[अब हम नयी सरकार को अब अपने बीच पा रहे हैं. हम इन दिनों को किसी भयसंपन्न समयांतराल की तरह सामने रखने में भरोसा नहीं करते क्योंकि बेवजह भयाक्रांत होने से अच्छा है कि इन 'दिनों' की विवेचना की जाए, पूरे वैज्ञानिक ढंग से. इस क्रम में बुद्धू-बक्सा ने युवा रंगसमीक्षक अमितेश कुमार से बात की और हमने उनसे आग्रह किया संभावित संस्कृति और रंगमंच के अच्छे दिनों पर एक सुगठित विचार सामने रखें. अमितेश ने थोड़ी उलझन के साथ ही सही लेकिन मजबूत पहलुओं पर ध्यानाकर्षण किया है. समाज में संस्कृति को लेकर जो तमाम मतव्याप्त है, जो जाने-पहचाने कारकों की वजह से हैं, उनका स्टीरियोटाइप तोड़ना ज़्यादा ज़रूरी है. उसके संरक्षण के प्रयास तो होते ही रहेंगे, लेकिन सही छवि का बनना प्राथमिकता है. इस आलेख का शिल्प एक पत्र का है, जिसे तोड़ना हम अपराध समझते हैं. हम ऐसे और प्रयासों को साथ में जोड़ेंगे. इस आलेख के लिए बुद्धू-बक्सा अमितेश का आभारी.]
प्रिय बुद्धू-बक्सा,
अब इस बात को एक महीने से ऊपर हो गए, तब नयी सरकार बनी ही थी. अच्छे दिनों को लेकर उत्साह था जिस समय आपने यह आग्रह किया कि मैं इन पांच सालों में संस्कृति, विशेषकर रंगमंच के लिये, ‘अच्छे दिन’ आने की संभावना और इन अच्छे दिनों की प्रकृति क्या हो सकती है, इसकी कल्पना करूं. ऐसी कल्पना की गुंजाईश भी है क्योंकि यह सरकार साफ़ तौर पर एक निश्चित विचारधारा की पार्टी की बहुमत के तले बनी है. (यद्यपि इस निश्चित विचारधारा में भी काफ़ी लचीलापन है, जो अवसर के छिद्र में समाना जानता है) इस पार्टी की मातृसंस्था की संस्कृति को लेकर कुछ मान्यताएं हैं जिसका दर्शन हमें कभी अदालतों में और कभी सड़कों पर होता रहता है. पिछली दफ़ा इसी विचारधारा ने हबीब तनवीर और एम.एफ़.हुसैन जैसी शख्सियतों पर अपनी भरपूर निगहबानी दिखाई थी, इसलिए भविष्य को लेकर एक संदेह है कि अभिव्यक्ति और कला के जनपक्षीय माध्यमों का गला अवरूद्ध किया जायेगा. यकीन मानिए! छोटा ही सही एक हिस्सा है जो जनपक्ष को लेकर मुखर है और उसकी मुखरता में कोई भी भय बाधक नहीं है, लेकिन भविष्य को लेकर पुख्ता हो जाने के लिए ज़रूरी है कि इन नीतियों का सिरे से आंकलन किया जाए. लेकिन उससे पहले मैं अपनी कुछ उलझने आपसे साझा करना चाहता हूं.
आजकल मैं सोचता हूं और यह सोचता हूं कि क्या सोचूं क्योंकि मेरे सोचने की प्रक्रिया रूक-सी गई है. मैं अपने आपको एक सजग व्यक्ति मानता हूं (मुगालता ही सही) जो मार्क्स के अलगाववादी सिद्धांत को जानता है जिसने बताया कि आधुनिक उत्पादन व्यवस्था में मनुष्य अपनी मूलभूत संकायों से अलग होता रहता है. वह अपनी इंद्रियों का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पाता. साहित्य, संस्कृति, मनोरंजन से अलग होता जाता है जो उसने सामुदायिक जीवन में विकसित की थी और मनुष्य में पशु में फ़र्क कम होता जाता है क्योंकि फ़र्क करने वाले तत्व ही मनुष्य में नहीं रहते.
