सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

रचना प्रक्रिया - १ : ‘जंक्शन’ पर

चन्दन पाण्डेय


(चन्दन पाण्डेय किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं. कहानी में युवाओं के सशक्तिकरण के लिए नए रास्तों का निर्माण करते हैं और अपनी पृष्ठभूमि, परिवार और नौकरी से होकर आती व ज़मीन से जुड़ी हुई कहानियाँ लिखते हैं. यह जो है, उनकी कहानी 'जंक्शन' के Behind the Scenes को हमसे बांटता है. बुद्धू-बक्सा चन्दन पाण्डेय का आभारी.)
      
        इजाडोरा डंकन को आप सब बखूब जानते होंगे. सुप्रसिद्ध नृत्यांगना थीं. एक शोर यह भी है कि आधुनिक नृत्य का परवर्तन उन्होने ही किया. पर यहाँ इनके उल्लेख का सीधा सरल उद्देश्य है. इनके जीवन की एक घटना रचना प्रक्रिया से जुड़े सवालों के लिए बेहद मददगार साबित होती है.
        
        इजाडोरा के ईश्वर उन्हें करवट करवट जन्नत बक्शें कि एक पत्रकार ने उनसे पूछा : आप नृत्य क्यों करती है ? यह सवाल डंकन के लिए पेचीदा था जबकि वे नृत्यकला में पारंगत और प्रसिद्ध हो चुकी थीं. जरा देर विचारने के बाद डंकन ने अनूठा ही जबाव रखा : अगर यह जानती तो फिर नाचती ही क्यों ?

        कमोबेश यही अहवाल अपना भी है.

        रचना प्रक्रिया या लिखने के कारण जैसे प्रश्नों के कई कई जबाव विभिन्न मौकों पर सूझते हैं. किसी भी कहानी के लिखे जाने की कोई एक वजह कभी नहीं रही. ‘जंक्शन’ को ही लें. मुझे आज तक इस कहानी के लिखे जाने का उद्देश्य स्पष्ट नही हुआ. यह जरूर है कि अपनी आज तक की रचनाओं में यह मुझे बेहद पसन्द है.
        आजकल जो भाव मन में चल रहा है उससे लगता है कि यह कहानी मैने उस स्त्री के लिए लिखी होगी जिसका पति कथा के भीतर मार दिया जाता है. पर जब लिखना शुरु किया था तो मन में एक छवि थी. बचपन में देखी हुई. आलू की रोपाई के दिन हर साल अक्टूबर में आते थे. जिस चलचित्र को लिखने की मंशा थी वो यह कि कैसे बाबा या पापा आलू की क्यारियों में आलू की आँख बैठाने के बाद उसे क्यारी पर पास की मिट्टी चढ़ाने के बाद पैरों से गोल करते हैं. तरीका यह कि दोनों तलवों के बीच में हल्के दबाव के आसरे क्यारी की मिट्टी को अर्धगोलाकार करते जाना है. यह किसी लोकनृत्य जैसा होता है. धीमा परन्तु लय के साथ. यह कठिन होता था कारण कि हमने जब भी कोशिश की, आधे से अधिक जाते जाते जाँघ भर जाते थे.
        कभी सद्यारोपित आलू के खेत करीब से देखें, आपको उसकी बनावट, एक किस्म की लयकारी, आपको आकर्षित करेगी. ऐसा ही कोई दिन था जब बाबा, चाचा लोग और पापा आलू के खेत में लगे हुए थे तब भारी शोर शराबा उठा. बुआ ( पापा की चचेरी बहन ) तो बाद में रास्ते में मिली होंगी, खबर पहले आ चुकी थी कि उनके भाई ( पापा के चचेरे ) को बिजली मार गई है. जितने लोग भी खेत पर थे सब दौड़े, क्यारियों की परवाह किये बिना दौड़ पड़े.
        उसके बाद मुख्य कथा बेहद तकलीफदेह पर अच्छे परिणाम वाली रही. वो फिर कभी कि कैसे चाचा बचा लिए गए कि कैसे दस बारह मिनट में डेढ़ पौने दो मील कुछ लोग एक इंसान को खाट पर लिए लिए दौड़ गए थे कि आज वो शख्स जीवित और स्वस्थ है, तीन बच्चे हैं.
        इसमें गौण कथा, या जीवन, यह है कि मेरे घर के सभी लोग आलू की क्यारियों के साथ मुझे भी खेत पर ही भूल आए थे. मैं सात साढ़े सात साल का था, स्कूल नया नया जाना शुरु किया था. वो भी चाचा की साईकिल पर और इस तरह जिस दिन वो किसी काम में व्यस्त होते, हमें स्कूल नही जाना पड़ता था. यह अच्छी बात थी.
        पर उस दिन मैं खेत में निरा अकेला रह गया था. दूर दूर तक कोई नहीं देख रहा था. बहुत दूर एक पीपल था, जो अभी पिछले दिनों ही कटा है. दूर कहीं, कुछ कुत्ते दिख रहे थे, जिनमें से एक दो को ही पहचानता था बाकी सब दूसरे गाँव से आए लग रहे थे. मैं इतना डरा हुआ था कि मेरी आवाज ही गुम हो गई थी. रोने की लकार भी नहीं बँध पा रही थी. कुत्तों से मैं डरता था. लोग कहते थे कि कुत्तों के सामने धीरे चलना चाहिए. यह तरीका अपनाया तो पाया कि और कुछ हो न हो, मैं अपना डर ही कई गुना बढ़ा जरूर रहा हूँ.
        मैं आलू के खेतों के बीच से ही वापस आया. मेड़ की घास के बनिस्बत यह सुविधाजनक था. घर आया तो अम्मा के पास रोने लगा. मेरे रोने का सबने ध्यान दिया और खुले मुँह मेरी भावुकता की ताईद हुई कि मैं इसलिए रो रहा हूँ क्योंकि चाचा को बिजली छू गई है. मैं इतना नाराज और डरा हुआ था कि मैंने उस समय किसी की गलतफहमी दूर नहीं की. बड़े होने पर जब घर में और अम्मा को स्पष्ट किया तो किसी को मेरा रोना याद भी नही था. सबने कहा : हुआ होगा.

