(राजेन्द्र यादव की मृत्यु के साथ भद्रलोक में उनसे सीधे तौर पर जुड़े विवाद अंतिम रूप में सुकर्मों में तब्दील हो गए. लोगों ने फेसबुक ट्रायल तक को राजेन्द्र यादव की मृत्यु का कारण घोषित कर दिया और कुछ अवसरवादी यह तक तलाश करने लगे कि ज्योति कुमारी राजेन्द्र जी को श्रद्धांजलि देती हैं या नहीं. वैचारिकता और संसारिकता में काफ़ी अंतर व्याप्त है. बुद्धू-बक्सा उस अंतर को भांपते हुए राजेन्द्र यादव के बाद भी उन्हें संजोए रखने की कामना करता है. राजेन्द्र यादव की मृत्यु एक क्षति तो है ही, लेकिन इस क्षति की विराटता का अंदाज़ कुछ समय बाद 'राजेन्द्र-यादव-विहीन' समय में ही लगाया जा सकता है. वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे ने तवे के दोनों पृष्ठों को सामने रखकर एक आत्मीय बातचीत की है, जो कहीं न कहीं से राजेन्द्र यादव को सही तराजू पर तौलती है. यह लेख आज के नवभारत टाइम्स के सभी संस्करणों में प्रकाशित. इसे छापने की अनुमति देने के लिए बुद्धू-बक्सा लेखक और सम्पादक का आभारी. तस्वीर दिनेश खन्ना की.)
आज की युवा लेखक-और-पाठक पीढ़ी तथा अगली नस्लों के लिए राजेंद्र यादव मुख्यतः क्या रहेंगे – कहानीकार-उपन्यासकार या नए ‘हंस’ के वह सम्पादक जिसका खंडन-मंडन से भरा अपना एक निजी दलितवाद-नारीवाद-सेकुलरवाद था? जिस तरह राजेंद्र ने दशकों पहले सर्जनात्मक साहित्य छोड़ दिया था उसी तरह शायद पाठकों ने भी तभी उनके गल्प को तज दिया था – ‘नई कहानी’ की अकादमिक और साहित्यिक-राजनीतिक चर्चा अब कमोबेश अप्रासंगिक हो चुकी है, आम पाठक पहले भी सिर्फ़ ‘अच्छी’ कहानी पढ़ना चाहता था - और दुर्भाग्यवश आज तो कोई भी ढंग से मोहन राकेश और (‘कितने पाकिस्तान’ को छोड़ कर) कमलेश्वर तक को पढ़ना नहीं चाहता. यह याद करने से कोई फ़ायदा नहीं है कि राजेंद्र ने ‘प्रेत बोलते हैं/सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘कुलटा’, ‘शह और मात’, ‘अनदेखे अनजान पुल’, ‘मंत्र-विद्ध’, ‘एक था शैलेन्द्र’ जैसे उपन्यास और बीसियों कहानियाँ लिखी हैं क्योंकि एक तो वे आसानी से उपलब्ध नहीं हैं और दूसरे उन्हें लेखक की मृत्यु के दुखद प्रसंग पर ही सायास याद किया और झाड़-पोंछ कर कहीं से निकाला जाएगा. शायद कोई चैनल कहीं से ‘सारा आकाश’ की डीवीडी हासिल कर के देर रात दिखा दे तो दिखा दे. राजेन्द्र ने साहित्य में बिना लिखे बने रहने के दो नुस्ख़े आज़माए – पहले ‘अक्षर प्रकाशन’ खोला लेकिन वह बेवकूफ़ी, बदनामी और घाटे के साथ बंद हुआ. दूसरा फ़ॉर्मूला अलबत्ता कामयाब रहा. प्रेमचंद द्वारा स्थापित किन्तु दशकों से बंद मासिक ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन शुरू किया गया जबकि राजेंद्र सहित सभी जानते थे कि न तो नया सम्पादक प्रेमचंद का सही वारिस है (न होना चाहता है) और न नया ‘हंस’ असली ‘हंस’ का, जो दरअसल बगुले, कौए और चील का विचित्र संकरश्लेषावतार है. उसमें छपी पाँच प्रतिशत कहानियाँ भी टिक पाएँगी इसमें संदेह है. हाँ, बेशक़, दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के कुछ प्रश्नों पर ‘हंस’ के जोशीले सम्पादकीयों ने मिश्रित स्तरों की लेकिन व्यापक बहसें चलाईं और कभी-कभी उसके वार्षिकोत्सव पर राजेन्द्र से श्रेष्ठतर बुद्धिजीवी सार्थक बहस-मुबाहिसा कर लेते थे. दुर्भाग्यवश, नारी के अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य को वामपंथी कहलाए जाने वाले राजेन्द्र ने लेखिकाओं से यौन-तथा-बलात्कार-स्वीकारोक्ति की उत्तेजक-चटखारेदार कहानियाँ लिखवाने तक सीमित कर दिया – वह 1968 में पहली भेंट से ही मुझे नारियों का शौक़ीन लगा था, उनके बीच लोकप्रिय भी था और ‘हंस’ के पृष्ठ इस तरह से उपलब्ध हो जाने के बाद कुछ अभागी लेखिकाओं के लिए अपनी असामान्य शारीरिक दिक्क़तों और उम्र के बावजूद वह आकर्षक होता चला गया जिससे