[सिनेमा क्या, कहां, कैसे और कितना है? ऐसे प्रश्नों के उत्तर कमोबेश सभी को मालूम हैं. न मालूम हों, तो उत्तर उपलब्ध कराने के लिए एक लंबे स्तर की बहस बहुत दिनों से चल रही है, वहां जाकर गिरा जा सकता है. लेकिन सिनेमा किस हाल में रहकर आया है, 'हाल' को 'स्थायित्व' या 'ऊंचाई' से तब्दील भी कर सकते हैं, यह जानना थोड़ा ज़्यादा ज़रूरी है. ऐसे में हिन्दी के पाठकों के लिए विष्णु खरे से बढ़िया रास्ता और बहाना ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है. विष्णु खरे सिनेमा, जो खुद में एक बहुत विराट संस्था है, पर बहुत समय से लिख रहे हैं, जिसे पढ़ना बहुत कुछ सीखना है. यह ख़्वाजा अहमद अब्बास की जन्मशती है. सचाई के मलबे पर खड़े होकर कहा जाए तो ख़्वाजा अहमद अब्बास को स्मृति में अंकित करने का दौर बहुत बाद में आया, जब यह जानना शुरू किया कि आज से पन्द्रह-बीस साल पहले जो झिलमिलाती फ़िल्म देखी थी, उसे अब्बास ने लिखा था. तो ऐसा कहना यह बताना है कि इस लेख की सबसे ज़्यादा ज़रूरत किस पीढ़ी को है, बीते समय का हिसाब लगाना किसका काम है? यह लेख पहले दृश्यान्तर में प्रकाशित. बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे और दृश्यान्तर का आभारी.]
वह अपनी हर विधा में प्रगतिकामी मूल्यों पर अडिग रहे
वह अपनी हर विधा में प्रगतिकामी मूल्यों पर अडिग रहे
ख्वाज़ा अहमद अब्बास को ‘बहुमुखी प्रतिभा का धनी’ कहना एक पिष्टोक्ति है लेकिन उसके सिवा उन्हें कुछ कहा भी नहीं जा सकता – आप चाहें तो उसमें सिर्फ़ कहीं ‘प्रतिबद्ध’ जोड़ सकते हैं. उन्होंने 20 की उम्र के आसपास उर्दू कहानीकार के रूप में अपनी सृजन-यात्रा शुरू की, फ़क़त 27वें बरस में सार्थक सिनेमा से आजीवन जुड़ाव का आग़ाज़ किया, साथ-साथ उर्दू-हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता में गहरा सक्रिय दख़ल दिया और 1935 के इर्द-गिर्द अदीब की हैसियत से तरक्क़ीपसंद तहरीक़ (प्रगतिशील आन्दोलन) और उसकी जन्मदात्री वैश्विक वामपंथी राजनीति से वाबस्ता हुए. यह सब करते हुए उन्हें चौतरफ़ा मुसीबतों और विवादों का सामना करना पड़ा लेकिन वह डटे रहे और वैसा आत्मपावन, शहीदाना पलायन नहीं किया जो उनके पहले और समान्तर प्रेमचंद या अमृतलाल नागर आदि कर चुके थे.
समस्या यह है कि अब्बास को मुख्यतः क्या माना जाए – मुख्तलिफ़ हैसियतों से उनके नाम पर क़रीब पाँच दर्ज़न फ़िल्में दर्ज़ हैं, अलग-अलग ज़ुबानों में कोई पचहत्तर किताबों पर उनके दस्तख़त हैं, उनके लिखे सियासी-ग़ैरसियासी अख़बारी कॉलमों की सही-सही शुमारी कठिन है और प्रगतिशील आन्दोलन और ‘इप्टा’ वगैरह में उन्होंने कौन-से कारनामे अंज़ाम दिए इसी के दस्तावेज़ मिलना मुश्किल है. फिर भी सच यही है कि 1941-91 की (‘नया संसार’ से ‘बॉबी’ तक की) अर्धशती में अगर संसार-भर के करोड़ों लोगों ने उनका नाम जाना, जो आज डीवीडी, इन्टरनैट, एमआरक्यूई और आइऐमडीबी वगैरह के ज़रिये ‘और अमर’ है, तो वह सिनेमा के साथ उनकी सोहबत की वजह से ही है. लेकिन यह भी सच है कि अगर वह सिर्फ़ लेखक होते, पत्रकार या सांस्कृतिक-राजनीतिक-सैद्धांतिक सक्रियतावादी ही, तब भी जन्मशती मनाए जाने के अधिकारी होते.
