बुधवार, 3 जुलाई 2013

कान्हा टू स्नोडेन वाया सुधीश पचौरी उर्फ़ बीते दिनों की डायरी

सुधीश पचौरी को सहर्ष आत्महत्या कर लेनी चाहिए, नहीं तो ये एकदम सम्भव है कि कल कोई उनकी हत्या कर बैठे नहीं तो वे कुंठा में ही कुढ़ मरेंगे शायद. सुधीश, आपसे मेरा कोई सीधा सामना नहीं है – मैं होने देना भी नहीं चाहता हूँ – लेकिन आपके जानकीपुल पर लगे ताज़ा लेख(जिसे मॉडरेटर और काँग्रेस के इंटेलेक्चुअल सेल के महासचिव प्रभात रंजन व्यंग्य कहकर छाप रहे हैं) दिल्ली विश्वविद्यालय के चारसाला कोर्सों की ही तरह कूड़ा है. रवीन्द्र नोबेल शती पर विष्णु खरे के लेख को पहली दफ़ा ऑनलाइन मैनें ही बुद्धू-बक्सा पर छापा था, जिसे आप पता नहीं क्या कह रहे हैं(ख्याल रहे कि मैं जानना भी नहीं चाहता हूँ कि आप क्या कह रहे हैं), इसलिए उस पूरे प्रकरण के पक्ष में और आपके ‘प्रांजल’ लेख के सन्दर्भ में मेरी जवाबदेही तो बनती ही है.

चूंकि सुधीश दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हैं और हिन्दी साहित्य में मुक़म्मल जगह बनाने के लिए उन्हें कोई जद्दोज़हद नहीं करनी पड़ रही है इसलिए सभी चीज़ों और घटनाओं से खुद को सुरक्षित ही महसूस कर रहे हैं. मामले में सुधीश की कोई दिलचस्पी शायद नहीं थी, ना ही अशोक वाजपेयी और ना ही विष्णु खरे को सुधीश की चिमटा मारने की औक़ात है न हिम्मत. ना ही कोई भी ‘आदरणीय’ या ‘परम-आदरणीय’ सुधीश का ‘उद्धार’ कर सकता था/है, इसलिए सुधीश ने समूचे डेमोक्रेटिक मसले को ‘प्रवीण तोगड़िया-मार्का’ लहज़े में ‘ठेल’(जिसका एक समानतुक शब्द सुधीश ने इस्तेमाल किया) दिया, मौक़ापरस्त प्रभात रंजन ने भी इसे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसलिए सुधीश का अपने आदरणीय और परम-आदरणीय से जो भी मसला रहा हो, या वे जिस भी तरीके से खेमेबंदी करने के बारे में सोच रहे हों, उनका लेख उनके बौद्धिक स्तर और उनके खेमेबाज़ी का सफल प्रमाण है. सुधीश पचौरी के लेख से कोई निष्कर्ष निकाल पाना नामुमकिन है, क्योंकि ये बनारस के सांध्य दैनिक ‘गांडीव’ के होली विशेषांकों (‘कुल्हड़ विशेषांक’, ‘खूंटा विशेषांक’ या ‘बमचिक विशेषांक’) में छपी बड़ी पुरुष हस्तियों के अधनंगी तस्वीरों सरीखा निराधार है. इस कुंठा का हिन्दी में कोई जवाब नहीं है, कोई प्रत्युत्तर नहीं. इसे बस इसी तरह लताड़ देना चाहिए. जिस समय अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी महोत्सव कहीं विदेश में मनाया जा रहा था, और लोगों की वाल पर अंतर्राष्ट्रीय तस्वीरें देखकर चौंधियाए हुए और जले-भुने विनीत कुमार ने जितना छिछला और दोयम दर्जे का स्टेटस(जिसे राष्ट्रीय महासचिव जी ने जानकीपुल पर भी लगाया था) हिन्दी के वरिष्ठों के खिलाफ़ लिखा था, उस लेख से प्रभावित होने की बू सुधीश के ‘व्यंग्य’ से आती है.

