गुरुवार, 8 नवंबर 2012

विष्णु खरे का नया आलेख


प्रकाशकों के आगे अपने चीर-हरण के लिए हम हिंदी लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.

पिछले दिनों फेसबुक,ब्लॉग-क्षेत्र और कोलकाता के दैनिक “प्रभात वार्ता” में चले कान्हा-सान्निध्य विवाद के,जिससे हिंदी कवियों की वरिष्ठ पीढ़ी के कुछ सदस्यों और कथित युवा पीढ़ी के अनेक स्वयंभू नुमाइंदों के कई महत्वाकांक्षी,हास्यास्पद और करुण विडम्बनाएँ और विरोधाभास उजागर हुए,इस केन्द्रीय पहलू से लगातार ध्यान हटाने की साज़िश हुई कि मसला मूलतः हिंदी में प्रकाशकों की भूमिका का था जिसमें कई किस्म के लेखक कई छोटे और मँझोले,यहाँ तक कि विदूषक और उप-खलनायक के नायब-किरदारों को भी, निभाने के लिए फ़क़त फ़्री ट्रैवल,बोर्डिग,लाजिंग और ईवनिंग एन्टरटेनमेंट पर सोल्लास राजी कर लिए जाते हैं.

मामले का खुलासा यह है कि दिल्ली के एक निचले दर्जे के प्रकाशक शिल्पायन ने अपने चचातुल्य सुपरिचित कवि एवं आकाशवाणी के महानिदेशक लीलाधर मंडलोई,सुख्यात कवि-इतिहासवेत्ता-फिल्म-संगीत-विशेषज्ञ तथा मध्यप्रदेश के वरिष्ठ आइ ए एस अधिकारी पंकज राग तथा एक टूरिस्ट-रेसॉर्ट के अनाम स्वामी की मदद से जबलपुर के पास सुप्रसिद्ध पर्यटन-स्थल कान्हा में एक विषय-सूची विरहित एक कविता-शिविर करवाया जिसमें हिंदी के करीब तीन दर्ज़न विविधस्तरीय कवियों ने हिस्सेदारी की.सारा खर्च शिल्पायन तथा उसके अनाम साहित्यवत्सल-मित्र होटल-मालिक ने उठाया.यह प्रमाणित है कि इस निजी,प्रकाशकीय शिविर की अदृष्ट स्मारिका के लिए विज्ञापन लीलाधर मंडलोई ने जुटाए – पंकज राग को लेकर ऐसे कोई सुबूत नहीं हैं,सिवा इसके कि शिविर के कुछ पहले तक वे मध्यप्रदेश पर्यटन निगम के सर्वेसर्वा थे.दोनों कवि-अधिकारी रचनाकारों के रूप में शिविर में उपस्थित थे,जिस पर कोई साहित्यिक आपत्ति नहीं की जा सकती.अन्यथा सुपात्र कवि मोहन डहेरिया को तत्काल, घटनास्थल पर ही, एक पुरस्कार घोषित-प्रदत्त भी हुआ.यह मंडलोई का एक और निजी पुरस्कार था या शिल्पायन-मण्डलोई का,यदि चैक से दिया गया तो उसपर दस्तखत किसके थे,वह इसी अवसर पर क्यों दिया गया आदि प्रश्न न तो कोई पूछ रहा है न उनके उत्तर दे रहा है.

कथित हिंदी-जगत में उपरोक्त तथ्यों को लेकर कोई विवाद नहीं था – अपयश इस पर हुआ कि “कवियों” में से एक राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का वरिष्ठ पदाधिकारी था और कुछ दूसरों पर हिन्दुत्ववादी होने का शुब्हा हुआ.प्रकाशक ने कहा कि मनसेवाला मेरा मित्र है और मैं उसे आगे भी बुलाऊंगा,कथित ढोंगी प्रगतिवादी कुछ भी कहें.लगभग सारे हिस्सेदार लेखक चुप रहे – तब भी जब सवाल उठाए गए कि ऐसे फ़ोकटे,परोपजीवी,संदिग्ध,निजी “आयोजन” में वे क्यों नाच-गा-बजा आए. उल्टे शिल्पायन और लीलाधर मंडलोई का बचाव करने की बहुस्तरीय कोशिशें हुईं,जिनमें अकादेमी-पुरस्कार विजेता कवि पं राजेश जोशी ने नेतृत्व सँभाला.इस कान्हा-काण्ड के और भी मार्मिक और उद्घाटक साहित्यिक-रेआलपोलिटिकल परिणाम निकले हैं जो शायद यहाँ हमारे लिए अप्रासंगिक हों.

इस प्रश्न को कई बाहरी ब्लॉग-विवादियों ने उठाया कि जिस प्रकाशक ने लेखकों के साथ  रॉयल्टी का हिसाब करने और अन्य मामलों में लगातार उद्दंड अनियमितताएँ की हैं और इस तरह उनका अपमान किया है उसके ऐसे मुफ़्तिया,पिकनिकिया आयोजन में लेखक गए ही क्यों.यह असंभव है कि आमंत्रित कुछ वरिष्ठ और कनिष्ठ कवि यदि भुक्तभोगी नहीं तो इस सचाई से नावाकिफ़ भी हों.लेकिन हिंदी में लेखकों ने ही प्रकाशक को ऐसा जबरा बना दिया है जो उन्हें मारता भी है और रोने भी नहीं देता क्योंकि बीच-बीच में वह कान्हा जैसे लालीपॉप भी थमाता रहता है.

एक अदने लेखक की हैसियत से मुझे पिछले करीब पैंतालीस वर्षों से हिंदी के प्रकाशन-विश्व को निस्बतन नज़दीकी से देखने का मौक़ा मिला है और संयोगवश उसकी शुरूआत राजकमल प्रकाशन से ही हुई.1960 के उत्तर-दशक तक  दिल्ली के कश्मीरी गेट और चावड़ी बाज़ार के पुराने प्रकाशक आधुनिक हिंदी साहित्य के लिए अप्रासंगिक हो चुके थे,  बनारस का भारतीय ज्ञानपीठ अस्तंगत-सा था और प्रेमचंद का पारिवारिक सरस्वती प्रैस श्रीपत-अमृत भ्रातृद्वय के बंटवारे,वार्धक्य,संतति-अरुचि और पेशेवर अयोग्यता के कारण निस्तेज हो चला था.सोविएत रूस के साथ करोड़ों का व्यापार करनेवाले पार्टी-मेंबर पंजाबी (शीला)संधू परिवार ने राजकमल प्रकाशन को खरीद लिया था और हालांकि शीला संधू में मैंने कभी अत्यधिक साहित्यिक समझ और तमीज नहीं देखे लेकिन एक संपन्न आधुनिक अंग्रेज़ीदां “प्रगतिशीलता” उनमें थी. अपने सफ़ेद बालों के कारण वे अकालवृद्धा दीखती थीं लेकिन उनके सॉफिस्टिकेशन से हिंदी के अधिकांश प्रकाशित और प्रकाशनेच्छु लेखक प्रभावित थे.कई प्रतिष्ठित,बहु-प्रकाशित लेखक उनके सामने बैठे या दर्शनाभिलाषी रहते थे.किन्तु सबसे दूरगामी महत्व का तथ्य यह था कि उन्हें तभी नामवर सिंह सरीखा “प्रतिबद्ध” टहलुआ मिल गया जो घटिया हिन्दी फिल्मों के पुश्तैनी अंगोछाधारी रामू काका की तरह अब तक राजकमल मालिकों  का नमक चुका रहा है.तब रामू काका जनवरी-फरवरी को जनौरी-फरौरी कहते थे,खैनी रगड़ते थे लिहाजा ऊर्ध्वमुख वार्तालाप करते थे,तेलौस बाल रखते थे और उनके इस तरह के बहुविध बनारसी गावदीपन पर शीला संधू,कृष्णा सोबती और युवतर निर्मला जैन जैसी अहीर की छोहरियाँ तफरीह के लिए उन्हें 8 दरियागंज में नाच नचाया करती थीं.

