रविवार, 16 सितंबर 2012

समालाप - ३ : अखिलेश

[बुद्धू-बक्सा की इस श्रृंखला में हमारा सतत प्रयास ये है कि हम ये दिखाने की कोशिश कर सकें कि किसी रचनाकार के विचार का स्थान और उसका कैचमेंट कहाँ से संभव होता है, चाहे रचना की विधा कोई भी क्यों न  हो. इस कड़ी में पहले गीत और गिरिराज से बातें हुईं और अब चित्रकार-पेंटर अखिलेश से हुई बातचीत सामने है. अखिलेश के लिए कला का सत्य ही सर्वोपरि है, उसमें किसी उद्घाटन की तलाश करना बेमानी है. धर्म पर अखिलेश का चेतनात्मक रवैया कला के इतिहास से होकर गुज़रता है, ये रवैया मानसिक सत्यापन पर आधारित है. बुद्धू-बक्सा पर आगे भी भिन्न-भिन्न स्वाद के लोग मिलते रहेंगे. बुद्धू-बक्सा अखिलेश का आभारी.]


अखिलेश से सिद्धान्त मोहन तिवारी की बातचीत


कला में सत्य और उसके उपलब्ध आयामों को कैसे समायोजित करते हैं? यानी कला में सत्य कितना होता है?

कला का सत्य ही सर्वोपरि है मेरे लिए अत: मैं अन्यथा किसी सत्य के उदघाटन के लिए इंतज़ार नहीं करता. चित्र का सत्य ही, या इसे अन्य कलाओं के सन्दर्भ में देखें तब एक कविता का, संगीत का या कि नृत्य का सत्य ही प्रकटन है, उसके लिए अलग से कोशिश करना कि तथाकथित यथार्थ का निरूपण उसे अपने सन्दर्भ से दूर ही ले जा सकता है. वैसे भी तथाकथित यथार्थ का जीवन अत्यंत संक्षिप्त होता है इसलिए उसकी सत्य से तुलना मेरे लिए संभव नहीं है.कला सत्य का ही एक प्रकार है और सत्य के प्रकार अनन्त हैं.


कला और धर्म का आपसी जुड़ाव किस हद तक है? आप अपने को धर्म से कितना जुड़ा मानते हैं?

कला का धर्म उन धार्मिक कलाओं से भिन्न है जो किसी उद्देश्य को लेकर की गयी है.उन्नीसवी शताब्दी तक यूरोपियन और बहुत हद तक भारतीय और अन्य एशियन कला भी धर्म के विषयों से जुडी रही है. उनके विषय धार्मिक हुआ करते थे किन्तु उनका मकसद धर्म समाज में एक तरह का परिष्कार लाना ही था जिसमें मुझे लगता है सभी कलाएं निष्फल रही आयीं. इसमें हो सकता है उद्देश्य का निरूपण ही उनकी कमजोरी रहा हो. मैं पूर्ण रूप से धार्मिक हूँ और यदि मेरा धर्म चित्र बनाना है तब मैं अपनी समझ से उसमें पूरी तरह से मुब्तिला हूँ. 


अगर आपको धर्म का वैयक्तिक स्वरुप समझाना हो, तो? जैसे हमारे लिए धर्म कितना ज़रूरी है?

यह प्रश्न आप एक गलत व्यक्ति से पूंछ रहे हैं. मैं इस धर्म के प्रश्न पर शायद ही उचित जवाब दे सकूँ. व्यक्ति अपने मानस से धार्मिक होता है और उसके लिए धर्मं का महत्व ही उसकी जरूरत है.


दर्शन का चित्रों पर प्रोजेक्शन  कर पाते हैं? हम ये तो जानते ही हैं कि समूची दृश्य कलाएं दर्शन निहित करती हैं, लेकिन इसके पीछे कौन-सी रचना-प्रक्रिया काम करती है?


दर्शन का निरूपण करना मेरे लिए संभव नहीं है और न ही किसी प्रकार के दर्शन को अपने चित्रों में थोपता हूँ. मैं चित्र बनाता हूँ और उसका दर्शन यदि उत्पन्न हो रहा है तब वो मेरी चिंता का विषय नहीं है. मुझे नहीं पता कि समूची कलाएं दर्शन निहित हैं कम-अज-कम मेरी तो नहीं है. दर्शन का थोपा जाना या कि कलाओं के भीतर दर्शन तलाशने की कोशिश उनके होने की सफाई देने जैसा है. क्या मुझे अपने चित्रों के लिए किसी तरह की सफाई देना होगी ? मुझे उन्हें justify  करना होगा ? तब मैं चित्र नहीं बना रहा एक अपराध कर रहा हूँ जो कि मैं नहीं कर रहा हूँ. शायद कोई कलाकार नहीं कर रहा. किसी भी तरह के बाहरी विचार को कलाकृति पर थोपना उन्हें कमतर आँकना होगा और यह गलती मनुष्य कब तक करता रहेगा ये देखना महत्त्वपूर्ण है. कब तक मनुष्य अपने होने और अपने किये जाने वाले कर्मों को एक अपराध की तरह देखता रहेगा ? 

मेरे लिए एक रंग महत्वपूर्ण है जिसे मैं उस वक़्त लगा रहा हूँ और उससे उत्पन्न हो रहे उन अनेक संकेतों को पकड़ना और उन संकेतों के रास्ते खुद को ले जाना ही मेरा पहला लक्ष्य रहता है ये ही मेरे चित्र के रचने के दौरान मुझे ध्यान रहता है और यही उस वक़्त की जरूरत मुझे लगती है. मेरे चित्र किसी आत्मग्लानी से उत्पन्न नहीं होते है. वे अपने होने का उत्सव मानते है जिसमें कई बार अवसाद भी बिखरा होता है.



"कला में प्रेम" या "प्रेम में कला"...कौन-सा चुनाव ज़ियादा सटीक है आपके लिए?

'कला में प्रेम, - 'प्रेम में कला' एक ही कान को दो तरफ से पकड़ने जैसा है जैसे प्रेमी प्रेम में डूबा है या प्रेमिका को प्रेम हो रहा है. ये दोनों एक ही बात है, प्रेम बगैर कला नहीं और कला बगैर प्रेम नहीं.  कला प्रेम से उपजती है और प्रेम करना एक कला ही है. मेरे लिए इन्हें अलगाना मुश्किल है.


कलाएँ प्रेम को तो परिभाषित करती ही रही हैं. इस लिहाज़ से कला और प्रेम के सम्बन्ध को थोड़ा और सुलझाएंगे क्या?

कला और प्रेम मेरे लिए एक सिक्के के दो पहलू हैं. 


आप अपनी रचनाओं में संगीत और उसकी विभिन्न विधाओं को कितना शामिल पाते हैं?

संगीत सुनना-सुनाना मेरी कमजोरी है जैसे कविता पढ़ना या कि नृत्य देखना. मेरे पिता ने मुझे बचपन में इन कमजोरियों के प्रति न सिर्फ आगाह किया बल्कि इनकी आदत भी ड़ाल दी. इन कमजोरियो का पालन-पोषण मेरे गुरु चन्द्रेश सक्सेना और रामनारायण दुबे ने खूब ध्यान से किया. भारत भवन, कलाओं के घर आकर मुझे मौका मिला कि इनकी देखभाल मैं खुद कर सकूँ. अब मैं इतना कमजोर हो चुका हूँ कि इनके बगैर मेरा सोचना समझना होता ही नहीं. इन्हें मैं अपने चित्रों में घटित होते देखता हूँ. इन सब घटकों से मेरा देखना संचालित होता है और उस देखने से मेरा चित्र उपजता है. मैं किसी को शामिल नहीं करता बल्कि इनमें अपने को शामिल पाता हूँ. 


अगर इसका जवाब देना हो कि "कला" क्या है? तो क्या कहेंगे? और इस प्रश्न में आपकी कितनी रूचि है कि कला के भिन्न रूपों को लोगों तक कैसे पहुँचाया जाये?

कला क्या है ? क्या यह अति प्रश्न नहीं है ? या यह सिर्फ जिज्ञासा है ? मैंने इस पर कभी सोचा नहीं और इस वक़्त भी नहीं. मेरे ख्याल से लोगों तक कला पहुँचाने की कोई जरूरत नहीं है वे उसे व्यवहार में लेते है उसके बगैर जीवन की कोई कल्पना नहीं की जा सकती.


"कला क्या है?" इसे एक अतिप्रश्न ही समझियेगा. भारतीय स्कूली व्यवस्था में जिस किस्म की पैदावार हो रही है, उसे फसल में कला और दूसरी रचना विधाओं का स्थान तो स्पष्ट ही है. होड़ है बच्चों और छात्रों में. उन्हें कला का अर्थ कैसे समझायेंगे?

आजादी के बाद शिक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया गया ये इस देश का दुर्भाग्य है. यह भी है कि इस देश में कोई स्कॉलर नहीं पैदा हुआ. जमीनी तौर पर भी कुछ नहीं हुआ. कुछ इक्का दुक्का प्रयास निजी तौर पर लोगो ने किये किन्तु वे इस विशाल देश की जरूरतों के हिसाब से समुद्र में बूँद के समान हैं. मुझे लगता है जब तक हम मेकॉले शिक्षा पद्धति से छुटकारा नहीं पाएंगे तब तक इस देश में स्कॉलर पैदा होने की बात सोच ही नहीं सकते. जिस पद्धति से बच्चों को पढाया जा रहा है उसमें अज्ञानता,ईर्ष्या, लालच, होड़ आदि अवगुण गुणों की तरह ही बच्चों में विकसित होंगे. कला की शिक्षा धीरे धीरे हाशिये पर आ चुकी है. पतन का प्रकार साफ़ नज़र आता है. हम लोग जिन दिनों पढतें थे हिंदी में कबीर, तुलसी, मीरा, भारतेंदु, रवीन्द्रनाथ, आदि अनेक कवियों को हम अपनी प्रारम्भिक पढाई के दौरान ही जान लेते थे. आज हिंदी विषय की पुस्तक से ये सब कवि गायब हो चुके हैं. किन कवियों को पढाया जा रहा है ? जानने पर शर्म ही आती है. जिन्हें अपने नाम के हिज्जे पता नहीं वे अखबारी कविता लिख कर पाठ्य क्रम में शामिल हैं. सस्ती, छिछली भावुकता भरी कविता से रस की उम्मीद करना मुश्किल है.अब बच्चों को भगवन बचाए. बच्चों के लिए कला अब सिर्फ उनके माता-पिता के हस्तक्षेप का विषय है. वे रूचि लेकर उन्हें शिक्षित कर सकतें हैं.


जब आप ब्रश उठाते हैं तो उस वक्त दिमाग में क्या-क्या चल रहा होता है? क्या सोचते हैं कोई कृति शुरू करने के पहले और क्या सोचते हैं उसे खत्म करने के बाद?

ब्रश हाथ में होता है उसके पहले किस रंग को लिया जाये ये विचार रहता है और कुछ ख़ास नहीं. चित्र बनाने की शुरुआत पहले रंग-संकेतों का पीछा करने से होती है. कलाकृति शुरू करते वक़्त मेरे मन में अगले रंग का चुनाव होता है और कलाकृति खत्म करने के बाद फिर अगले रंग के चुनाव का प्रश्न मुझे सोचने पर मजबूर करता है 


किन्हें पढ़ना पसंद करते हैं? 

सभी को पढ़ना पसंद करता हूँ और ज्यादातर दोस्तों के कहने पर. 


लेखकों और लोगों को लेकर अगर थोड़ा स्पेसिफिक होने को कहा जाए, तो किनका नाम लेना चाहेंगे?

बहुत से लेखकों को पढता हूँ इधर निराला की 'राम की शक्ति पूजा' कविता पर वागीश शुक्ल की टीका पुनः पढ़ रहा हूँ. कवितायेँ अक्सर पढता हूँ और कुछ उपन्यास फिर आत्मकथाएँ. सभी लेखक मुझे पसंद है यदि कुछ बेहतर लिखा है.


किन कलाकारों से आप अपने को ज़्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं? एक आम आदमी को यदि तस्वीरें दिखानी हों तो, कैसी और किसकी तस्वीरें और चित्र दिखाएँगे?

लिओनार्दो दा विन्ची से लेकर रफ़ीक शाह तक सभी कलाकारों से खुद को जुड़ा महसूस करता हूँ  एक आम आदमी की तरह मैं इन सभी की कलाकृतियों को देखना-दीखाना चाहूँगा. अच्छी कलाकृतियों को किसी सफाई की जरूरत नहीं होती है. भारत भवन में काम करने का मेरा अनुभव रहा है कि 'वैष्णव जन' को कलाकृतियाँ समझने की जरूरत कभी नहीं पड़ी वे इन कलाकृतियों के साथ अपने को सीधा जुड़ा हुआ पाते हैं किन्तु मेकॉले व्यवस्था से तथाकथित पढ़े-लिखे लोग निहायत ही मूर्खतापूर्ण प्रश्न करते नज़र आये. अब उन्हें मैं क्या कोई खुदा पढ़ा नहीं सकता.



10 टिप्पणियाँ:

abhilash ने कहा…

साक्षात्कार तो अच्छा बन पड़ा है, सिद्धान्त जी का ये दुर्लभ प्रयास काबिल-ए-तारीफ़ है. लेकिन मैकाले सिस्टम से इतनी दुश्मनी क्यों? मैकाले तो चले गए? बहुत सारी चीज़ें भी बदल गयीं? लेकिन अभी भी हम अपनी कमियों को मैकाले से क्यों छिपाते रहेंगे. इसका जवाब दिया जाना चाहिए. आशा है कि उत्तरदायी ही उत्तर देगा.

Shailendra Dubey ने कहा…

aacha hai. print ki trutiyan padhne ke flow ko thoda kam karti hain.

idharsedekho ने कहा…

buddhu baksaa ko bahut badhaii bahut hi raasgarbhit baatcheet he.
akhilesh ji ne jo shikshaa par apni raay di he vah ekdam sahi he. aajaadi ke baad hamare purano ne na hi hamaare civic sense ,shikshaa,law or suraksha par ratti bhar bhi koi kaam kiyaa ho yah nazar nahi aataa.angrej sirf tranfer of power karke chale gaye he.
akhilesh ji ki is baatcheet se unke vichaar patal kaa vrahad bhugol samajhame aataa he.

idharsedekho ने कहा…

akhilesh ji yah baatcheet sundar he, angreji shikshaa par jo vichaar vyak kiye gaye hai unhe is desh ki aatmaa se judaa vykti hi samajha sakta he.

बेनामी ने कहा…

abhilash ji aapka email id bheje maain jaroor is par baat karna chahunga

abhilash ने कहा…

अखिलेश जी,
मेरा पता तो है abhilashniranjan@gmail.com, लेकिन यहाँ जवाब देने में कोई परहेज़.

Pooja Pathak ने कहा…

siddhant ji, aapka kaam to badhiya hai hi lekin ise aur vistaar dene ki zaroorat hai. kyonki blogging men is darze kaa kaam abhi maujood nhin hai. is saakshaatkaar ko aur bada hona chaahiye tha,'idhar se dekho' kee baat se anshatah sahmat hoon. Akhilesh ji ko dher saari badhaaiyaan.

Pooja pathak,
lucknow

बेनामी ने कहा…

yahan javab dene main koi parhej nahi hai kintu use hindi main nahi likh sakunga is vajah se email par bhej raha hoon. aap chahein to use yahan la saktein hain

बेनामी ने कहा…

abhilash ji aap mera javab daal saktein hain yahan. hindi main yahan kaise likha jata hai mujhe nahi pata anytha maain hi daal deta

manish pushkale ने कहा…

Mere khyaal se Sabse 'mool' ati- prashn ke ati-sankshipt pratyuttar Par thoda vichaar karna chaahiye. .