['हैदर' एक कथानक के साथ-साथ कई और भी कहानियां कहती है. एक संवेदनशील मुद्दे को अपना केन्द्र बनाने वाली फ़िल्म की सभी दिशाओं से समीक्षा होनी चाहिए. उसे बस फ़िल्म मान लिखकर छोड़ देना और उससे भी बुरा कि कुछ तारों से नवाज़ देना शर्तिया एक घटिया प्रैक्टिस है. इससे बाज़ आना होगा. इसी बीच जब विष्णु खरे फ़िल्मों पर लिखते या बात करते हैं, तो व्यक्तिगत राय से अलग यह तो साफ़ हो ही जाता है कि किसी भी फ़िल्म इतने व्यापक तरीके से बात करने को ही सिनेमा के कल्चर पर बात हुआ माना जाएगा. बाकी सब तो उधड़े हुए धागों के रंग उतारने सरीखा होता है, उसमें कोई जगह नहीं होती कि कोई प्रश्न उपजे. पिछले दिनों हुई बातों-बहसों में यह बात तो सामने आई कि हिन्दी के बहुत बड़े समाज को पता भी नहीं कि विष्णु खरे की सिनेमा पर लेखन की दो क़िताबें हमारे बीच मौजूद हैं. लेकिन अंधी बहस में तथ्य कहां काम आते हैं, को कमोबेश एक 'अलौकिक' 'सचाई' मानते हुए बुद्धू-बक्सा आप सभी के सामने यह लेख प्रस्तुत कर रहा है. नवभारत टाइम्स में इस आलेख का संपादित रूप प्रकाशित. बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे का आभारी.]
शेक्सपिअर और कश्मीर के बीच विशाल-हैदरी ‘टु बी ऑर नॉट टु बी’
शेक्सपिअर और कश्मीर के बीच विशाल-हैदरी ‘टु बी ऑर नॉट टु बी’
सबसे पहले तो यह कि विशाल भारद्वाज की फिल्म में एक सम्मोहन और ताक़त है और वह आज की अधिकांश हिंदी, अनुराग कश्यप की भी, फिल्मों से बेहतर है, लेकिन जब वह खुद कहते हैं और पोस्टरों पर छपवाते हैं कि ‘हैदर’ काफ़ी पुरानी और कठिन अंग्रेज़ी में लिखे गए, विश्व के महानतम नाट्यलेखक शेक्सपिअर के अभी-तक विवादास्पद विश्वविख्यात (एलिज़ाबेथ-प्रथम-अकबरयुगीन) नाटक ‘हैम्लैट’ पर आधारित है, तब भारतीय फिल्म-अध्येता और सामान्य दर्शक क्या करें? भारत में आज मूल ‘हैम्लैट’ को पढ़े और याद रखे हुए दस लाख लोग भी होंगे यह मानना कठिन है.
ऐसा नहीं है कि हिंदी-उर्दू पट्टी ‘हैम्लैट’ से नितांत अपरिचित रही है. वह ‘ख़ूने-नाहक’ नाम से पारसी-उर्दू-थिएटर शैली में ख़ूब खेला गया है. हिंदी में अमृतराय और हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने - दोनों अंग्रेज़ी साहित्य में अच्छे एम.ए., ‘बच्चन’ तो अलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक भी रहे – ‘हैम्लैट’ के अनुवाद किए हैं, जिनमें से बच्चन वाला तो खासा खराब है, उसकी एक सख्त समीक्षा भी हुई थी, लेकिन अमृतराय का निस्बतन बेहतर है और दोनों बाज़ार में हैं. अगर मैं बातिल नहीं हूँ तो ‘बच्चन’ वाला दिल्ली में खेला भी गया था और उसमें तब शायद उनके बेटे, कॉलेज-छात्र अमिताभ बच्चन हैम्लैट बने थे जिनकी अप्रतिम सुन्दरी माँ तेजी ने उनकी नाट्य-मातृ गरट्रूड की भूमिका निबाही थी. यह जानना भी अनिवार्य है कि इन अनुवादों और मंचनों से बहुत पहले मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की बहुमुखी, सुस्थापित सिने-प्रतिभा किशोर साहू, जिनका जन्मशती वर्ष लगने ही वाला है, ‘हैम्लैट’ पर इसी नाम से पहली हिंदी फिल्म बना चुके थे. वह उसके निर्माता-निदेशक तो थे ही, लेखक भी थे और सुपरिचित अभिनेता होने के नाते स्वयं उन्होंने हैम्लैट के किरदार का जिम्मा ले लिया था. लोगों को जानकर हैरत होगी कि उन्होंने फिल्म की ट्रैजिक युवा नायिका ओफ़ेलिआ के रूप में माला सिन्हा को इंडस्ट्री में इंट्रोड्यूस किया था. किशोर साहू की उम्र उस समय अपने युवा नायक से कहीं ज्यादा थी लेकिन चेहरे-मोहरे से वह उस भूमिका के लिए उपयुक्त ज़रूर लगते थे. विडंबना है कि हैम्लैट का किरदार संसार के सबसे लोकप्रिय किन्तु कठिनतम नाट्य-सिने पात्रों में गिना जाता है. अभी भी कोई उसे खेल रहा होगा. किशोर साहू के दुस्साहस को सराहा गया, उनकी ‘हैम्लैट’ की नियति ठीक उनके नायक की तरह बेहद त्रासद रही.
‘हैम्लैट’ कहानी है डेनमार्क के उस युवा राजकुमार की जिसके पिता हैम्लैट वरिष्ठ की मृत्यु पर उसका चाचा क्लॉडिअस राजा बनकर अपनी सगी विधवा भाभी गरट्रूड से विवाह रचा लेता है. पिता हैम्लैट का प्रेत आकर पुत्र हैमलेट को बताता है कि क्लॉडिअस ने उसकी हत्या की है जिसका बदला उसे लेना ही है. राजमहल में एक नाटक के मंचन के ज़रिये हैम्लैट पर साबित हो जाता है कि उसका चाचा वाक़ई खूनी है. वह इसे अपनी माँ को भी बता देता है. वह राजा के मंत्री पोलोनिअस की बेटी ओफ़ेलिया से प्रेम करता है लेकिन राजा के धोखे में पोलोनिअस को मार डालता है और इस सदमे के बाद ओफ़ेलिया पागल होकर नदी में डूब जाती है. राजा समझ जाता है कि हैम्लैट पागल होने का अभिनय कर रहा है. ओफ़ेलिया का भाई लेअर्टीज़ हैम्लैट को द्वंद्व युद्ध की चुनौती देता है लेकिन ज़हर-बुझी तलवार से. कोई जोखिम न उठाने के लिए क्लॉडिअस भी हैम्लैट के लिए विषैली शराब तैयार रखता है लेकिन धोखे से गरट्रूड ही उसे पीकर मर जाती है. लेअरटीज़ और हैम्लैट उसी ज़हरीली तलवार से मरणान्तक रूप से घायल हो जाते हैं लेकिन मरणासन्न लेअरटीज़ हैम्लैट को राजा के षड्यंत्र से आगाह कर देता है और मरने से पहले हैम्लैट अपने सौतेले पिता राजा को मौत के घाट उतार देता है.
‘हैम्लैट’ के साथ सैकड़ों अच्छे-बुरे, संजीदा-मज़ाहिया, बहुविध प्रयोग हुए हैं और होते रहेंगे. उनके विवादास्पद मूल्यांकन भी ख़त्म नहीं हुए है. ‘हैम्लैट’ का सबसे संगीन, विस्फोटक और ‘कुख्यात’ जायज़ा बीसवीं सदी में शायद शेक्सपिअर से कुछ ही कम समादृत विश्व-साहित्य-प्रतिभा, नोबेल पुरस्कार विजेता टी.एस.एलिअट ने लिया था जब उन्होंने अपने नामस्रोतीय निबंध में कहा था कि ‘(Hamlet) is most certainly an artistic failure.’ {“(हैम्लैट) नितांत निश्चित रूप से एक कलात्मक विफलता है”}. ऐसा उन्होंने ‘Objective Correlative’ (‘विषयनिष्ठ सह-सम्बन्ध’) का अपना विश्वविख्यात आलोचना-सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए घोषित किया था जो उनकी इस मान्यता से उपजा था कि हैम्लैट नाटक की कहानी और सम्बद्ध चरित्र हैम्लैट पात्र की भावनाओं को कोई औचित्य या सहारा नहीं देते. चाचा से विवाह करने का अपराध करने वाली अपनी विधवा माँ को लेकर हैम्लैट की भावनाएँ बहुत अतिरंजित हैं. माँ और चाचा से बदला लेने में हैम्लैट इतनी देर क्यों करता है यह भी समझ में नहीं आता.
‘हैम्लैट’ की जो बीसियों सूक्तियाँ लाखों लोगों की ज़ुबान पर हैं उनमें से एक ‘Something is rotten in the state of Denmark’ (‘डेनमार्क राज में कुछ सड़ा हुआ है’) भी है, जो कोई राजनीतिक बयान नहीं है. शेक्सपिअर के कई नाटकों में प्रकट-प्रच्छन्न राजनीति है लेकिन ‘हैम्लैट’ सिर्फ़ प्रतिशोध-गाथा है. विशाल भारद्वाज ने ‘हैदर’ को 1995 के भारतीय जम्मू-कश्मीर में स्थापित किया है, जिससे साफ़ है कि वह मूल ‘हैम्लैट’ की सामंतवादी दुनिया को नकारते हुए उसके अपने रूपांतर को एक राजनीतिक फिल्म भी बनाना चाहते थे. उतना ही मानीखेज़ यह है कि ‘हैदर’ अपनी कहानी के लिए कश्मीरी मध्यवर्गीय ‘मुख्यधारा’ मुस्लिम परिवारों को चुनती है. सभी जानते हैं कि कश्मीर में एक उग्र, लगभग दहशतपरस्त, अलगाववादी आन्दोलन बरसों से चल रहा है जिसकी सही-ग़लत माँग भारत से ‘आज़ाद’ होने की है, स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर राष्ट्र के रूप में या/यानी पाकिस्तान में विलीन हो जाने के लिए. इसमें पकिस्तान की केन्द्रीय भूमिका तो है ही, यह वैश्विक दिग्भ्रमित जिहादी आतंकवाद के एजेंडा पर भी आ चुकी है. सभी शामिल पक्षों द्वारा आपस में काफ़ी नाइंसाफ़ी, हिंसा, साज़िशें, दरिन्दगियाँ और इल्ज़ामबाज़ियाँ की जा रही हैं. भारत के लिए कश्मीर को आज़ादी देना नामुमकिन है क्योंकि उसके व्यापक परिणाम दक्षिण एशिया, इस्लामी कौम और दुनिया तथा शेष सारे संसार के लिए विनाशकारी सिद्ध होंगे.
कोई भी भारतीय निदेशक चाहे तो भी ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं कर सकता जो खुल्लमखुल्ला कश्मीर को भारत से अलग करने की माँग करे. सवाल सिर्फ़ सेंसर या सी.पी.सी., सी.आर.पी.सी. का नहीं है, अकल्पनीय राजनीतिक, सामाजिक, सैन्य और धार्मिक समस्याओं का है. दक्षिण एशिया सरीखे बारूदी और ऐटमी क्षेत्र में एक सीमा के बाद अलगाववाद या उग्रवाद को लेकर सदाशयता और आदर्श काम नहीं आते. इसीलिए ‘हैदर’ सरीखी फिल्म एक सीमा के बाद अनेकार्थी या दोमुँही हो जाने के लिए अभिशप्त है. उसकी समस्या हैम्लैट के अमर जुमले To be or not to be, that is the question की बन जाती है. अंत में हैदर की माँ उसे समझाती है कि इन्तेकाम से इन्तेकाम ही पैदा होता है, लेकिन वह हैण्ड-ग्रेनेडों का आत्महंता काली-नरमुण्ड-हार क्यों पहने हुए है जिससे वह खुदकुशी करती है और अन्य कई को मारती है? यदि हैदर इतना मानवीय आदर्शवादी है कि अपने पिता के हत्यारे चाचा को मार ही नहीं पाता तो फिर सारा रोना किस बात का है? क्या वह यही पैग़ाम लेकर पाकिस्तान चला जाता है? उसे वहाँ या तो आतंकवादी बन जाना है या एक सदाशय लाश. और वह सौतेला पिता-चाचा जो बख्श दिया गया, उसका मुस्तक़बिल क्या है? जम्मू-कश्मीर का मुजरिम मुख्यमंत्री बनना, या वही लाश? ग़ज़ाला की बेमक़सद कुर्बानी, जिसने कई तात्कालिक ‘बेकुसूरों’ की जान ली, न अपने बेटे को बचा पाएगी न अपने पहले शौहर के क़ातिल दूसरे शौहर को.
क्या कश्मीर में कभी ऐसे डॉक्टर को पुलिस या सेना ने मरवाया है जिसने किसी खूँख़्वार उग्रवादी सरग़ना को मौत से बचाने के लिए ही सही लेकिन हिपोक्रेटीय शपथ को निभाते हुए उसके ऑपरेशन का जुर्म किया हो? यूँ तो दुनिया में क्या नहीं होता, लेकिन क्या कोई भाई अपनी भाभी को हासिल करने के लिए अपने कुल मिलाकर मामूली बड़े भाई की मुख़बिरी कर सकता है, यह जानते हुए कि हिरासत में मार डाले जाने में उसे कुछ वक़्त लगेगा? ख़ाविन्द के गुम होने लेकिन लाश बरामद न होने पर एक मुस्लिम औरत किन रस्मों-रिवायतों के बाद दूसरी शादी कर सकती है? अपने देवर-शौहर के खूनी साबित हो जाने के बाद उसे वह कम-से-कम तलाक़ ही क्यों नहीं देती? ईडिपसीय-फ़्रोइडीय इशारे किए गए हैं कि ख़ुद हैदर बेटे की हद से बाहर जाकर अपनी माँ को चाहता है और शायद इसी तरह माँ भी उसे. क्या इसीलिए वह अपनी माँ के चहेते को मारने में इतनी देर कर रहा है? फिर उसके वालिद की रूह रूह्दार के लाए गए इन्तेकाम के पैग़ाम को इतना तूल देने का भला क्या मतलब? रूह्दार लंगड़ा क्यों है – इसलिए कि कश्मीरी अलगाववाद के पैर नहीं हैं? क्या इस्लाम में कब्र खोद कर कंकाल से खेलना जायज़ है?
‘हैदर’ अधिक तार्किक फिल्म हो सकती थी यदि डॉक्टर पिता को एक ‘भला’ और वकील चाचा को एक ‘चालाक-खतरनाक’ पुलिस या सेना अधिकारी दिखाया जाता और शायरमिजाज़ हैदर अपनी माँ को याद करता हुआ बेमन से ख़ुद पारिवारिक परम्परा में पुलिस या फ़ौज की ट्रेनिंग ले रहा होता. उसका यदि बचपन का फोर्टिर्न्ब्रास–जैसा हिन्दू पंडित दोस्त भी होता तो तो फिल्म की एक बड़ी खला भर जाती लेकिन ‘हैदर’ नए और निदेशक के लिए कठिन आयाम हासिल कर लेती. तब शायद उसमें ‘ऑब्जेक्टिव कोर्रेलेटिव’ की क़िल्लत न होती और वह शेक्सपिअर की ‘आत्मा’ के नज़दीक होती. उसमें वह यहूदी ‘खुत्स्पा’ या ‘हुत्स्पा’ भी होता जिसे शायद सनी लेओने आंटी की आमद के बाद ‘हैदर’ के कुछ किरदार ‘चुत्सपा’ कहने के चक्कर में पड़ गए हों. हैदर अलीगढ़ में पढ़ता है जहाँ संसार की सारी इस्लामी गतिविधियों की ताज़ातरीन ख़बरें माहौल में रहती हैं लेकिन उसे कश्मीर की भयावह सचाइयों, खुद अपने बँगले के बर्बाद हो जाने का पहला इल्म अनंतनाग उर्फ़ इस्लामाबाद लौट कर ही क्यों होता है – क्या इसलिए कि वह एक अंग्रेज़ी शाइर है? फिल्म का सबसे कमज़ोर और गड्डमड्ड किरदार उसकी प्रेमिका का है जिसकी मौत क़तई विचलित नहीं करती, जबकि ओफ़ेलिया की मिनी-ट्रेजेडी विश्व-साहित्य में अमर है. उसकी कब्र पर हुए ‘कन्फ्रंटेशन’ को स्टंटबाज़ी में बदल दिया गया है और योरिक की खोपड़ी के साथ हैदर की बातचीत बेअसर है. दरअसल ‘हैम्लैट’ को पढ़े बिना कब्रिस्तान के ‘ब्लैक ह्यूमर’(‘विकट-विनोद’) के दृश्यों को समझना नामुमकिन-सा है.
‘हैदर’ में सभी ने अच्छा ‘आँसाँब्ल’ काम किया है लेकिन अपने ‘पागलपन’ और उसके बाद शाहिद कपूर ने अदाकारी के हैरतअंगेज़ नए मयार क़ायम किए हैं. ‘अंदाज़’ के दिलीप कुमार की याद आती है. गाने और धुनें अलबत्ता कमज़ोर और ग़ैर-ज़रूरी हैं लेकिन फिल्म का बहुत नुकसान नहीं कर पाते क्योंकि वह बाँधे रखती है. कश्मीरी-कल्चर की मौजूदगी त्रासद रूप से सुखद है लेकिन पता नहीं महजूर और लल्ला आरिफ़ा का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया. ‘हैदर’ का ‘Artistic failure’ इस बात में है कि नायक की निजी और पारिवारिक कहानी की वेल्डिंग कश्मीर-समस्या के साथ सफाई से कर नहीं पाई लेकिन एक फिल्म की सार्थकता और सफलता इसमें भी है कि वह देखने-लायक़ तो हो ही, कुछ कमाई भी कर ले, नया पढ़ने-जानने-समझने-देखने की चुनौती दे और संभव हो तो एक व्यापक और लम्बी बहस को जन्म भी दे. विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ इन कसौटियों पर अठारह-बीस कैरेट भी ख़री उतरती है तो वह फिर मक़बूल है. यूँ भी उन्होंने शेक्सपिअर के अपने तीन स्तरीय सिने-रूपांतरों के ज़रिये एक विश्व-कीर्तिमान जैसा कुछ स्थापित कर डाला है, अब ‘किंग लिअर’, ‘कोरिओलेनस’ और ‘जूलिअस सीज़र’ को उनकी प्रतीक्षा है.
1 टिप्पणियाँ:
दिनों बाद एक उम्दा लेखन और तगड़ी समीक्षा...! फिल्म की तुरपाई तक निकाल दी।
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