राजकमल से पुस्तक आने का फ़ख्र मुझे अब तक हासिल नहीं हुआ है,इसके बावजूद मैं साहित्य में सर्वाइव कैसे कर गया इसकी चौतरफ़ा हैरत है,लेकिन शुरू-शुरू में,जब तक शीला संधू पर मेरी अहम्मन्य गुस्ताखियाँ खुली न थीं,मुझे उनकी रिंग रोड लाजपत नगर वाली निहायत बूर्ज्वा और पूँजीवादी तिमंजला कोठी में,जिसमें उस ज़माने में स्विमिंग पूल होना बताया जाता था, जो तब ही लाखों रूपए की दीखती थी और आज होती तो बीसेक करोड़ की होती,एक-दो दफा कॉकटेल्स पर बुलाया गया था.मेरे लिए तब भी ऐसी दुनिया अजनबी न थी,जो अनजाना था वह यह था कि हिंदी का एक प्रकाशन-गृह इस तरह शराब पिला सकता था और कई प्रतिष्ठित लेखक इस क़दर पी सकते थे. तब प्रकाशकों के बीच यह ज़लील शब्द ‘रसरंजन’ प्रचलित होने में कुछ दशक थे.इसमें कोई शक़ नहीं कि संधू परिवार का बेपनाह ऐश्वर्य किताबों के धंधे की पैदाइश नहीं थी लेकिन लेखकों पर यह साफ़ था कि शीला संधू उनकी या उनकी पांडुलिपियों की मुहताज नहीं.लिहाज़ा बड़े-से-बड़ा हिंदी लेखक,यदि वह राजकमल से छपने का मुहताज था तो,या तो शीला संधू की बहुत संभ्रांत,महीन मुसाहिबी करता या उनके दरवाज़े खुलवाने के लिए अपने रामू काका से मधुर सम्बन्ध रखता.हस्तांतरित हो जाने से पहले तक अच्छे-अच्छे हिन्दी लेखकों से जितनी स्वैच्छिक,कृतकृत्य गुलामी शीला संधू के राजकमल ने करवाई है,वह कान्हावाले सभी के लिए कल्पनातीत है,भले ही वह उसी परम्परा का लुम्पेन दरिद्रीकरण हो.

नामवर सिंह को प्रतिभाहीन तो कोई नहीं कह सकता किन्तु किसी पुस्तक-प्रकाशक की,भले ही वह सोवियत-समर्थित क्यों न रहा हो, नौकरी करनेवाले अपने ढंग के वे पहले हिंदी आलोचक थे. उन्होंने बहुत पहले यह समझ लिया था कि राजकमल क्या था और क्या होने जा रहा था. उसकी चाकरी कुछ अपमानजनक तो थी किन्तु प्रकाशनातुर हिंदी लेखकों में उसकी सत्ता-छवि सबसे बड़े प्रकाशक की बनती थी जो सही भी था.नामवर उस समय चालीस के हुआ ही चाहते थे यानी आज की हास्यास्पद आत्ममुग्ध परिभाषा में “युवा” थे. उनकी महत्वाकांक्षा हिंदी का प्रोफ़ेसर बनने की थी जो बाद में शीला संधू के साहित्य अकादेमी और जोधपुर में कुलाधिपति वी वी जॉन के साथ रसूखों से ही हासिल हो सकी, यह नहीं कि वे अकादेमी पुरस्कार और प्रोफ़ेसरी के कुपात्र थे. अकादमिक और आलोचना जगत में नामवर सिंह पहले से ही निष्क्रिय-अज्ञात नहीं थे लेकिन राजकमल में सेवा के मालकिन-मुलाजिम दोनों को बहुविध लाभ थे.’आलोचना’ की संपादकी, जो अब तक बँधुआ बंटाईदारों के (राम)भरोसे चल रही है,और ‘सोविएत लैंड नेहरू अवार्ड’ ने ,जिसकी बागडोर रामू काका को सौंपी गयी थी और अब जिसकी  गुमटी दशकों से बंद हो चुकी है,हिंदी के लेखन-अकादमिक-प्रकाशन (अधो)विश्व के रेआलपोलिटीक पर जैसा भी हो असर तो डाला ही है.

कई कारणों से, जिनमें जाना यहाँ बेकार है, पिछले चालीस दशकों से कलकत्ता, पटना, लखनऊ, अलाहाबाद आदि के पुराने, क्षेत्रीय हिन्दी प्रकाशन-गृह या तो बंद होते गए,या नाम-मात्र के रह गए, या, शायद इसीलिए, दिल्ली के बड़े प्रकाशकों द्वारा खरीद लिए गए. अनेक कस्बाई या लघु-महानगरीय प्रकाशक जिंदा हैं, नए पैदा भी होते रहते हैं, लेकिन उनकी हैसियत मुस्लिम और अँगरेज़ हुकूमत के दौरान राजपूत-नवाबी रियासतों जैसी ही है. यह एक हैबतनाक हक़ीक़त है कि आज जब हम हिंदी में लेखक-प्रकाशक संबंधों की बात करते हैं तो लेखक भले ही अखिल-भारतीय हों, प्रमुख प्रकाशक सिर्फ दिल्ली के दरियागंज इलाके के हैं और वहाँ से भी मात्र दो हैं, राजकमल और वाणी, और वे भी दो सगे भाइयों के हैं, जो बीच में कट्टर दुश्मन थे और परस्पर मानहानिपरक पारिवारिक बदनामियाँ और नुक़सानदेह, प्रतियोगी व्यापारिक साजिशें करने से चूकते न थे – अब पता नहीं उनके रिश्ते कैसे हैं लेकिन गाँठ तो पड़ ही चुकी है. आत्माराम, राजपाल, नेशनल जैसे पुराने प्रकाशन थकेले हैं, ग्रन्थ शिल्पी, प्रकाशन संस्थान, प्रवीण आदि दूसरे से दसवें दर्जे के प्रकाशक हैं, बहुत पहले हापुड़ के ‘संभावना’ प्रकाशन ने गुणवत्ता में राजकमलादिक को चुनौती देने की उम्मीद जगाई थी और उसके कुछ वर्षों बाद पंचकूला के ‘आधार’ ने, लेकिन पहला अपनी व्यावसायिक अक्षमता का शिकार हुआ और दूसरा अपनी अनियमितताओं का – बहुत बड़ा मज़ाक़ यह रहा कि हरयाणा की बुद्धिहीन सरकार ने दूसरे के मालिक को प्रदेश साहित्य अकादेमी का उपाध्यक्ष बना डाला.

