म पद्मावती पर बहस इस बात के लिये नहीं की जा रही कि उसमें सती जैसी स्त्री-विरोधी प्रथा का महिमामंडन है. यह अक्षर विरोधी, समानता विरोधी, स्वतंत्रता विरोधी, इतिहास विरोधी दुष्काल है. यह अभिव्यक्ति विरोधी काला काल है.
हम अंधेरे में हैं. इस अंधेरे में पता नहीं कितने मर्दवादी मुच्छड़, गोलीबाज़, ड्रामेबाज़, हत्यारे, दलाल, मनी लांडरर, पंडे, गुंडे, लंपट, गुरु, बाबा, पंथी अखाड़िये, तस्कर, सनातनी, कर्मकांडी, सामंत, फासिस्ट, बुद्धिविरोधी, बिचौलिये, महंत, ठाकुरवादी-ब्राह्मणवादी-वैश्यवादी, पुजारी, दंगाई जिनको विज्ञान और विमर्श के प्रवाह ने निरर्थ, अप्रासंगिक, अनुपयुक्त, और समयविरोधी बना दिया था हमारे नीतिनिर्माता, राज्यनिर्माता और चेतनानिर्माता बनते जा रहे हैं. अकारण नहीं कि बौद्धिक जिनके पास विश्लेषण के प्रामाणिक उपकरण रहे हैं इस तंत्र के निशाने पर हैं. इस हिंदुत्व की पूरी कोशिश यह है कि किस तरह से बौद्धिकों को संस्कृति विरोधी, अवैध और समाजविरोधी सिद्ध किया जा सके.
इस बात को समझने के लिये बहुत ज्ञान की ज़रूरत नहीं है कि यह हिंदू पुनरुत्थानवाद का राजनीतिक चेहरा है जो वाम की अकर्मक निरीहता और निकम्मेपन, कांग्रेस के नैतिक और राजनीतिक पतन, आप आंदोलन के बिखराव और उसके बाद आम आदमी पार्टी के एकाधिकारवादी, केजरीवाल-केंद्रित, औसतपनप्रेमी, आत्महंता राजनीति के विवर से पैदा हुआ जिसमें दिग्भ्रमित, भटके और बदहवास मुसलमानों का प्रतिशोधी आतंकवाद भी एक कारक बन गया.
इस बात पर ध्यान जाना चाहिये कि यह न तो हिंदू पुनर्जागरण है और न नवजागरण. यह हिंदू महासभा का एक प्रतिगामी राजनीतिक कार्यभार जैसा है. इसके पास सुधार आंदोलन की वह मेधा नहीं जो राम मोहन राय और विद्यासागर में थी और जिसने हिंदू नवजागरण को अंतर्वस्तु और रूप दिया था. हिंदुत्व के उभार के इस आक्रामक दौर में कोई नहीं पूछ रहा कि हिंदू स्कीम में शूद्र क्यों है. इसको लेकर न तो कोई बृहत् हिंदू शर्म है और न ही पश्चाताप - न तो दलित विमर्श है और न समानता के लिये कोई बड़ा आग्रह. यह हिंदू उत्थानवाद अपारथाइड से लड़ने को किसी भी तरह से तैयार नहीं है. साफ है कि यह हिंदुत्व यथास्थितिवादी और बदलावरोधी है और पुरोहित तंत्र को मज़बूत करता है. यहां सवर्णों का आत्मसंघर्ष नहीं है. इसीलिये यह एक सामाजिक विवेक से रहित छूंछा घृणा आंदोलन है जिसका निशाना बौद्धिक और दलित और आधुनिकता हैं - यह मुस्लिम विरोधी फाशीवाद है जो ज्ञान विरोध में पर्यवसित हो उठता है. इसीलिये इस प्रतिगामी पर्यावरण में तर्क सम्मत समाज चाहने वाले विचारकों और चिंतकों की हत्या की जाने लगी. बात बेबात लोगों पर राष्ट्रद्रोह के मुकद्दमे कायम किये जाने लगे. विमर्श सैन्यवादी हो उठा. गौरी लंकेश जैसी स्त्री जो आज़ाद और लड़ाकू स्त्री का बड़ा रूपक थी कायरता की मिसाल पेश करने वाली क्लीबता के साथ मारी गयी. बेटी बचाने का छद्म बेपर्दा हो गया. यह स्त्रीविरोध का बड़ा बिंब था. हिंदुत्व के वायरस से ग्रस्त युवक विद्याकेंद्रों में स्नायविक ताकत दिखाने लगे और सड़कों पर राष्ट्र रक्षक और धर्म रक्षक घूमने लगे.