विष्णु खरे के लेख के वेब-वर्ज़न में (मुझे अच्छे से याद है कि) कड़ी बातों के साथ सुझाव दिए गए हैं, जिन पर ठीक अगले जनसत्ता के रविवारी में अशोक वाजपेयी ने जवाब भी दिया और चल रहे कार्यक्रमों की कमियां भी स्वीकार कीं.

कान्हा कांड के Dirty Linens को धोने के लिए बहुत भारी संख्या में कान्हा के आरोपितों ने रज़ा फेलोशिप मिलने पर युवा कवि व्योमेश शुक्ल के साथ ‘बक रहा हूँ जुनूं में क्या-क्या’ सरीखा बर्ताव करना शुरू कर दिया. एक मौक़ा और आया, जब रज़ा फाऊंडेशन के सर्वेसर्वा अशोक वाजपेयी मनसे पदाधिकारी वागीश सारस्वत के साथ किसी मंच पर देखे गए, किसी ‘सजग-प्रहरी’ ने तस्वीर खींची और दोनों फेसबुक वीरों (ध्यान रहे मैनें फेसबुक ही लिखा है) के माध्यम से नया दाग साफ़ करने का साबुन बाज़ार में आ गया. बोधिसत्व, व्योमेश शुक्ल और विष्णु खरे की जवाबदेही ज़रूरी बन गई. विष्णु खरे की व्यस्तता और विदेश यात्रा के चलते जवाब कुछ देर में आया, लेकिन जवाब आने के बाद फेसबुक की मलिन दीवारों पर खीसें दिखने लगीं, जिसमें ‘हम-विष्णु-खरे-को-समझते-ही-क्या-हैं’ जैसी विकट बत्तीसियाँ(!) शामिल थीं. एक संस्था द्वारा आयोजित काव्य-पाठ, जिसमें संस्था खर्च का कोई विवरण उपलब्ध नहीं करा सकी, के सभी भागीदार उत्साहित रहने लगे. वामपंथ को हथियार बना लिया गया(मैं कमलेश प्रकरण पर अभी कुछ नहीं कह रहा हूँ), एक त्रय का खंडन हो गया और कुछ-कुछ सभी दीवारों पर लिखा जाने लगा. विष्णु खरे ने अपने इस लेख में साफ़ लिखा है कि अशोक ऐसी संदिग्ध, भले ही स्वयं के लिए ‘यूज़-एंड-थ्रो’, संस्थाओं में अपनी कविता का परचम फहराने न जाएँ, इसे एक recommendation की तरह लेने के बजाय प्रबुद्धजन इसमें गालियों की तलाश करने लगे. विष्णु खरे के जवाब के बाद किसी भी झण्डाबाज़ की तरफ़ से दोबारा प्रति-प्रश्न नहीं रखे गए, जिस तरह बिलबिलाये कविगण कान्हा कांड के बाद करने लगे थे. जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी ने वेब-वर्ज़न के लेख को ज़्यादा तवज्जो दी, और इसे फेसबुक पर शेयर किया. जिसके फलस्वरूप उनकी दीवार पर उनके और मंगलेश डबराल के बीच कुछ झगड़ेनुमा हुआ(चूंकि आयोवा ‘डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट्स’ से फंडेड है और इसके ऑनलाइन साक्ष्य बेहद सहजता से उपलब्ध हैं), जहाँ मंगलेश डबराल शुरुआत में यह मानने को तैयार नहीं थे कि आयोवा ‘ओवल ऑफिस’ से फंडेड है, वहाँ वे बाद में ओम थानवी और दूसरे कमेन्टकारों से निजी लड़ाई पर उतर आए. अंबिकापुर के कवि महेश वर्मा ने इसी दौरान ओम थानवी को ब्लॉक करने के बाद डंका पीट दिया. इतना ही नहीं, सभी ने लगभग पोस्ट सम्बन्धी स्टेटस देखा, अधिकतर ने मुझसे ईमेल भी पाया होगा(जिन्होनें नहीं पाया होगा उनमें किराडू, चन्दन और पाण्डेय हैं, क्योंकि इन्होनें फ़ोन करके और मेल लिखकर मुझे विष्णु खरे का लिखा कुछ भी न छापने और छापे जाने पर इन्हें मेल न करने/टैग न करने की हिदायत दी थी) लेकिन पूरे योद्धा इन बहसों के बाद से अपनी-अपनी दीवारों पर ही नज़र आए, नए कवियों की कविताएँ नज़र आने लगीं, Keats और दूसरे पश्चिमी कवियों के कोट्स फ़िर से नज़र आने लगे और तमाम संते-भंते-घंटे एक दूसरे की पीठ थपथपाने लगे. मंगलेश डबराल जब ओम थानवी से उलझ गए, तो सभी पहलवान फ्रंट से लोपत हो गए, सम्भव है कि मंगलेश जी यह सोच रहे होंगे कि जिन लोगों की बहस के चक्कर में फेसबुक अकाऊंट जगाया वे ही गायब हो गए. आयोवा फंडिंग का मामला सबने देखा, लेकिन कोई ज़ियादा कुछ कहने नहीं आया.