यह अविश्वसनीय किन्तु सत्य है कि भारत के हिंदी प्रकाशकों में से अधिकांश कूड़ा ही छापते हैं – यहाँ तक कि वह कथित प्रतिष्ठित प्रकाशकों के कैटलॉगों में भी देखा जा सकता है.लेखक और साहिबे-किताब बनने का मर्ज़, इन्टरनैट के बावजूद, बढ़ता ही जा रहा है और ऐसे महत्वाकांक्षियों के पास पैसों की कोई कमी नहीं दिखती और अब हिंदी का बड़े-से-बड़ा प्रकाशक पैसे लेकर कचरा छपने को तैयार है, बशर्ते कि आप उस प्रकाशन को शुरूआत में ही सस्ता या बाज़ारू न समझें.इसमें एक ठगी यह होती है कि इन प्रकाशकों के कुछ तृतीय-चतुर्थ श्रेणियों के उप-प्रकाशन भी होते हैं और आप पैसे इसलिए देते हैं कि आपकी पुस्तक मुख्य-प्रकाशन से आएगी लेकिन वह छापी किसी और कम्पनी के नाम से जाती है. मामूली शहरों और कस्बों में तो यह एक छोटी-मोटी महामारी की तरह है.हिंदी के एक इन्द्रप्रस्थ-वासी हलायुध ने बीसियों कस्बों में यशःप्रार्थियों को किताब छपा देने का लालच दे कर कुछ लाख रुपयों से ठगा है. कई जानकार ऐसा मानते हैं कि यह कुछ अत्यंत निचले प्रकाशकों की मिलीभगत से ही हो पाया, जो अब बाज़ार से लापता हैं.

हिन्दी प्रकाशन जगत में इतने प्रकार की ठगविद्याएं चलती हैं कि उनकी अधुनातन जानकारी रख पाना असम्भव है. मुझ सहित हिंदी के सारे लेखक-लेखिकाओं को, वरिष्ठ हों या युवा, डूब मरना चाहिए कि कविता-संग्रहों के अधिकांश महत्तम संस्करण तीन सौ प्रतियों में छपे बताए जा रहे हैं, कई इससे भी कम, और अब प्रकाशक यह अफ़वाह उड़ा रहे हैं कि कहानी-उपन्यास के प्रिंट-ऑर्डर भी बौने हो चुके हैं. कोई भी जानकार लेखक अपनी किताब देखकर बता सकता है कि वह उसके पहले संस्करण की है या बाद की, लेकिन प्रकाशक इनकार कर देता है कि उसने कोई नया एडिशन छापा है. यदि वह किसी कारणवश पुस्तक में मुद्रित भी कर देता है कि संस्करण दूसरा है तो न तो लेखक को पहले सूचित करता है, न बाद में, न उसे उस नए संस्करण की कॉम्प्लीमेंटरी प्रतियां देता है.रॉयल्टी को लेकर मैंने अच्छे-अच्छे लेखकों को रोते देखा है.

यहाँ आकर हम नेत्रसुख के लिए हिंदी में प्रकाशक-लेखक संबंधों के एक लगभग अश्लील पहलू की ओर भी झाँक ही लें. ऊपर संकेत दिया जा चुका है कि शीला संधू ने लेखकों में किस तरह एक स्यूडो-एलीट (छद्म-संभ्रांतवर्ग) निर्मित किया. वैसे यह सच है कि किसी भी प्रकाशक के कैटलॉग में एक ही विधा, विषय, बिक्री और स्तर के लेखक नहीं होते फिर भी उसे पक्षपात के आधार पर एक और जाति-व्यवस्था खड़ी नहीं करने दी जा सकती. लेकिन कुछ लेखकविशेषों को अपनी कोठियों या क्लबों में बुलाकर एंटरटेन करने के लाभ यह होते हैं कि उससे वे स्वयं अपने अधिकारों से वंचित होते जाते हैं, ऐसे फरागदिल, क़द्रदां प्रकाशक से वे रॉयल्टी सरीखे टुच्चे, भुक्खड़ विषय पर बात करना बिलो डिग्निटी समझने लगते हैं, वह भी उन्हें कभी-कभार बिना मांगे कुछ रक़म थमा देता है जिसे वे अपने मधुर संबंधों और रोब-दाब का नतीजा समझते हैं और फिर जब ग़ैर-मुसाहिब या युवा लेखक उसी प्रकाशक की बेईमानियों और बद्तमीज़ियों की शिकायत करते हैं तो यह कुलीन-कुलक वर्ग कह देता है कि भाई जाने क्या वजह है, हमसे तो बहुत इज्ज़त से पेश आता है. यही नहीं, वे प्रकाशकों की व्यावसायिक दिक्कतों को गिनाने लगते हैं, उनके हाउस-जर्नलों में उनकी ठकुरसुहाती करते हैं, उनके बचाव में खड़े हो जाते हैं. हालाँकि हिंदी प्रकाशक इतना मौकापरस्त और एहसानफरामोश भी है कि अपने ऐसे मोहसिनों को कभी-भी पटकनी दे देता है और तब ये अपने सुरुचिपूर्ण ड्राइंगरूमों में एकांत गिले-शिकवे करते हैं. वह तो अपने भले शुभचिंतकों को भी नहीं बख्शता.

महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यिक-अकादमिक प्रतिष्ठान-व्यक्तित्वों के सम्बन्ध व्यावसायिक प्रकाशकों से कैसे थे यह हम नहीं जानते, अलबत्ता मैंने एकाध बार हजारी बाबू को, उनके मानसपुत्र रामू काका की तरह, राजकमल में शीला संधू के सान्निध्य में पाया है. प्रेमचंद, जैनेन्द्र और अश्क जैसे लेखक स्वेच्छा या विवशता से स्वयं प्रकाशक बन गए थे लेकिन लेखक का अपना प्रकाशन चलाना एक अलग, हालाँकि दिलचस्प और अविश्लेषित, विषय रहा चला आता है. छिटपुट संकेत अवश्य मिलते हैं लेकिन खड़ी बोली हिंदी के प्रादुर्भाव से लेकर आज़ादी हासिल होने तक हिंदी प्रकाशकों की क्या हालत थी, प्रकाशक-लेखक सम्बन्ध कैसे थे इसकी कोई गहरी पड़ताल या जानकारी नहीं मिलती. उस युग के अधिकांश बड़े लेखकों के आत्मकथ्यों, टिप्पणियों, जीवनियों से यह स्पष्ट संकेत अवश्य मिलते हैं कि प्रकाशकों के साथ उनके रिश्ते कभी-भी बहुत अच्छे नहीं रहे. निराला को क्यों और किस तरह कैसे-कैसे प्रकाशकों के लिए क्या-क्या काम करने पड़े थे यह एक कलेजा चीर देने वाला आख्यान है.