कह लीजिये कि हिंदुत्व किसी तरह के साभ्यतिक उत्कर्ष के साथ नहीं प्रस्तुत हो रहा है. इसीलिये इस राजनीति के केंद्र में अपनी आवाज़ और रुहानियत के लिये भटकती भूखी प्यासी बदहवास हिंदुस्तानी स्त्री नहीं, गाय है. मेरे खयाल से भाजपा के कथित सांस्कृतिक आंदोलन की यह सबसे बड़ी चूक है जो हिंदू अभियान का बड़ा दार्शनिक - और राजनीतिक भी - नुकसान करने वाली है. इस नव्य गोचारण तंत्र में ऋग्वैदिक पशुचारणी सभ्यता का आरण्यक भोलापन नहीं है - यह 21वीं सदी के हिंसक भीड़ का हड़बोंगपन है जो अराजकता, अंधता और उद्वेजकता के साथ आ रहा है. परंपरा के नाम पर एक मासूम चौपाये को सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में लाना विवेक विरोध का अन्यतम रूपक है. यह गोशाला और पाठशाला के बीच फंसे एक पोंगापंथी, भयग्रस्त, प्रश्नहीन, विमर्शविहीन समाज बनाने की प्रस्तावना है. नव्य हिंदुत्व इंटलेक्चुअल रिवर्सल है. बोलने पर मुमानियत का ही नहीं विवेक सम्मत बात को न सुने जाने का भी पर्यावरण बना है. विवेकवाद से उपजा विचार वैभिन्य अब अपराध है - कोशिश है सांस्कृतिक सर्वानुमतिवाद और एकरूपीकरण की.
लेकिन सत्ता यह भी समझ ले कि लेखक अपनी मूल निर्मिति में प्रतिष्ठान विरोधी होता है. सत्ता का सतत विपक्ष. वह लोकतंत्र की चौकीदारी करता है और नागरिकता के बुनियादी अधिकारों की पहरेदारी. वह बड़ी मनुष्यता का पुनर्स्मरण कराता रहता है. वह राजनीति और पूंजी की दुरभिसंधियों को बेपर्दा करता है, सामंत की मूंछ खींचता है और सत्ता के सांड़ को बस में करने के नुस्खे तजवीज करता रहता है. वह कबीर और धूमिल होता है. वह पाश और ब्रेष्ट होता है. वह मुक्तिबोध होता है. इनमें से हर एक को किसी न किसी समय अपने समय की सत्ताओं को झेलना पड़ा था. लेकिन ये लोग अपनी अंतर्वस्तु को बिना किसी समझौते के प्रकट करते रहे. रचनाकार के तौर पर मैं भी अपने को इसी तरह की भूमिका में देखता रहा हूं. मुझे एक वैकल्पिक भारतीय मनुष्य चाहिये जिसे आंदोलनों से निकली वैकल्पिक राजनीति ही मुहैया करा सकती है. इसलिये भी मैं अपनी असहमति और अभिव्यक्ति स्थगित नहीं कर सकता - अपने यूटोपियाई स्वप्न के साथ किसी भी समकालीन क्रूरता के यथार्थ से भिड़ने के लिये मैं अभिशप्त हूं. बतौर कवि और नागरिक.