दूसरी आलमी जंग शुरू होने से पहले ही युवा अब्बास वामपंथी हो चुके थे और मध्य-1941 में मार्शल योसिफ़ स्त़ालीन के नेतृत्व में जब सोवियत रूस विश्व-इतिहास के अब तक के सबसे बड़े हमले का मुक़ाबला कर रहा था और वर्ष के अंत तक जर्मनी की नात्सी फौजों को परास्त कर अपने यहाँ से खदेड़ देने वाला था, अब्बास ने अपने जीवन की पहली सिने-कहानी और पटकथा लिखी और इस तरह ‘नया संसार’ शीर्षक फिल्म बनी जो प्रतिबद्ध पत्रकारिता जैसे अश्रुतपूर्व विषय पर शायद पहली भारतीय फिल्म थी और अपने सामयिक आदर्शवाद के बावजूद ख़बरख़रीद के इस बेहया ज़माने में अब भी प्रासंगिक है. 1946 में चेतन आनंद ने ‘इप्टा’ की आर्थिक मदद से बनाई गई अपनी फिल्म ‘नीचा नगर’ की पटकथा लिखने के लिए अब्बास को चुना और इस फिल्म ने युद्धोत्तर पहले कान फिल्म समारोह में भारत के लिए पहला सह-ग्रांप्री हासिल कर इतिहास बनाया. अब्बास की इन दोनों उपलब्धियों ने उनके अपने हौसले और दूसरों के उनकी प्रतिभा में यकीन को इतना बढ़ाया कि उन्होंने बंगाल के दुर्भिक्ष सरीखे जोखिम-भरे विषय पर आधारित अपनी पटकथा पर ‘इप्टा’ के सहयोग से 1946 में ही ‘धरती के लाल’ जैसी कालजयी फिल्म का निर्माण और निदेशन किया. इस वर्ष को अब्बास के फ़िल्मी जीवन का परिभाषी या निर्णायक वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि उनकी प्रतिभा को वी. शांताराम जैसे व्यावसायिक रूप से सफल, आदर्शवादी मराठी-हिंदी निर्माता-निदेशक ने पहचाना और अपनी फिल्म ‘डॉ कोटनिस (मूल मराठी में ‘कोटणीस’ है) की अमर कहानी’ की कहानी और पटकथा के लिए चुना. मुझे याद है कि 1946-47 में मुझ जैसे लाखों बच्चों तक की ज़ुबान पर इस फिल्म का नाम रहा करता था.
भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी सार्थक शुरूआत शायद ही किसी और लेखक-निदेशक को मिली हो लेकिन आज़ादी के वर्ष 1947 में जिस ‘आज और कल’ शीर्षक फिल्म का निदेशन अब्बास ने किया उसके बारे में सिर्फ़ यही पता चलता है कि उसमें श्याम, आरिफ़, नीता और नयनतारा ने काम किया था – गानों का भी कोई वजूद बचा नहीं है. ज़ाहिर है कि फिल्म अच्छी-ख़ासी फ्लॉप रही होगी क्योंकि उसके चार बरस बाद तक अब्बास को कोई काम नहीं मिला. लेकिन जब मिला तो ऐसा कि बहुत कम को नसीब होता है. अल्लाह बेहतर जानता है कि इस पूरे किस्से में कितना सच है लेकिन अब्बास अपनी नई स्क्रिप्ट लेकर महबूब के पास गए जिन्होंने कहा कि उसमें बाप के रोल में अशोक कुमार को लेंगे और बेटे के रोल में दिलीप कुमार को. अब्बास राज़ी न हुए. नर्गिस को मालूम पड़ा कि कहानी नायाब है. उसने राज कपूर को बताया. राज कपूर अब्बास से मिलने उस होटल में गया जिसमें अब्बास आठ आने प्रति रात्रि एक खटिया पर सोते थे. राज कपूर की जेब में बयाने के लिए डेढ़ रुपये थे लेकिन अब्बास ने कहा कि इसे लौटने के किराये के वास्ते बचा ले जाओ. राज कपूर के अतिनाटकीय पापाजी पृथ्वीराज कपूर फिल्म के लिए राज़ी होंगे या नहीं इस पर भी सस्पैन्स रहा.