हम क्या सोचते हैं और क्या नहीं सोचते हैं, यह हमारी जीवन-शैली से तय होता है या आधुनिक समय ने सबके लिये तय कर दिया है. बचपन ही शुरू होता है प्रतिस्पर्धा से. स्थाई तौर पर पैर जमाना एक लक्ष्य है और एक बार जम जाए तो उसे बनाये रखना संघर्ष है. कम से कम मध्यवर्गीय समाज ने अपनी भावी पीढ़ियों के लिये यही भूमिका सोची है. ऐसे माहौल में वह उस संस्कृति से कितना जुड़ पाता है जिसे हम और आप ‘संस्कृति’ कहते हैं. ऐसे में वह आपकी तरफ़ हैरत में आंख फैलाता है और पूछता है, ‘क्या देखते रहते हो तुम नाटक वाटक… उसमें लोग आते हैं देखने… छोड़ो क्या जाओगे देखने… इत्यादि’. इनके लिए संस्कृति है वीकेंड की छुट्टी, सिनेमा, रेस्टोरेंट, बार, कैफ़े, टेलीवजन शो…..वह संस्कृति के उन क्षेत्रों के बारे में जानता भी नहीं, जिसकी चिंता में ‘संस्कृतिकर्मी’ और ‘सुरूचिसंपन्न अभिजन समाज’ का एक हिस्सा(बहुत छोटा ही सही) घुलता रहता है कि ‘भई! वह संस्कृति नहीं रही! कौन रखेगा इस संस्कृति को…’
हम एक ऐसी संस्कृति में रह रहे हैं जहां ‘फुरसत’ अब एक लक्जरी में बहुत आसानी से बदल गयी है. जिस संस्कृति की हम बात करना चाह रहे हैं, वह इसी फुरसत में पनपा था. जहां एक समुदाय के पास इतना समय था कि वह एक संस्कृति निर्मित कर सके, उसमें रम सके. मैं तो यही सोच रहा हूं कि ‘सरकार और संस्कृति’ के रिश्ते से पहले ‘समाज और संस्कृति’ के बीच के रिश्ते को और उसकी प्रक्रिया को समझना चाहिए, जिसका नियंत्रण सरकार नहीं कर सकती, जो अपनी गति से गतिशील होती हुई दिखती है साथ ही जिसके तल में इसको निर्धारित करने वाली नियामक शक्तियां है. सामाजिक बहुलांश इन नियामक शक्तियों की तरफ़ से आंख मुंदे रहता है और हमारी शिक्षा व्यवस्था या जनसंचार के साधन इस तरह विकसित ही नहीं हुए जिनसे इस समाज को इन शक्तियों के बारे में समर्थता से अवगत कराया जा सके. हो सकता है जो मैं कहूं वह बेहद खोखला और उथला हो, उसमें कोई दर्शन ही नहीं हो लेकिन यह बात मुझे बेचैन करती है कि कारपोरेट नौकरी करने वाला मेरा दोस्त नौकरी से लौटने के बाद इस लायक ही नहीं बच जाता कि वह कहीं किसी ‘संस्कृति’ का हिस्सा बन सके. आश्चर्य की बात ही है कि मेरे इस दोस्त जैसे कई लोगों ने इस नयी उम्मीद के साथ निज़ाम बदल दिया है, जो खुद एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा की पोषक है, जिसमें समावेशी गुंजाईश बहुत कम है.
हम जिस संस्कृति की बात कर रहे है उसके लिए भारत सरकार ने एक मंत्रालय बनाया है. वह मंत्रालय कुछ खास क्षेत्रों में ही काम करता है, जिसे वह ‘संस्कृति’ कहता है. रोजमर्रा की बन रही संस्कृति को संस्कृतिकर्मी और मंत्रालय संस्कृति नहीं मानते, वे उसे पॉपुलर संस्कृति में रिड्यूस कर देते हैं. आज हमारे चारों ओर इसी संस्कृति का बोलबाला है जिसका देवता लियोनेल मेस्सी, महेंद्र सिंह धोनी, शाहरूख खान, दीपिका पादुकोण, हनी सिंह, खेसारीलाल यादव और हमारे गणमान्य नेता हैं. देश की बहुसंख्यक जनता को अब इस बात से कोई मतलब नहीं कि कौन हैं अमजद अली खान, जिनका सरोद चोरी हो गया. उनके सामने इब्राहिम अल्काज़ी का नाम लेने पर ऐसे लगेगा जैसे आपने किसका नाम ले लिया. मैं दिल्ली में अक्सर देखता हूं कि सांस्कृतिक आयोजनों में शिरकत करने वाली आबादी बहुत थोड़ी है. इसमें से कुछ स्थायी हैं और कुछ बदलते रहते हैं.