आज कतिपय सत्ताधारी आलोचकों और लेखकों का एक नैक्सस प्रकाशकों से है जिसकी शुरूआत हम ऊपर देख चुके हैं. इसमें चालीस वर्षों से अफसर-लेखक तो शामिल हैं ही, कई सरकारी, अर्ध-सरकारी, सार्वजनिक और निजी संस्थानों के सभी स्तरों के वे कारकुन भी हैं जिनके पास पुस्तकें छपवाने, खरीदने और चैकों पर दस्तखत और उन्हें इश्यू करने-करवाने के पॉवर्स हैं. अक्सर चपरासी और बाबू भी शक्ति-संपन्न हों उठते हैं.  यही नहीं, जब एक वरिष्ठ अधिकारी, जो पहले ही ताक़तवर था, किसी अत्यंत संदिग्ध केन्द्रीय विश्वविद्यालय का कुलाधिपति हो जाता है जिसकी कक्षाएं भी शुरू नहीं हुई होतीं तो सबसे पहले वह प्रकाशकों में खुद के या अपने कृपापात्रों द्वारा संपादित या अनूदित पाठ्य-पुस्तकें आउटसोर्स करता या बंटवाता है, और लाखों रूपए उन किताबों के प्रकाशन पर खर्च करता है जिन्हें उसके उत्तराधिकारी कुलपति देखना तक नहीं चाहेंगे, कोर्स में लगाने की संभावना का कोई प्रश्न ही नहीं उठता.लेकिन ऐसा करके वह उन प्रकाशकों को अपना आजीवन क्रीतदास बना लेता है.यही नहीं,वह बहुत सूक्ष्म या स्थूल तरीके से यह तक नियंत्रित करने लगता है कि वे प्रकाशक किसे छापेंगे और किसे नहीं.

बल्कि इसकी ज़रुरत भी नहीं पड़ती. आज स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि हिंदी प्रकाशक बखूबी जानता है कि हिंदी साहित्य की माफ़िया के चहेते और अनचाहे लेखक कौन हैं और वह अपने स्तर पर ही उनसे यथायोग्य सुलूक कर लेता है. सिंहों और वाजपेयियों जैसों की दोस्तियाँ और अदावतें, मेहरबानियाँ और नाराजगियां वह हस्तामलकवत् जानता है. फिर ऐसे लोगों द्वारा पत्रिकाओं, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, निजी और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों आदि में रखे गए पारिवारिक सदस्यों, झोलाउठाऊ मुत्तवल्लियों, चरनछूऊ चारणों आदि की उप-माफ़िया अपने बुजुर्गों और आक़ाओं के प्रति अतिरिक्त वफादार है. यह समूचा गिरोह मिलकर यू पी एस सी से लेकर स्कूलों तक पाठ्यक्रमों, पाठ्य-पुस्तकों, रिसर्च, सेमीनार, व्याख्यानों, विभिन्न इम्तहानों के प्रश्न-पत्रों,परिणामों आदि को नियंत्रित कर रहा है.ज़ाहिर है इसमें प्रकाशकों का करोड़ों रुपयों का स्वार्थ नत्थी है.

आप देखें कि राजकमल और वाणी प्रकाशन अपनी-अपनी पत्रिकाएँ निकालते हैं जिनके सम्पादक हिंदी के बलशाली  पूर्व या वर्तमान प्रोफ़ेसर हैं, एकाध चिरकुट सहायक भी है, जिन्हें “अवैतनिक” लिखा जाता है. मैंने पश्चिम की कोई ऐसी निजी पत्रिका नहीं देखी जिसका सम्पादन ऐसे फ़ोकटे प्रोफ़ेसर कर रहे हों. जिन प्रोफेसरों को अपने विश्वविद्यालयों की अपनी पत्रिकाएँ निकालनी चाहिए, जैसा कि विदेशों में होता है और उनकी बेहद प्रतिष्ठा है, वे प्रकाशकों के यहाँ बर्तन माँज रहे हैं. लेकिन इन्हें झूठ ही एज़ाज़ी लिखा जाता है. इन्हें नक़द और जिंस (कैश एंड काइन्ड) की शक्ल में भुगतान होता ही है. स्पष्ट है कि ऐसी पत्रिकाओं में इनके संपादकों और प्रकाशनों की कोई ईमानदार, तीखी आलोचना या समीक्षा नहीं हो सकती और जो लेखक-आलोचक-अध्यापक अन्य पत्रिकाओं में वैसा कर चुके हों उन्हें यह कतई नहीं छापेंगे. अहम बात यह है कि उनकी एज़ाज़ी मुलाज़िमत एक अनियमितता और भ्रष्टाचार है. सब जानते हैं कि किसी-भी स्तर का सरकारी अध्यापक अपने विभागाध्यक्ष, प्राचार्य या कुलपति की लिखित अनुमति के बिना कोई दूसरा वैतनिक-मुफ़्तिया, अंश- या पूर्णकालिक काम नहीं पकड़ सकता. लेकिन यदि वह और उपरोक्त-जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशक मिलकर उन वरिष्ठों को कुछ प्रलोभन दे दें, जिनमें उनकी कूड़ा किताबों का प्रकाशन भी शामिल हों, तब तो शायद यू जी सी, एच आर डी के अधिकारी भी उनके अवैतनिक टहलुए हो जाएँ. और यदि आप किसी मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक या उनके परिजनों-कृपापात्रों-राज़दानों की कोई घटिया पुस्तक छाप-छपवा दें तो फिर क्या संभव नहीं है.

जब से हिंदी की कॉलेजस्तरीय अकादमिक दुनिया में नए वेतनमान लागू हुए हैं,प्राध्यापक-प्रकाशक मिलीभगत प्रगाढ़तर-जटिलतर हुई है और इन दोनों की दूरी मात्र मसिजीवी लेखक से और बढ़ी है. आज यदि किसी दईमारे  प्राध्यापक को अपनी कोई पुस्तक पैसे देकर भी छपानी पड़े तो उसे उसमें अपनी एक महीने की तनख्वाह जितना भी निवेश नहीं करना पड़ता. उधर कोई स्वतंत्र हिंदी लेखक किसी महानगर में जानलेवा मेहनत भी कर ले, पंद्रह हज़ार रुपये महीने से ज्यादा नहीं कमा सकता. पिछले छप्पन वर्षों में मेरे निजी स्वतंत्र लेखन और अपनी पुस्तकों का कुल औसत पारिश्रमिक छह हज़ार रूपए प्रति वर्ष भी नहीं ठहरता. संघर्षरत लेखक, युवा हों या प्रौढ़, अधिकांश समृद्धतर प्राध्यापक-लेखकों के उपहास, उपेक्षा और अपमान के पात्र बनकर रह गए हैं. आज दिल्ली, नेहरू और जामिया आदि विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध हिन्दी प्राध्यापकों का रूतबा प्रकाशकों के यहाँ बहुत बढ़ गया है क्योंकि हिंदी के इतिहास में पहली बार प्राध्यापक उनका और पैसों का मोहताज नहीं रहा.यह पहला मौक़ा है कि उन सब के सामने पहली बार प्रकाशक गुर्राना भूलकर दुम हिलाना सीख रहा है. यूं तो यह हर्ष और गर्व की बात होती लेकिन इससे प्रकाशक-प्राध्यापक नैक्सस बढ़ा ही है और पूर्व-प्रतिबद्ध शिक्षकों के विचारधारा-दुग्ध में भी पर्याप्त पनियलपन देखा जाने लगा है.

