गुरुवार, 17 जुलाई 2014

सुधांशु फिरदौस की नई कविताएं

[सुधांशु की नई कविताएं लगभग डेढ़ साल के अंतराल पर सामने आ रही हैं. इन कविताओं को पढ़कर युवा पीढ़ी के लोकज्ञान पर थोड़ा गर्व होता है. वह पंचक, यानी पचके, पर कविताएं लिखता है. उसके पास रोज़ाना बसने वाली एक हताशा है, जिसका अनुवाद उसके पूर्वजों ने धान के रूप में किया था. वह कुछ हद तक तुकबंदी का भी हाथ थामता है. एक निराशा इस बात की भी है कि दिनचर्या को जीने के बाद भी उसने एकदम नए तानाशाह को अपने सामने पाया है. यहां कहानियाँ हैं और अपनी संक्षिप्तता का इतिहास भी है. किसी को फ़र्क नहीं पड़ता कि आप कविता लिखते हैं या क्या लिखते हैं? लेकिन आपके विवादग्रस्त होने से उन्हें फ़र्क पड़ता है. ऐसे में सुधांशु जैसे कुछ युवा कवियों को देखकर संतोष होता है कि वे अपनी कार्यवाही में जुटे हुए हैं, बजाय इसकी परवाह किए कि आपकी चेतना की सुई कहां टिकती है? आप इन कविताओं में बहुत सारी परछाईयाँ देख सकते हैं, लेकिन मुद्दा तो है कि कवि उन्हें कैसे समेटता है? बुद्धू-बक्सा पर सुधांशु फिरदौस का प्रकाशन पहली बार. यह बक्सा सुधांशु का आभारी.]

तुम्हारे पूर्वजों की सारी अभिव्यक्ति धान रोपने से धान काटने में ही सिमटी रही है


रोज़मर्रा

कितने दिलफ़रेब हैं ये रोज़मर्रा के राग 
सुबह काम पर जाते हो 
फिर शाम को थके हारे काम से लौट आते हो  
जब मुल्क अपने नए निज़ाम को चुन 
अपने आने वाले पांच सालों का फैसला कर चुका है 
तुम छात्रों की कॉपियों को जांच उनके भविष्य का फैसला कर रहे हो 

इन रागों से बहुत दूर निकल गए किसी पुराने मित्र की स्मृति 
उड़ाती है तुम्हारे संघर्षों का उपहास 
तुम दबी ज़बान में ही अपने विभागाध्यक्ष के दलित-विरोधी होने का करते हो प्रतिरोध
और सोचते चले आते हो अगर तुम दलित होते 
तो क्या ये तमाम आरक्षण भी  
तुम्हें उनकी आँखों में दिलवा पाते समानता का अधिकार 

शाम को सीख़ कबाब के साथ एक बोतल बीयर पी लो
किसी अधूरी कविता में दो चार सतरें जोड़ लो 
किसी किताब के कुछ सफ्हें पढ़ लो 
फिर तकिये में मुँह दबा कर सो जाओ 

जीवन ऐसे ही चलता है तुम नहीं सह सकते भाई, बहनों, मित्रों की गालियां 
या ज़्यादा मुखर होने पर पुलिस की लाठियां 
सुरक्षित कोने ढूंढ लो और उनमें तिलचट्टे की तरह दुबक कर जिए जाओ  
अपनी तरह तिलचट्टे पैदा कर किसी कोने में ही मर जाओ 

जब लोग आज़ादी के लिए गोलियां खा रहे थे 
तो तुम्हारे दादा धान रोप रहे थे 
उनके लिए आज़ादी का मतलब सरकार को मालगुजारी देने से ज़्यादा कुछ नहीं था 
जब अगस्त क्रांति हुई तब भी तुम्हारे पिता धान ही रोप रहे थे 
तुम्हारे पूर्वजों की सारी अभिव्यक्ति 
धान रोपने से धान काटने में ही सिमटी रही है


