(प्रभात की कविताएँ बुद्धू-बक्सा पर पहले भी प्रकाशित हुई हैं. उनका लिंक रहा ये. प्रभात के पास कितनी ज़्यादा विविधता है यह सोचकर ही आश्चर्य से पाठक भर जाता है. बजाय इसके यह कहना ज़्यादा सही होगा कि प्रभात का कैनन एक बड़ा माध्यम है. एक तरफ़ प्रभात हमें नदी की औरत, चाँद के मन और पानी की इच्छाओं से परिचित कराते हैं तो ठीक उलटे वे प्रेम के यथार्थ को भी सामने रख देते हैं. बहरहाल, कविताएँ सामने हैं. बुद्धू-बक्सा प्रभात का शुक्रगुज़ार.)
नदी
सुना तू सूख गई है
साँवली काली पड़ गई है तेरी काया
संसार की सबसे उदास नींद सो गई है तू
चाँद के झरने के नीचे
चाँद के लिए
चाँद की ओर उठे हुए सारे पेड़
चाँद के लिए इच्छाएँ हैं धरती की
पानी की इच्छाएँ
घने घने वृक्षों में नहीं बदलेगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
फलों सी नहीं फलेगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
जीभ पर नहीं चुअेगी रस सी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
धमनियों शिराओं में संचरित नहीं होगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएँ
लिलि
पैदल चलने की थकान से चूर है बदन
पाँवों में गाँठे पड़ गए हैं
पसीने से लथपथ षरीर
धीरे-धीरे सूख रहा है
चमड़ी पर सफेद नमक के धब्बे ऐसे लग रहे हैं
जैसे यह काया झील रही हो नमक की
यही सब सोचते-बिचारते लेटा हूँ यहाँ
जगह मिल गई है सोने की
और नींद भी आ गई लेटते ही
कि तुम्हारे आने की आहट पा
मुँदी हुई भारी आँखें आखिर खुल गईं
देखा यह तुम नहीं
तुम्हारी याद की आहट थी
तुम्हारी याद की आहट से खुल गई थीं जो आँखें
मुँद रही हैं फिर से
मैं बहुत थका हूँ
मुझे बहुत चलना है
तुमसे बहुत दूर जाना है
मुझे सोने देना दो घड़ी
याद की आहट से
मत जगाना लिलि
क्योंकि वे दिन
क्योंकि वे दिन प्रेम के थे
ग्रीष्म भी वसंत सा सुहावना लगता था
वह साधारण लड़की
पृथ्वी पर उस लड़के के प्रेम के लिए ही
जन्मी हो ऐसी लगती थी
वह साधारण लड़का
पृथ्वी पर उस लड़की के प्रेम के लिए ही
जन्मा हो ऐसा लगता था
क्योंकि वे रातें उनके प्रेम की रातें थी
किसी को उनके किस्से गढ़े बिना
और उनके प्रेम को लेकर गढ़े हुए किस्सों को सुनाए बिना
नींद ही नहीं आती थी
क्योंकि वे दिन प्रेम के थे
दुर्गम रास्ते भी सुगम हो गए थे
अपमान, तिरस्कार, घृणा जैसी जानलेवा बातों के जवाब
प्रेम अपने आप ढूँढता था और दे देता था
उन दोनों को कुछ भी नहीं करना पड़ता था इस बावत
उन्हें तो बस करना था प्रेम
जो कि वे कर ही रहे थे
जिसके बिना वे रह ही नहीं सकते थे एक पल भी
क्योंकि वे प्रेम के दिन थे
वे ही वे दिखते थे सब ओर
बारिश में जैसे बौछारें ही बौछारें दिखती है सब ओर
पानी ही पानी हरियाली ही हरियाली सरगम ही सरगम हवाओं में
सुंदर से सुंदर को नष्ट होना होता है एक दिन
त्रासद आ ही जाता है गिनते हुए दिन
लड़की है अब भी वही
पर प्रेमवाली लड़की नहीं
लड़का है अब भी वही
पर प्रेम वाला लड़का नहीं
वो प्रेम वाला लड़का
वो प्रेम वाली लड़की
जाने कहाँ बिला गए धरती में
या बह गए जीवन की बाढ़ में
मगर तब नहीं बिलाए वे धरती में
तब नहीं बहे वे जीवन की बाढ़ में
क्योंकि वे दिन प्रेम के थे
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(छाया - सिद्धान्त)
3 टिप्पणियाँ:
प्रभात की कविताओं में जो रागात्मकता का रस है, अनेक विसंगत स्थितियों में कैसे उसका स्वाद बदलता है,यह प्रभात महसूस करा पाते हैं। एक रचनाकार की सफलता यही तो है.मेरी अशेष शुभकामनाएँ.
प्रभात की कविता के होने से हिंदी कविता ठोस और सुन्दर है, क्यूंकि इस कविता को असुंदर से प्रेम करना आता है और सुन्दर से विराग भी. हर बार नये ढंग से जीने की कामना का और उसे विक्षत करने वाली हताशा दोनों का आविष्कार करने वाली कविता.
मेरी एक कविता की पंक्तियाँ हैं ...
"पत्तियों से निर्धन पेड़ों
के हज़ार हाथों
पर टंगा हुआ है
आसमान "
प्रभात भाई को पढ़ कर अपनी खो गई कविता याद आई।
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