‘जनपक्ष’ ब्लॉग पर प्रकाशित बहस का लिंक सभी को भेजा गया, तब से लेकर अभी तक ये थपथपाने-ठोंकने(सहलाने!) का खेल जारी है (ध्यान रहे, मैं अभी भी ‘फेसबुक वीर’ पर कायम हूँ.) फेसबुक का माहौल ऐसा लग रहा है मानो कि मुम्बई में उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट बन्द करा दी गई हो या गुजरात में दंगे टल गए हों या इराक़-अफ़गानिस्तान में बमबारी को रोक दिया गया हो. लेकिन दाग लगने से कुछ अच्छा होता है, तो दाग अच्छे हैं की तर्ज़ पर हमारे रणबांकुरे ये भूल गए कि चुनरी का दाग छूटता नहीं छूट जाता है. जनपक्ष ने पक्षधर होते हुए जो चित्रकथा प्रकाशित की, उसमें उसने समूची लड़ाई की चिंगारी यानी प्रभात रंजन की व्योमेश शुक्ल की वाल पर पोस्ट उर्फ़ रज़ा फेलोशिप की बधाई भाई, आशा है एक भ्रष्ट राजनेता और महान कवि श्रीकांत वर्मा पर एक उत्कृष्ट पुस्तक की रचना आप इस फेलोशिप के माध्यम से करेंगे को दबा दिया, जिसके अंतिम कमेन्ट में शशिभूषण द्विवेदी ने यह कहकर न जानने वालों को हैरान कर दिया कि श्री रंजन काँग्रेस के विचार प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय महासचिव हैं, इसके बाद किसी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई. प्रभात रंजन बाद में काफ़ी घिघियाए(पुनः) कि ऐसा नहीं है, लेकिन जिनके पास साक्ष्य थे उन्हें झुठला पाने में कोई चाल काम नहीं आई. इस बीच जनपक्ष की बहसों में श्री अशोक-किराडू ने फेसबुक के सभी mutual friends को टैग कर दिया, ओम थानवी जी से बकझक हो गई और बचाते-बचाते अशोक वाजपेयी से भी और अशोक वाजपेयी ने यह खुलासा कर दिया कि प्रतिलिपि ने रज़ा फाउन्डेशन से वित्तीय सहायता मांगी थी, साथ ही वाजपेयी जी ने तमाम हिसाब खोल कर रख दिए. गिरिराज किराडू इस बाबत कोई सटीक उत्तर देने में नाक़ामयाब रहे.

रज़ा फाउन्डेशन को फोर्ड फाउन्डेशन से फंडेड बता किराडू, अशोक और रंजन चीख रहे थे, तभी अचानक श्री किराडू अपने स्टेटस और बाद में सभी को भेजे मेल में यह बार-बार मनवाने की कोशिश करने लगे कि उन्हें(उनकी भाषा में ‘हमें’) रज़ा फाउन्डेशन से कोई दिक्क़त नहीं है न वे इसके खिलाफ़ हैं, उन्हें समस्या है व्योमेश शुक्ल के अवसरवाद से. यानी सही तरीके से ‘रज़ा फाउन्डेशन’ से उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी तो उन्हें व्योमेश शुक्ल से भी दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी, चाहे पैसा फोर्ड फाउन्डेशन लगा रहा हो या रज़ा साहब. मनीषा कुलश्रेष्ठ और दूसरे रज़ा फेलोशिप प्राप्त प्रतिभागियों से कोई बात न करते बनी, तो कान्हा-कांड के स्टिंगर व्योमेश शुक्ल को बीच में लाकर नया साबुन बनाने के लिए चर्बी जमा की जाने लगी. किराडू ने एक बेहद चालाकी भरी रणनीति के तहत ये बात कही थी, शायद उन्हें आगे समन्वय और प्रतिलिपि से किताबों के प्रकाशन में भी मदद चाहिए हो इसलिए वे ये दिखा रहे हों कि उन्हें इस फाउन्डेशन से कोई दिक्कत नहीं है. ये लालकृष्ण आडवाणी सरीखा बर्ताव कि पहले इस्तीफा दे देना, फ़िर लोभ के मद में इस्तीफा वापिस भी ले लेना, समझ नहीं आया. इसलिए एजेंडा साफ़ न होने का खामियाज़ा भुगत रहा ये अतिरेकी वामपंथी खेमा, अपनी ही बातों से ढहने लगा. इस ढहने को विजय समझा गया और उस नए साबुन को सबने फ़िर-फ़िर रगड़ा, और खड़े हो गए सब कैमरे के सामने विज्ञापन करने. कान्हा की तस्वीरें अब चमचमाने लगी हैं, लम्बे-लम्बे कवर-फोटो बन गए हैं, लगता है अरण्य में फ़िर से सावन आया है. लेकिन म्यां! दाग़ साफ़ नहीं हो पाया, कपड़ा ज़रूर पतला हो गया.