ईख और तरबूज का शुक्रिया अदा करते हुए 

हम दोनों सालों बाद मिले थे
अब वह शादीशुदा था और दो बच्चों का बाप भी  
नींबू नहीं मिली तो डाल दिया उसने नींबू की डाली को ही ईख के साथ कोल्हू में 
फिर हमने पिया एक-एक लोटा ईख का रस और अपनी-अपनी साइकिल उठा चल पड़े अपने-अपने गांवो की ओर 
रास्ते में पगार के ढेड़ से उठती आग की लपटों को देख याद आ गयी बचपन के उस तपते जेठ की 
जब मेरे गाँव के लोगों ने लगा दी थी उसके गाँव में आग  
धू-धू कर जल गयीं थीं सैकड़ों झोपड़ियां
और धूअंतूपने की उदास चिपचिपाहट 
फ़ैल गयी थी सबके चेहरों पर 

नफ़रत और अफवाहों से बंद हो गया था दोनों गाँवों में नेवता-पेहानी और आना-जाना
तमाम कड़वाहटों के बीच एक मिठास बची रह गयी 
जिसने बचा लिया हमारी दोस्ती को और अगला जेठ आते-आते दोनों गाँवों के रिश्ते को 
मेरे गाँव में तरबूज खूब होता था और उसके गाँव में ईख


प्रसवपीड़ा       

हल्की बारिश के बाद मई की सल्फरी शाम 
आकाश में किसी बूढ़े दरवेश की दाढ़ी की तरह फहरा रहे हैं बादल
इन दिनों दिल्ली की सारी गर्माहट चली गयी है बनारस
कुछ ज़्यादा ही मेहरबान है मौसम अबकि राजौरी बारहा मसूरी हुआ जा रहा है 
झड़ते गुलमोहर पर पड़ती ढलते सूरज की अरुणिमा 
वॉनगाग के किसी वाटरकलर पेंटिंग का
लैंडस्केप हो सकती है 

पेड़ पर कूकते कोयलों की कूक मेरे भीतर
तीव्र से तीव्रतर हुई जा रही है 
आज की शाम मैं महसूस कर रहा हूँ उस दुःख की प्रसवपीड़ा 
जो मेरे नहीं किसी और के बच्चे की माँ बनने जा रही है


बंटवारा

आम का एक ठूठ पेड़ 
जिस पर बैठता नहीं अब एक कठफोड़वा भी 
जब सातों भाइयों में बंटवारा हुआ वह हरा भरा था
उसकी शाखों से भी फूटती थी पीकें 
शिराओं से चूते थे लस्से

इतना फलदार कि
सब चाहते थे वह उनको ही हिस्से में मिले 
सभी को उसके लिए झगड़ते देख पंचो ने हार कर 
उसे कर दिया साझी  

वह साझी क्या हुआ 
हर बैसाख-जेठ में टिकोरा आने से फलों के पकने तक 
हिस्से के आमों के लिए होती थी लड़ाईयां 
उसके नीचे न जाने कितनी बार चली लाठियां 

वह महज़ आम का पेड़ था 
कोई कश्मीर, पंजाब, बंगाल नहीं था 
फिर भी उसके बंटवारे के लिए हुईं लड़ाईयां 

कोई विवाह या यज्ञोपवीत होता तो 
मड़वे के खम्भों के लिए काटी जाती थी उसकी हरी-हरी डालें 
कोई मरता तो चिता के खम्भों लिए काटी जाती थी उसकी हरी-हरी डालें
किसी के दादा ने रोपा था उसको 
किसी के पिता ने सींचा था उसको 
किसी के पति ने छिड़की थी 
बीमारियों से बचने के लिए उस पर दवाईयां 
सबके पास थे पेड़ पर दावे के लिए 
अपने-अपने किस्से कहानियाँ 

सब चाहते थे साझी के पेड़ में अपना अधिक से अधिक हिस्सा 
वह कोई कश्मीर, पंजाब या बंगाल नहीं था 
जो बंटवारे के जख्मों को भूल 
फिर से हो जाए हरा

