बुधवार, 20 नवंबर 2013

मनोज कुमार झा की नई कविताएँ

(इस बार हम मनोज कुमार झा की नई कविताओं के साथ आप सब के बीच आए हैं. इस काव्यहीन समय में मनोज कुमार झा की कविताएँ अपनी मौजूदगी के साथ प्रतिवाद के लिए आश्वस्त रखती हैं. हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि ने कहा है कि कुछेक युवा कवियों को छोड़कर बाकी सभी नया नहीं रच रहे हैं. उन सभी की कविताएँ एक ही कक्षा से निकली कविताएँ लगती हैं, और यही आज की कविता का नुकसान है. मनोज कुमार झा की कविताएँ ऐसी कविताओं के जवाब के रूप में खड़ी होती हैं. जिस समय फेसबुक रचनाशील होने के मानक तय कर रहा है, जहाँ कृपालु ब्लॉगों पर 'उबाल मार रही', 'खौल रही', 'चौंका देने वाली' और ऐसे ही अन्य उपमानों से सम्मानित रचनाएँ छप रही हैं, वहाँ मनोज कुमार झा भाषा और शिल्प के आविष्कार से इन सभी उपमानों-सैलाबों को ध्वस्त कर देते हैं. अटल रहते हुए यहाँ यह भी जोड़ना ज़रूरी है कि मनोज स्वतंत्र स्मृतियों से ज़्यादा गूढ़ विचारों के कवि हैं. इन कविताओं के लिए बुद्धू-बक्सा मनोज कुमार झा का आभारी. मनोज की पिछली कविताएँ यहाँ.)


चली जाओ तुम
चली जाओ तुम
इस रात का रंग थोड़ा और गाढ़ा कर दो
तुम्हारे पास अभी रंग अनेक
और हमारा कागज जला हुआ, छुओ तो चूर
तुम्हारे पास समुद्र की प्यास के लिए पर्याप्त नमक है
मेरे पास मात्र एक पुराना जलपात्र
हमारे बीच एक नदी बह रही
तुम उड़ेल दो इसमें अपना ऐश्वर्य का मधुपात्र मैं अपनी नींद की सलवटों में
जमी नमक का चूर सौंपता हूँ.


मैं सबसे आखिर में कहूँगा मुक्ति 
लड़की ने जिन्स पहनी लड़के ने चाय बनाया
दोनों ने साथ-साथ बदला कपड़ा
लड़की जल्दी में थी फटाफट लड़के ने लगा दी लिपस्टिक
लड़के को भी वक्त कम था लड़की ने टार्इ का नाट बांधा
दोनों साथ साथ हँसते निकले अपने अपने काम पर
एक और सुखी परिवार थोड़ा और सुखी हुआ।

यह तो बस थोड़ा है
परिवार की पूँछ की तरह स्लिम और साफ करती थोड़ी धूल
मैं इसे मुक्ति तो पुनर्जन्म के वादे पर भी नहीं कहूँगा
घेर लिया गया तो आखिर में उठाउँगा हाथ।


धीमापन 
मैं झूठ बोलता हूँ मगर धोखा नहीं देता
कहते हुए दूरी ज्यादा बताकर वाजिब किराया मांगा रिक्शेवाले ने
अपने बाल को संवारते हुए हाथों से वो मुस्काया
तुम्हारा सोचना धीमा सोचना है कहा था एक साहिब ने
मैनें सोचा साहिब कि क्या जरूरी हर कोर्इ पकड़ ले एक ही गति


अपूर्ण
कष्ट देता है देह नृत्यमग्न
मैं वहाँ से आया हूँ जहाँ विकलांगों की आँते बिकल
अकबकाता हूँ कहता त्राहिमाम जब
तिल सी श्यामल देह को
कोर्इ कहता है सुंदर
मैं वहाँ से आया हूँ जहाँ
कोयले के टुकड़े और सुश्याम
आदिवासी युवतियाँ बोरे में भर दी जाती हैं
खुली उज्जवलता वाला चेहरा भी मुझे सुख
नहीं पहुँचाता
मैं उस रात स्टेशन पर था
जब एक गौरवर्णा विक्षेपपथा कन्या
को खदेड़ रहे थे पाँच-दस शोहदे।


दूसरी तरफ से
सिर्फ होने से मैं
बहुत सी सुन्दरताएँ नष्ट कर देता हूँ
कुछ नष्ट करता है मेरा मनुष्य होना
विचरण करना धरती पर
पुरूष होना
किसी परिवार का होना
किसी का पुत्र होना
मेरे लिए एक ही श्रम बचता है
मैं अपने होने को इस तरह झुकाऊँ
कि कुछ कुरूपताएँ भी नष्ट कर सकूँ


मूर्तियाँ जो पूजी नहीं जाती
इन मूर्तियों को लत नहीं लगी है अक्षत चंदन की और कैमरे के फ्लैश की
ये प्रस्तर-मूर्तियाँ मुझे आर्शीवाद देती हैं
कि जिओ कैमरों के फ्लैशों पर पीठ देकर
मैं कृतज्ञ हूँ इनका
कि ये नहीं कहती कि
तुम मुझे नहीं पूजोगे
तो साँप बनकर तुम्हारी आस्तीन में घुस जाऊंगी
मैं प्रणाम करता हूँ इन्हें कि
न ये मक्खियों की शत्रु हैं और न चमगादड़ों की
दिन और रात की बेजौक क्रीड़ा से बहुत दूर
ये हमें मुक्त करती हैं कि उपेक्षा भी करोगे तो भी
मैं जीवित रहूँगी
अपनी ऊब से और मजबूत होती एक पत्थर।


यह सरल शांति बारिश की
वृक्षों पर बारिश झहर रही है
अच्छा कि नहीं कोर्इ भी साथ यहाँ
चुन सकता हूँ बारिश की एक एक ध्वनि
दीवार के पार जो पानी का प्रदेश है
मैं सदा से उसी में रहना चाहता था
पानी के पंखों को सहलाता, उनकी चोंच से करता आँखें स्वच्छ
मगर एक दीवार तक नहीं तोड़ पाया पचास साल के जीवन में
अच्छा है कोई नहीं अभी यहाँ
और जल-प्रहार ने उठाए हैं सुगात एकांत।

(तस्वीर सिद्धान्त मोहन द्वारा खींची गयी)

9 टिप्पणियाँ:

शकुन्‍तला शर्मा ने कहा…

" मूर्तियॉ जो पूजी नहीं जातीं" मुझे समझ में आई और बहुत अच्छी लगी । प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

मृत्युंजय ने कहा…

मनोज भाई की कविताओं में एक उदास मन है, जो थिराती बेचैनी से भरा हुआ है। ये कवितायें समवेदनाओं के ऐसे खंड हैं, जिनका मैं एहतियात बरतता है... इस एहतियात के कारण कविता में दर्ज नहीं, पर उसका असर यहाँ बखूबी नुमाया होता है !

अभी यही...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बेहतरीन कविताएँ.....

अनु

Unknown ने कहा…

स्त्री मुक्ति को नए तरीके बयां करना अच्छा लगा और आपकी अन्य कविताएँ भी.

Nidhi ने कहा…

achchhii kavitaayein!

anupriya ने कहा…

मन में गहरे उतरती बेचैन करती रचनाएं .

आशुतोष कुमार ने कहा…

मूर्तियाँ अपने विलक्षण व्यंग्य और मार्मिक संवेदना के चलते यादगार कविता हो गयी है .

Uday Prakash ने कहा…

मुझे इन कविताओं को समझने में कुछ मुश्किलें हुईं. ...जल-पात्र, मधु-पात्र, जल-प्रहार, विक्षेपपथा, बेजौक क्रीड़ा ..और 'सु-गात' तथा 'सु-श्याम' देख कर तो लगा कि 'प्रिफिक्स' का ऐसा आत्मविश्वस्त प्रयोग कहीं रूढ़ि-ग्रस्त भाषा का वही संस्कार तो नहीं, जिसे हिंदी विभागों के असह्य आचार्य आज भी जबरन चलाना चाहते हैं.
कविता कई तरह की सावधानियां मांगती है. अर्थ और अनुभव के अलावा शब्द-व्यवहार में भी.
(क्षमा पूर्वक लिखा. हमला मत कीजियेगा निरर्थक...)

Kalawanti Singh ने कहा…

bahut mithi kavitayen.