        बात मैं जंक्शन कहानी की कर रहा था. मेरे मन में चलचित्र यही था कि एक आदमी आलू की क्यारियाँ मुकम्मल करने पर भिड़ा है और उसे कोई बुरा समाचार सुनाया जा रहा है. कहानी में, सुमेर के पिता आलू की क्यारियों को गोल कर रहे हैं तब उन्हें यह सूचना मिलती है कि उनका बेटा मार दिया गया है और उसकी लाश थाने पर है. हाँ यह जरूर है कि कहानी के मगरूर पात्र मेरी सारी बात नहीं सुनते सो इस बार भी; सुमेर के पिता दौड़ते नही हैं. वे इस खबर का ही प्रतिरोध करते हैं. हालाँकि कहानी में मौका ऐसा नहीं था कि मैं आलू के क्यारियों वाली अपनी बात लिख सकूँ पर उस चित्र को उकेरा है.
        पहले जब यह कहानी लिखना शुरु किया तब यह शुरुआती दृश्य था. कहानी का आईडिया ‘जंक्शन’ ही था. एक ही समय में अलग अलग दिशाओं में जाते हुए रास्ते. पर पहले ड्राफ्ट के वक्त मैं खुद भी इसका एक पात्र था, जो कि बाद के ड्राफ्ट्स में बदलता गया. 
        पहले मैं यकीन नहीं मानता था कि कहानी अपना रास्ता खुद चुनती है. अपना शिल्प भी. मैं सोचता था,जो मर्जी चाहूँ लिख सकता हूँ. ‘सुनो’ कहानी के बाद यह धारणा बदलने लगी थी और ‘जंक्शन’ ने इस विचार से को पूर्णत: खत्म कर दिया. हुआ यह कि कहानी अपने हिसाब से लिख चुका था तब एक यात्रा का मौका मिला.
        दरअसल यह कहानी बनारस से गाँव की अनेक यात्राओं के दौरान तैयार हुई है. इन्हीं किन्ही यात्रा में किसी ने बातों बातों बताया था कि बलिया जिले के लिए फौज की भर्ती अलग से होती है कारण कि इसे बदमाश जिला माना जाता है. इससे जुड़ी तो नहीं पर वर्षों पहले की स्मृति में लखनऊ की वह घटना थी, जिसमें भर्ती के दौरान सेप्टिक टैंक टूटने से कई अभ्यर्थी डूब कर मर गए थे.
         छोटी बहन रिम्पल को बी.एड. की प्रवेश परीक्षा दिलाने गोरखपुर गया हुआ था. जैसा कि कहानी में है, जीवन में भी लौटते हुए में गाड़ी विलम्ब से थी. कहानी का ‘लोकेल’ भटनी और लाररोड के बीच का है पर जीवन में यह घटना औड़िहार स्टेशन पर घटी थी.
        इन्टरसिटी, औड़िहार जंक्शन पर खड़ी थी और बहुत देर किए जा रही थी. पता चला कि पवन एक्स्प्रेस आ रही है. पहले वही जाएगी. बहुत सारी सवारियों के साथ हम भाई बहन भी प्लेटफॉर्म पर इस उम्मीद से चले आए कि पवन पकड़ लेंगे. पवन आई और चूकि रात का मौका था इसलिए हम साधारण डब्बे में चढ़ गए. इस गाड़ी में मुम्बई जाने वालों की भीड़ पहले ही बनी हुई थी. मैने एक भाई से आग्रह कर रिम्पल को जगह दिला दी और खुद बाहर आ गया. तैयारी यह थी कि घंटे सवा घण्टे का रस्ता है सो अपन दरवाजे पर खड़े हो लेंगे.
        जब मैं रिम्पल के लिए चाय लेकर भीड़ से बचते बचाते अन्दर जा रहा था तब तक दो हट्टे कट्टे  लोग सामने से बेहद तैश में आते हुए दिखे, जिससे चाय छलक गई और मेरा हाथ जल गया. मैने एक गाली दी जिसे शायद उन महानुभावों ने सुना नहीं और आज उस घटना के बाद खैर ही मनाता हूँ कि उन लोगों ने मेरी दी हुई गाली शायद सुनी नहीं. वे दोनों गाड़ी से बाहर उतर लिए और बहन को चाय थमा कर मैं भी बाहर आ गया.
        आज भी उस घटना की लेश बराबर स्मृति भी सिहरन मचा देती है.
        पल सवा पल बाद की बात रही होगी जब आठ दस जने उस बोगी में चढ़े और सबने गौर किया कि ये क्या माजरा है? तब तक खैराबाद और ताहिरपुर के दो अधेड़ सज्जनों से मेरी हेल मेल हो चुकी थी. कुछ देर बाद पीटने की, रोने की,चीखने चिल्लाने की आवाज उस बोगी से आने लगी. घटना स्थल पहुँचने से पहले हम जान चुके थे कि आस पास के लोग बिहारी मजदूरों को मार पीट कर अपनी बहादुरी दिखा रहे हैं. यह सब बेहद कम समय में हो गया.
        हम जब अन्दर पहुँचे, तो थप्पड़ों, घूसों और बेल्ट की वीभत्स आवाज गूँज रही थी. तभी, सब फौजी अपराधियों ने चिलाना शुरु किया : नीचे उतार, सालों को. अपराधियों के दल की कौन कहे, हमें तो यह भी नहीं मालूम चला कि बचाने वालों का दल कब बन गया. हम सब भी करीब दस की संख्या में थे और आए दिन होती आई ऐसी घटना के उस खास नुक्ते से वाकिफ थे. साल भीतर ही भीतर दो अलग अलग घटनाओं में दुल्लहपुर तथा सादात में, मामूली वजहों के कारण, दो लोगों के गाड़ी से बाहर उतार कर जान से मार दिया गया था.
        कहानी से उलट, हम सबने इन बिहारी मजदूरों को रेल से नीचे नहीं उतरने दिया. पर हमने लड़ाई नहीं लड़ी. बाबू, भईया कहा. प्रार्थानाएँ कीं. पैर तक पकड़े. पर इन सबसे वे बदमाश कहाँ मानने वाले थे लेकिन हमारे गोल में लोग बढ़ते गए तब उनके अन्दर भय पैठा. वे उन मजदूरों को बाहर नही उतार पाए और गाली देते हुए तथा अपने फौजी होने की बात बताते हुए उतर गए. वे सब के सब दिखने में बेहद बलिष्ठ और लगभग दानवाकार थे. कहानी में मजदूर की हत्या इसलिए हो जाती है क्योंकि एक मजदूर को बचा लेने की घटना ने हम सबको इतना उद्देलित किया कि वहीं के वहीं सभी लोग बात करने लगे थे ; अगर सादात और दुल्लहपुर में भी लोगों ने कोशिश किया होता तो शायद वे दोनों लोग बच जाते, जो जाने कौन थे.
         इस घटना का सबसे विकट पहलू यह था कि मेरी बहन, रिम्पल, बार बार मुझे पीछे खींच रही थी और उसका रोना शायद सबसे अधिक उभर कर सामने आ रहा था. उसके रोने और मुझे इस झगड़े में शामिल न होने देने की कार्रवाई से दूसरे लोग भी प्रभावित हुए. वह बाद तब तक रोती रही जब तक की रेल चल नहीं पड़ी और गोमती नदी पार नही हो गई.
         जिन लोगों पर हमला हुआ था उनमें से एक का कान फट गया था और कई को बेहद गहरी चोटें  आई थी. वे सभी लोग जो कहीं न कहीं उन मजदूरों की लाचारी से जोड़ रहे थे,चुप थे. गाड़ी में यह सन्नाटा बनारस तक साथ आया.   
         यहाँ रुक कर मैं ‘आभासी’ पूर्वांचल ( उत्तर प्रदेश का पूर्वी हिस्सा ) के गाजीपुर, मऊ, चन्दौली , गोरखपुर और आजमगढ़ जैसे जिलों की एक खास बात बताना चाहूँगा, जो शायद कुछ को बुरी लगे. मैं चाहता भी यही हूँ. देवरिया इनसे अलग नही है पर जाने क्या कारण है, बाबा राघवदास के सुधारवादी आन्दोलन या कुछ और वजह, कि देवरिया इन जिलों से कम हिंसक है. वहाँ जमीन के बटवारे भी इतने क्रूर नही है जितना गाजीपुर, मऊ, गोरखपुर, चन्दौली और आजमगढ़ के.
इन खास जिलों के सवर्ण अब भी उसी भाव में जीते हैं जो आजादी के पहले का बताया जाता है. विशेषकर राजपूत, भूमिहार, यादव, कुछ ब्राहमण और कुछ मुसलमान अब भी उसी हेकड़ी में रहते हैं.  कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. सारे काम आदर से देखे जाने चाहिए पर एक बात कहने के लिए माफी चाहूँगा कि इन जिलों के ज्यादातर सवर्ण फौज में ड्राईवर, खलासी, हजाम, रसोईया या धोबी का काम करते हैं, अधिकारियों या मामूली सिपाहियों की डाँट सुनते हैं, खीसे निपोरते हैं. अगर ये सवर्ण बहुत ऊंचा कर गए तो राज्य पुलिस या फौज में सिपाही लग जायेंगे.
        यही लोग जब लाम से वापस आते हैं तो इनकी हेकड़ी देखिए, इनकी चाल देखिए. जमीन से दो अंगुल उपर ही चलते हैं. या शायद छ: अंगुल. मैने एक समूचे साल जमनिया से बनारस आ जा कर पढ़ाई की है. सहारा रेल का ही था. इस दरमियान जो सुना, देखा, गुना उससे मैं अपने इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ और कायम हूँ.
        यही फौजी और इनके नात गोतिया तथा उनके भी नात गोतिया अपने क्रोध को एक पल के लिए भी काबू नही कर पाते अगर वह किसी गरीब या मजलूम पर है. इसलिए ही हर साल बनारस से मऊ के बीच और बनारस से दिलदारनगर के बीच रेल यात्राओं में ऐसी मारपीट और हत्याओं की दस बारह घटनाएँ हो ही जाती हैं. यह सिवाय सामंती मान अभिमान के दूसरा कुछ नहीं है. ऐसे में ये जो जमीन्दार हैं और मौका पड़ने पर झुकने की कला में भी माहिर हो चुके हैं, उनकी क्रूरता भी अब नए पैमाने गढ़ रही है, वरना आप ही बताएँ कि बैठने की जगह मात्र के लिए क्या किसी को जान से मारा जा सकता है. मेरा यह मानना है कि इन सामंतों का मान मर्दन बेहद अनिवार्य है, एक बार, दो बार, तीन बार ..तब तक, जब तक कि इनके अन्दर से यह गाँठ न निकल जाए.
        (मैं एक बार पुन: यह कहना चाहूँगा कि धोबी, हजाम या कोई भी काम उतना ही सम्मानीय है जितना कि दूसरे और मेरा कोई भी मत इन कार्यों से जुड़े लोगों के खिलाफ नही है.)

        इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी होने से मेरे भीतर काफी कुछ बदला, जो शायद यहाँ बता पाना सम्भव नहीं, पर हुआ यह कि जब मैं घर पहुँचा उस वक्त रात के एक या डेढ़ बज रहे थे और मैने बाकी बची पूरी रात में इस घटना को हू ब हू लिखने की कोशिश करता रहा.
        बात आई गई नहीं हो सकी और अंतत: जंक्शन कहानी लिखते हुए यही घटना मुख्य बिन्दु बनी, जिससे कहानी में नारा रचा जाता है. मनई नामक ग्राम देवता सृजित होते हैं, उनके लिए गीत लिखे जाते हैं, उनके चौरे बाँधे जाते हैं. इन्हीं सूत्रों पर कहानी आगे बढ़ती हैं, जहाँ वो अभ्यर्थी समूह भी आता है जिन्हें फौज में भर्ती होना है.
        या वह बैंक जो अपनी जगह से इसलिए हटाया जा रहा है, जो मुनाफा नही कमा रहा. उसे शहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. जो सहकारिता की चीजे थीं और जन सुविधा की,उनसे मुनाफा पहली और आखिरी उम्मीद कैसे होने लगी पता ही नहीं चला. अब ये गाँव वाले है, जो बैंक से जुड़े काम काज के लिए एक कोस चलते थे, उन्हें चार पाँच कोस चलना होगा. एक हिन्दी प्रदेश का ही जन्मा पुलिस अधिकारी है जो हिन्दी से इस कदर अपरिचित है, जिसे अपनी भाषा का इतना भी नहीं रियाज कि हिन्दी बोलते हुए कब प्रश्नवाची लगाना है और कब विस्यमादिबोधक. 

जंक्शन का कथा शिल्प: इस कथा से मैं इतना गहरे जुड़ गया था कि एक पात्र ही बन गया. पहली और आखिरी कहानी जिसकी घटनाओं से मैं बेहद परिचित था फिर भी जिन्हें लिखने में भारी मुश्किल हुई. इसलिए ही शायद कहानी के भीतर एक कहानी है, जिसे (अ)नायक सुना रहा है. (अ)नायक इसलिए कि वह हर जगह मौजूद भले है पर शामिल नहीं. नायक वे हैं, जो शामिल हैं और चौतरफा शिकार हो रहे हैं. यह (अ)नायक भी कहानी के अंत अंत तक नायक में तब्दील होता जा रहा है, जिसने कथावाचन का काम चुना है और कमाल यह कि कथावाचन जैसे मामूली काम के लिए वो सजायफ्ता है, उसे गिरफ्तार कर लिया गया है. जहाँ तक सवाल इस ‘जंक्शनं’ की भाषा का है, वह स्वत: स्फूर्त है. उनकी ही भाषा है, जिनकी कहानी. कहानी के उन हिस्सों में सम्वाद नहीं के बराबर है, जहाँ एक ही समाज के लोग हैं. एक ही समाज में रचे बसे लोग बेहद सम्वाद कम इस्तेमाल करते हैं.

