बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

नीलाशी शुक्ल की कविताएँ

[विश्व-कविता, मूल अंग्रेजीभाषी देशों की कविता तथा भारत में लिखी जा रही अंग्रेज़ी कविता को भी पिछले कई दशकों से पढ़ने-समझने-अनूदित करने की कोशिश करता आ रहा हूँ - बल्कि 1961-68 के बीच अंग्रेज़ी में कुछ – बहुत कम – कविताएँ खुद लिखीं जिनके आधार पर राइटर्स वर्कशॉप, कलकत्ता के प्रो. पी. लाल ने अपनी विख्यात भारी-भरकम एंथॉलॉजी में मुझे शामिल कर दोनों को रुसवा किया. फिर भी निस्सिम एज़ेकिएल, ए.के.रामानुजम, आदिल जस्सावाला, अरुण कोलटकर, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा, जयंत महापात्र, केकी दारूवाला, रुक्मिणी भाया नायर, उषा जॉन जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त अंग्रेज़ी कवि-कवियित्रियों से निजी परिचय भी बना रहा. कुल मिलाकर भारतीय-अंग्रेज़ी कविता को लेकर मेरे मन में उत्सुकता तो है, कुछ बहुत विरल अपवादों को छोड़ कर आश्वस्ति अब भी नहीं. विश्व-कविता में उसका कोई ठोस स्थान बन पाया है ऐसे कोई संकेत मुझे मिल नहीं पाते – वह एक अंतर्राष्ट्रीय अकादमिक और लिट्फ़ेस्ट आयात-निर्यात-पर्यटन उद्योग है यह तो समझ में आता है और मेरी मुबारकाँ उसके साथ हैं. ऐसे में जब से मुझे इस युवा कवयित्री की रचनाएँ पढने को मिली हैं तो मेरी हैरत कम नहीं होने का नाम नहीं ले रही. ऐसी भाषा, यह अभिव्यक्ति, अनुभूति और भावना का ऐसा संसार, निस्संकोच और निर्भीक अंदाज़े-बयाँ, वैश्विक और निजी अहसासात, अपनी शैली और कहन पर दृढ रहने की ऐसी ज़िद, अंग्रेज़ी पर ऐसा स्वामित्व  कम-से-कम मैंने भारत के किसी अंग्रेज़ी कवि-कवियित्री में अरुण कोलटकर के बाद नहीं देखे. मैं इस कवयित्री को पढता हूँ और विश्वास नहीं कर पाता कि हिंदुस्तान से अंग्रेज़ी में ऐसी युवा कविता हो भी सकती है. मुझे लगता है कि मेरा सामना लगभग एक जीनियस से हो रहा है. भारत में तो इसे लोग जान ही रहे हैं, इसे अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि और स्वीकार मिलते देर नहीं लगने वाली है और यह अपने से वरिष्ठ अधिकांश समानधर्मा भारतीयों को बहुत पीछे छोड़ देने जा रही है.

इन अनुवादों की मूल रचनाएँ कवयित्री के पहले संग्रह 'स्लीपवॉकिंग' में उपलब्ध हैं जिसे दिल्ली के मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने अपने ‘एमेरिलिस’ अधिचिह्न के तहत 2013 में प्रकाशित किया है. अनुवाद की अनुमति के लिए अनुवादक कवयित्री तथा प्रकाशक का आभारी है.]


विष्णु खरे
नीलाशी शुक्ल

तख़्त

तुम्हारा मुँह खुलता है,
सिर्फ़ बंद होने के लिए,
हिस्टीरिया,
नशीली गोलियों -
हिस्टीरिया वाली नशीली गोलियों
के उफान के वक़्त.
तुम्हारा मुँह,
टिमटिमाता है वह.
उसके आसपास की लकीरों में सलवटें पड़ती हैं,
फिर वह सपाट हो जाती हैं,
उनमें फिर सलवटें पड़ती हैं,
अपना ख़ुद का
एक आला तराशती हुईं ;
तंज़,
और नुजूमी.

