शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

महेश वर्मा की कविताएं



तीन हरारतें

तीन हरारतों और तेरह
कुनैन सल्फेट गोलियों की कड़वाहटें जीभ पर

फिर वही स्टीमर का घटिया दृश्य

मैं मजबूरी में एक निस्बत खोज निकालता हूँ-

हरारतों के रंग का नीला, सफ़ेद और लाल
स्टीमर के रंग का लाल, नीला और सफ़ेद

उधर पुरानी बंदूकों से
सीले हुए कारतूस फोड़ने के
मुश्किल दृश्य के बीच
एक हास्य अभिनेता को जगह देने के लिए
निर्देशक की नाक रगड़ी जा रही है

मैं बुखार में ऐसे ही पिघल जाया करता हूँ
फर्श पर और चारखानेदार
लाइनोलियम दरी में मिल जाता हूँ,
दोपहरों में. मैं जानता हूँ कितने बजे भौंकता है थापा का कुत्ता
                                      कितने बजे ब्रेड की टें
                                      कितने बजे घड़ी और शतरंज की ऊंटगोटी के जटिल संबंधों
                 पर परिचर्चा.

तीन हरारतें जीभ पर


वा



का स्वाद.

रंगी हुई दीवार के बेढंगे रंग से पीठ टिकाये दीवारघड़ी
अपने पल टपकाती है फर्श पर. किसी दिन
मक्खी में बदल जायेगी तब देखूंगा इसका वीतराग.

गले में सेकेण्ड सुई की तरह बज रही थी प्यास.


सुखान्त


सुखान्त सूखे हुए आंसुओं
और अनगिन दुःख के बाद आया

ठोकरें खाती रही स्त्री, उसने अपमान सहे

यह छोटी नौकरी न लग जाती तो
आत्महत्या करने ही वाला था सहनायक

नायक भाग दो में अपनी कथा कहेगा.

पहले संदेह आया
फिर दुःख फिर गहरा शोक आया

तब तक दम साधे

झाड़ियों में
छुपा रहा सुखान्त

उसे अंतिम गोली,
संयोग
और ईश्वर की मदद हासिल है

तो अंत में ऐसे आया सुखान्त
आने की ताक में था जैसे : घुसपैठिया.


अंत की ओर से

कथा में पीछे से प्रवेश करना.
पिछले दरवाजे से.
अंत की ओर से.

हत्यारा पकड़ा जा चुका.
हो चुकी आत्महत्या.
पुरोहित शुरू कर चुके विवाह के मन्त्र.

प्रेमीगण के अंतिम रूप से बिछुड़ने से ठीक पहले
एक कार जलती गिर रही है खाई में

षड्यंत्रों और आंसुओं में भीगी फुसफुसाहटें : भीतर के पृष्ठों पर.

घर छोड़कर निकल गया है नौजवान,
अंत में चलने वाली गोली का कारण यही
मेजपोश बनेगा

नौकरानी अपना प्रेमपत्र छुपाती है, बूढ़ा अपने पाप.
नौजवान नशे की आदतें छुपाते हैं
धनी आदमी अपने आँसू छुपाता है.

नीरस प्लेटफॉर्म, बगीचे के द्वार,
टेलीफोन की दूकान या कहीं भी
संयोग उन्हें हांककर लायेगा और समय के धागे पर
एक गाँठ लगा देगा.

यहाँ से ढेर सारी समय संभावनाएं दिखाई देती हैं
उजली सुबह, धुंधली साँझ कोई भी दूसरा समय

कथा वहीं शुरू हुई होगी.

स्ट्रगल कर रहे कलाकार का कमरा

किसी दिन मिला देना चाहिये सबको बेतरतीब आपस में फेंट देना चाहिये इन्द्रधनुष को चौहान जी की ऊंघ में, बेढंगे रंगों से पुती दीवारों को दाढ़ी में लग गयी चाय में, विस्मय को घड़ी चौक की टनटन में घोल देना चाहिए अश्वशक्ति को हिन्दी प्रोफ़ेसर की सफ़ेद लमढेंग बेलबाटम में, प्रेमनाथ को छाले ठीक करने की दवा ओरसेप में मिला देना चाहिये सवालों, शंकाओं और स्फुट टिप्पणियों को बोदेला साव की जड़ी-बूटी दुकान में.

खांसते रहो नीले रंग की पट्टी के समान!

बाएँ पैर की चप्पल, चाइनीज सिंथेसाइजर, तीन रंगों के हैट और समाचार पत्र का अधूरा वाक्य.


खुजाओ बेतरतीब !
कमरे में कोई नहीं है रे अफगान स्नो की डिबिया !
माँ शारदे काली कमले !
माँ शारदे काली कमले !

उर्फ़
नीला स्लीपिंग बैग.


गुटका वाले घटिया दांत और पचपन दो सौ दस वाली विविटार लेन्स, आंटी आईये, मैकबेथ की चाल, समुद्र को नाक खोदने की इच्छा में मिला देना चाहिये.

और दरभंगा का नाम आये तो आदतन बोलिये-
                                                                           बगटूट!
                                                                           बगटूट!


[महेश वर्मा की कविताएं हमारे पास फरवरी में पहुंचीं थीं. हमने इन्हें पकने तक पढ़ा. फिर मार्च में महेश बहुत छपे, बस इसीलिए मार्च में नहीं छपे. महेश नेम ड्रॉपिंग की मर चुकी काव्य क्रीड़ा नहीं करते हैं. वे एक वाक्य-पंक्ति से पूरी रचना को साधने की भी कोशिश नहीं करते हैं. ठीक वैसे ही, जैसा हमारे समय के कुछ सबसे अच्छे कवि नहीं करते हैं. यहां कुछ क्लीशे नहीं मिलता है, यदि कुछ है तो बेहद सरल आशाओं के तले उसे नकार कर आगे बढ़ा जा सकता है क्योंकि ज़ाहिर है कि वह कल नहीं होगा. 'स्ट्रगल कर रहे कलाकार का कमरा' एक दृश्यात्मक उपस्थिति है. उसे समझने के लिए 'स्ट्रगलिज्म' को थोड़ा करीब से देखना आना चाहिए, इसलिए महेश की कविताएं निकल तो बेहद छोटे स्पेस से रही हैं, लेकिन उन कविताओं की नज़र बेहद व्यापक और प्रायोगिक है. इनका बैकड्रॉप किंचित ब्लैक और औचक है. इनसे एक साझा-सा बनता है. यह इन कविताओं की उपलब्धि है. हम महेश वर्मा के आभारी. और उनकी पिछली कविताएं यहां पर.]



3 टिप्पणियाँ:

विष्णु खरे ने कहा…

फ़िलहाल तो यही लग रहा है कि व्योमेश शुक्ल और गीत चतुर्वेदी को दिशा-निर्देश वाले एक चौरस्ते के निचले कैम्प पर इधर-उधर सुस्ताता देख कर महेश वर्मा और मनोज झा ने उनका और अपना आगे का रास्ता अलग-अलग पकड़ लिया है. वही अपने सर एडमंड हैं और वही तेनसिंग नोर्गे.

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " कर्म और भाग्य - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत खूब...