[यह आलेख तो रविवार को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है. लेकिन इसे यहां रखते समय लेखकों की प्रतिबद्धता पर ध्यान जाता है. फिर यह बात दिमाग में आती है कि लेखकों - ख़ासकर हिन्दी के - की प्रतिबद्धता एक लम्बे समय से चुकी हुई रही है. बात तो ठीक है कि विरोध ही करते रहेंगे तो लिखेंगे कब? लेकिन हिन्दी के स्फीयर में इसे एक बहाने की तरह लिया गया. ज़ाहिर है कि इसीलिए हिन्दी के अधिकांश लेखक प्रतिरोध और समर्थन के वक़्त किसी लेखक को ही केंद्र में रखकर खड़े होते हैं. इस समय हिन्दू समाज के सामने समस्या तो यह आ गयी है कि मूर्खों और प्रतिक्रियावादियों द्वारा लीड किए जाने के बावजूद वे इस ख़तरे को समझ नहीं पा रहे हैं. और इस ख़तरे को भांपते हुए भी लेखक ख़ुद को एक नागरिक समझ पाने में किंचित अक्षम दिखाई दे रहा है. ऐसे में देवी प्रसाद मिश्र का यह आलेख ज़रूरी हो जाता है, जिसमें उन्हें वैकल्पिक राजनीति और वैकल्पिक मनुष्य दरकार हैं. बुद्धू-बक्सा देवी प्रसाद मिश्र का आभारी. ]
अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मैं डरा नहीं हूं. मैं क्षुब्ध हूं. मैं स्तंभित हूं और ठगा महसूस कर रहा हूं कि हिंदू - जो मैं भी हूं - के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना का कौन-सा खेल खेला जा रहा है. यह कौन सी खोखली सारहीन वस्तुविहीन ज़बान बोली जा रही है. यह शंकर, गांधी और राधाकृष्णन का हिंदूवाद तो कतई नहीं है. इसकी अंतर्वस्तु असहिष्णुता क्यों है? इस आक्रामकता का उपयोग जाति हटाने के बड़े सामाजिक आंदोलन लिये क्यों नहीं किया जा रहा? क्यों दहेज के विरुद्ध एक अभियान हिंदू फोल्ड में नहीं दिख रहा? क्यों हिंदू स्त्री को संपत्ति पर पुत्र वाले अधिकार नहीं हैं? पर्दा और बाल विवाह को लेकर हिंदूवादी संगठन क्यों कुछ नहीं करते दिख रहे? क्यों हिंदू की मुस्लिम-विरोधी लंपटीय एकता के छद्म पर इतना ज़ोर है? क्यों लोकतंत्र के बरक्स एक संविधानेतर भीड़तंत्र का सतत निर्माण हो रहा है? भयावह यह है कि बहुत फालतू किस्म की अंतर्वस्तु वाली फिल्म पद्मावती पर बहस इस बात के लिये नहीं की जा रही कि उसमें सती जैसी स्त्री-विरोधी प्रथा का महिमामंडन है. यह अक्षर विरोधी, समानता विरोधी, स्वतंत्रता विरोधी, इतिहास विरोधी दुष्काल है. यह अभिव्यक्ति विरोधी काला काल है.
हम अंधेरे में हैं. इस अंधेरे में पता नहीं कितने मर्दवादी मुच्छड़, गोलीबाज़, ड्रामेबाज़, हत्यारे, दलाल, मनी लांडरर, पंडे, गुंडे, लंपट, गुरु, बाबा, पंथी अखाड़िये, तस्कर, सनातनी, कर्मकांडी, सामंत, फासिस्ट, बुद्धिविरोधी, बिचौलिये, महंत, ठाकुरवादी-ब्राह्मणवादी-वैश्यवादी, पुजारी, दंगाई जिनको विज्ञान और विमर्श के प्रवाह ने निरर्थ, अप्रासंगिक, अनुपयुक्त, और समयविरोधी बना दिया था हमारे नीतिनिर्माता, राज्यनिर्माता और चेतनानिर्माता बनते जा रहे हैं. अकारण नहीं कि बौद्धिक जिनके पास विश्लेषण के प्रामाणिक उपकरण रहे हैं इस तंत्र के निशाने पर हैं. इस हिंदुत्व की पूरी कोशिश यह है कि किस तरह से बौद्धिकों को संस्कृति विरोधी, अवैध और समाजविरोधी सिद्ध किया जा सके.