तो फिर हम इस संस्कृति की बात क्यों कर रहे हैं जिसकी जद में एक बहुत छोटी आबादी है? क्या इसलिये कि इस पर बात करने से ही हम अपने को अलग और बेहतर मानते हैं. लेकिन इस संस्कृति की भीतरी दुनिया कैसे चलती है? माफ़ कीजियेगा कि संस्कृति के इस क्षेत्र में ‘संस्कृति के कारोबारी’ (यहां मैं कारोबारी पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूं) इतना रच-बस गए हैं कि अब उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन सरकार में है या नहीं है? उनका वास्ता पड़ता है संस्थानों से, मंत्रालय के अधिकारियों और बाबुओं से जिनके दरवाजे खोलने के लिये उन्होंने बहुत-सी चाभियां बनवा रखी हैं. संस्कॄति के ह्रास और उसकी विलुप्ति का राग अलापने वाले बहुधा चिंतक जब संस्कृति की चिंता कर रहे होते हैं, उस समय सिर्फ़ और सिर्फ़ वे अपने बारे में सोच रहे होते हैं. भौतिक उदाहरणों से इस बात को समझा जाना चाहिये. रंगमंच का उदाहरण लीजिए. रंगमंच के विभिन्न संस्थानों की संचालक समितियों, संगीत नाटक अकादमी की समितियों, अनुदान समितियों इत्यादि बहुत सारी समितियों में रंगमंच के वरिष्ठ विराजमान रहते हैं. सरकार बदलते ही वे दुबले होने लगते हैं कि अब इनका क्या होगा? दिल्ली की पिछली सरकार ने एक ही रंग निर्देशक से लगातार दो भव्य (यानी अत्यधिक मंहगी) प्रस्तुतियां कराईं. ऐसी मेहरबानी का क्या कारण था, जबकि पहली प्रस्तुति ही धन का अपव्यय थी और कलात्मक स्तर पर भी खरी नहीं थी. सरकार बदलते ही इन निर्देशक महोदय की सक्रियता कम हो गई.
संस्कृति मंत्रालय रंगमंच के क्षेत्र में बहुत से अनुदान देती है यह अनुदान कई प्रकार का होता है. प्रस्तुतियों के लिये महोत्सव के लिये, शोध के लिये, छात्रवृति के लिए इत्यादि. रंगमंच के लोग जमकर इस सरकारी अनुदान का लाभ लेते हैं, लेना भी चाहिए. लेकिन इन अनुदानों के उपयोग में ईमानदारी की तलाश करेंगे तो निराश हो जायेंगे. ‘रंगकर्मी स्वभावतः क्रांतिकारी होता है’ की अवधारणा से विश्वास उठ जायेगा. इन अनुदानों की बात करें तो लाखों रुपयों का अनुदान लेकर कुछ हज़ार में प्रस्तुतियां होती है. कभी नहीं भी होती और सारा पैसा डकार लिया जाता है. भारत भर में पेशेवर रंगमंडल चलाने के लिये अनुदान मिलता है, जिसमें संस्कृति मंत्रालय निर्देशक और रंगमंडल सदस्यों का मासिक वेतन देने के लिये अनुदान देता है. इस देश के कई जाने माने रंगकर्मियों नें फर्जी रंगमंडल बना रखे हैं, केवल इस अनुदान को हासिल करने के लिए. सक्रिय रंगमंडलियों में अधिकांश निर्देशक अपने अभिनेताओं को पैसा नहीं देते अलबत्ता उनसे हस्ताक्षर जरूर करवा लेते हैं. सरकार बदलने से पहली चिंता इसी बात की है कि यह अनुदान कम ना हो और नए प्रशासन से भी रिश्ता साध लिया जाए ताकि यह अनुदान निर्बाध मिलता भी रहे. इस नये निज़ाम में समस्या घोषित वामपंथियों को हो सकती है. सरकार उन्हें समितियों से हटा सकती है, उनको हतोत्साहित कर सकती है, सुविधाएं छीन सकती हैं(लेकिन कुछ वामपंथी भी पर्दे के पीछे अपना गणित साध लेंगे) क्योंकि इस सरकार के पास संस्कृति के क्षेत्र में भी संस्थाएं हैं, व्यक्ति हैं जिन्हें लाभ पहुंचाना इसकी प्राथमिकता मंि होगा, जो सभी सरकार के पास होता है. रंगमंच जैसी कला का काम है जनता के पक्ष में रहना और जो संस्कृतिकर्मी/रंगकर्मी जनता के पक्ष में रहते हैं उन इन फ़िज़ूल चिंताओं के अन्धकार में नहीं रहना चाहिए कि कौन सरकार में आता है और कौन नहीं? उन्हें जुझारू ढंग से अपनी बात जनता के सामने रखनी चाहिए. दुखद बात यह है कि रंगमंच के बड़े हिस्से को सरकारी अनुदान ने ऐसे अनुकूलित कर दिया है कि वह सरकार का विरोध नहीं कर सकती. वैसे इस मुल्क में ही हबीब तनवीर भी थे जो कहते थे कि ‘चार पैसे लूंगा और चार गाली दूंगा’ यानी सरकारी रकम लेकर भी जनता के पक्ष में रहा जा सकता है. ऐसा उनके रंगकर्म में भी देखा गया है.