        आखिरी बात यह कि लखनऊ में सेप्टिक टैंक फूटने और अभ्यर्थियों के उसमें डूब कर मर जाने की जो घटना घटी थी, उस वक्त मैं भी लखनऊ था. मैं भर्ती के लिए नही गया था पर मेरे गाँव से कुछ लड़के आए गए थे और उनकी परीक्षा पहले ही हो चुकी थी. शाम में जब हम इमामबाड़ा टहल रहे थे, तब एक सान्ध्य दैनिक में यह हृदयविदारक खबर पढ़ी. अगले दिन के अखबारों मे भी यह खबर थी. रही होगी करीब 2000 या 2001 की बात पर जब कहानी लिख रहा था यानी 2008 में, तब मैंने कई लोगों से इस घटना की दर्याफ्त की और सबने एक सुर में ऐसी किसी भी घटना की जानकारी होने से इंकार किया. मेरे पास समय और साधन नहीं था कि लखनऊ जाकर इसकी पुनर्पड़ताल करूँ, पर स्मृति थी. भरोसेमन्द स्मृति.


19 टिप्पणियाँ:

वंदना शुक्ला ने कहा…

chndan ji ,rochk aur sundar varnan rachna prakriyaa kaa ...kyaa aaloo ropai vali kahani aur agle hisse ke kahani do alg kahaniyan hain ?pahlee hisse ke vivaran me samantar chltee do ghatnaon ko padhte vaqt kamleshwar kee ''raja nirbansiya''yaad aai ...khair achha laga padhkar thanks

Abhilash niranjan ने कहा…

bada accha laga padhkar...apne aaspaas kee ghatnaon se prerit ye kahani sach men mujhe bahot pasand aayi thi.

पूजा पाठक ने कहा…

चंदन जी को पढ़ना कितना साफदिल और नेक अनुभव देता है कि उसे बयाँ नहीं किया जा सकता है...इसे हमसे शेयर करने के लिए शुक्रिया.

पूजा पाठक,
लखनऊ.

aawaz ने कहा…

श्रीमान चन्दन जी, आपने कुल जमा कितनी कहानियां लिखीं हैं ये तो आप ही जानते होंगे लेकिन पेट से निकलते से पेट से निकालने की प्रक्रिया पे पन्ने रंगना आपके बारे में काफी कुछ बताता है बहरहाल यह आपकी मर्जी ठहरी....

में तो आपके आभासी पूर्वांचल के बारे में दिए बयान को पढ़कर हतप्रभ हूँ !!

जिस हिंसा से आप विचलित होने की बात कर रहे हैं वह आपके आभासी पूर्वांचल की बपौती नहीं है केरल में प्रोफ़ेसर के हाथ काट लिए जाते हैं तो दिल्ली में एक पैग शराब के लिए लड़की को गोली मार दी जाती है सेना के जवान बुनियादी रूप से हिंसक होते हैं... आपने शायद दुनिया का इतिहास और उसमें हुए युद्धों का इतिहास नहीं पढ़ा है...वर्ना आप ऐसा ना कहते....(अब ये ना कहियेगा पढ़ा है...पता है..वगैरह...वगैरह ! अपनी कुण्ठा के विरेचन के लिए आपने उटपटांग बयान तो दे दिया लेकिन ये न सोचा कि आभासी पूर्वांचल में जो कुछ भी अनुकरणीय-प्रशंसनीय है वह उन्ही जिलों की देन है जिन्हें आप आपके जिला देवरिया से कमतर बताने की कोशिश कर रहे हैं...

आप कहानी-वहानी लिखते होंगे क्यूंकि बहुत लोग लिखते रहते हैं लेकिन आपके इस बयान से यह तो जाहिर हो गया कि आपकी प्रेक्षण शक्ति कितनी कमजोर है....जिन जिलों के ज्यादातर सवर्ण आपको चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी और ज्यादा बढ़े तो सिपाही !! नजर आते हैं जरा उनका इतिहास बांचिये,जिला देवरिया से कई गुना बेहतर इतिहास है उन....का आप लेखक हैं तो हिंदी साहित्य का ही इतिहास पलट लीजिए.... आपको अंदाजा हो जाएगा कि वास्तविक क्या है और आभासी क्या है...

ब्लॉग-चालक तिवारी जी आप सोच-समझ के खलासी रखा करें... और अगर ऐसा-वैसा ही रखना है तो उसके मुँह पर जाली तारीफ वाली भूमिका ना लिखा करें... आपकी भूमिका को पढकर मैंने इस लेख को पढ़ा कि देखूं कौन है यह नया लेखक लेकिन पढ़ के लगा कि तिवारी जी ने चूना लगा दिया...बुरा न मानिएगा, लौंडों को प्रमोट करने का ये तरीका काफी घटिया है...वैसे, आपका घर कौन जिला पड़ता है ?

चन्दन ने कहा…

आवाज महोदय,

आपकी भाषा निहायत शरीफ है. इतनी कि उसके जबाव में कुछ लिखा नहीं जा सकता. इतिहास की आपकी समझ भी खूब दिख रही है. अब मैने जो लिखा है उस पर सौ फीसद कायम हूँ, आप जानना चाहें तो बता सकता हूँ पर आपकी गाली गलौज से समृद्ध भाषा में कोई बात सम्भव नही है. इसलिए, इतना ही कहूँगा कि आप ऐसी भाषा बनाए रखिए.

चन्दन

aawaz ने कहा…

"इन जिलों के ज्यादातर सवर्ण फौज में ड्राईवर, खलासी, हजाम, रसोईया या धोबी का काम करते हैं, अधिकारियों या मामूली सिपाहियों की डाँट सुनते हैं, खीसे निपोरते हैं. अगर ये सवर्ण बहुत ऊंचा कर गए तो राज्य पुलिस या फौज में सिपाही लग जायेंगे"

यही है ना आपका बयान और यही है आपका इतिहास बोध !! आप मुझे बता भी सकते हैं ?? क्या ?? आप जो जानते हैं वो तो आपकी पोस्ट से जाहिर है.,,इसलिए रहने ही दें...

आप सौ नहीं दो सौ फीसदी भी कायम रह सकते हैं..मैं आपसे इससे बेहतर समझदारी की उम्मीद भी नहीं कर रहा था.

और रही भाषा की बात तो यह काशी के अस्सी की भाषा है...जब आपके पास कोई जवाब नहीं था तो 'तहजीब' की लंगोट का बुरका ओढ लिए...कोई बात नहीं लगे रहिये...महादेव

सिद्धान्त ने कहा…

'आवाज़' नामधारी जी,

काशी के अस्सी की भाषा में, काशी की भाषा में और अस्सी की भाषा में बहुत ज़्यादा अंतर व्याप्त है.

चन्दन जिन चीज़ों के बारे में बात कर रहे हैं, वे चीज़ें observation से समझ आती हैं न कि जाति और भाषा की लाठी पीटने से. इस दौरान आप युद्धों का इतिहास पढ़ने को क्यों कह रहे हैं, इसका जवाब तो आप ही जानें, हास्य का कारण तो यह है कि आप आधार पर रहकर बात ही नहीं कर रहे हैं. पूर्वांचल के सन्दर्भ में आप दुनिया और युद्ध का इतिहास पढ़ते आ रहे हैं, तो आपके छद्म ग्यान की बलिहारी.

बड़ी बात यह है कि आप साहित्य से दूर भिटके हुए लोगों की जमात में हैं, जो किसी भी लेखक को नया कहानीकार बताते हैं और उसे अपनी भाषा में 'लौंडा' घोषित करते हैं. आपकी ही भाषा के रेफरेंस में बात करूँ तो यहाँ स्पष्ट होता है कि असल 'लौंडा' कौन है? आप ही न. आज जब उत्तर-प्रदेश को चार राज्यों में बांटने की बात हो रही है, तो आप उन लोगों में से हैं जो इस खबर पर सबसे ज़्यादा उछलेंगे क्योंकि आपका स्वतंत्र साहित्य से दो पैसे का सरोकार नहीं है, जाति-लोकेल के दम पर अनाप-शनाप बके जा रहे हैं...आप पूर्वांचल का झुनझुना बजाएं और मस्त रहें.

चन्दन नें 'पूर्वांचल वाली बात' की शुरुआत में अगर लिखा कि "यह बात शायद कुछ लोगों को बुरी लगे" तो उन्होंने सही किया क्योंकि सभी को पता है कि आप जैसे मूर्ख भी उपस्थित हैं जो रचना-प्रक्रिया पर बात-बहस करने के बजाय पूर्वांचल का पुछल्ला पकड़े फिरते हैं. पूर्वांचल में अधिकाँश सवर्ण किस मानसिकता से ग्रसित हैं ये जानने-जनाने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन अगर आपको जानना ही है तो कुछ observe करें, न कि इतिहास की किताबों पर बात करें.
मैं अपनी बात पर अभी भी कायम हूँ कि चन्दन "अपनी पृष्ठभूमि, परिवार और नौकरी से होकर आती व ज़मीन से जुड़ी हुई कहानियाँ लिखते हैं."
अपनी "आचार्य-दृष्टि" से आपने जो नए लेखक का ठप्पा लगाने की कोशिश की है तो हम कुछ आपका लिखा पढ़ना चाहेंगे, और उसे "पूर्वांचल का युद्धकालीन और वैश्विक सवर्ण-इतिहास" नाम दें.

बहरहाल, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मैं बनारस का ही रहने वाला हूँ और इसी मिट्टी में खेलता-पढ़ता-घूमता हूँ, इसलिए भाषा और इतिहास का ग्यान मुझे न दें तो बेहतर.

Rangnath Singh ने कहा…

अभी कुछ दिन पहले ही मैं गूगल पर 'शमशेर' से सम्बंधित एक खोज के रस्ते इस ब्लॉग तक आया था लेकिन अफ़सोस यह 'बहुमूल्य' पोस्ट मेरे पढ़ने से रह गई....

क्यूंकि यह बहस मुझे पहले से ही बहुत खराब रस्ते पर बढती दिख रही है इसलिए बेहतर होगा कि हम लोग मूल बिंदु पर वापस आ जाएँ.

चन्दन तुम्हारे बयान से मैं भी हतप्रभ हूँ.तुमने बाकी जो बयान दिया है वो किस आधार पर दिया है ये मुझे समझ में नहीं आ रहा. उम्मीद है कि तुम समझाओगे...

बनारस(जहाँ मैं पला बढ़ा हूँ),चंदौली अंचल (जो हमारा गाँव है) और इसके अलावा आस पास के जिलों से जुड़े अपने तीस साल के जीवन में मैंने शायद ही सुना हो कि कोई सवर्ण फौज में माली,रसोईया,हजाम !! का काम करता है !!

मेरी जानकारी में गाजीपुर में सेना में बहुत से लोग हैं. गहमर में भर्ती भी होती थी शायद अब भी होती हो...लेकिन ऐसा नहीं है कि गहमर के सभी सवर्ण सिपाही ही हैं !! अधिकारी भी हैं...और वैसे भी सेना में सिपाही होना सामन्ती इतिहास वाले प्रदेश में एक अलग बात है उसकी तुलना अन्य चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों से नहीं की जा सकती...लोगों की नजर में सेना के सिपाही और पुलिस के सिपाही में भी बहुत फर्क है...सेना में और पुलिस में सिपाही चंदौली-बनारस में भी कई लोग होंगे लेकिन माली,हज्जाम,रसोईया !!!

मुझे गाजीपुर और उसे ऊपर के जिलों का ज्यादा अनुभव नहीं है लेकिन चंदौली-बनारस-मिर्जापुर-भदोही-जौनपुर के कुल सिपाहियों को जोड़ दिया जाए तो भी वो कुल जनसँख्या के ५-१० फीसद भी ना ठहरेंगे. ऐसे में चन्दन का यह कहना है 'ज्यादातर सवर्ण'....

बीएचयू के सारे मेस वाले जिला देवरिया के हैं लेकिन वो किस-किस जात के हैं ये मुझे नहीं पता...अगर उन्हें भी जोड़ लिया जाए तो मामला जायदा नहीं बदलता....यदि सनातनी परंपरा वाले ब्राहमण-ब्रह्मणी रसोईया की संख्या जोड़ ली जाए तो भी यह आंकड़ा ज्यादा नहीं बदलेगा...

जौनपुर इलाके के बहुत ढेर सारे लोग मुम्बई में दूध बेचते थे....भईया कहलाते हैं...लेकिन सेना में हज्जाम,माली वाला बयान वहाँ के लिए भी फिट नहीं बैठेगा...

Rangnath Singh ने कहा…

चन्दन, जिस क्षेत्र की तुमने बात की है उसमें नई पीढ़ी के भीतर सिपाही वगैरह बनाने के प्रति खुलापन आया है. इस क्षेत्र का सामंती समाज अब मौका मिलने पर पुलिस में सिपाही या कुछ और बनने से हिचक नहीं रहा है.

लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि इन जिलों में अब सिपाही बनाने वालों से कई गुना ज्यादा संख्या है डाक्टर-इंजिनियर-मैनेजर-पत्रकार-वैज्ञानिक-वकील-दरोगा बनने वालों की.

पूर्वांचल में एक प्रसिद्द कहावत है,शायद तुमने सुना हो –

उत्तम खेती मध्यम बान / अधम चाकरी भीख निदान

यानी इन सामंतवादी जिलों में चाकरी (नौकरी) से बेहतर भीख मांगना बताया जाता है...ऐसे में तुम्हारा बयान और भी विचित्र प्रतीत होने लगता है....

मेरा अनुभव तो यही कहता है कि इन जिलों के ज्यादातर सवर्ण किसान थे. नई पीढ़ी में नौकरी को लेकर खुलापन है.इन नए नौकरी पेशा सवर्णों में सिपाही से लेकर कलेक्टर तक.

तुम्हारे जवाब का इन्तजार रहेगा.

Rangnath Singh ने कहा…

सिद्धांत मोहन तिवारी (और चन्दन) ‘आवाज’ की तस्वीर में जो सज्जन दिख रहे हैं उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूँ. वो हैं आशीष पाण्डेय. जामिया मास काम के छात्र रहे हैं. टीवी पत्रकार रहे हैं. प्रह्लाद कक्कड की कम्पनी के लिए डाक्यूमेंट्री भी बना चुके हैं. वन एक्ट के लिए भी कई काम कर चुके हैं...ऐसे ही टीवी-सिनेमा से जुड़े और काम...सुना है हाल ही में शायद प्रसून जोशी की कम्पनी मैक्केन को ज्वाइन किये हैं.....यह भी बता दूँ कि वो जन्मजात घाट वाले हैं. बीएचयू से स्नातक हैं.

इसे संयोग कहिए या जो कहिए कि उनके कई लेख बहुत दिनों से मेरे पास पड़े हैं. जिनमे से एक लेख मेरे ब्लॉग पर अभी हाल ही में मैंने लगाया. बाकी भी जल्द लगा दूँगा ताकि सिद्धांत उसे देख कर अपना गुस्सा उतार सकें :-)

(जाहिर है ये लेख ब्लॉग के लिए नहीं लिखे गए थे बल्कि ३-४ साल पहले उन्होंने कोई डाक्यूमेंट्री बनायी उसके लिए ये आधार सामग्री टाईप कुछ रहा होगा. उनमें से कुछ मैंने छांट लिए थे. तब ब्लॉग चलने का काफी जोश था :-) )

हाँ, मैं फोन करके उन्हें आपकी टिपण्णी के बारे में सूचित कर दूँगा. (वो सो रहे होंगे वर्ना अभी कर देता :-) ) ताकि वो यथाशीघ्र आपका जवाब दे सकें.

सिद्धांत,चन्दन आशीष पाण्डेय का इतना विस्तृत परिचय इसलिए दे दिया कि यहाँ और खून-खराबा ना हो :-) मैं,आशीष,सिद्धांत जन्मजात बनारसी हैं. चन्दन भी बनारस से जुड़ा हुआ है. इस तरह हम एक ही कुनबे के हैं. इसलिए ये जरूरी है कि तीखी बहस चलती रहे बस आपसी सदाशयता बरक़रार रहे.


http://www.banarahebanaras.com/2011/11/blog-post_11.html

Rangnath Singh ने कहा…

पुनश्च : सिद्धांत ऊपर वाली टिपण्णी में आशीष पाण्डेय के लेख का लिंक दिया है. मुझे लगता है कि किसी भी तरह के प्रिंट माध्यम (अखबार-पत्रिका-ब्लॉग) में उनका यह पहला प्रकाशन होगा अतः अपनी सलाह/राय उन्हें जरूर देना :-) ताकि वो भविष्य में और बेहतर लिखने को प्रेरित हों :-)

सिद्धान्त ने कहा…

रंगनाथ जी इधर भटकने के लिए शुक्रिया. आपके प्रश्नों और दलीलों के बरअक्स मैं पूछना चाहूँगा कि आशीष पाण्डेय 'आवाज़' नाम का झूठा चोंगा तो पहन लेते हैं, लेकिन आप 'नाम के पीछे के चेहरे' को क्यों उभाड़ने आये हैं? मेरी समझ से 'आवाज़ महोदय' इस व्यक्तिगत हो चुकी बातचीत को अपने असल नाम से करते, न कि आप उनका परिचय हमें देते, तो ज़्यादा अच्छा होता. एक और बात कि आप 'आवाज़ भाई' को फ़ोन करके क्यों बताएँगे? उन्हें रूचि लेने दें...या जैसा आप चाहें.
खून-खराबा कहाँ से शुरू हुआ है, ये ऊपर साफ़ दिख रहा है...

चन्दन ने कहा…

रंगनाथ जी, आपने पोस्ट के लिए 'बहुमूल्य' शब्द ( हू ब हू इसी तरह लगाकर ) इज्जतआफजाई की इसके लिए शुक्रिया.

आपने भी अगर प्रश्न अपने नाम से न पूछा होता तो शायद मैं आपका भी जबाव न देता. अनॉनिमस या छद्म नाम का मेरे लिए जरा भी महत्व नही है.

इस 'बहुमूल्य' (आपके अनुसार) पोस्ट को पढ़ने से पहले अगर आप सबने जंक्शन कहानी पढ़ी होती तो शायद बात इतनी न बढ़ती. मैं अपने लिखने का कुल मतलब लिख रहा हूँ : जितना समय मैने गाजीपुर/ बलिया / चदौली / आदि जिले में बिताया है उसके आधार पर मैं बता सकता हूँ कि पिछले पच्चीस सालों में हर घर से कोई न कोई बन्दा फौज या पुलिस में जरूर है. यहाँ मैं सवर्ण की बात कर रहा हूँ. और हर घर की अभिधा आपको बुरी न लगे इसके लिए पहले ही स्पष्ट कर दूँ : कई बार यह भी देखा गया है कि एक घर से तीन तीन चार चार लोग फौज मे होते हैं. कुछ साल के अंतराल की भर्तियों पर. मेरे कई सारे परिचित फौज में ट्रक में हवा भरने का काम भी करते हैं. गहमर, मुहम्दाबाद, वीरपुर अगर कभी जाना होगा तो आपको स्पष्ट हो जायेगी मेरी बात. अभी आँकड़े तो आपके पास भी नहीं है.
यह तो रहा आपके सवालों का सीधा सीधा जबाव.

पर काश आप सबने मेरे लिखने का मंतव्य समझा होता. मैने दो दो बार लिखा है कि " मैं पुन: कह रहा हूँ कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता". इसे लिखने के बाद भी आप सब नामाकूल किस्म के प्रश्न ला रहे हैं. आपके पास आँकड़े भी नहीं है और आप गिनाए जा रहे हैं. कुल आबादी का तेरह से सोलह फीसदी सवर्ण हैं. इन तेरह से सोलह फीसदी में कितने फौज में है, इसका आँकड़ा है आपके पास. आपने खुद लिखा है कि कुल मिला कर पाँच से छ: फीसदी भी नहीं होंगे फौज में. जाहिर है आप यह संख्या केवल सवर्णों की आबादी का नहीं वरन कुल आबादी का दे रहे हैं. पर अब आप ध्यान दीजिये तो पायेंगे कुल तेरह से सोलह फीसदी सवर्ण है जिनमे से कुल आबादी का ( आपके अनुसार) 5 से 6 % फौज मे होंगे या छोटे मोटे काम करते होंगे और भाई साहब मैं फिर कह रहा हूँ कि काम कोई भी छोटा बड़ा नही होता. सर जी, आपका दिया यह आँकड़ा 40 से 50 % को छू रहा है, देखिए. इसमें अभी महिलाएँ शामिल नही है. यानी की तेरह से सोलह % की कुल आबादी में आधी आबादी स्त्रियों के नाम पर निकाल दें तो पायेंगे कि कुल सवर्ण पुरुष आबादी का 70 से 80% हिस्सा इन कामों मे लगा हुआ है, और महोदय् यह सच है. अब यह ट्रेंड बदल रहा है तो बात अलग है पर इससे तो आप भी सहमत होंगे कि ट्रेंड से तस्वीर बदलने तक सालों का समय लगता है.

मेरा मुद्दा यह नही है कि कौन क्या क्या काम कर रहा है. कृपया यहाँ ध्यान दे मैं फिर फिर दुहराता हूँ कि मेरा मुद्दा यह नहीं है कि कौन क्या काम कर रहा है, मुख्य मुद्दा यह था मेरे लिखने में किइ रस्सी के जलने के बाद भी ऐंठन नहीं जा रही है. आप सब उस मुख्य मुद्दे पर चुप्पी साध गए. अब अगर जैसा पाठ आप लोगों ने मेरे लिखे का किया वैसा अगर मैं आपके लिखे का करूँ तो यह कहा जा सकता है क्या कि आप लोग उन हत्याओं के पक्ष में हैं जिनका मैने विरोध किया है ? लेकिन मैं ऐसी गलती नही करूँगा. मैं अलबत्ता आप सब से रिक्वेस्ट करूँगा कि मेरे लिखे को पढे. यह किसी श्रेष्ठता बोध में नही कह रहा, बल्कि इस लिए कि इस बार मैने लिखा है. जब आप लिखते हैं तो मैं पढंता हूँ उस हिसाब से कमेंट करता हूँ. जिला मोह इतना उचित नही हैं.मेरे मन में उस अप्रोच के पर्ति घृणा है कि बाहर आप कैसे भी काम करते हों अपने गाँव जवार आते ही आपका सवर्ण मन बल्लियों उछलने लगता है. आप ट्रेन में बैठने की जगह न देने जैसी मामूली बात पर किसी आदमी को ट्रैन से बाहर खींच कर मार देते हैं. हत्या कर देत्ते हैं. इस पूरी बातचीत में प्रथम दृश्टया अगर कुछ आलोच्य है तो यह सवर्ण रूग्ण मानसिकता.

Rangnath Singh ने कहा…

सिद्धांत,मनोहर श्याम जोशी ने एक लेख लिखा था "हिंदी साहित्य में वीर बालकवाद" उम्मीद है तुमने उसे पढ़ा होगा और गर नहीं पढ़ा है कभी पढ़ लेना पढ़ोगे:-)

बहरहाल,जब मैंने बीच में पैर डाल दिया है तो तुम्हे जवाब देना ही पड़ेगा..मैं बस इतना चाहता था कि तुम लोग बेवजह उलझो नहीं. बुजुर्ग कह गए हैं कि जी भर अदावत करो बस ये ख्याल रहे कि जब मिलो तो शर्मिंदा ना होना पड़े....लेकिन लगता है तुम तक मेरा आशय उल्टा ही पंहुचा है......

तुमने पूछा है कि नाम के पीछे का चेहरा क्यूँ उभाड़ने आये हैं !!

इसकी वजह मैं ऊपर दे चुका हूँ...

तुमने कहा है कि 'आवाज नाम का झूठ का चोंगा' ..... यार 'कामन सेन्स भी कोई चीज होती है. जिसे चोंगा पहनना होता है वो अपनी तस्वीर नहीं लगाता. जहाँ तक मेरी जानकारी है आशीष पाण्डेय का यह किसी भी ब्लॉग पर यह पहला ही कमेन्ट होगा...यहाँ तक कि मेरे ब्लॉग 'बना रहे बनारस' पर भी उन्होंने आज तक कभी कमेन्ट नहीं किया है... चन्दन ने जिस लहजे और जिस तथ्यहीन तरीके से वह वाक्य लिखा मैं आशीष के कमेन्ट को उसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया मान रहा हूँ...शेष तुम अर्थापन करने करने के लिए स्वतंत्र हो...

तुम्हारा कमान सेन्स क्या कहता है तुम जानो लेकिन मुझे तो यही लगा कि आशीष पाण्डेय को जहाँ अपना नाम भरना था वह वांछित ब्लॉग-नाम भर दिया है. इसकी वजह से उनके नाम की जगह 'आवाज' दिख रहा है. और जिस व्यक्ति को ब्लॉग से खास वास्ता ना हो उससे ऐसी भूल हो जाना कोई बड़ी बात नहीं...

फोन वाली बात पर क्या कहूँ समझ नहीं आ रहा...तुमने उसके आगे की स्माईली पर जरा भी ध्यान नहीं दिया...आश्चर्य !! अरे मेरे बनारसी, यह एक व्यंजना थी जो तुम्हारे चौखट के पत्थर पर औंधे गिर पड़ी :-((तुम्हे क्या लगा यहाँ कोई आग लगी थी और आशीष पाण्डेय दमकल ले कर आते :-)) खैर...

तुमने जिस अंदाज और तेवर में बात की उसे देख कर मैंने कुछ चुटकियाँ ले लीं...लेकिन तुम तो कुछ और ही मूड में दिख रहे हो :-) :-)

सदाशयता वगैरह के साथ बात करने पर मेरे जोर देने को तुमने बिलकुल ही टाल दिया...खैर, जब इस इदारे में आ गए हो तो ये सब लगा ही रहेगा... मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं.. वीर बालक भवः :-)

Rangnath Singh ने कहा…

सबसे जरूरी बात यह कि तुमने मूल मुद्दे को किनारे रख दिया...जबकि उसके इतर यहाँ कोई कितने भी तेवर दिखा ले वो फालतू ही है...


चन्दन ने जो लिखा है और मैंने जो उससे पूछा है उसका जवाब चन्दन देगा. मुझे चन्दन के जवाब का बेसब्री से इन्तजार है.

तुम उससे पुर्णतः सहमत दिख रहे हो तो उसके बाद(या पहले भी) तुम भी अपने तर्क रख सकते हो.

सिद्धान्त ने कहा…

आप तो वीर-बालकवाद पर ही उलझ पड़े....कमाल है! मेरे ख्याल से चन्दन नें अपना उत्तर दिया है, वे अपने मुद्दे पर बात कर रहे हैं. लेकिन मेरी यहाँ नाराज़गी आशीष पाण्डेय से है (जिनकी आप वकालत करते दिख रहे हैं) और उनकी बेवकूफ और भौंडी भाषा को आपका समर्थन भी मिलता दिख रहा है. आपने अर्थापन के लिए स्वतंत्रता दी है, तो यह भी मान लिया जाए कि ये तेवर आशीष पाण्डेय के उन बातों के प्रत्युत्तर में है जहां पर उन्होंने 'लंगोट का बुरका पहनने' और 'लौंडों को प्रोमोट करने' की बातें कही हैं, सो ये तेवर भी कायम रहेंगे. अगर आप इस लहजे और तेवर को अपने खिलाफ विकसित होता हुआ देख रहे हैं, तो वह आपकी समस्या है क्योंकि आप इस झगड़े(क्योंकि यह अब बातचीत तो रही नहीं) के बिचौलिए साबित हो रहे हैं. पिछले कमेन्ट में भी मेरे कहने का आशय साफ़ इतना ही था कि आशीष पाण्डेय खुद अपनी बात रखने (वह भी साफ़ भाषा में) क्यों नहीं आते, उनकी जगह आप आते हैं जो उनकी पढ़ाई-लिखाई-काम का ज़िक्र करके एक तरह से हमें कम बोलने के लिए कह रहे हैं या सब कुछ खत्म करने के लिए कह रहे हैं.


चन्दन नें यहाँ अपनी बात रखी है और मैं उनकी उस बात से सहमत हूँ जिस पर इतना बवाल मच रहा है. और वैसे भी हिन्दी में स्माइली का चलन - मुझे खुशी होगी अगर स्माइली-युक्त व्यंजनाएं मेरे चौखट पर ही न पहुंचें, चौखट देखने से पहले ही दम तोड़ दें.

इस बात का कोई ताल्लुक ही नहीं है, जहाँ आप 'आशीष पाण्डेय के पहले कमेन्ट' के दुहाई दे रहे हैं, यहाँ आवाज़ भाई का नाम किसी पते पर नहीं ले जा रहा है, पहले कमेन्ट में भी भाषा और 'सदायशता' बरकारार रखी जा सकती है, लेकिन 'सदायशता' का पाठ मुझे ही पढाने लगे और 'आवाज़ भाई' के ग्यान-विहीन होने की ही पैरवी करने लगे, कमाल है...अगर इस समय का "टीवी पत्रकार, डाक्यूमेंट्री-मेकर, वन-एक्ट का हिस्सा और जामिया मास कॉम का विद्यार्थी" ब्लॉग-श्लॉग के तामझाम से मतलब न रखता हो, तो कम से कम सलीका तो सीख ले, क्योंकि मैं जहाँ तक जानता हूँ कि चन्दन उन कथाकारों में नहीं आते हैं जो "पेट से निकलते ही पेट से निकलने की प्रक्रिया पर" लिख रहे हैं. शायद आप भी इस बात को मानते होंगे.

मुझे आपसे इस बहस में कोई शिक़ायत है ही नहीं, लेकिन आप ही इस रास्ते को चुन रहे हैं, जहाँ आप बाद में मुझ ही को तहजीब और वीर-बालकवाद का अर्थ सिखा रहे हैं. अगर आशीष नए लेखक हैं, तो मैं उनका स्वागत करता हूँ और बिना किसी झिझक के उन पर टिप्पणी करूँगा ताकि वे आगे और अच्छे रूप में ज़ारी रख सकें.

Rangnath Singh ने कहा…

"मुझे गाजीपुर और उस के ऊपर के जिलों का ज्यादा अनुभव नहीं है लेकिन चंदौली-बनारस-मिर्जापुर-भदोही-जौनपुर के कुल सिपाहियों को जोड़ दिया जाए तो भी वो कुल जनसँख्या के ५-१० फीसद भी ना ठहरेंगे"

चन्दन मेरे इस बयान में 'कुल जनसंख्या' में जाहिर तौर पर कुल सिपाही और कुल जनसंख्या का प्रयोग कुल सवर्ण सिपाही,कुल सवर्ण जनसँख्या के लिए किया गया है. क्यूंकि हम बात ही सवर्ण जनसँख्या के विशेष सन्दर्भ में कर रहे थे.

तुमने और भी बहमूल्य बातें कहीं हैं जिसका जवाब देने में मुझे कोई रूचि नहीं है. तुम अपने डेटा के साथ बने रहो मैं अपने के साथ हूँ.

और हाँ, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे इस बयान का मूलार्थ जंक्शन कहानी पढ़ लेने से कोई खास बदल जाएगा !!

यह भी कि मैंने कहाँ कहा कि तुमने इन पेशों या सवर्णों का अपमान किया है ????

यह सब इसलिए कि कुछ बातें साफ़ रहे. इस ब्लॉग पर यह मेरा तुम्हे आखिरी कमेन्ट है.

सस्नेह...

चन्दन ने कहा…

रंगनाथ जी, बहस मुबाहिसे अपनी जगह हैं पर सर्वाधिक दु:ख यह देख कर हुआ कि कैसे आप एक छद्मनामी को और उससे भी अधिक उसकी गलीज / अश्लील भाषा को 'डिफेंड' कर रहे हैं. माफ कीजिएगा, आगे से मैं आपके भी किसी प्रश्न का जबाव नहीं देने जा रहा. वजह कि वैसी अश्लील भाषा के पक्ष में बोलने वाले को मैं उसी भाषा का संचालक मानता हूँ. वह कत्तई काशी का अस्सी की भाषा नहीं है. ना ही मुझे इसका प्रमाण आपसे या किसी छद्मनामी से चाहिए. अगर आपको इतनी सुन्दर भाषा पसन्द आ गई और उसका लेखक तो जरा आप मेरा भी जबाव देखते कि मैने कितनी विनम्रता से उनका जबाव दिया है. कोई एक अपशब्द का प्रयोग नहीं किया है मैने. और ऐसा भी नहीं कि ब्लॉगी लड़ाईयाँ हमने लड़ी नहीं हैं. वो चाहे प्रहलाद कक्कड़ के शिष्य हों या खुद प्रहलाद कक्कड़, किसी को ऐसी अश्लील भाषा प्रयोग करने का अधिकार नहीं है. मैं सिद्धांत से भी कहना चाहूँगा कि ब्लॉग के लोकतंत्र के नाम पर तुम्हें हर सड़े गले कमेंट्स को प्रकाशित करने का कोई अधिकार नहीं है. यह तुम्हारा अधिकार है, क्योंकि यह तुम्हारा ब्लॉग है कि तुम इसे मॉनिटर करो, एडिट करो.

इस बहस में पड़ने वाले से मेरा सादर आग्रह है कि यह एक रचना प्रक्रिया है, इससे पहले उस कहानी को पढ़ा जाए जिसकी यह रचना प्रक्रिया है, तब मामला खुलेगा. ध्यान दीजिएगा, मैं चैलेंज नहीं कर रहा हूँ बस एक जरूरी सूचना दे रहा.

रही बात सवर्णी बिलबिलाहट की, तो वह अनुमानित थी. मैं जरा भी 'हतप्रभ' नहीं हुआ.

Rangnath Singh ने कहा…

चन्दन, तुम्हारे भ्रामक बयान ने मजबूर कर दिया इस कमेन्ट के लिए...

क्या तुम बता सकते हो कि मैंने आशीष की भाषा को कहा डिफेंड किया है ????

मैंने तुम तीनों से एक ही अपील की थी कि इस लहजे में आगे से बात न करें ...


और हर हाल में यह भी ध्यान रहे कि आशीष ने मेरे सदाशयता बनाये रखने वाले कमेन्ट के बाद एक भी कमेन्ट नहीं किया है....