अविनाश मिश्र ने ज्योति कुमारी के संग्रह पर लिख मारा, किराडू श्री जो अभी तक ‘आवांगार’ जैसे शब्दों से अविनाश के लेखन को नवाज़ रहे थे, प्रतिलिपि ब्लॉग पर अविनाश को उड़ा-उड़ाकर छाप रहे थे, कविता पर लिखे लेख के वादे भी ले रहे थे शायद, अचानक नामवर सिंह का नाम बीच में आने और प्रभात रंजन के फंसने से फ़िर से शुरू हो गए. इस दौरान एक ऐसा वक्त भी आया जब अविनाश किन्हीं कारणों से लोगों और इंटरनेट से काफ़ी दूर थे, इस समय किराडू ने अविनाश को भगोड़ा साबित कर दिया और यहाँ तक कि रूपा सिंह और आशुतोष कुमार ने उनके खिलाफ़ साइबर क्राइम सेल में रपट लिखाने की सोच ली, यह गिरिराज किराडू द्वारा प्लान था क्योंकि इसके बाद उन्होनें अविनाश को फोन करके यह कहा कि तुम मेरे दोस्त(रंजन) के खिलाफ़ मत लिखो, मैं तुम्हारे खिलाफ़ नहीं लिखूँगा. ज्योति कुमारी ने अविनाश को बेस्टसेलर कार्यक्रम में इनवाईट करने के लिए खुद तो फ़ोन किया ही, अपने पुरुष-मित्र से भी फ़ोन कराया. जिसके जवाब में अविनाश ने मज़ाक में ही कहा कि मैं आयोजन में आ जाऊँगा, तो लिख नहीं पाऊँगा.(बजाय इसके कि ‘मैं जिससे मिल लेता हूँ, उसके खिलाफ़ नहीं लिखता’). लेकिन लोगों (रंजन-किराडू) को अविनाश के बजाय ज्योति के कहे पर रद्दा मारना ज़्यादा मुफ़ीद लगा, क्योंकि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव जैसे नाम चमक रहे थे और ज्योति कुमारी तो थी हीं. अशोक डूबते-उतराते अविनाश के पक्ष से बात करते दिख रहे थे, जैसे उन्हें किसी ने कहा हो कि ‘भंते! तुम वहाँ से बात करो और अपन यहाँ से’. पूरी बहस एकाएक फेसबुक से गायब हो गई(संभवतः कई लोगों नें योजनापूर्ण तरीके से रिपोर्ट एब्यूज़ किया हो) और अविनाश अपना पक्ष साबित कर पाने में असफल रहे, ज्योति कुमारी ने जानकीपुल पर अपने बेस्टसेलर कार्यक्रम की रपट को चिरस्थाई बनवा लिया(यानी अब आर्काइव पर लोड नहीं है). प्रभात रंजन हिन्दी साहित्य के नरेन्द्र मोदी हो चुके हैं, जो सबको बराबर साधना चाहते हैं लेकिन विश्व हिन्दू परिषद से उनका रिश्ता कभी नहीं ख़राब हो सकता. चाहे वह एकदम डैमेज कंट्रोल सरीखे तरीके से कमलेश की कविताएँ लगाना हो या हरेक पोस्ट का लिंक शशिभूषण द्विवेदी की वाल पर पोस्ट करना हो, या आशुतोष दूबे के एक प्रश्न कि 'श्रीकांत वर्मा भ्रष्ट कैसे हुए' पर उनको यह कह देना कि ‘आपको छापना मेरा सबसे बुरा फ़ैसला था’, प्रभात रंजन मोदी ही हो चुके हैं. उन्हें जल्द स्वास्थ्य लाभ हो.

हालाँकि प्रभात रंजन को नज़रंदाज़ किया जाना ज़्यादा सही है क्योंकि जानकीपुल को ‘मोहल्ला’ बनाने के चक्कर में वे जो कुछ कर रहे हैं सब जायज़ है. चाहे अविनाश मिश्र की पोस्ट को हटाना हो, जिसे हटाने के बाद घिघिया-घिघियाकर तमाम बहाने प्रभात रंजन बाँट रहे थे(जिनमें नामवर सिंह का स्पष्टीकरण, आर्काइव लोड, ‘आयोजन-समीक्षा को कितने दिन रहना चाहिए?’ जैसे बहाने शामिल थे), या हिन्दी के प्रतिष्ठित प्रकाशन द्वारा आयोजित ‘बेस्टसेलर’ कार्यक्रम की रपट को दस तरीकों से लिखना-छापना, प्रभात रंजन कहीं से भी गलत नहीं है. एकदम सम्भव है कि कभी संभावित रह चुके एक कथाकार और मॉडरेटर के खिलाफ़ इतना ही पढ़ लेने पर फेसबुकी दंगाई(मूर्ख) तलवार और कीबोर्ड पर मोटे-शैश्निक बालू कागजों की घिसाई चालू कर चुके होंगे.