मैंने आपके कहने के बाद मैंने गुजरात सरकार की वेबसाइट देखी. उसके अवलोकन से ऐसा नहीं लगता कि वहां संस्कृति को खासकर रंगमंच को लेकर सरकार के पास कोई योजना या कार्यक्रम है. गोवा की संस्कृति अभी चर्चा में है और हमारे संस्कृति मंत्री भी वहां से है तो देखना है वो क्या करते हैं? कुछ शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं. किताबों पर हमले के साथ शुरू हुई यह प्रक्रिया तेज हो सकती है. क्योंकि अब हुड़दंगी संगठन पूरे आत्मविश्वास से भरे हुए हैं. पटना की एक सभा पर हमला, दि.वि. के प्रोफ़ेसर पर हमला – सम्भव है कि इन शुरूआती घटनाओं में ही भविष्य की संस्कृति के संकेत हो. इन्हीं संगठनों ने हबीब तनवीर और एम.एफ़.हुसैन जैसे संस्कृतिकर्मियों को अपना निशाना बनाया था. हुसैन साहब देश छोड़ गए, हबीब साहब टिके रहे और लगातार विरोध झेला. विडंबना यह भी रही की इसी सरकार ने मरने के बाद इनका राजकीय सम्मान भी किया.
चुनाव के पहले आने वाली सरकार का नारा रहा है ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ और अच्छे दिनों के लिए ‘विकास’ की प्रक्रिया को तेज किया जायेगा. भारत की संस्कृति का ‘विकास’ के साथ संबंध अच्छा नहीं रहा है. जब से विकास हो रहा है भारतीय संस्कृति की बहुत-सी कलाओं का विलुप्तिकरण तेज हुआ है. विकास का रिश्ता विस्थापन से है और जब विस्थापन होता है तो संस्कृतियां उजड़ती हैं. इन उजड़ती हुई संस्कृतियों को संग्रहालय की वस्तु की तरह बचाने की कवायद होती है लेकिन उसमें वह जीवंतता नहीं रहती. भारत की बहुत-सी रंगमंचीय कलाओं को ‘विकास’ ने ठिकाने लगा दिया ही. स्काईस्क्रैपर्स, मॉल्स, फ़्लाईओवर्स, मल्टीनेशनल्स, बुलेट-ट्रेन इत्यादि से सज्जित विकास का मॉडल ही नयी सरकार का भी लक्ष्य होगा ना कि कोई समावेशी मॉडल जिसमें हर तबके और संस्कृति की जगह हो. भारतीय संस्कृति को यकसापन यानी समरुपीकरण से भी खतरा है. अब तो ‘विविधता में एकता’ का विचार ही संकट में हैं क्योंकि उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद यकसापन की रफ़्तार अभूतपूर्व रूप से तेज रही है. कोलकाता के साल्टलेक सिटी और दिल्ली एन.सी.आर. के द्वारका और नोएडा की संरचना में बहुत ज्यादा फ़र्क नहीं रहा. विकास की सरकार इस प्रक्रिया को और तेजी दे देगी.
भारतीय संस्कृति, वह नहीं जैसा वर्तमान सरकार व्याख्यायित करेगी बल्कि वह जो वास्तव में है, विविधता और विरोध के सामंजस्य की संस्कृति रही है. ऐसे में ‘विरूद्धों के सामंजस्य’ को सरकार कितना प्रभावित करेगी यह देखने वाली बात होगी.
आपका अमितेश.
2 टिप्पणियाँ:
Bahut suchintit tippani. Sanskriti ke kaarobaariyon ko benaqaab karna bhi zaroori hai.
तार्किक पड़ताल.
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