सोमवार, 26 अगस्त 2013

साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार २०१३ पर अविनाश मिश्र

(साहित्य अकादमी का बहुप्रतीक्षित और अपने पुराने फैसलों में विवादास्पद 'युवा पुरस्कार' अभी दो रोज़ पहले ही अर्चना भैंसारे को देने की घोषणा हुई. इसके साथ ही 'माफ़ करिये, कभी नाम नहीं सुना'. 'कभी पढ़ा नहीं', 'कभी नज़र के सामने से गयी नहीं' को समेटे हुए पुरस्कार की बधाई भी दी गयी. मेरे और अविनाश सहित कुछेक लोगों पर यह आरोप लगे कि हमने इस पुरस्कार को एक युवा कथाकार को मिलने देने से रोका है. इसके साथ यह अंदाज़ लगाना ज़रूरी बन जाता है कि क्या अकादमी एक पुरस्कार का निर्णय एक अनुमान के आधार पर करती है? या अमुक कथाकार का कैनन क्या इतना कमज़ोर है कि उसे बस एक अनुमान के आधार पर काट दिया जाता है? रूपकों की बात क्या है? बात कहीं किसी से छिपी नहीं होगी. सभी रूपकों के तह खोल दिए गए हैं, चाहे वह 'कुत्ता' हो या 'हाथी' हो. बुद्धू-बक्सा इस लेख के लिए अविनाश का आभारी. हालांकि यह कोई स्टिंग नहीं है, लेकिन रहस्योद्घाटन तो है ही. इसी के साथ बुद्धू-बक्सा अपने साथियों-पाठकों से अनुरोध करता है या उन्हें आगाह करता है कि वे पुरस्कारों के लिए नहीं, रचने के लिए लिखें.)

सचमुच वे हत्यारे मेरे अपने थे बहुत 
अविनाश मिश्र 

माफ करना मेरे दोस्त
कि हम तुम बंधे हैं नियमों से 
इतना कि जब कभी टूट जाता है 
एक भी नियम अनजाने में 
तब, और भी ज्यादा पैनी हो जाती हैं 
लोगों की नजरें... 

युवा साहित्य अकादमी सम्मान-2013 घोषित हो चुका है। जैसी ‘भविष्यवाणियां’ और अनुमान थे उन्हें एकदम गलत सिद्ध करते हुए इस वर्ष यह सम्मान युवा कवयित्री अर्चना भैंसारे को उनके 2009 में प्रकाशित हुए कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ के लिए प्रदान किया गया है। यह दिलचस्प है कि इस घोषणा के बाद बहुत सारे लिखने-पढ़ने वाले लोगों ने इस नाम को अनसुना बताया। यहां बताते चलें कि यह नाम इतना भी ‘अनसुना’ नहीं है। अर्चना की कविताएं नया ज्ञानोदय, वसुधा, वागर्थ, साक्षात्कार, रचना समय, सर्वनाम, कृति ओर और सूत्र जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित और प्रशंसित हो चुकी हैं। 

पुरस्कृत संग्रह की कविताएं अपने सपाटपन के बावजूद इस अर्थ में सामयिक युवा हिंदी कविता और कहानी से अलग दिखती हैं कि इनमें कोई उलझाव नहीं है। यह अपनी कहन में बेहद प्रभावी हैं। इनमें भाषा का खेल न होकर कथ्य का उजलापन है। इन कविताओं की सहजता, सजगता और सादगी ने इस वर्ष के साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार के निर्णायकों को कैसे प्रभावित किया इस पर कुछ अनुच्छेदों के बाद आएंगे। पहले कुछ काव्य पंक्तियां-

तुम्हें फूलदान में ही सजा रहना चाहिए
यह जो तुम उचक-उचककर 
खिड़की से बगीचा देखती हो
यह तुम्हारे लिए नहीं है 

तुम्हें रखा गया है इसलिए कि महकाती रहो कमरा 
पर तुम बाज ही नहीं आतीं 
फैल जाने से यहां-वहां 
भरपूर रोशनी के लिए 
सिर पर जला छोड़ा है ट्यूब लाइट...
दिया जाता है जार से भरपूर पानी 
पर तुम हो कि निकाल ही लेती हो गर्दन 
खिड़की के बाहर 
खींच लेने को बेहिसाब हवा  

यकीनन अर्चना भैंसारे की कविताएं सामान्य होने का एहसास देती हैं, लेकिन ये औसत नहीं हैं। यहां सामान्य होना एक अनायास कर्म की तरह है जिसे बाद में एक सायास दृष्टि से देखकर भी सामान्य ही छोड़ दिया गया है, इस सदिच्छा के साथ कि इसे इस रूप में ही समझा जाए और इस यकीन के साथ कि इस रूप में ही यह ज्यादा प्रभावी, बेहतर और संप्रेषित है। अर्चना के ही शब्दों में कहें तब कह सकते हैं कि ‘शब्दों के अभाव में नहीं पूरी हो रही कविता’ को यहां पूरा करने के लिए अधूरा ही छोड़ दिया गया है। यह कविता अपने आस्वादक से यह मांग करती है कि वह इन्हें इनके अधूरेपन में ही पूरा समझे। 

नसीहतों का हर लम्हा 
मेरी डायरी में मौजूद है 

पर याद नहीं आता वह क्षण 
जब थपथपाई गई हो 
मेरी 
पीठ 
कभी... 

ये पंक्तियां रचने वाली कवयित्री के जीवन में अब वह क्षण आ गया है जब उसकी पीठ थपथपाई जा रही है। नसीहतों के सब लम्हें पीछे छूट चुके है, अब संभवत: नई नसीहतों का दौर शुरू हो। यह सचमुच सुखद है कि हिंदी के प्रतिष्ठित और प्रचलित युवा स्वरों को छोड़कर एक ऐसे स्वर को तरजीह दी गई है, जिसकी चर्चा का शोर होते ही उसके अनसुने होने का खेद प्रकट किया जाने लगा। कवयित्री की पीठ इसलिए भी थपथपाई जानी चाहिए कि उसने केवल अपनी कविता से तीन में दो निर्णायकों को प्रभावित किया। हालांकि कुछ कुढ़न के मारे साहित्यिक समाजवादी इस घोषणा के सूत्र, स्रोत और संपर्क भारत भवन, भोपाल, मध्य प्रदेश में खोज रहे हैं।  

चाहकर भी कभी जुटा नहीं पाती 
दृढ़ हो जाने का साहस 
और ताकती रहती हूं उस तम को 
जिसका आधार सघन अंधेरा है

अब और दृढ़ होना होगा मुझे 
ताकि पा सकूं 
प्रकाश का मार्ग ठीक से...

तीन में से जिन दो निर्णायकों को अर्चना की कविताओं ने प्रभावित किया उनके नाम और उस परिस्थिति को यहां उजागर करने से पहले जरूरी है कि साहित्य अकादमी युवा सम्मान से जुड़ी हुई एक अफवाह और एक भ्रम को दूर कर लिया जाए। निर्णायक समिति की बैठक के दौरान एक निर्णायक का सेल फोन बार-बार बज रहा था। ऐसी एक अफवाह ही है कि इसके पीछे एक ऐसे युवा कहानीकार की उंगलियां हैं जिसका कहानी संग्रह निर्णायकों ने इस पुरस्कार के लिए ‘नकार’ दिया। एक भ्रम यह है कि इस सम्मान के लिए अपनी किताब लेखक को खुद ही भेजनी होती है, वह भी एक ऐसे स्व-रचित निबंध के साथ जिसमें आपकी किताब में क्या-क्या है यह बताया गया हो। कुछ रचनाकारों का मानना है कि इस तरह सम्मानित होना अपमानित होने जैसा है, लेकिन यहां इस भ्रम को दूर करें, क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है। इस सम्मान के लिए पहले कुछ ऐसी किताबों को ग्राउंड लिस्ट किया जाता है जिनके रचनाकार की उम्र दिए जाने वाले पुरस्कार के वर्ष की एक जनवरी तक 35 वर्ष हो, किताब किसी भी वर्ष प्रकाशित हुई हो इससे फर्क नहीं पड़ता। बाद में ग्राउंड लिस्ट किताबों में से कुछ किताबों को शार्ट लिस्ट किया जाता है। इसके बाद ज्यूरी निर्णय देकर किसी एक किताब को सम्मान के लिए चुनती है। यह पूरी प्रक्रिया ऐसा कहा जाता है कि ‘जानकार’ लोगों की देख-रेख में घटित होती है। बावजूद इसके यह समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे इस पुरस्कार को इस बार तय तिथि से चार महीने पहले घोषित कर दिया गया। यहां आकर अफवाहें और भ्रम नए सिरे से जन्म लेते हैं...। इन्हें दूर करना फिलहाल मुश्किल है।      

इस वर्ष नौ किताबों को शार्ट लिस्ट किया गया, लेकिन अंतत: वे आठ ही रह गईं क्योंकि ‘आलाप में गिरह’ के कवि गीत चतुर्वेदी 27 नवंबर 2012 को जीवन के 35 वसंत पूरे कर चुके हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि वे एक महीना चार दिन के फासले से चूक गए। शेष आठ किताबों में चंदन पांडेय का कहानी संग्रह ‘भूलना’, विमल चंद्र पांडेय का कहानी संग्रह ‘डर’, इंदिरा दांगी का कहानी संग्रह ‘बारहसिंहा का भूत’, कुमार अनुपम का साहित्य अकादमी से ही प्रकाशित कविता संग्रह ‘बारिश मेरा घर है’, निशांत का कविता संग्रह ‘जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा’, प्रदीप जिलवाने का कविता संग्रह ‘जहां भी हो जरा-सी संभावना’, अच्युतानंद मिश्र का कविता संग्रह ‘आंख में तिनका’ और अर्चना भैंसारे का कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ शामिल थीं।

...और अब अंत में तीन निर्णायकों और उस ‘परिस्थिति के बारे में एक चर्चा’-

भारत भारद्वाज : मैं चंदन पांडेय के कहानी संग्रह ‘भूलना’ का नाम प्रस्तावित करता हूं। 

रामदरश मिश्र : मैं इससे सहमत नहीं हूं। चंदन की कहानियां बहुत अमूर्त हैं, मुझे समझ में नहीं आतीं।

हरिमोहन (दिल्ली विश्वविद्यालय वाले नहीं, आगरा के के.एम. मुंशी संस्थान के निदेशक जो इससे पहले गढ़वाल विश्वविद्यालय में थे।) : मेरी भी कुछ ऐसी ही राय है। 

भारत भारद्वाज : विमल चंद्र पांडेय ?

रामदरश मिश्र : इसकी कहानियां भी वैसी ही हैं, अमूर्त और न समझ में आने वालीं। 

भारत भारद्वाज : कुमार अनुपम ?

रामदरश मिश्र : मैं बताता हूं- अर्चना भैंसारे। इसकी कविताएं बहुत अच्छी और अलग हैं।

भारत भारद्वाज : मैं इस नाम पर असहमत हूं। 

हरिमोहन : मुझे लगता है यह नाम ठीक है। 

भारत भारद्वाज : आप लोगों को पूरी हिंदी पट्टी देख रही है। सोच-समझकर निर्णय दीजिए।

हरिमोहन : सर, (रामदरश मिश्र) नोट लिख दिया जाए।

रामदरश मिश्र : हां। 

हरिमोहन : आप बोल दीजिए, मैं लिख देता हूं।

रामदरश मिश्र : लिखो, अर्चना भैंसारे की कविताएं बेहद सहज हैं। ( इसके बाद के तीन वाक्यों में छह बार ‘सहज’ आता है।)

हरिमोहन : सर, थोड़ा स्त्री-संघर्ष वाला भी लिख दें। 

रामदरश मिश्र : हां... हां..., लिखिए, इन कविताओं में स्त्री-संघर्ष अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है। 

भारत भारद्वाज : मैं असहमति मैं दस्तखत करता हूं और अध्यक्ष से दरख्वास्त करता हूं ऐसी बैठकों की वीडियो रिकार्डिंग कराई जानी चाहिए, ताकि साहित्य अकादमी के निर्णयों की विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनी रहे...। 

(‘परिस्थिति के बारे में एक चर्चा’ एक निर्णायक के मुख से सुनी गई आपबीती पर आधारित है, प्रामाणिकता जांच लें। इस टिप्पणी का शीर्षक और इसमें प्रयुक्त काव्य-पंक्तियां अर्चना भैंसारे के कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ से ली गई हैं )

13 टिप्पणियाँ:

अजय कुमार झा ने कहा…

रचने के लिए लिखें पुरस्कारों के लिए नहीं .......सौ टके खरी बात

shayak alok ने कहा…

पहली बात कि मुझे भी नहीं पता अमूर्त क्या होता है .. वैसे मुझे यह भी नहीं पता कि सामान्य कविता और औसत कविता में किस प्रकार का अविनाशी अंतर होता है .. सामान्य औसत से बेहतर होता है या दोयम इसकी जांच करनी पड़ेगी .. अविनाश के इस मजेदार .. वाकई मजेदार आलेख को पढ़कर यह अनुमान लगा है कि अकादमी के पास युवा पुरस्कार देने की एक निहायत ही वाहियात प्रक्रिया है .. लोटरी जैसा है कुछ .. अर्चना की प्रस्तुत कवितायें ठीक भर लगी मुझे .. चन्दन और विमल में कौन बेहतर हैं मैं तो ज़िन्दगी में तय न कर पाऊं .. अनुपम और जिलवाने में कौन मुझे ज्यादा पसंद नहीं तय कर सकता .. जरुर पुरस्कारों के चयनकर्ता जिगरे वाले होते होंगे .. हाँ यह बात सुकून वाली रही कि गीत रिटायर्ड हर्ट हो गए थे वरना उनके स्पोंसर्ड फेसबुक पाठकों का दिल टूट जाता .. उपध्याय जी की इस संवेदना से सहमत हूँ कि अशोक पांडे इस पुरस्कार के सर्वथा योग्य थे .. उन्हें वाइल्ड कार्ड एंट्री मिलनी चाहिए थी .. वे अच्छे क्रांतिकारी भी हैं !

डॉ रमाकान्त राय ने कहा…

मैं असहमति में दस्तखत करता हूँ.

Vipin Choudhary ने कहा…

badhia lekh

सारंग उपाध्‍याय ने कहा…

जितनी सहज अर्चना की कविताऍं हैं उतनी ही सहज वह है. कमाल है कि सालों के अंतराल के बाद चंद लोगों पर फोन के बाद दूसरा फोन मुझे ही आया. दोनों एक ही शहर के हैं, और इस संग्रह की कई कविताओं का मैं साक्षी रहा हूं. जब वे कच्‍ची थीं तब भी और जब पत्रिकाओं में आने लगी तब भी. बेहद संघर्ष के बाद हरदा जैसे शहर में अपने सृजनात्‍मक अस्‍तित्‍व को बचाए रखना, अपनी तरह का एक अलग ही संघर्ष है, जिसका वर्षो तक मैं खुद साक्षी रहा हूं.

बहरहाल, अर्चना को ढेर सारी बधाइयां..

oma sharma ने कहा…

साहित्यिक पत्रकारिता के लिहाज से अविनाश बढि़या हस्तकक्षेप करते हैं. यह निजी आग्रहों-दुराग्रहों से बचा रहे,यही कामना है. ओमा शर्मा

shashi ने कहा…

साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया ही बेहूदा है। अब तक जितने पुरस्कार मिले सब विवादास्पद हैं। सबसे पहले तो लेखक खुद अपनी किताब पुरस्कार के लिए भिजवाये, फिर अकादमी मिली हुई किताबों में से ग्राउंड लिस्ट तैयार करती है । ग्राउंड लिस्ट से फिर अंतिम तौर पर किताबे शार्ट लिस्ट होती हैं, ये सब एक नाटक है। क्योंकि सब कुछ पहले से तय होता है। और ये बात पहले ही एक दो बार साबित हो चुकी है। वरना ३५ साल से कम उम्र के कई अच्छे कविओं लेखको की किताबे ग्राउंड लिस्ट में ही नहीं आई क्योंकि उन्होंने भेजी ही नहीं। न कोई जुगाड़ लगवाया। वरना क्या कारण है कि व्योमेश, हरे प्रकाश, वाजदा खान जैसे और भी कई नाम याद आ रहे है जिनकी किताबे ग्राउंड लिस्ट में भी नहीं आईं। क्यों? क्या वे किसी से कम थी। दरअसल सारा खेल ही जोड़ जुगाड़ का है। इस बार भी अर्चना भैसारे को पुरस्कार इसलिए मिला क्योंकि भारत भारद्वाज जिसके लिए लोबिंग कर रहे थे उसे नहीं देना था। साथ ही इसमें जिस भोपाल कनेक्शन की बात आ रही है वह भी विचारणीय है। बाकी मूर्त अमूर्त की बात तो बकवास है।

Pankaj Parashar ने कहा…

साहित्यिक पत्रकारिता के लिहाज से अविनाश बढि़या हस्तक्षेप करते हैं.

सुनील गज्जाणी ने कहा…

KABHI KABHI LAGTAA HAI KI SAB KUCH PROYJIT HOTAA HAI . JAHA SAHITY NAHI APPPROCH CHALTI HAI

आशुतोष कुमार ने कहा…

कौन पुरस्कार योग्य था , कौन नहीं , इस पर रायजनी करने के लिए आठ किताबोंकी समीक्षा मैं यहाँ नहीं करूंगा .लेकिन अगर ऐसी ही सतही चर्चाओं के आधार पर निर्णय होते हैं तो उस पर चर्चा व्यर्थ है . कम से कम युवा पुरस्कारों के निर्णय ऐसे विद्वानों के हाथों नहीं होने चाहिए , जो युवा रचनाशीलता के बरअक्श किसी अगम्य ऊंचाई पर पहुँच चुके हों .लेकिन मैं यह मानता हूँ की हिन्दी में दिए जाने वाले पुरस्कार नवोन्मेषी रचनाशीलता को रेखांकित करने की अपनी भूमिका बहुत पहले तज चुके हैं .

बेनामी ने कहा…

ISILIYE YE PURASKAAR AB DHYAN NAHI KHEENCHATE----
---KAMAL

SAURABH ARYA ने कहा…

मेरे हिसाब से ऐसे पुरस्‍कारों को बंद ही कर देना बेहतर होगा. यदि इसी प्रकार की दोयम दर्जे वाली प्रक्रिया के उपरांत श्रेष्‍ठ साहित्यिक रचनाओं और रचनाकारों का चयन होता है तो यकीनन दुखद स्थिति है. बेहतर है कि साहित्यिक पत्रिकाएं और तमाम साहित्यिक ब्‍लॉग अपने अपने स्‍तर पर प्रति माह एक-एक रचनाकार को विशेष रूप से फोकस करते हुए उनकी ओर ध्‍यान आकृष्‍ट किया जाए तो कम से कम हिंदी के पाठक प्रति माह कुछ अच्‍छे रचनकारों से परिचित हो पाएंगे.

सिद्धार्थ प्रताप सिंह ने कहा…

आखिर मुझे तो इस निर्णय से ख़ुशी हुई कि साहित्यिक पत्रिकाओं में जुगाड़, तिकड़म व चमचा गिरी के सहारे जबरजस्त तरीके से प्रमोट होकर पुरष्कारों पर दावा ठोकने वालों के लिए करारा तमाचा मारा है रामदरश मिश्र जी की टीम ने ……आखिर प्रकाशक भी कुछ देखकर ही तो रचनाएँ प्रकाशित करने का जोखिम उठाता है तब यह पुरष्कारों के लिए कौन सा पैमाना है कि उक्त लेखक किस-किस पत्रिका में छपा है ?