प्रकाशकों और अकादमिक दुनिया पर जितना आतंक और दबदबा हिंदी के अब लगभग पूर्ण-विस्मृत, घोर प्रगतिशीलता-विरोधी प्राध्यापक नगेंद्र का था उतना कभी देखा नहीं गया. स्वयं शीला संधू उनसे अदब-कायदे से पेश आती थी. दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने छोटे भाई काशीनाथ सिंह की नौकरी लगवाने के लिए नामवर सिंह सरीखे गर्वीले आदमी को शायद उनके अंडर रिसर्च और अध्यापन कर रहीं निर्मला जैन के माध्यम से उनके सामने गिड़गिड़ाना पड़ा था. नगेन्द्र ने कभी प्रकाशकों की वैसी गुलामी नहीं की जैसी नामवर,और उनसे सबक़ लेकर उनके बीसियों चिरकुट मुसाहिब,अब तक बजा ला रहे हैं.नगेन्द्र देश-भर की हिंदी-सम्बंधित संस्थाओं और कमेटियों पर काबिज़ थे जिनमें, ज़ाहिर है, पुस्तक-खरीद चयन समितियां भी होती थीं. लेकिन न तो नगेन्द्र ने और न नामवर सिंह ने कभी प्रकाशकों को अनैतिक कार्यपद्धति से रोका और न प्रकाशक-लेखक संबंधों को लेखकों के पक्ष में मानवीय और लाभकर बनाने की कोई पहल की. उनके बाद के प्रोफ़ेसर तो प्रकाशकों के पैंट की जेबों की चिल्लर हैं.

अनेक विदेशी साहित्यों के बाज़ार के मुकाबले हिंदी प्रकाशन की पूंजी को खुर्दा ही कहा जाएगा फिर भी वह करोड़ों को छू रही है और कुछ प्रकाशक वाकई नौदौलतिये हो चुके हैं. लेकिन यह असली मेहनत की वह उपलब्धि नहीं है जिस पर वे स्वयं, हिन्दी संसार या भारत गर्व कर सकें. यह लाइब्रेरियनों, क्लर्कों, प्रिंसिपलों, प्रोफेसरों,  अफसरों, मिनिस्टरों को घूस दे कर बनाई गयी लक्ष्मी है. सामूहिक पैसे खिलाए जाते हैं, ऑर्डरों की सामूहिक सप्लाइ की जाती है और फिर सामूहिक बंदरबाँट होती है. एक-एक प्रकाशक बीसियों, तीसियों, सैकड़ों जाली प्रकाशनों के नाम से किताबें सबमिट करता है. नुस्खा यह है कि पुरानी पुस्तक के पहले चार पेज निकालकर नए प्रकाशन के नाम से नए प्रकाशन-वर्ष की किताब रातोंरात तैयार कर ली जाती है, जिसे ट्रेड की कूट-भाषा में चाँपा लगाना कहा जाता है,कवर,पेस्टर और जिल्द बदल दिए जाते हैं और रंग चोखा हो जाता है. केन्द्रीय हिंदी निदेशालय की एक पुस्तक-खरीद समिति का मैं भी सदस्य था. देखता क्या हूँ कि मेरी अनूदित दो विदेशी पुस्तकें मेरे ही प्रकाशक वाणी ने किसी और प्रकाशन के नाम से जमा कर रखी हैं. राजेन्द्र यादव की भी एक समूची सीरीज भी ऐसी-ही सब्मिटेड थी. मैंने अर्जुन सिंह के मन्त्रालय में सुदीप बनर्जी को तत्काल लिखित सूचना दी. इस पर वाणी ने कहा कि विष्णु खरे हमसे किताबें अनुमोदित करने के बीस हज़ार रूपए माँग रहा था, जब हमने नहीं दिए तो उसने शिकायत कर दी. मंत्रालय ने वाणी के साथ क्या किया यह मालूम नहीं पड़ा लेकिन मुझे एच आर डी मिनिस्ट्री से कोई चिट्ठी नहीं आई. राजेन्द्र यादव को बताया तो ठहाका लगाकर बोले कि तुम भी यार पता नहीं क्यों सर फोड़ते फिरते हो, इन चीज़ों से क्या दुनिया बदल डालोगे. राजकमल के अशोक महेश्वरी ने एक जर्मन अनुवादक महेश दत्त से मिलकर एक अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक जालसाजी करवाई और शायद ब्लैक-लिस्ट हुए. बाद में सुना है किसी और स्वतंत्र प्रकाशन-जालसाजी के मामले में  महेश दत्त जेल भी गए. यह साहब वाणी के यहाँ भी अपनी सेवाएँ दे चुके थे. मैं दोनों भाइयों को महेश दत्त के बारे में बहुत पहले चेतावनी दे चुका था लेकिन ऐसे लोगों के बीच एक जटिल स्वार्थ-जाल विकसित हों जाता है. यह लोग धोखा देने के साथ-साथ गच्चा खाने के आदी भी हो जाते हैं. कुछ वर्षों पहले अरुण महेश्वरी ने उत्तर प्रदेश के किसी मंत्री को पुस्तक खरीद के किए पंद्रह लाख रूपए दिए थे. मंत्री बदल गया, पुस्तक खरीद नहीं हो पाई लेकिन खुर्राट और ख़तरनाक़ मंत्री ने पंद्रह रुपट्टी तक नहीं लौटाई. पेशेवर प्रकाशक जानता है कि ऐसे हादसे पी जाने में ही भलाई है – क्या पता कल वही मिनिस्टर किस काम आ जाए. ट्रेड में खरीद-अधिकारियों द्वारा प्रकाशकों को इस तरह डबल-क्रास किए जाने के कई किस्से प्रचलित हैं. लेकिन सारा बड़ा हिंदी प्रकाशन अन्ततः थोक खरीद पर ही फल-फूल रहा है. हिंदी के संभ्रांत कर्णधार इसकी चर्चा करने को ही वल्गेरिटी और अपनी महानता और गरिमा के विरुद्ध समझते हैं. दरअसल वे हिन्दी प्रकाशन के नरक को जानना-स्वीकारना ही नहीं चाहते.उन्हें अपनी अक्सर बोगस पुस्तकों के लोकार्पण, और विशेषतः उसके बाद के ज़लील रसरंजन, में ही अपना टुच्चा स्वर्ग दीखता है.