इस बात को समझने के लिये बहुत ज्ञान की ज़रूरत नहीं है कि यह हिंदू पुनरुत्थानवाद का राजनीतिक चेहरा है जो वाम की अकर्मक निरीहता और निकम्मेपन, कांग्रेस के नैतिक और राजनीतिक पतन, आप आंदोलन के बिखराव और उसके बाद आम आदमी पार्टी के एकाधिकारवादी, केजरीवाल-केंद्रित, औसतपनप्रेमी, आत्महंता राजनीति के विवर से पैदा हुआ जिसमें दिग्भ्रमित, भटके और बदहवास मुसलमानों का प्रतिशोधी आतंकवाद भी एक कारक बन गया.
इस बात पर ध्यान जाना चाहिये कि यह न तो हिंदू पुनर्जागरण है और न नवजागरण. यह हिंदू महासभा का एक प्रतिगामी राजनीतिक कार्यभार जैसा है. इसके पास सुधार आंदोलन की वह मेधा नहीं जो राम मोहन राय और विद्यासागर में थी और जिसने हिंदू नवजागरण को अंतर्वस्तु और रूप दिया था. हिंदुत्व के उभार के इस आक्रामक दौर में कोई नहीं पूछ रहा कि हिंदू स्कीम में शूद्र क्यों है. इसको लेकर न तो कोई बृहत् हिंदू शर्म है और न ही पश्चाताप - न तो दलित विमर्श है और न समानता के लिये कोई बड़ा आग्रह. यह हिंदू उत्थानवाद अपारथाइड से लड़ने को किसी भी तरह से तैयार नहीं है. साफ है कि यह हिंदुत्व यथास्थितिवादी और बदलावरोधी है और पुरोहित तंत्र को मज़बूत करता है. यहां सवर्णों का आत्मसंघर्ष नहीं है. इसीलिये यह एक सामाजिक विवेक से रहित छूंछा घृणा आंदोलन है जिसका निशाना बौद्धिक और दलित और आधुनिकता हैं - यह मुस्लिम विरोधी फाशीवाद है जो ज्ञान विरोध में पर्यवसित हो उठता है. इसीलिये इस प्रतिगामी पर्यावरण में तर्क सम्मत समाज चाहने वाले विचारकों और चिंतकों की हत्या की जाने लगी. बात बेबात लोगों पर राष्ट्रद्रोह के मुकद्दमे कायम किये जाने लगे. विमर्श सैन्यवादी हो उठा. गौरी लंकेश जैसी स्त्री जो आज़ाद और लड़ाकू स्त्री का बड़ा रूपक थी कायरता की मिसाल पेश करने वाली क्लीबता के साथ मारी गयी. बेटी बचाने का छद्म बेपर्दा हो गया. यह स्त्रीविरोध का बड़ा बिंब था. हिंदुत्व के वायरस से ग्रस्त युवक विद्याकेंद्रों में स्नायविक ताकत दिखाने लगे और सड़कों पर राष्ट्र रक्षक और धर्म रक्षक घूमने लगे.