‘आवारा’ ने इतना इतिहास रचा जो कई सदियों पर भारी है. बेशक़ उसमें कुछ मेलोड्रामा है और कोर्ट-सीन को चीख़-पुकार के साथ खींचा गया है लेकिन वह शायद भारत की पहली ‘आधुनिक’ ‘वयस्क’ फिल्म है, जिसने सोवियत संघ और तत्कालीन कई पूर्वी और पश्चिमी विकासशील देशों के दर्शकों, सिनेमा और संगीत पर गहरा असर डाला और राज कपूर–नर्गिस की जोड़ी को भारत में ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व लोकप्रियता दी. बेशक़ ‘आवारा’ के हर 35 मि.मी. पर राज कपूर की मुहर है लेकिन खुद राज कपूर के किरदार पर अब्बास की अमिट छाप है. उसके बाद राज कपूर पहले जैसा नहीं रहा और जितना उसने बदलने की कोशिश की, ‘आवारा’ जैसा होता गया.
‘आवारा’ में अब्बास ने राज कपूर के किरदार को कैसा गढ़ा था यह देखते हुए नर्गिस ने 1952 में अब्बास से गुजारिश की वह उनके लिए एक ख़ास फिल्म लिखें और डायरेक्ट करें जिसमें बेशक़ हीरो राज कपूर ही रहे लेकिन नायिका के रूप में उनकी भूमिका ऐसी हो जैसी पहले किसी हीरोइन की नहीं रही. अब्बास ने ठीक वही, बल्कि उससे ज़्यादा, कर दिखाया. ‘अनहोनी’ न सिर्फ़ पहली नारी-मनोवैज्ञानिक फिल्म थी बल्कि नायिका के ‘डुअल रोल’ वाली पहली ऐतिहासिक भारतीय फिल्म भी थी. हालाँकि नर्गिस बहुत बाद में ‘रात और दिन’ में भी ऐसी ही दुहरी भूमिका निभाने वाली थीं लेकिन ‘अनहोनी’ में अब्बास का यह करिश्मा खेल बदल देने वाला था. नर्गिस की वह भूमिका और अदाकारी कुछ महानतम उपलब्धियों में शुमार की जाती है और महिला-एक्टिंग की एक ‘प्रैक्टिकल’ पाठ्य-पुस्तक या ‘मास्टरक्लास’ की तरह है. सच तो यह है कि ‘अनहोनी’ में राज कपूर के साथ यह अनहोनी हुई कि वह नर्गिस के सहायक अभिनेता की तरह नज़र आया. लेकिन वह ज़माना पूर्णरूपेण टुच्चे ईगोटिज्म का न होकर कुछ ‘महान विचारों’, चुनौतियों तथा फ़न और हुनर को समर्पण का भी था. ध्यान रहे कि यह अब्बास की पहली aut फिल्म थी. 1952 में ’आन’, ’बैजू बावरा’, ’जाल’ और ‘दाग’ के बाद ‘अनहोनी’ ने बॉक्स-ऑफिस पर सबसे ज़्यादा कमाई की थी, हालाँकि वह 1950 के ‘आवारा’ से बहुत कम थी लेकिन फिल्म हिट थी.