वह तो महज़ आम का एक पेड़ था 
महज़ आम का पेड़ 
दो चार सालों में ही रह गया
ठूठ आम का पेड़ जिस पर बैठता नहीं 
अब एक कठफोड़वा भी 


अकाल मृत्यु

शाम ढलते हीं सब बंद कर देते थे अपने-अपने दरवाज़े, खिड़कियाँ
लेकिन ख़बर रहती थी सबको बाहर होने वाली एक-एक कारगुजारियों की
किनके घरों में काटी गयी सेंध किनके घरों में हुई चोरियां

एक दो बूढ़ों को छोड़ लोगों ने छोड़ दिया था दरवाज़े पर सोना  
धीरे-धीरे शुरू कर दिया था दिसा मैदान भी अपने घरों में ही करना 

यूं सोता कोई भी नहीं था लेकिन सारा गाँव 
शाम ढलते हीं मरघट-सी खामोशी में बदल जाता था 

देर रात तक रोते रहते थे कुत्ते 
इतना भयावह था वह रोना कि रोते हुए बच्चों के मुँह में अपने सूखे स्तनों को डाल 
बलात् चुप करा देती थी उनकी माँएं
क्योंकि उन दिनों इतना भयावह था किसी का रोना कि माँओं के भीतर भय से
कुत्तों और बच्चों के रोने में अंतर करने का संज्ञान 
ख़त्म हो गया था 

गाँव में खूब हो रही थी चोरियां खूब हो रही थी सेंधमारियाँ  
लेकिन जब फटे हों सबके अपने ही पैर तो क्यों सहलाए किसी और की बेवाईयाँ 

लोग दिन ढलने से पहले ही निपटा देते थे अपने सारे काम
आदमी क्या उन दिनों पशु-परेवा तक हो गए थे हलकान 

शाम ढलते ही फिर से वही मरघट-सी खामोशी और कुत्तों का लगातार रोना 
कभी-कभी उनके साथ शामिल हो जाता था सियारों का फेकरना
लेकिन हस्बे-मामुल था भय का रोज़-ब-रोज़ बढ़ते जाना 

हर सुबह किसी न किसी के पास होता था कोई न कोई नया अफ़साना 
रात किसी ने उन्हें इमली की पेड़ से आवाज़ देते सुना  
किसी ने उन्हें बसवारी में रोते हुए सुना 
तोड़ दी किसी की जामुन की डाल उन्होंने 
पलट दी किसी की नाव उन्होंने  
बिसुका दी किसी की गाय उन्होंने

सबके ज़ुबान पर एक ही बात थी  
वे चाहते हैं अपना पांचवां साथी 
तभी वे छोड के जाएंगे गाँव 
लेकिन किसी को पता नहीं था 
किसका होगा वह दसवां उल्टा पाँव
इसलिए भय में डूबा जा रहा था पूरा गाँव 

ऐसा हुआ था एक बार मेरे गाँव में 
जब हो गयी थी लगातार चार अकाल मृत्यु पचके में 
और लोग बैठे थे पांचवे की प्रतीक्षा में

17 टिप्पणियाँ:

Mandan Jha ने कहा…

बढ़िया।।

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बेहतरीन कवितायें....

अनुलता

Rahul Dev ने कहा…

BEHTAREEN KAVITAYEN, APNE ARTHON ME BAHUT DOOR TAK MAAR KARTI HUI.

Unknown ने कहा…

deep rooted emotions of a man who tries to see the world from the outside.

अंजू शर्मा ने कहा…

सुधांशु को बहुत दिनों बाद पढ़ा, मारक क्षणिकाओं के बाद ये जीवंत कवितायें अच्छी लगी....बधाई

