रविवार, 26 फ़रवरी 2017

मेरे पास क्या है एक बेजुबान आं है - देवी प्रसाद मिश्र की कविता

पावेल कुचिंस्की का एक चित्र

पता नहीं यह रुलाई कैसी सी है


मैं लिखित कविता की किसी तरह आती जाती साँस हूँ

उदास हूँ

मैं साहित्य से बाहर की बदहवासी हूँ मैं हवा को हेलो कहता पेंटागन का नहीं बच्चों का बनाया कागज का हेलीकॉप्टर हूँ अंधड़ हूँ मैं ईश्वर के न होने के उल्लास में सोता हुआ बेफिकरा लद्धड़ हूँ।

चकबंदी, नसबंदी और नोटबंदी
                                               के गलियारों से गुज़रता मैं खुले जेल का बंदी


मैं ढूंढ़ रहा हूं चंदूबोर्डे की अपने समय की सबसे निर्भीकता से छक्के के लिये उड़ाई लाल गेंद की मर्फी रेडियो से छनकर आती मासूमियत।

इस बदहवासी में मैं कौन सी फिल्म देखने जाऊं सिनेमा थियेटर स्टाक मार्केट में बदल गये हैं क्रिकेट कैसिनो में।

मैं कितने ही चैनलों में ढूंढ़ता रहा सईद अख्तर मिर्जा की कोई फिल्म लेकिन बार बार गुजरात के गिर फॉरेस्ट में हिरण को दौड़ाता व्याघ्र मिलता रहा और गुजरात दंगों का छुट्टा अभियुक्त और बुलेट ट्रेन के सपनों में मदमाता देशभक्त और अमिताभ बच्चन का गुजरात आने का आमंत्रण लेकिन उनके बुलाने के पहले ही मैं तो गुलबर्ग सोसायटी हो आया था
                                                                             और रो आया था
पता नहीं यह रुलाई
                                      वैसी ही थी या नहीं कि जैसी भारतेंदु हरिश्चंद्र रोये होंगे बनारसी और बनिया नवजागरण की शैली में कि
                                                                                      भारत दुर्दशा देखी न जाई।

मतलब कि पर्यटन में आप पर यह मुमानियत तो हो नहीं सकती कि आप क्या न देखें

                                                और इतिहास के किस दौर की किस शैली में

                                                                         किस कोने में किस अंधेरे में किस उजाले के लिये रोएँ।


कोई मेरे कान में कहता है कि कारपोरेट हमारे भ्रष्ट ऐस्थेटिक्स में निवेश करता है और हमारी राजनीतिक मनुष्यता से डरता है। वह कोई कौन है कि जैसे सरकारी अस्पताल के कोने में बजती हुई खाँसी
                                                                          और लक्ष्मीबाई के गिरने के बाद रौंदी हुई झाँसी।
एक तरफ पूरे देश की हाय है
                                                                  जिसके बरक्स प्लास्टिक चबाती बाल्टी भर राजनीतिक और अमूल दूध देती  गाय है

और स्मृति के तुलसीत्व की रामदेवीय दंतकांतीय महक। दहक।...............ता है दिल।
                                                                                                                 निर्वासित है तो कहीं भी मिल।

नवाज़ुद्दीन को उनके अपने ही नगर में शिवसैनिकों ने मारीचि तक नहीं बनने दिया राम बनने की ललक उन्होंने दिखायी होती तो क्या होता कहा नहीं जा सकता

मैं रामलीला में कुछ नहीं बनूंगा

                                      मैं भारतीय नागरिक के पात्र की भूमिका से ही हलकान हूं मुक्तिबोध की तरह सबको नंगा देखता और उसकी सज़ा पाता कंगले बनारसी बुनकर की कबीरी थकान हूं


                                                                       नरोदा में एक के बाद दूसरा जलाया गया मकान हूँ कह लीजिये अपने को कोसता हिंदुस्तान हूँ।

ईश्वर को धोखा देने की रणनीति से मैं काफी विह्वल हूँ
                                                                                                  इतना संशयालु हूँ कि सम्भल हूँ और इतना म्लान हूँ कि धूमिल हूँ।
                                                                        समकालीन साम्यवाद किसी सुखवाद का नमूना है

                                  होगा कोई विस्मृत आत्म-निर्वासित जिसे वैचारिक निमोनिया है

अगर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित किया ही जाना था तो ठीक उसके पहले अखलाक* की हत्या के अभियुक्त की मृत देह को तिरंगे में लपेटकर बर्फ में रखा गया।

जेल में वह चिकिनगुनिया से मरा या अपराधबोध से यह पोस्टमार्टम रिपोर्ट में निकलने से रहा फिर भी काबीना स्तर का मंत्री पूरे लाव लश्कर, राजनीतिक कार्यभार और सांस्कृतिक ज्वर के साथ पहुंचा। अफसोस यह कि आत्म सम्मान और सांप्रदायिकता के सात्विक क्रोध से कांपते हिंदुओँ से यह वादा न कर सका कि जन्मजात अब कोई शूद्र न होगा।

हिंदू सत्य इस समय लगभग हरेक की जेब में है स्मार्ट फोनों के ऐप में है श्रीराम सेना वालों के पास पड़े पड़े वह इतना कोसा हो गया है कि तीन साल पुराना मीथेनमय समोसा हो गया है          उत्तर-सत्य की इस महावेला में।

अब तो काफी लोगों का मानना है कि जाति पर अगर सोच समझकर राजनीतिक नीरवता में सर्जिकल स्ट्राइक किया जाय तो वह खत्म हो सकती है लेकिन फिर इसके लिये कम से कम एक कैबिनेट मीटिंग तो बनती है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में आज़ादी का नारा सबसे सांगीतिक तरीके से लगाने वाले कन्हैया ने हमारे पराभव के कुछ दिनों को आशावाद में बदल दिया
                                                                                                                        लेकिन काहे यार,
लालू का

                   पैर छू लिया
                                               फिर भी धन्यवाद एक डेढ़ पखवाड़े की झनझनाती टंगटड़ांग उम्मीद के लिये।

लालू हमारे अंत:करण के लिये ज़रूरी पदार्थमयता है।
                                                                                                          सेक्युलरिज्म के लिये यह अच्छी खबर है कि हम सब भूल गये हैं कि लालूपोषित शहाबुद्दीन पूर्व जेएनएयू अध्यक्ष चंद्रशेखर का हत्यारा था मतलब कि लालू हमारे सेक्युलरीय गणित के लिये अनिवार्य अंक है

                                                                                   एक गल्प है कि हमारे पास विकल्प है।

आइये एक सवाल पूछते हैं मोदी से नहीं खुद से
                                                                                कि राष्ट्र के तौर पर हम कौन हैं-
यह द्विवेदी  बताएंगे जो चैनलों में घूमता वैचारिक डॉन हैं
                                                                              एक खूं आलूदा पर्दे के सामने स्तब्ध बैठे हम स्साले निस्सार निरीह माशा छटांक आधा और पौन हैं।

मेरे पास क्या है एक बेजुबान आं है                        
                                                                      सामने ढहता जग है ठग है अपमान भूलने के लिये मेरे झोले में पंजाब से लायी ड्रग है
                                                                                                          और काव्यगुणों में न लिथड़ता रेटरिक
और लाल सलाम वाला कटा हुआ हाथ

                                                                                               और जो आदिवासी मार दिया गया खाते समय
उसका न खाया भात



 (*अखलाक को गोमांस खाने के बेबुनियाद संदेह के घेरे में लाकर हिंदू धर्मोन्मादियों की भीड़ ने मार डाला)

[देवी प्रसाद की यह कविता आज लगाई जा रही है. देवी की कविता एक लम्बा रास्ता तय करते हुए आ रही है. पत्रकारिता के 'एथिक्स', जो अब मरण व क्षरण के सर्वश्रेष्ठ सूचक हैं, यहां जीवित हैं. आप बीते साल की एक डायरी उसके पहले के दो महीनों को समाहित करते हुए बनाइये, उन्हें आप इस कविता से बाहर नहीं पाएंगे. देवी ने यहां घटनाओं के आयामों के साथ रखा है, उनके साथ एक Journalistic Judgement किया है, जो आज पत्रकारिता में मुमकिन नहीं है. आप एक देश की कल्पना कीजिए, उस कल्पना में यह कविता सचाई की थोड़ी और जगह ले लेती है, सेकुलरिज़म की विवादित सतरों को खोल देती है, समसामयिकता के साथ थोड़ा और न्याय कर देती है, ड्राइंगरूम एक्टिविज़्म को भी चिन्हित कर देती है. बुद्धू-बक्सा इस कविता और प्रयास के लिए देवी प्रसाद का आभारी. वे और तमाम सारे लोग एक 'लोकतंत्र' और उसमें सम्मिलित उदारता और दया की लाचारगी के घटित होने को देख रहे हैं, इसका भी आभार.]


2 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

भाई देवी प्रसाद की इस कविता से परिचित करने के लिए आभारी हूँ।

शिवप्रसाद जोशी ने कहा…

इस कविता में समकालीन त्रासदियों का एक उदास लेकिन फटकारता हुआ नैरेटिव है. दूसरे छोर पर इसे ‘आदमी तक पहुंचने का टिकट’ भी कह लीजिए. और ये बस कुछ रोज़ पहले या कुछ साल पहले के सिलसिले का पतन ही नहीं नोट करता, दमन और शोक और एक विराट पसरी हुई यथास्थिति का भी एक यहां से वहां भटकता छिटकता ख़ुद को लाइनहाजिर की परंपरा से पुश करता, बाहर धकेलता, तड़पता-तड़पाता, महाकाव्यात्मकता की एक बहुत निराली और ज़िद से भरी हुई तलाश करता है. ये एक ऐतिहासिक उधेड़बुन है. नामों की एक टूटती जुड़ती ऋंखला, एक कबीरी थकान. शोषक और सर्वहारा जैसी शब्दावलियों का एक उत्तरआधुनिक उभार और पतन. बार बार उभर आता दर्द. सत्ता और ताकत और हिंसा में चूर वहशी के किसी मनुष्य पर घूंसों का वार हो या उसे नीचे गिराकर लातों और मुक्कों से उसकी देह को तोड़ देने उसे कुचल ही देने का घेराव. बेशक एक बेजुबान आं. मुक्तिबोध की छटपटाती आह में अपनी आह मिलाता हुई, आगे आती हुई. देवी की एक कविता की तरह, “बहुत दिनों तक गूंजेगी जो आह चाहिए जाकर कहीं लौटकर आती राह चाहिये....”
देवी को सिर्फ़ एक असभ्य और ग़ैरनागरिक व्यवहार पर एक कड़ा एतराज़ था. उसके बदले उन्हें मारा गया. प्रशांत चक्रवर्ती और उनके साथियों और छात्रों को विरोध के लिए शोहदों ने मारा. प्रशांत को जैसे जान से ही मार देना चाहती थी भीड़ जैसे अख़लाक़ को. और वे ऐसा पिछले कुछ रोज़ या पिछले कुछ साल से नहीं कर रहे हैं, ये कविता हमें चंद्रशेखर की याद भी दिलाती है. भोपाल गैस में हाशिमपुरा में गुजरात में और न जाने कहां कहां कितने ही लोगों की याद आती है और रुलाती है. कितने चेहरे सामने आ जाते हैं. मंगलेश डबराल की एक कविता के हवाले से ऐसे चेहरे जिन पर “मर्म भेदनेवाली कहानियां लिखी हैं, एक चेहरा स्याही के धब्बे जैसा एक चेहरा नंगी नुकीली, चट्टान जैसा एक चेहरा आंसू की बूंद जैसा गिरने-गिरने को, एक चेहरा जो मार खाकर रोया नहीं, कभी कभी अचानक कौंध जाता है विचार की तरह.”
हम उन बदसलूकियों को भी याद कर अजीब सी कोफ़्त और कहीं छिपने को जैसे हो जाते हैं, जो कभी हमारे पिता, पत्नी या अपने साथ हुई होती हैं और अपमान की और हार की और कुछ कर न पाने की एक भयानक फांस हमारे गले को हमारे अंतर्मन को घेरे रहती है. एक आती जाती सांस होते हैं हम. आख़िरकार इसी आवाजाही में ही हमें अपनी लड़ाई देखनी और समझनी और बनानी होगी. ज्ञानरंजन ने कहा है, सर्वोत्तम लड़ाइयां ख़ुद से लड़ी जाती हैं और वे हमें उपयुक्त बनाती हैं.
-शिवप्रसाद जोशी