कह लीजिये कि हिंदुत्व किसी तरह के साभ्यतिक उत्कर्ष के साथ नहीं प्रस्तुत हो रहा है. इसीलिये इस राजनीति के केंद्र में अपनी आवाज़ और रुहानियत के लिये भटकती भूखी प्यासी बदहवास हिंदुस्तानी स्त्री नहीं, गाय है. मेरे खयाल से भाजपा के कथित सांस्कृतिक आंदोलन की यह सबसे बड़ी चूक है जो हिंदू अभियान का बड़ा दार्शनिक - और राजनीतिक भी - नुकसान करने वाली है. इस नव्य गोचारण तंत्र में ऋग्वैदिक पशुचारणी सभ्यता का आरण्यक भोलापन नहीं है - यह 21वीं सदी के हिंसक भीड़ का हड़बोंगपन है जो अराजकता, अंधता और उद्वेजकता के साथ आ रहा है. परंपरा के नाम पर एक मासूम चौपाये को सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में लाना विवेक विरोध का अन्यतम रूपक है. यह गोशाला और पाठशाला के बीच फंसे एक पोंगापंथी, भयग्रस्त, प्रश्नहीन, विमर्शविहीन समाज बनाने की प्रस्तावना है. नव्य हिंदुत्व इंटलेक्चुअल रिवर्सल है. बोलने पर मुमानियत का ही नहीं विवेक सम्मत बात को न सुने जाने का भी पर्यावरण बना है. विवेकवाद से उपजा विचार वैभिन्य अब अपराध है - कोशिश है सांस्कृतिक सर्वानुमतिवाद और एकरूपीकरण की.
लेकिन सत्ता यह भी समझ ले कि लेखक अपनी मूल निर्मिति में प्रतिष्ठान विरोधी होता है. सत्ता का सतत विपक्ष. वह लोकतंत्र की चौकीदारी करता है और नागरिकता के बुनियादी अधिकारों की पहरेदारी. वह बड़ी मनुष्यता का पुनर्स्मरण कराता रहता है. वह राजनीति और पूंजी की दुरभिसंधियों को बेपर्दा करता है, सामंत की मूंछ खींचता है और सत्ता के सांड़ को बस में करने के नुस्खे तजवीज करता रहता है. वह कबीर और धूमिल होता है. वह पाश और ब्रेष्ट होता है. वह मुक्तिबोध होता है. इनमें से हर एक को किसी न किसी समय अपने समय की सत्ताओं को झेलना पड़ा था. लेकिन ये लोग अपनी अंतर्वस्तु को बिना किसी समझौते के प्रकट करते रहे. रचनाकार के तौर पर मैं भी अपने को इसी तरह की भूमिका में देखता रहा हूं. मुझे एक वैकल्पिक भारतीय मनुष्य चाहिये जिसे आंदोलनों से निकली वैकल्पिक राजनीति ही मुहैया करा सकती है. इसलिये भी मैं अपनी असहमति और अभिव्यक्ति स्थगित नहीं कर सकता - अपने यूटोपियाई स्वप्न के साथ किसी भी समकालीन क्रूरता के यथार्थ से भिड़ने के लिये मैं अभिशप्त हूं. बतौर कवि और नागरिक.
[यह आलेख तो रविवार को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है. लेकिन इसे यहां रखते समय लेखकों की प्रतिबद्धता पर ध्यान जाता है. फिर यह बात दिमाग में आती है कि लेखकों - ख़ासकर हिन्दी के - की प्रतिबद्धता एक लम्बे समय से चुकी हुई रही है. बात तो ठीक है कि विरोध ही करते रहेंगे तो लिखेंगे कब? लेकिन हिन्दी के स्फीयर में इसे एक बहाने की तरह लिया गया. ज़ाहिर है कि इसीलिए हिन्दी के अधिकांश लेखक प्रतिरोध और समर्थन के वक़्त किसी लेखक को ही केंद्र में रखकर खड़े होते हैं. इस समय हिन्दू समाज के सामने समस्या तो यह आ गयी है कि मूर्खों और प्रतिक्रियावादियों द्वारा लीड किए जाने के बावजूद वे इस ख़तरे को समझ नहीं पा रहे हैं. और इस ख़तरे को भांपते हुए भी लेखक ख़ुद को एक नागरिक समझ पाने में किंचित अक्षम दिखाई दे रहा है. ऐसे में देवी प्रसाद मिश्र का यह आलेख ज़रूरी हो जाता है, जिसमें उन्हें वैकल्पिक राजनीति और वैकल्पिक मनुष्य दरकार हैं. बुद्धू-बक्सा देवी प्रसाद मिश्र का आभारी. ]
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें