सोमवार, 28 जून 2010

प्रेम-प्रसंग

बीच में एकाध बार ये हुआ कि मेरा नाम नाहक़ ही काजोल के साथ जोड़ा गया, तो मेरी आपसे गुज़ारिश है कि ऐसी अफवाहों पर ध्यान ना दें.

यूं तो ऐसा हम सभी के साथ होता है जब किसी नायिका को मन ही मन हम दिल दे बैठते हैं, मेरे साथ भी ऐसा ही होता है और शायद मैं इस क़बूलनामे जैसे कुछ से ये सभी को बताने जा रहा हूँ.

मेरे प्रेम(इकतरफा) का आगाज़ हुआ फ़िल्म गाइड के साथ, जहाँ वहीदा रहमान हैं और उनके साथ देवानंद साहब. काँटों से खींच के ये आँचल …. इस गीत की शुरुआत ही वहीदा रहमान के लिए स्नेह पैदा कर देती है साथ में हल्की गुलाबी साड़ी और घास पर इनकी उन्मुक्त अदाएं और भी रिझाती हैं. शायद वो समय भी अनूठा है जब वहीदा निकलती हैं बाज़ार में. उसके बाद फ़िल्म से ज़्यादा रोचक लगता था उस ख़ूबसूरत अभिनेत्री को निहारना. मैं ये ज़ुर्म कबूलता हूँ कि आज भी मैं गाइड, जो कि एक अच्छी फ़िल्म है, सिर्फ़ और सिर्फ़ उस नितांत सुन्दर अभिनेत्री को देखने के लिए देखता हूँ. एक और बड़ा उत्तेजक क्षण आता है जब फ़िल्म के आखिरी समय में जब वहीदा उस सूखाग्रस्त क्षेत्र में नंगे पाँव और पसीने से लथपथ होकर, शायद गुलाबी रंग की साड़ी पहने हुए चलती हैं, उस मनमौजी आशिक़ की तलाश में जो जोगी हो गया है. पसीने से भीगा गला और ऊपरी सीना रोमांचित करता जाता है. कभी कभी तो मन करता है उस समय फ़िल्म के भीतर होने का जब देव और वहीदा एक साथ लम्बा समय गुजारते हैं. गाइड के काफ़ी समय बाद मैंने प्यासा देखी, जिसने मेरे प्रेम के भावों को और चिंगारी दी. सच कहूं तो मुझे बार-बार प्रेम शब्द जोड़ना बड़ा ही सस्ता और बाजारू लग रहा है, ये शब्द शायद अब सही मायनों में बाज़ार में बिकने लगा है, लेकिन जनाब इसके पीछे छिपे सार को समझिएगा, न कि शब्द को. अभूतपूर्व सौंदर्य का पाठ पढाता है प्यासा का वो दृश्य जब वहीदा गुरुदत्त को उन्ही की नज्में गाते हुए रिझाती हैं या एकदम अंत में जब गुरुदत्त घर का दरवाज़ा खोल भीतर घुसते हैं और वहीदा के चेहरे पर एक अलौकिक चमक सी फैली दिखती है और आँखों में आंसू हैं.

दरअसल, हिन्दी सिनेमा के जिस दौर में हम सब वर्तमान में हैं, वहाँ से अच्छे निर्देशकों की फसल ख़त्म हो चुकी है, जो भी कुछ बचे हैं या जिनसे पहले कुछ उम्मीदें हुआ करती थीं वे भूत-प्रेत, छिछला सा रोमांस और दो टके के सामाजिक विषय जैसे विषयों पर ऊटपटांग सी फिल्में दिन-ब-दिन बनाते जा रहे हैं. गिरिराज किराडू की मानें तो ऐसे निर्देशकों की फसल को एक नाम “करन गोपाल चोपड़ा” दिया जा सकता है. इक्कादुक्का ही निर्देशक अच्छी फ़िल्में बना रहे हैं और शायद इन्ही लोगों से ये आशा की जा सकती है कि किसी अभिनेता या अभिनेत्री को उसके सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर ले जाकर दिखा सकें.
 