कमलेश पर, कमलेश की कविताओं पर, रज़ा फेलोशिप पर, सीआइए और अण्डा कार्यालय पर बहुत आप सब पढ़ चुके हैं. लेकिन ये बातें परदे के पीछे की हैं, जो मैं बहुत दूर से देख रहा था, जवाब दर्ज़ करने का समय तलाश रहा था. ये कान्हा से लेकर सुधीश पचौरी तक का छोटा-सा लपेटा है, जिसमें सच के सिवाय कुछ भी नहीं है. यदि मिला तो फ़िर मैं बहुत दिनों तक उसकी प्रमाणिकता की तलाश करूंगा. समय बीत चुका है, मुझे अब मनोहर श्याम जोशी के निबन्ध ‘हिन्दी में वीर बालकवाद’ न सुनाने आएँ. तब तक के लिए ये बताएँ कि भारत ने स्नोडेन को शरण देने से मना करके कहाँ गलती की?

2 टिप्पणियाँ:

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

सिद्धान्‍त मेरा पक्ष तुम जानते-महसूस कर पाते होओगे...मेरे लिए निजी हमले कुछ नहीं...विचार पर हमला केन्‍द्र में होता है। मुझसे विचार के इलाक़े में अनजाने कुछ ग़लत हो जाए तो मुझे खेद प्रकट करते देर नहीं लगती। अपने लिए एक क्रूर आत्‍मालोचन मैं जीवन में हमेशा बचाए रखना चाहूंगा। पर औरों से लिए ऐसा करने को कहना अब शायद व्‍यवहारिक न होगा। खरे जी के टैगोर सम्‍बन्‍धी लेख पर मेरे जानते मेरी ही एक लम्‍बी टिप्‍पणी बुद्धू बक्‍सा में थी। तय करना होगा कि बात बनारस-बनारस है या कुछ और...मेरे लिए तो कवि की संजीदगी और वैचारिकी महत्‍वपूर्ण है....मेरे लिए व्‍योम बेहद संजीदा कवि है, उसके संग्रह की वैचारिकी बहुत सधी हुई और अनूठी है। वह बनारस से न आता, कहीं और से आता तो क्‍या हो जाता ....खरे जी ने अपने लेख में उसकी फिसलन पर भी टिप्‍पणी की है, मैंने भी वहीं बात आगे बढ़ाई...जैसे कि अपने प्रिय कवि के साथ हमें करना चाहिए, यदि उस पर कुछ अधिकार है तो.....फिर उस बात पर सहमति-अहमति दीगर बात है। व्‍योम का संग्रह मेरा बहुत प्रिय संग्रह है ....बाकी पक्षों पर मेरा कहा-लिखा तुमने पढ़ा ही है। इधर महेश का जिक्र एकदम आ जाना मेरी समझ में नहीं आया। ख़ासा तल्‍ख़ लेख है तुम्‍हारा, यह रूप नवेला पहली बार देखा :-)

आशुतोष कुमार ने कहा…

''यहाँ तक कि रूपा सिंह और आशुतोष कुमार ने उनके खिलाफ़ साइबर क्राइम सेल में रपट लिखाने की सोच ली''

जहाँ तक मझे याद है मेरी प्रतिक्रिया एक स्त्री के खिलाफ सेक्सिस्ट और अपमानजनक टिप्पणियों से प्रेरित थी . उस संदर्भ को हटाकर,और किसी दूसरे संदर्भ से जोडकर उसे पेश करना ठीक नहीं है .

न तो हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठानों से हमारी कोई लाग- लपेट है , न उस के पाताललोक या अंडरवर्ल्ड से . हम ऐसी जानकारियों , खुलासों और भंडाफोड़ों में कोई दिलचस्पी नहीं रखते . और जहाँ कुछ कहने लायक लगता है , वहाँ कहने से कभी पीछे भी नहीं हटते.

अगर हिन्दी के साहित्यिक जनक्षेत्र में यही सब कुछ जेरेबह्स रहना है , तो जो कोई भी हिंदी साहित्य को नष्ट करने पर आमदा रहा हो , उसका नाम सीआईए हो कोइआइए , उसे कामयाबी की मुबारकबाद का एसेमेस भेज दीजिये .