अब्बास के फ़िल्मी जीवन में एक पैटर्न देखा जा सकता है. उन्होंने बीसियों फिल्मों का निदेशन किया और उस हैसियत से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की लेकिन उस अहंकार में उन्होंने कभी-भी दूसरों के या ‘दूसरे’ सिनेमा के लिए कहानियाँ, पटकथा या संवाद लिखने से गुरेज़ नहीं किया. इसके पीछे एक मार्क्सवादी श्रमजीवी का ‘प्रोफ़ेशनलिज्म’ तो था ही, साथ में अपनी फ़िल्में अपनी कमाई, अपनी शर्तों और अपनी मर्जी से बनाने की एक प्रतिबद्ध रणनीति भी थी. उनके नाम से जुड़ी हुई कोई भी फिल्म यदि चर्चित या सफल होती थी तो उस ख्याति का फ़ौरन फ़ायदा उठा कर वह अपनी कोई नई फिल्म की घोषणा कर देते थे जिसमें अपनी यत्किंचित् पूंजी तो लगाते ही थे, पुराने या नए मित्रों, प्रशंसकों, आशावादी फ़िनान्सिअरों से भी पैसे उगाह लेते थे. यह उन्हीं की सूझ-बूझ नहीं थी, अनेक मुसीबतज़दा निर्माता-निदेशक आज भी ऐसा ही करते हैं. एक तो वह निस्बतन सस्ती फिल्मों का ज़माना था, दूसरे अब्बास को भी (कभी-कभी ज़रूरत से ज़्यादा) किफ़ायती फ़िल्में बनाना आता था. दरअसल वह वाजिब लागत की फ़िल्में ही बनाना चाहते थे. उनकी कुछ फ़िल्में अच्छी चलीं, कुछ अपनी लागत ही वसूल कर पाईं लेकिन बहुत कम इतनी नाकामयाब हुईं कि अब्बास दीवालिया होकर सड़क पर आ जाते.
1953 की फिल्म ‘राही’ शायद उनकी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्मों में गिनी जाए. ब्रिटिश-कालीन चाय बागान की पृष्ठभूमि पर आधारित अपने प्रगतिशील-युग के मित्र मुल्कराज आनंद के विख्यात अंग्रेज़ी उपन्यास ‘टू लीव्ज़ एंड अ बड’ पर बनाई गई इस फिल्म में उस ज़माने की बॉक्स-ऑफिस जोड़ी देवानंद-नलिनी जयवंत और हिंदी फिल्मों के पहले और आख़िरी कम्यूनिस्ट और महान अभिनेता बलराज साहनी ने काम किया था और संगीत अनिल बिस्वास का था जिनकी फिल्म के शीर्षक पर आधारित कालजयी धुन ‘इस पल रुक जाना, जाने वाले राही’ और उपन्यास के शीर्षक पर आधारित कोरल थीम-सॉंग ‘इक कली दो पतियाँ जाने हमरी सब बतियाँ’ पुराने नहीं पड़े हैं. कहा जाता है कि फिल्म टिकट-खिड़की पर मक़बूल रही थी लेकिन याद नहीं आता कि हमारे क़स्बे छिन्दवाड़ा तक पहुँची हो. उसके बाद, दुर्भाग्यवश, अब्बास ने बिना गानों की शायद पहली फिल्म ‘मुन्ना’ बनाकर एक जुआ खेला लेकिन पाँसे उलटे पड़े. फिल्म असफल रही पर इस योग्य समझी गई कि लन्दन में ‘पथेर पांचाली’ के साथ दिखाई जाए और पॉल रोथा उसकी सराहना करें. बहुत बाद में चेतन आनंद ने ‘मुन्ना’ की कहानी का इस्तेमाल ‘आख़िरी ख़त’ के लिए किया जो अपने अमर गीत ‘बहारो,मेरा जीवन भी संवारो’ के साथ सफल रही.
‘आवारा’ के सुपर-हिट कहानी-पटकथा-संवाद के यौगिक को दुहराते हुए राज कपूर ने 1955 में यह तिहरी ज़िम्मेदारी फिर अब्बास को सौंपी, जिसका अज़ीमुश्शान नतीज़ा था ‘श्री 420’, जो ‘आवारा’ से कहीं बेहतर फिल्म तो है ही, आज साठवें साल में भी इतनी अकाट्य है कि उससे एक फ़्रेम, एक शॉट, एक डायलॉग, एक आइडिआ निकालना लगभग असंभव है. ‘आवारा’ आज एक सीमित, आरोपित और ‘लेबर्ड’ समस्या लगती है जबकि ‘श्री 420’ अपने पहले चंद लम्हों में ही सर्वहारा और पूंजी के चिरंतन द्वंद्व में कूद पड़ती है. 1955 में अलाहाबाद यूनिवर्सिटी का सिर्फ़ एक गोल्ड मैडलिस्ट मुड़-मुड़ के न देखने के लिए सेठ सोनाचंद धर्मानंद की पत्तेबाज़ बम्बैया ‘दोल्चे वीता’ दुनिया द्वारा निगल लिया गया था, आज लाखों राज इसीलिए सुनहरी तमग़ा पाना चाहते हैं कि कैम्पस पर ही ‘बॉडी स्नैचर्स’ उन्हें आकर तिब्बत में सोने की ‘स्कैम’ दुनिया में ले जाएँ, उनके द्वारा लाखों को करोड़ों-अरबों से ठगा जाए, अपने निजी घर के सपने दिखलाकर नौदौलतिए सिन्धी, पंजाबी, मारवाड़ी बिल्डर मुंबई के झोपड़पट्टीवालों को फ़ुटपाथों पर फेक दें, ईमानदार, मेहनती निम्न और मध्यवर्गीय सुफ़ैदगरेबानों की ज़िंदगी-भर की जमा-पूंजी लूट कर चम्पत हो जाएँ.
अब्बास और राज कपूर के परस्पर बहुविध सहयोग का गहरा विश्लेषण शायद अब तक हुआ नहीं है. ‘आवारा’, ‘अनहोनी’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘चार दिल चार राहें’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’ और (मरणोपरांत) ‘हिना’ के माध्यम से अब्बास ने बतौर निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के राज कपूर की, और एक निर्माण-गृह के रूप में आर.के.फिल्म्स की, जो छवि राष्ट्रीय-वैश्विक स्तर निर्मित की वह हिंदी फिल्म के इतिहास में अद्वितीय संगत है. दुर्भाग्य यह है कि इस चार दशक लम्बे साथ पर न तो राज कपूर ने सविस्तार लिखा और न अब्बास ने, और हमारे मित्र जयप्रकाश चौकसे तो दोनों को ख़ूब जानते हुए भी ‘भास्कर’ के अपने प्रेम-लपेटे अटपटे कॉलम में ही मगन हैं. बहरहाल, ‘आवारा’ का शीर्षक भले ही चैप्लिन के ‘ट्रैम्प’ से प्रेरित हो, उसमें राज कपूर का किरदार मार्लन ब्रैंडो या जेम्स डीन के ज़्यादा करीब है लेकिन वह पहले ही दिलीप कुमार का इलाका बन चुका था, इसलिए ‘श्री 420’ में अब्बास ने मूलतः वामपंथी चार्ली चैप्लिन से सीख कर राज कपूर को जो पहली बार आपादमस्तक ‘चैप्लिनिस्क’ ‘कॉमिक हीरो’ बनाया उसने उनकी वह छवि सदा-सर्वदा के लिए पेटेंट कर दी. यूँ राज कपूर जब भी अपनी वाली पर आते थे तो दिलीप की टक्कर के ट्रैजिक हीरो भी बन जाते थे – ‘श्री 420’ में ही उनका एक पुराना मुखौटा उतारने और नया पहनने का सीन है जो लाजवाब है, और फिल्म के टाइटिल्स के पीछे ग्रीक ट्रैजिक-कॉमिक मास्कों का बहुत सार्थक इस्तेमाल किया गया है - लेकिन उनमें थोड़ी रूमानियत रहती ही थी, दिलीप-जैसा अस्तित्ववादी ‘मिस्टीक’ आ नहीं पाता था.
‘श्री 420’ में चार्लियत और चैप्लिनीयता के इतने तत्व हैं कि उस पर सिनेमा में एम.फ़िल. की एक तुलनात्मक शोध-निबंधिका लिखी जा सकती है. अब्बास में यदि राज कपूर के क़द-बुत, शरीर-भाषा, सलाहियत, प्रतिभा वगैरह की समझ न होती और राज कपूर अब्बास के दिमाग़ और ‘कमिटमेंट’ को जान न पाया होता तो यह फिल्म जैसी बनी है वैसी बन ही न पाती. इसमें छोटे-से-छोटा ‘केमिओ’ या ‘एक्स्ट्रा’ तक लगता है हमारे छिन्दवाड़ा के कुशल, अब दिवंगत, ‘मास्टर-क्राफ्ट्समैन’ छुट्टू कुम्हार द्वारा अपने चाक पर गढ़ा गया है. मैं इसे राज कपूर की सबसे बड़ी फिल्म मानता हूँ लेकिन अब्बास की लेखनी के बिना यह इतनी बुलंदी छू ही नहीं सकती थी. अब्बास के बगैर भी राज कपूर ने सफल फ़िल्में बनाईं मगर उनमें सार्थकता और बौद्धिक कलात्मकता का अभाव ही रहा. आज साठ वर्ष बाद भी ‘श्री 420’ का जादू कम नहीं हुआ है, जिसमें संगीत की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन अब्बास की महान उपलब्धि है पूंजीपति खलनायक सेठ सोनाचंद धर्मानंद का किरदार, जिसके लिए नीमो को मानों स्वयं ईश्वर ने अपने हाथों से रचा था. उन्हें ‘कास्ट’ करने का कमाल किसका था यह मालूम नहीं लेकिन अब्बास ने नीमो को जो शख्सियत, दृश्य और संवाद दिए हैं वह अद्भुत हैं. उनका ‘पीपलीनगर में कपड़े ही कपड़े हैं’ और ‘नो,राज,नो’ कहने का अंदाज़ बेमिसाल है. 1955 में पता नहीं कितने सेठ सोनाचंद थे, आज तो हर कॉर्पोरेट हाउस, अखबार और टीवी चैनल का सी.ई.ओ. उसका वंशज नज़र आता है. अब्बास ने अपनी प्रतिबद्ध पत्रकारिता से ‘श्री 420’ को कितना मालामाल किया है, इसका भी विश्लेषण अभी होने को है. सेठ सोनाचंद धर्मानन्द से अधिक ‘कम्प्लीट’ खलनायक हिंदी परदे पर फिर दिखाई न दिया. सिर्फ़ नीमो के लिए यह फिल्म बार-बार देखी जानी चाहिए.
‘जागते रहो’ में राज कपूर का एकमात्र, अंतिम एकालाप फिल्म का खुलासा है. उसके बाद अब्बास ने सोवियत संघ के सहयोग से निर्मित अपनी महत्वाकांक्षी हिंदी-रूसी फिल्म ‘परदेसी’ का पटकथा-लेखन-निदेशन किया, जिसके रूसी रूपांतर के निदेशक वासिली प्रोनीन थे. अफ़ानासी निकीतीन नामक एक ईसाई रूसी व्यापारी, जो भारत आने वाला दूसरा यूरोपीय व्यक्ति था, 15वीं सदी में किसी तरह महाराष्ट्र. कहते हैं आज की मुंबई के पास के एक गाँव में, पहुँच सका और तीन बरस इस देश में रहा. निकीतीन का मृत्यु-वर्ष 1472 ही मालूम है. उन दिनों उत्तर-पश्चिमी दक्षिण भारत पर देश की पहली आज़ाद मुस्लिम, बहमनी, सल्तनत का निज़ाम था जो दिल्ली के मोहम्मद बिन तुग़लक़ से बग़ावत के बाद वुजूद में आई थी. निकीतीन ने अपने भारत-प्रवास पर रूसी में ‘खोषदेनिए ज़ा त्री मोर्या’ (‘तीन समन्दरों का सफ़र’) शीर्षक से बहुत दिलचस्प और मूल्यवान संस्मरण लिखे हैं और ऐसा शक़ किया जाता है कि वह (सुन्नी) मुस्लिम हो गया था. बहरहाल, वह वाक़ई भारत-रूस संबंधों का पहला, असली प्रतीक और प्रतिनिधि है. ‘परदेसी’ ऐतिहासिक नहीं, तत्कालीन सामाजिक फिल्म है जिसमें अफ़ानासी को एक मराठी, हिन्दू युवती चंपा की मुहब्बत की गिरफ़्त में दिखाया जाता है. ओलेग स्त्रीषेनौफ़, जिन्होंने निकीतीन की भूमिका निबाही थी, के बारे में अब तक पता नहीं चल सका है कि सोवियत संघ में उनकी ख्याति क्या थी – दरअसल भारत में देखे गए वह पहले और अंतिम रूसी हीरो थे – लेकिन चंपा का किरदार नर्गिस को मिला जिनसे उनकी ‘आवारा’ की घनघोर लोकप्रियता की वजह से लगभग हर सोवियत नागरिक परिचित था.