जैसे मधुर भंडारकर ने फैशन में किया, मधुर ने प्रियंका चोपड़ा को निहायत ही खूबसूरती के साथ पेश किया. वैसे भी फैशन का विषय ही बड़ा ग्लोरिफाइड है लेकिन फिर भी यहाँ ग्लोरिफिकेशन का सहारा कम से कम लिया गया. तो इस तरह से वहीदा रहमान के बाद मैं मुरीद हुआ प्रियंका चोपड़ा का. यहाँ भी एक गीत है, मर जावां… जिसमें प्रियंका की शीतल और सौम्य खूबसूरती को इस गीत के बैकग्राउंड में रखा गया है. दोस्ताना नामधारी ऊटपटांग फ़िल्म में प्रियंका के अलावा शायद किसी भी किरदार को इतनी बेह्तरीनी के साथ नहीं दिखाया गया है. अगर अदाकारी के बारे में भी थोड़ा सोचा जाये तो प्रियंका के साथ फैशन की कंगना रनौत को भी जोड़ा जा सकता है लेकिन उस एक्सटेंट तक नहीं.


ख़ैर, आख़िर में अपने चेहरे पर अपने बचपन को संजोये हुए एक अभिनेत्री आती है, जेनेलिया डिसूज़ा, जाने तू या जाने ना के पहले कुछ दक्षिण भारतीय फ़िल्मों में काम कर चुकी हैं. चेहरे के मुताबिक़ आवाज़ पाई है, आवाज ऐसी कि सुन कर लगता है कि वह गले में ही कहीं फंस कर रह गयी है. ये एक नयी अभिनेत्री हैं, इन्हें अभी आगे बहुत कुछ करने के लिए बख्श देता हूँ, लेकिन ये मालूम रहे कि मैं इन्हें और प्रियंका को एक ही साथ रखने की जिद में हूँ.

अन्य कई अभिनेत्रियाँ आई, नये में बिपाशा बसु, लारा दत्ता और भी कई…पुरानों में इसी तरह कुछ लेकिन वे सीमाओं को लांघकर ख़ूबसूरत दिखने की चाह रखती हैं/ थीं. ये सब कुछ ऐसा है कि आपको इस पैमाने पर अपने को फिट करने के लिए कहानी और कैमरे की समझ भी होनी चाहिए.

4 टिप्पणियाँ:

sameer ने कहा…

अच्छा आलेख एवं विश्लेषण!

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

सिद्धांत आपके ब्लॉग पर आकार हमेशा अच्छा लगता है….हमेशा कुछ अलग, कुछ नया-सा …..

vyomesh shukla ने कहा…

Badhiya teep. Ise, agar meri salaah maano to ek doosre tareeqe se bhi likhna kabhi, Fimon aadi ko bhoolkar, zyada aatmkathatmak hokar, zyada kaavyatmak hokar bhi, tab ek bhinn raah nikal sakti hai. Lekin salaah se teep ka mahatw kam nahin hota.

Aur yah kitna sukhad hai ki Shirish Bhai tumhen dhyaan se dekh rahe hain, iski bhi badhai.

chadan ने कहा…

sidhaant tumhe likhte-badhte dekh itana sukhad lag raha hai ki kyaa kyaa kah doon vo bhi kam hai..apane aage ek chhotaa bachchaa tha yaar tu aur aaj kitni jimmedari se blog manage kar rahe ho..xcelent.

Keep wrriting regularly. Kisi bewakoof buddhijivi ki us baat kaa bharosha mat karna ki jab kuchh mahan vichaar janm legaa tabhi likhna chaahiye..aisa kaam sirf aur sirf kshamataheen log karte hain..khoob likho..khoob mtlab khoob..achchaa apane aap ho jaayega..

But i like Jenelia de’soza