वह स्वाँग करते हैं,
आज़ादी के नक़ली तरानों का.
तुम एतराज़ जाहिर करती हो,
बुर्कों में.
तुम्हारे ख़याल,
छींटे उड़ाते हैं.
कभी-कभी
तुम साँस लेती हो.
बाक़ी वक़्त
हुकूमत करती हो.


दीवाली

तेल की एक बाल्टी,
और मिट्टी का एक ढेर,
मैं तुम्हें जलाती हूँ,
काग़ज़ की पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कतरनों से,
गुमान एक त्योहार का,
बारिश की असलियत से मसला हुआ,
मैं तुम्हें जलाती हूँ,

उस सब से जो मुझे गुमराह करता है.
जब सूरज चमकता है,
त्योहार ख़त्म हो जाते हैं.
वह अँधेरा है,
जो स्वाँग की नक़ल करता है,
हँ,वह बेवक़ूफ़ सूरज.
मैं तुम्हें जलाती हूँ,
उस सब से जो वह नारंगी बेवक़ूफ़ लाता है.
धुंआ है,
जोनिऑन सायों वाले साँप की तरह है...
चकरी जैसा,
माँस जलता है,
चकरी जैसी
तेल की एक बाल्टी लटकती है,
सिक्के,खाली बर्तनों की तरह,
शोर करते हैं.
हर बरस,
मीठी कोई चीज़ तिरती है मेरी जीभ पर,
हर बरस,
मैं तुम्हें जलाती हूँ.


हिचकियाँ

सपने मामूली हिचकियाँ होते हैं,
तुम्हारे गले के एक-एक इंच को गठानों से
घोंटते हुए,
बेदम,
हाँफते हुए,समाजी मानकों की
ख़ूनी गठानों से.

तुम थे मेरा सपना.
मेरा सपना,
एक धब्बेदार रंगीन तेल-खड़िया चित्र था,
नामाक़ूललकीरों,
ह्रदय की बेडौल पीड़ाओं
उन्माद,
ज़र्द,पज़मुर्दा वीर-पूजा,
अधीनता,
बकरा-कुर्बानियों.
से भरा हुआ.
मेरा सपना,
मर गया.

मेरा सपना एक घर था.
एक घर,
जैसे बटरस्कॉच आइसक्रीम की कोन,
पूरी की पूरी सुडौल,
परिपूर्ण आकार,
परमतावाद,
स्वस्थचित्त,
अक्षत,
पूरी तरह से परावलयी मुस्कराहटें.
घर,
जल गया.


प्यारी मम्मियाँ और सुफ़ैद झूठ
वह गुज़रे वक़्त में बड़ी होती है.
तुम्हारी माँ रोती है.
परियाँ पलायन हैं.
सांता क्लॉज़ के बाल सुफ़ैद हैं.
एक सुफ़ैद लहराता हुआ चोग़ा.
एक नक़ाब.
और शराब और शादी.
एक सुन्दर पत्नी.
एक सुन्दर मुस्कान.
तुम्हारी माँ रोती है.
तुम कॉर्नफ्लेक्स के साथ बड़ी हुईं.
और झूठों से भरे स्कूली बस्ते के.
आज़िज़ आँखों और जाँचती चढ़ी हुई त्यारियों के.
उपेक्षा की वॉटर बॉटल के साथ.
तुम्हें हाथ हिलाकर उसे बाइ करना प्यारा था.
तुम्हारी माँ रोती है.
तुम्हें बताया गया था कि हर चीज़ खुश थी.
घर प्यारा घर.
उजाले में प्रेत गायब हो जाते हैं.
तुम्हारी माँ क्यों रोती है ?
तुम यह यकीन करती बड़ी हुईं
कि ममी परी थीं और पापा तुम्हारे सांता.
लेकिन सांता के बाल सुफ़ैद हैं
और परियाँ छूट निकलना चाहती हैं.
तुम अपनी आँखें मूँदती हो.
सोने का वक़्त है.

वक़्त करवट लेता है.
कहानी में हमेशा एक फ़रिश्ता होता है.
सुखान्त.
तुम अपनी आँखें मूँदती हो.
तुम्हारी माँ रोती है.