उसका अच्छा-खासा, मन्नू भंडारी सरीखी प्रेम-विवाहिता पत्नी वाला, पारिवारिक जीवन बर्बाद हो गया और अंतिम कुछ वर्षों में तो वह कई अशोभनीय, लगभग आपराधिक, विवादों में भी पड़ गया जिन्होंने उसका पीछा अभी उसकी मृत्यु तक नहीं छोड़ा. इसके लिए राजेन्द्र की लम्पटता और उसके जीवन या ऑफिस में आने-जाने वाली कुछ औरतों का विकृत, विवश, दुचित्ता और पाखंडी मनोलोक दोनों उत्तरदायी हैं. यह तो आगामी कुछ दशक तय करेंगे कि राजेंद्र को एक गल्पकार की हैसियत से याद रखा जाता है या सार्थक, उत्तेजक बहस उठानेवाले एक साहसी सम्पादक के रूप में - वैसे उसने चेखौफ़, लेर्मोंतौफ़, तुर्गेन्येफ़, स्टाइनबैक और कामी के अनुवाद भी किये थे और बहुत खराब कविताएँ भी लिखी थीं - या महज़ एक यौनलालसी की तरह. उससे मैं सघन संपर्क में तब आया था जब उसके और मेरे अभिन्न मित्र शानी साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के संस्थापक-सम्पादक नियुक्त हुए थे. राजेन्द्र के साथ मैंने कई नारीविहीन किन्तु रंगारंग शामें बिताई हैं जिनमें अलीगढ का युवा साहित्यप्रेमी साजिद, नैशनल प्रकाशन के प्यारे मालिक कन्हैयालाल मलिक और शानी हुआ करते थे. राजेन्द्र को आप कुछ भी कह लीजिए, उसमें परिहास-भाव अद्वितीय था, उसे गुस्सा नहीं आता था, वह मुस्कराता रहता, कभी-कभी अपनी विशिष्ट शैली में ताली बजाता और विस्की के साथ मेरे द्वारा उसके लिए जर्मनी से लाया गया पाइप पीता रहता. वह मुझे हमेशा ‘राक्षस’ या ‘दानव’ कहता था और मैंने उसे कभी भी ‘लम्पट’ के सिवा कुछ नहीं कहा, ‘आप’ से भी संबोधित नहीं किया. उसके सम्पादकीय पढ़कर ‘टुच्चा जीवन उच्च विचार’ भी कहे बिना नहीं रहता था. लेकिन वह ‘हाँ बेटा राक्षस’ कह कर हँसता ही रहता था. कुछ भी हो, 83 वर्ष की उम्र में भी शानी के शब्दों में वह इतनी ‘’उछलकूद’’ करता हुआ गया कि हिंदी परिदृश्य को और मनहूस छोड़ गया.
5 टिप्पणियाँ:
अहा , अहो के एक निहायत दो मुंहे, लिजलिज़े , रस्मी और पाखंडी महौल में बहुत नाजुक मौके पर भी बेलाग ढंग से अपनी बात कहने वाले विष्णु खरे के साहस को प्रणाम !
- विजय कुमार
राजेन्द्र जी हमेशा विवादों में रहे .उन्होंने सदैव असहमतियों को आमंत्रित किया .विष्णु खरे जी ने यदि अपने विचार प्रकट किये तो यह उनकी अपनी अभिव्य्क्ति है .उन्होंने एक दूसरे धरातल से उन्हें देखा। हमें उनके विचारों को दुर्भावना से नहीं जोड़ना चाहिए .नेहरू जी के मरणोंपरांत लहिया जी ने भी नेहरू जी पर एकदम तटस्थ और निर्लिप्त होकर लिखा था।विश्व प्रसिद्ध कवियत्री शोमबस्का ने कहा है कि मौत कोई प्रूफ रीडर नहीं .madhu kankaria
मेरा जीमेल एकाउंट हैक हो गया था और किसी ने मेरे एकाउंट से काफी मेल और टिप्पणियां की। हैरत इतनी रही कि हैकर ने बस साहित्य संसार में रुचि ली। मैं अब अपना एकाउंट वापस पाने के बाद जगह-जगह वो टिप्पणियां हटाकर अपनी राय प्रकट कर रहा हूं। राजेन्द्र यादव के चले जाने पर मेरी प्रतिक्रिया जो फेसबुक पर है उसे यहां भी लगा रहा हूं।
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उनसे असहमत होना आसान था। वे खुले घाव थे। ख़ुद को भरपूर कुरेदते भी रहते थे। अकसर उन्हें घायल और अपने ही घावों से मज़े लेते देखा। नई कहानी के ज़माने से ही उन्हें कई सारी सही-ग़लत बातों का श्रेय लेने की विवादप्रिय आदत थी। उनके जाने से एक टारगेट ख़त्म हो गया जिसे उन्होंने ख़ुद ही औरों के लिए तय कर दिया था। अब उनकी याद आएगी महज एक याद की तरह।
आश्चर्य की बात है कि हैकर हिन्दी में कार्यरत है. लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि संभवतः आपने गाहे-बगाहे किसी के सामने अपना पासवर्ड ओपन कर दिया होगा, बांगड़ू को तो खुला खजाना मिल गया होगा....या शायद और कोई बात भी हो सकती है.
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