महेश वर्मा mahesh verma ने कहा…

इन कविताओं में सुधांशु का काव्य स्वर थोड़ा अधिक गाढ़ा हुआ है और थोड़ा अधिक बहिर्मुखी भी. निश्चय ही यह एक संतुलित स्वर है. एक अरसे से वे मेरे प्रिय कवि रहे हैं . जब वे छोटी कवितायें लिख रहे थे तब भी उन छोटी कविताओं में एक मुकम्मल बात कह लेते थे फिर शायद महानायिका कविता से उन्होंने इस बड़े फार्मेट पर काम करना शुरू किया है. वे कविता के सजग पाठक हैं और अपनी कविता उन्होंने बड़ी मेहनत से कमाई है . ये एक संजीदा कवि की सुन्दर कवितायें हैं जहाँ अतिरेक, अनावश्यक वीरता और बेवजह के आंसुओं के लिए कोई जगह नहीं है.उन तक मेरी हार्दिकता पहुंचे और आप तक मेरा धन्यवाद. डायलाग दिल्ली में बिना कोई कागज़ हाथ में रखे सिर्फ याददाश्त से कवितायें सुनाते सुधान्शु को बार बार याद कर रहा हूँ.

Unknown ने कहा…

सुधांशु भैया की कविताओं का स्वाद बदला है .....मैं अभी तक महानायिका पर अटका हूँ पता चला वो वहां से बहुत आगे निकल आये है .....(साथ में उन्हें कविताओं के लिए धन्यवाद् भी है)

Sudhakar Mishra ने कहा…

वो पंचक में मृत्यु का भय मैंने भी जिया है। आभारी हूँ सुधांशु जी का।

बेनामी ने कहा…

rojmarra, prasavpida donon hi behtareen kavitayen hain. rojmarra jahan aam logon ke jeevan pat kataksh hai vahin prasavpida ek prem ke ant ke baad ke dard kli kavita hai. antim line आज की शाम मैं महसूस कर रहा हूँ उस दुःख की प्रसवपीड़ा, जो मेरे नहीं किसी और के बच्चे की माँ बनने जा रही है! jabardast hain, yahin aake saans achank rukati hai.

Ashok

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

सुधांशु भाई की कविताएँ जो छोटी-छोटी होम्योपैथी की गोलियों की तरह दिखती थीं, मेरा उनसे पहला परिचय थीं. इनके अनुवाद वही असर पैदा करते थे जो शायद मूल कविता के रहे होंगे.
आज उनकी लम्बी कविता/कविताएँ पढते हुये लगता है कि यह होम्योपैथी की शीशी अंगरेज़ी दवा का वो कैप्स्यूल बनकर हमारे सामने है, जो समाज की कई छोटी-बड़ी बीमारी का ईलाज करने की कोशिश करती है. इन कविताओं के मौजू आस-पास से लिये हुए हैं, लेकिन उपेक्षित रहे हों उस तरह. एक नयी नज़र उन्हें देखने की.
सुधांशु को जितना पढते हैं, उतना पढने की ललक बढती जाती है और हर बार "वाह" कहना भुलाकर एक नया फ़िक्र थमा जाती है इनकी कविताएँ!!

MADAN PAL SINGH ने कहा…

कवितायेँ अच्छी लगीं. सीधा संवाद करने वाली कवितायेँ. कोई ओढ़ी हुई जटिलता नहीं. धन्यवाद सुधांशु जी.

मदन पाल सिंह

बेनामी ने कहा…

samaj ka sateek chitran karti rachnayein...bahut bahut shubhkamnayein..
thake na kalam teri, ruke na kalam teri..tum sada yu hi likhte raho.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

मेरी टिप्पणी लापता हो गई!!

dinesh tripathi ने कहा…

सार्थक और प्रभावी कवितायें हैं सुधांशु की . बधाई सुधांशु को

बात अपनी ने कहा…

ईख और तरबूज ,बंटवारा और अकाल मृत्यु तीनों बेहतरीन रचनाएं। क्या शब्दों में जीवंत कर दिया गाँव। लगता है मानों में अपना गाँव जी रहा हूँ। शानदार कविताओं के लिए बधाई।

Manoj ने कहा…

अद्भुत कविताएँ। सुधांशु को पहले भी पढ़ता रहा हूँ। पर अभी यह कविताएँ एक साथ पढ़ना एक शानदार रचनात्मक अनुभव है।

गुरूजी ने कहा…

फिरदौस व बुद्धू बक्सा के अकाल मौत पर बधाई