पिछले करीब ढाई दशकों से हिंदी दैनिकों में साहित्य के लिए लगातार जगह और सम्मान कम हुए हैं और अब तो शायद हैं ही नहीं, किन्तु एक प्रबुद्ध चालाकी के तहत ओम थानवी ने, जो व्यावसायिक रूप से एक घटिया और नाकाम सम्पादक साबित हुए हैं, रविवारीय ‘जनसत्ता’ के पन्नों पर साहित्यिक सामग्री, भले ही वह कुल मिलाकर दोयम दर्जे की क्यों न रही हो, और साहित्यकारों द्वारा गैर-साहित्यिक विषयों पर टिप्पणियाँ छाप कर दिल्ली की अदबी माफिया में एक अद्वितीय स्थान बना लिया. चूंकि दिल्ली का कोई भी दूसरा अखबार साहित्यिक घटनाओं की कोई खबर नहीं देता और ‘जनसत्ता’ देता है लिहाज़ा ओम थानवी का रसूख हिंदी साहित्य जगत में बढ़ता चला गया. ’जनसत्ता’ आम तौर पर दोयम दर्जे की पुस्तक-समीक्षाएं छापता है, लेकिन छापता तो है, इसलिए वह प्रकाशकों को भी मैनिपुलेट करने लगा. ओम थानवी गद्य अच्छा लिख लेते हैं, विश्व-सिनेमा में उनकी रूचि और गति हिंदी पत्रकारिता में अद्वितीय है, लेकिन मुएँजोदड़ो पर लिखी उनकी खफीफ किताब को जिस फुगावे के साथ छापा गया वह प्रकाशन जगत में उनके क्लाउट को अधिक दर्शाता है, पुस्तक की गुणवत्ता को कम.यही नहीं, पिछले जन्मशतियों वाले वर्ष में उन्होंने विस्मृत वात्स्यायन को लगभग एक मनोरोगग्रस्त निजी अभियान में कई स्तरों पर जीवित करने की असफल कोशिश की जिसमें प्रकाशकों से ‘अज्ञेय’ पर कुछ महंगी जिल्दें छपवा लेना भी शामिल था. हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और प्रकाशन के इतिहास में यह पहली बार है जो अखबार दिल्ली तक में नहीं बिकता, जिसके सम्पादन का दर्ज़ा साहित्य की बैलगाड़ी के नीचे चलनेवाले स्वामिभक्त या अधिकतम पांचवें सवार का हो, वह किताबों की दुनिया पर भी निगरानी करने की महत्वाकांक्षा पाले.

इधर एक और घटना हुई है जिसकी भयावहता का पूरा अहसास हिंदी के कथित लेखकों को शायद ही हो पाए और यदि हुआ भी तो उसके बारे में कुछ कर पाने का साहस वे बटोर पाएं. एक कल्पनातीत विकृत, भ्रष्ट नियम के तहत साहित्य अकादेमी ने एक नया, प्रकाशकों का, निर्वाचन-समूह निर्मित किया है जिसने वाणी प्रकाशन के अरुण महेश्वरी को भारत की इस सर्वोच्च साहित्यिक संस्था का सदस्य चुन लिया है. अरुण महेश्वरी को मैं वर्षों से जानता हूँ, उनमें कुछ सुपरिचित, सामान्य मानवीय गुण हैं, व्यावसायिक चातुर्य प्रचुर मात्रा में है लेकिन बौद्धिकता और साहित्यिक समझ से उनका लगभग जन्मजात मूषकविडालवैर है. अंग्रेजी लिख, पढ़ और बोल पाने का तो सवाल ही नहीं उठता, अच्छी हिंदी का एक इमला भी ठीक से वे ले नहीं सकते और उनसे अपने दिमाग से एक पृष्ठ लिखने को कहना उनपर भारतीय पुलिस की सुपरिचित कम्बल-परेड करवाने जैसा है.विश्वास नहीं होता वे अदिति जैसी प्रखर, होशियार बिटिया के पिता हैं, जो लगता है अपनी माँ पर गयी है. दिलचस्प यह भी है कि कुछ वर्षों पहले अलाहाबाद के एक संदिग्ध संस्थान के शेडी, प्रकाशनातुर निदेशक ने उन्हें अपने एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में यह आश्वासन देकर बुलाया था कि आप आ तो जाइए, आपका पर्चा मैं लिख-लिखवा दूंगा.अरुण महेश्वरी ने न जाकर बौद्धिक जगत पर जो उपकार किया उसका वह चिर-ऋणी रहेगा.

बहरहाल, साहित्य अकादेमी की स्थापना का एक महती उद्देश्य यह भी था कि जिन पुस्तकों को व्यावसायिक प्रकाशन नहीं छापते उन्हें अकादेमी बहुत कम दामों पर छापे और अखिल भारतीय स्तर पर स्वयं बेचे. आज भी उस तरह की पुस्तकें वैसी कीमतों पर प्रकाशक नहीं छापना चाहते. यानी अकादेमी और आम प्रकाशकों के सम्बन्ध मूलतः प्रतिपक्षी (एड्वर्सेरियल) और तनावग्रस्त होते हैं. फिर, अकादेमी पुस्तकों और लेखकों को ही पुरस्कृत करती है जिनका सीधा सम्बन्ध प्रकाशकों से होता है. एक प्रकाशक के अकादेमी का सदस्य बनने के बाद पुरस्कारों की गोपनीयता पर दूरगामी असर पड़ेगा क्योंकि नियमानुसार हर सदस्य सम्बंधित भाषा के प्राथमिक या अंतिम निर्णायकों में अनिवार्यतः होता है और आप अरुण महेश्वरी को हिंदी की उन सूचियों में से एक से बाहर नहीं रख सकते. उन्हें मालूम रहेगा कि वाणी प्रकाशन सहित हिन्दी के किन प्रकाशकों की कौन सी पुस्तकें या कौन से लेखक-लेखिकाएँ किस पुरस्कार के लिए विचाराधीन हैं. वे २०१३ से पांच वर्षों के लिए हमेशा इंटरेस्टेड पार्टी या स्टेकहोल्डर रहेंगे. यही नहीं, कई तरह की मित्रताएं साध कर वे अन्य भाषाओँ के पुरस्कारों और अकादेमी के अन्य सभी कार्यक्रमों को प्रभावित कर सकेंगे.अकादेमी के प्रकाशनों-पत्रिकाओं में उनका दखल हो सकेगा.

अरुण महेश्वरी एक स्ट्रीट-स्मार्ट, चलता-पुर्जा व्यक्तित्व के धनी हैं. करोड़पति तो वे हैं ही. यदि वे अपने पत्ते ठीक से खेलें और सही लोगों को सही प्रलोभन दें तो बहुत संभव है लीलाधर जगूड़ी, अरुण कमल और गोविन्द मिश्र सरीखे भ्रातृवत् नए सदस्य उन्हें ही अकादेमी की सर्वशक्तिमान कार्यकारिणी का सदस्य बनवाकर दम लें. पहले दो को तो राजकमल वाले बड़े भाई अशोक महेश्वरी ने और स्वयं वाणी ने छापा है और अरुण कमल अपने पूर्वपरिचित रामू काका के “अवैतनिक” अंगोछालंगोटबरदार हैं ही. इन दोनों की हिम्मत भला अरुण महेश्वरी की हुक्मउदूली की कैसे हो सकती है? कोई  भी शातिर प्रकाशक हिंदी के दयनीय रीढ़हीन लेखक-लेखिकाओं से किसी भी तरह का विनिमय कर सकता है. उनमें से अब अनेक वाणी की निर्लज्ज या गुप्त गुलामी करेंगे क्योंकि अब सवाल महज़ प्रकाशन का नहीं,अकादेमी पुरस्कारों का भी है. सबसे कॉमिकल बात यह है कि नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे जैसे बड़बोले छद्म सरगनाओं, गाडफादरों, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरादिकों और उनके गिरोहों और सुपारीवालों के बावजूद अरुण महेश्वरी अकादेमी में चुने गए. अब एक प्रकाशक इनकी बराबरी में बैठ गया बल्कि कुल मिलाकर हिंदी के रेआलपोलिटीक में इनसे कुछ आगे ही निकल गया. लेकिन यह संकर नस्ल महीन चापलूसी करने में भी निष्णात है. अब साहित्य अकादेमी के मंचों पर और उनसे परे सार्वजनिक दिल्ली में और लखनऊ, पटना, भोपाल वगैरह में अरुण महेश्वरी की उपस्थिति में ऐसे लोगों की और अन्य लेखक-लेखिकाओं की शक्लें, देह-भाषा और व्यवहार को देखना ठकुरसुहाती, मुसाहिबी और चापलूसी का एक जीवंत पॉवर-पॉइंट प्रेजेंटेशन होगा.

१. जानकार सूत्रों को ऐसा शक़ है कि हिंदी प्रकाशक अपनी पुस्तकों के दाम लागत से कम-से-कम छः गुना रखते हैं. इससे वे सिर्फ संस्थागत या/और थोक खरीद के लायक रह जाती हैं. हिन्दीभाषी मध्यवर्ग, जो करोड़ों में है लेकिन हिंदी साहित्य को जानना-खरीदना जिसकी ‘संस्कृति’ में नहीं है, इतनी महँगी किताबें यही बहाना बनाकर नहीं खरीदना चाहता. शायद यही प्रकाशकों का उद्देश्य भी रहता हो. पुस्तकें नहीं बिकतीं ऐसा अपवाद फैलाकर वे किताबें नहीं छापते, कम-से-कम छापते हैं ताकि पूरा “संस्करण” दो-तीन थोक खरीदों में ही निपट जाए, प्रतियाँ विक्रेताओं को न भेजनी पड़ें और खुर्दा काउंटर-सेल या डाक-कूरिअर से भेजने से बचा जा सके. प्राथमिक उपाय यही है कि प्रकाशकों को पुस्तकों के दाम एक उचित स्तर तक रखना चाहिए. ज़रूरी हों तो इसके लिए एक पहरुआ समिति का गठन किया जाए जिसमें लेखकों,प्रकाशकों और सरकार के प्रतिनिधि हों.
२. वामपंथी लेखकों के तीन संगठन और कई उप-संगठन हैं. कुछ स्वयं प्रकाशन-क्षेत्र में हैं. उनके कुछ सदस्यों के निजी या निजी-जैसे प्रकाशन भी हैं. इन्हें अपने रथ ज़मीन पर उतार कर सबसे पहले लेखकों के साथ अपने संबंधों को उजागर करना चाहिए. फिर, चूँकि वे प्रकाशन की सारी पेंचीदगियाँ जानते हैं, उन्हें मूल्य-निर्धारण सहित व्यावसायिक प्रकाशकों की सारी सचाई सामने लानी चाहिए, किसी भंडाफोड़ या स्टिंग के रूप में नहीं, बल्कि एक दृढ़ सहानुभूति के साथ.नए लेखक-संगठन बनने चाहिए जिनका रुझान भले ही प्रगतिकामी न हों, आधुनिक और प्रबुद्ध अवश्य हों. पाठकों के हितों की रक्षा के लिए सभी लेखकों और उनके संगठनों को वैचारिक-राजनीतिक मतभेद अस्थायी रूप से भुलाते हुए लगातार ऐकमत्य से काम करना होगा.
३. बर्न कॉपीराइट कन्वेंशन के भारतीय संस्करण का देशी प्रकाशन वास्तविकताओं के बरक्स संशोधन किया जाना चाहिए. लेखक (जिसमें मूल लेखक, अनुवादक, रूपान्तरकार, सम्पादक, चयनकर्ता और उनके वारिस आदि सभी शामिल समझे जाएँ) और प्रकाशक के बीच एक न्यूनतम, मानक कन्ट्रैक्ट का मसव्विदा तैयार हो जिसे सख्त़ी से लागू किया जाए लेकिन लेखक उसमें निजी तौर पर तभी परस्पर-संशोधन पर सहमत हो जबकि वह असंदिग्ध रूप से उसके और लेखक-बिरादरी के हित में हो.
४. पुस्तकों की सरकारी-अर्ध-सरकारी खरीद तुरंत बंद हों. राजा राममोहन फाउंडेशन, जो नामवर सिंह के ज़माने से ही भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हो चुका है और सुदीप बनर्जी तथा अर्जुन सिंह द्वारा उनके वहाँ से हटाए जाने का कारण बना था, और जिसने प्रधानमंत्री की बेटी की पुस्तक की संदिग्ध खरीद की है, को तत्काल वाइंड-अप कर दिया जाना चाहिए और उसके अब तक के सारे कार्य-कलाप की जांच के लिए एक ईमानदार सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट जज की अविलम्ब नियुक्ति होनी चाहिए.
५. वैकल्पिक रूप से यह भी हो सकता है कि सभी स्तरों की सरकारी पुस्तक-खरीद के सारी शर्तों सहित  विज्ञापन बड़े हिंदी दैनिकों और प्रतिष्ठित, नियमित मासिक पत्रिकाओं में सही समय पर छपें, जिन प्रकाशकों की जो भी पुस्तकें खरीद के लिए चुनी जाएँ उनकी पूरी सूचियां प्रति-संख्या सहित सम्बद्ध अनिवार्य वेबसाइटों पर शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध हों तथा चयन-समिति के नाम भी साथ-साथ प्रकाशित किए जाएँ. लेखकों-प्रकाशकों से आपत्तियां, यदि हों तो, आमंत्रित की जाएँ. खरीदनेवाली संस्थाएं लेखक या उसके उत्तराधिकारियों को स्वयं सूचना दें और उन्हें ही उस खरीद की रॉयल्टी भेजें.
. प्रकाशक अपना कारोबार बढ़ाने के लिए हर वैध, पेशेवर और नैतिक क़दम उठाएं लेकिन साहित्यिक रेआलपोलिटीक में पहलक़दमी, हिस्सेदारी, पक्षपात आदि न करें. उनका एकमात्र ध्येय स्तरीय साहित्य का प्रकाशन, विक्रय, वितरण हो. हाउस-जर्नल के अलावा वे कोई भी “साहित्यिक” पत्रिका निकालने से बचें. अकादमिक दुनिया और पुरस्कारों की राजनीति से दूर रहें.
७. प्रकाशकों के पास सक्षम अंश- या पूर्णकालिक प्रूफ-रीडर और सुयोग्य कॉपी-एडीटर हों जो साहसपूर्वक लेखकों से उनकी स्वीकार्य पांडुलिपियों की गुणवत्ता पर बात कर सकें. सारे लेखक, जो कितने भी “वरिष्ठ” या “प्रतिभाशाली” क्यों न हों, स्वयं को पैदाइशी अल्लामियाँ न समझें और ऐसे संपादकों की राय और सुझावों को समुचित सौहार्द और खुले दिलो-दिमाग़ से लें. ज़रूरी हो तो ‘पिअर-रिव्यू’ भी की जानी चाहिए. आज हिंदी में लगभग हर साहित्यिक विधा की अधिकांश प्रकाशित पुस्तकें निर्मम,निर्भीक पुनर्सम्पादन की मांग करती हैं.
८. जो प्रकाशक ईमानदारी से पुस्तकों का मूल्य निर्धारित न करता हो, लेखक को उसकी कॉम्प्लिमेंटरी प्रतियां न या कम देता हो, उसे रियायती मूल्य पर अतिरिक्त प्रतियां न बेचता हो, समीक्षार्थ प्रतियाँ पत्र-पत्रिकाओं में न भेजता हो, लेखकों के बीच भेदभाव और वैमनस्य को बढ़ावा देता हो, लेखकों को उसके लंचों, डिनरों, कॉकटेलों, माता-पिता आदि के जन्मदिनों-पुण्यतिथियों के विज्ञापनों आदि में दिखाई देने से इनकार करना चाहिए.
९. यह एक कटु सत्य है कि आज जो हिंदी में प्रकाशक-लेखक सम्बन्ध वैमनस्य, घृणा और एकतरफ़ा मोहताजी के हो गए हैं उनके लिए अधिकतर प्रकाशक ही ज़िम्मेदार हैं, फिर भी दोनों का कर्तव्य यही है कि उन्हें मानवीय और सौहार्दपूर्ण बनाया जाए. इसके लिए अनिवार्य है कि सभी विधाओं और पीढ़ियों के स्त्री-पुरुष लेखकों और छोटे-बड़े प्रकाशकों का एक सम्मेलन आयोजित किया जाए जो एक सर्वसम्मत, व्यवहार्य घोषणापत्र के साथ समाप्त हो. इसके लिए पहले से ही सभी समुत्सुक लेखकों और प्रकाशकों से लिखित वक्तव्य आमंत्रित किए जा सकते हैं जो बहस की नींव का काम करें.
१०. प्रकाशकों और लेखकों को एकजुट होकर हिन्दीभाषी प्रदेश में हिंदी की बेहतर, साहित्यिक पुस्तकें खरीदने और पढ़ने की संस्कृति का विकास करना होगा. यह तभी संभव हो पाएगा जब हमारे यहाँ एक मज़बूत लोकप्रिय साहित्य हो और सभी विषयों पर विशेषज्ञता से लेकर “मेड ईज़ी” स्तर तक की वाजिब किताबें उपलब्ध हों.

उपरोक्त और अन्य ऐसे कई संभव सुझाव न तो नए होंगे और न आसान, किन्तु यदि शुभस्य शीघ्रम् न किया गया तो स्थिति सिर्फ बदतर होती जाएगी.

*****
('समकालीन सरोकार' के नवंबर अंक में प्रकाशित)




3 टिप्पणियाँ:

आशुतोष कुमार ने कहा…

विशेषणों की बेमानी बौछार और कुछ दिलजली टिप्पणियों को छोड़ दें तो हिंदी प्रकाशन के सम्बन्ध में दिए गए प्रस्ताव खरे हैं . लेकिन हिंदी में तू तू मैं मैं का जैसा तुमुल है , उस में कौन इस दिमागखाऊ सोचविचार में संदीजगी से शामिल होगा !

विष्णु खरे ने कहा…

"हिंदी प्रकाशन के सम्बन्ध दिए गए प्रस्ताव" पर इस इकलौती,सकारात्मक टिप्पणी को छोड़ दें तो प्रस्तुत मसले पर ब्लॉग की अन्यथा अतिवाचाल बिरादरी की ओर से वैसा ही सन्नाटा है जैसा कान्हा सरीखे अभयारण्य में रात को किसी अशुभ जानवर के बोलने से छोटे,निरीह चौपायों में व्याप्त हो जाता होगा.यह एक अत्यंत विषादकर स्थिति होती यदि लेखक को उसका समर्थन करते हुए करीब पचास टेलीफोन न आए होते,किन्तु यह देखना दिलचस्प होगा कि "समकालीन सरोकार" में इस और अन्य सहप्रकाशित लेखों पर कैसी-कितनी प्रतिक्रियाएं प्रकाशित होती हैं.यदि वहाँ भी मामला ठंडा रहा तो ऊपर की टिप्पणी और मुझे आए फ़ोनों के बावजूद यह साफ़ है कि स्थिति का मेरा आकलन लगभग सिरे से ग़लत था,हिन्दी प्रकाशन जगत में सब कुछ ठीक है, और आशंका यही है कि मुझे सभी सम्बद्ध लोगों से बहुत बड़ी मुआफी मांगनी पड़े.

अनमोल ने कहा…

मैं दिल्ली विश्विद्यालय में राजनीति विज्ञान का छात्र हूँ. हिन्दी की दुनिया के बारे में नहीं जानता पर इतना समझ चुका हूँ कि हमारी 'साहित्यिक-अकादमिक दुनिया' एक बड़ी भूलभुलैया के भीतर स्थित ऐसा बंद कमरा है जिसका जादुई रास्ता सिर्फ कुछ लोगों को लगभग 'जन्मना संस्कार' के चलते पता है. इस रास्ते पर विभागों-संस्थाओं के चोबदार बैठे रहते हैं और जो बाकी लोगों की कुण्डली या 'बहुस्तरीय प्रतिभा' देखकर इजाजत देते हैं. आपने जो लिखा है हो सकता है काफी कुछ 'चिढ़' के चलते भी हो या अन्य कारण से. पर मैं इतना जानता हूँ कि ऐसा निर्भीक लिखना, और नाभिनाल पर उंगली रखते हुए इस दुष्चक्र के रचियताओं-टहलुओं को इंगित करना बहुत जरूरी हैं... धन्यवाद, गढ़-मठ टूटेंगें..