‘परदेसी’ जैसी फ़िल्मों की क्या मजाल कि वे सारे जहाँ से अच्छा अरुण यह मधुमय देश हमारा में चल भी पाएँ लेकिन अपरिचित, कमज़ोर, दढ़ियल, रूसी हीरो के बावजूद वह दिलचस्प है. नर्गिस, पद्मिनी, पृथ्वीराज कपूर और डेविड तो उसमें हैं ही, लोकशाहीर की भूमिका में बलराज साहनी और अनिल बिस्वास के संगीत पर गाया गया प्रेम धवन रचित उनका मन्ना डे और शुरूआती कोरस वाला उद्बोध-गीत ‘भई तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया’, जो आज भी रोंगटे खड़े कर देता है, अविस्मरणीय हैं. सोवियत सहयोग के कारण ‘परदेसी’ पहली भारतीय रंगीन वाइड-स्क्रीन सिनेमास्कोप फिल्म होने का श्रेय भी प्राप्त कर सकी. ‘अलविदा’ के लिए रूसी शब्द ‘दस्वीदान्या’ पहली बार इसी में सुना गया. इसके बाद अब्बास साहब ने ‘ज़िन्दगी या तूफ़ान’ जैसी अकालकवलित फिल्म के कहानी-संवाद लिखकर खुद को रुसवा किया.
उनके करिअर में ऐसे उतार-चढ़ाव आते ही रहे. ऐसा लगता है कि उनके भीतर जो क्लासिकी ‘एजिटप्रॉप’ कॉमरेड बैठा हुआ था उस पर जल्द नतीज़े और असर का शैदाई मुसन्निफ़-अख़बारनवीस ज़्यादा हावी था और वह उससे जाने-अनजाने कतराते थे, या उसकी परवाह नहीं करते थे, जिसे वह अपने लिए ज़रुरत से ज़्यादा ‘कलात्मकता’ या ‘कलावादिता’ समझते रहे होंगे. मैं राज कपूर को अब्बास का एक शरारती, तेज़ शागिर्द ही समझता हूँ जो जब-जब करें इरादे अपने उस्ताद की क्लास में जा बैठता भी था और ‘बंक’ भी करता रहता था. दरअसल अब्बास को शायद राज कपूर से लोकप्रिय कला का हुनर सीखना चाहिए था और राज कपूर को अपनी ग़ैर-अब्बासीय फिल्मों में उन-जैसा ‘कमिटमेंट’. इस पर बहस हो सकती है कि यदि राज कपूर (या बिमल रॉय,या हृषीकेश मुखर्जी) ‘राही’, ’ग्यारह हज़ार लड़कियाँ’, ‘शहर और सपना’, ‘आसमान महल’, ‘बंबई रात की बांहों में’, ‘सात हिन्दुस्तानी’, ‘द नक्सलाइट्स’ या ‘लव इन गोआ’ जैसी फ़िल्में बनाना चाहते तो क्या उनमें ज़्यादा ‘सफल’ रचाव-बसाव नहीं होता?