मृतभक्षी

हर भाषा में एक सन्देश होता है.
जब तुम नहीं होते तो मेरा क्या है ?
हमारी आत्माओं में युद्ध से भरी एक पानी की नली है,
लहू,एक मग्घे में जो मेरा नहीं है.
फिर भी लहू मेरा हो सकता है.
जब तुम नहीं होते तो मेरा क्या है ?

कई खाली घर,
और मक्खियों का एक सूराख़-झरोखा.
धूल नहीं,उजाला नहीं,
मुझमें कुछ नहीं है जो चमके,
कुछ नहीं जो न चमके.
पैदाइशी शहर की मुहब्बत के कफ़नों के साथ,
जब वह पैदाइशी शहर मेरा हो.
जब तुम नहीं होते तो मेरा क्या है ?

हर दिन,मैं रिरियाती हूँ,
तुम चेहरेवाले ताश-पत्तों के घर सेंकते हो एक हवा में,
जो हर उस ज़िंदगी को मरोड़ देती है जिसमें से वह गुज़रती है,
सूराख़झरोखा-दर-सूराख़ झरोखा,
धोती हुई,
एक तृप्त विनाश.
विनाश मेरा नहीं है.
रोज़,
मैं जतन करती हूँ और उसमें से जी लेती हूँ.
तुम वह रोटी कमाते हो जिसमें फफूँद मरती है.
मैं वह रोटी खाती हूँ जिसके लिए मारी अन्त्वानेत ने जान दी थी.
रोज़ हम एक फफूँद जीते हैं.
हर भाषा में एक सन्देश होता है.
हर रोज़,
हम नज़दीक होते जाते हैं,शब्दों के बाज़ीगरों के.


मैं तुम्हारी हूँ
वह तारे बहुत ज्यादा तेज चमक रहे हैं.
अभी मुझे चुम्बन मत दो.
वह तारे मेरी आँखें जला रहे हैं,
सिनेमाई राक्षस,
मेरी स्कूली लड़कीपन-फ़ंतासी है.
लेकिन स्कूली दीवानगियाँ अतीत की चीज़ हो चुकीं.
और वह तारे मेरी निगाह में दाखिल हो रहे हैं.
वह मुझे अंधी कर रहे होंगे क्योंकि मैं तुम्हें देख नहीं सकती.
महँगी पुरानी मदिर भावनाएँ,
आकाश को आलोकित कर देती हैं,
भले ही दिन हो या रात.
वह तारे बहुत ज़्यादा तेज हैं.
अब मैं एक औरत हूँ.
और मैं तुम्हारी हूँ.
और मैं उन तारों के साथ अधर उठ रही हूँ.
वह तारे कुछ ज़्यादा ही तेज हैं.
उन्हें कहीं और रख न देना.
मुझे अभी छूना नहीं.
बस मुझे एक टिकिट ख़रीद देना.


पड़ोसी

एक समय की ख़राद करनेवाले ने हमारा भला किया होता.
उम्र मेरी मिट्टी को खुरच डालती है,
तुम संत्रस्त खड़े हो.
मुझे और लम्बी होना चाहिए था,
तुम्हें ज़्यादा चुप्पा होना चाहिए था.
हमारे बीच हमेशा मसले रहे हैं.

तुम्हारी मुट्ठियाँ प्यालों-सी मेरी मुट्ठियों पर हैं,
लेकिन मेरी अब भी नाज़ुक हैं,
एक तितली है जो रस चूसती है,
मैं तुम्हारी थी.

इन्तक़ाम ने मेरा भला किया होता
मेरे चेहरे को सख़्त हो जाना चाहिए था.
मेरी चमड़ी ढीली लटकने लगी है,
तुम्हारे घाव गहरे हैं,
मेरी आँखें पागल हो रही हैं,
तुम बहुत ज़्यादा आह भरते हो.

एक ही घर के नीचे,
और इतने सारे बिस्तरों से जुदा,
और हमारी नींद को मीठी कर देते हैं,
एक गाढ़ी बेख़्वाब नींद,
हम अब सपने नहीं देखते
तुम बहुत ज़्यादा जीते हो,
और मैं बहुत ज़्यादा मरती हूँ.

[नीलाशी से neelashi@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.]

0 टिप्पणियाँ: