शनिवार, 12 जून 2010

आये सुर के पंछी आये…..

पहली बार ही बड़े मोर्चे को चुना है मैंने. फ़िल्म है १९८५ में बनी सुर संगम जिसमें लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत है, गीतकार हैं वसंत देव, और सुरों से अनूठे ढंग से खेलने का काम किया है राजन-साजन मिश्र ने.

ये फ़िल्म और इसका संगीत मेरे लिए ख़ास हैं क्योंकि मेरी याद में यही एक ऐसी चीज़ है जो पं. जालपा प्रसाद मिश्र को बैठके से उठने के लिए उकसाती थी.

पहला गाना है हे शिवशंकर हे करुनाकर. फ़िल्म में इस समय गिरीश कर्नाड मंदिर में भगवान् शंकर को ललकारते मिलते हैं. गाने के बोल कुछ इस तरह हैं -

हे शिवशंकर हे करुनाकर परमानन्द महेश्वर
मेरे भीतर तुम गाते हो,
सुन लो तुम अपना ये स्वर.
मौन गान का ध्यान जमाया
योग राग को ही माना
तुम्ही बने हो तान प्राण की
मेरे तन-मन को पावन कर.

वैसे ये गीत तो राजन मिश्र का गाया हुआ है, लेकिन अपने पिता-गुरु की कसम के अनुसार अगर दोनों में से कोई भाई अकेला भी गाता है, तो भी नाम दोनों का ही आएगा, तो ये राजन-साजन मिश्र का गाया हुआ है. ललकारती आवाज़ एकदम भीतर तक झनझना देती है. क्षमा करें, ये कोई आवाज़ नहीं है…ये नाद है, झंकार है, एक आदत है जो शायद उत्तर भारत में गंगा के किनारे बसने वाले घाटों और मंदिरों वाले प्यारे शहर में ही पायी जाती है. लोगबाग इसी आदत को अपनाए हुए हैं पान और चाय की दूकानों पर बात करते समय, घर के छाजन पर सुंघनी या दातुन करते हुए या अपने अनुजों को डांटते हुए. रियाज़ के समय की बातें याद आयीं तो बता दूं कि ये नाद नाभि से उठता है. बहरहाल, इस गीत का वीडियो देखिये – 


जाऊं तोरे चरन कमल पर वारि….. यहाँ मिश्र बंधुओं के साथ लता मंगेशकर भी जुड़ जाती हैं. बंदिश कुछ ख़ास नहीं है, राग भूपाली है लेकिन गीत बड़ा ख़ूबसूरत है. मैं इसे सुनने के बाद सोचता हूँ कि कोई इतना ज़्यादा फैलाव समेटे कैसे गा सकता है, लेकिन फिर याद आता है कि भई ये तो बनारस घराना है, फैलाव समेटना ही यहाँ आपकी परिपक्वता का पैमाना है. यहाँ आपको अपनी तानों और आलाप पर आपको ज़ोर देना है, न कि अपनी गायकी के अंदाज़ पर, नहीं तो अपने गुरु से आपको मिलने वाले ५ से १० रुपये के ईनाम नहीं मिलेंगे या फिर आपको बैठके में बैठने की अनुमति नहीं मिलेगी.


अपने असरानी साहब भी फ़िल्म में इस गीत का एक बार मज़ाक उड़ाते हुए पकड़ा जाते हैं. छोटा बालक अपनी गुरु बहन से जिस तरह स्वर-विस्तार लिखवाता है या जिस तरह से पं. शिवशंकर शास्त्री का रूप अख्तियार कर अपनी माँ के सामने गाता है, वह बड़ा ही प्यारा है.

एक और गीत, प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो, जानकी जी का गाया हुआ है. सुन्दर लेकिन उतना करीब नहीं जितना अन्य. फिर भी अपनी लम्बाई में कम होने के बावज़ूद ये काफ़ी खेल समेटे हुए है. जयाप्रदा शुरू करती हैं और उनका पुत्र इसे अपने गुरु की चौखट पर लाकर ख़त्म करता है. इकतारा लेकर झूमना थोड़ा नाटकीय लगता है, हाँ भई! इस पूँजी की होड़ में शायद मुझे ये नाटकीय ही लगे.

और भी कई गीत हैं जैसे धन्य भाग सेवा का अवसर पाया या मैका पिया बुलावे, जो आपको मस्तियाने पर मज़बूर करते हैं.

मेरे मुताबिक़ इस फ़िल्म के बारे में लिखना उतना ही आसान है, जितना कठिन इसके संगीत के बारे में लिखना है क्योंकि यहाँ संगीत सिर्फ़ संगीत नहीं है, यह कुछ बड़ा और वज़नदार है, कुछ विराट है जिसे मैं वर्णित नहीं कर सकता हूँ. यहाँ बनारस घराने की वही सोंधी सी खुशबू मिलती है जिसको पाने के लिए गलियों और घाटों का सहारा रह गया है.
 
सोचना है कि, आपने संगीत सुना ही होगा या फ़िल्म तो देखी ही होगी. यदि नहीं तो फ़िल्म के पीछे मत भागियेगा, संगीत सुन लीजिये. आपको ख़ुशी होगी.

4 टिप्पणियाँ:

sameer ने कहा…

मिश्र बंधु..क्या बात है! उम्दा प्रस्तुति!

vyomesh shukla ने कहा…

बढ़िया पोस्ट. बनारस का आत्मसम्मान और बनारसी गद्य – दोनों की झाँकी इसमें है, और संगीत की अत्यन्त सयानी समझ तो है ही, लेकिन इसे बहुत आगे ले जाना है.

Himanshu pandey ने कहा…

bahut achha ja rahe ho ssiddhant bhaee…..
keep it on…
keep it up.

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

व्योम सही कह रहा है..