ऐसी सारी यदिकिन्तुवादी अटकलबाज़ी के बावजूद यह लगभग तय है कि 1959 में ‘चार दिल चार राहें’ जैसी प्रतिबद्ध किन्तु प्रयोगशील फिल्म बनाने की ख़ुद्कुशीपज़ीर दीवानगी सिर्फ़ अब्बास में थी. एक चौरस्ते पर तीन प्रेम कहानियाँ और एक शहादत की कथा – चारों में कोई सम्बन्ध नहीं – रेखागणित की तरह एक-दूसरे को अनजाने काटती हुई अपनी-अपनी कभी सफल कभी असफल राहों पर निकल जाती हैं. बहुत कम लक्ष्य किया गया है कि राज कपूर–मीना कुमारी की प्रेम-कथा हिन्दू सवर्ण उत्तराधिकारी और अनुसूचित जाति-बाल विधवा की है, अजीत एक भोला-भाला दोटूक पठान मोटर-चालक और निम्मी एक ‘संभ्रांत’ तवायफ है, शम्मी कपूर एक अनाथ ईसाई युवक है और कुमकुम एक ग़रीब और शोषित आया, और जयराज अपनी जान से ज़्यादा अपने आन्दोलन से मुहब्बत करनेवाला सक्रियतावादी. गाँव की खापें और राज कपूर का अहीर-चौधरी परिवार शादी के ख़िलाफ़ हैं लेकिन हिंदी फिल्मों के एक महानतम दृश्य में दूल्हा बना हुआ अकेला राज कपूर एक मशाल और एक ढोलची के साथ संकरी गलियों से चौड़े-धाड़े धमधमाता गुज़रता हुआ अपनी दुल्हन मीना कुमारी को लिवाने जाता है. शम्मी कपूर ने एक छोटी-सी भूमिका में अपने जीवन की पहली और अंतिम मार्मिक एक्टिंग की है. मीना कुमारी, निम्मी, कुमकुम, अजीत सभी अपने उरूज पर हैं. साहिर ने मुकेश के लिए ‘नहीं किया तो करके देख’ और लता के वास्ते ‘इन्तिज़ार और अभी’ जैसे गीत लिखे हैं जिन्हें अनिल बिस्वास ने अमर कर दिया है. लेकिन फिल्म को चलना नहीं था सो नहीं चली. ‘बॉबी’ चली जिसने नौबालिग़ ऋषि कपूर-डिंपल को और अधेड़ प्रेमनाथ को स्टार बना दिया, और ज़ेबा बख्तियार को भारत में ‘हिना’ ने. कहानियाँ अब्बास की थीं.
1942-1980 के बीच अब्बास को सिनेमा के लिए दर्ज़नों छोटे-बड़े सम्मान और पुरस्कार मिले. उनकी कई फ़िल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों के चक्कर लगाती रहीं. उन्होंने सिने-संसार को अनेक प्रतिभाएं दीं. लेकिन एक दोस्त फिक्रमंद बाप ने उन्हें ख़त लिखा कि उसका बेटा फिल्म-लाइन में स्ट्रगल कर रहा है, हो सके तो उसे कैसा भी कोई चांस दो. बाप खुद कोई मामूली आदमी नहीं था, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के रिश्तेदार-जैसा था. सो अब्बास ने अपने दोस्त हरिवंशराय बच्चन के बेटे अमिताभ बच्चन को एक नौजवान बिहारी मुस्लिम शायर अनवर अली ‘अनवर’ के किरदार में 1969 में ‘सात हिन्दुस्तानी’ में ‘ब्रेक’ दिया. यह एक पूरी तरह सेauteur फिल्म थी. आज की नई दर्शक पीढ़ी, जो ख्वाजा अहमद अब्बास को न जानती है, न जानना चाहती है क्योंकि शायद जानने की सलाहियत नहीं रखती, इसी से तरद्दुद में पड़ सकती है कि अमिताभ बच्चन को ‘डिस्कवर’ करने वाले इस ख्वाजा को कैसे डिस्कवर किया जाए. जबकि खुद अब्बास ने अमिताभ की अपनी ‘खोज’ को कभी तूल नहीं दिया. वह तो उनके कारनामों की किताब में महज़ एक दिलचस्प, शायद ज़रूरी भी, फ़ुटनोट है. दूसरे तो इससे एक पूरी तिजारत कर लेते. देखा जाए तो खुद अब्बास आजीवन कई स्तरों पर एक महान स्ट्रग्लर रहे. ‘द नक्सलाइट्स’ सरीखी बाद की फिल्म को लेकर भी, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती और स्मिता पाटिल थे और इंदिरा गाँधी तब जीवित थीं, वह परेशानी में पड़ चुके थे. उनकी मृत्यु से पहले ही भारतीय सिनेमा में उन जैसा कोई दूसरा प्रतिबद्ध फिल्मकार नहीं था और उनके बाद, विशेषतः अब, सुदूर भविष्य में भी, किसी युवा अब्बास की कल्पना कठिन है. यह ज़रूर है कि उनकी फिल्मों को, उनके पैग़ामों को, जो कई मुक़ाबलों और संघर्षों में हौसलाअफ़ज़ा और कारगर रहेंगे, नेस्तनाबूद कर पाना नामुमकिन साबित होगा. अगले सौ बरसों तक हमें एक बड़ा सहारा ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों का भी है.
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