रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ग़ालिब और शमशेर



ग़ालिब ख़ुद एक बड़ा हीरो है अपनी व्यापकता के केंद्र में, जो कि स्पष्ट एक आधुनिक चीज़ है. व्यक्ति का निर्वाध अपनापन. हर बात में अपने व्यक्तित्व को - अपने निजी दृष्टिकोण को सामने रखना. मैं ख़ुद किस पहलू से सोचता हूँ, किस ढंग से महसूस करता हूँ, यह उसके लिए महत्त्व की बात है. 

हर बात की तह में जाने की - अपने विशिष्ट तौर पर उसका मर्म समझाने की - उसकी कोशिश सर्वत्र प्रकट है. 

उसकी मुसीबतें, उसका संघर्ष, जिसको यह कभी छिपाता नहीं....उसके शब्दों में हू-ब-हू आधुनिक-सा लगता है. अजब बात है. उसमें आज के, आधुनिक साहित्यकार की-सी पूरी तड़प और वेदना के बीच, एक तटस्थ यथार्थवादी दृष्टि है. उसका यथार्थवाद निर्मम है. मुक्तिबोध और निराला, अपने भिन्न संस्कारों के अस्त-व्यस्त परिवेश में, उसको कुछ-न-कुछ  प्रतिबिंबित करते हैं. निराला का यह प्रिय शेर था - 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फ़िर लहू क्या है.

क्या ताज्जुब है जो उसके युग ने उसको नहीं पहचाना.

लोगों ने सही कहा है कि जो शख्स एक अरसे से अंग्रेज़ी अमलदारी और क़ानून-व्यवस्था और नीतियों को निकट से और विचारपूर्ण दृष्टि से देखता आ रहा हो, जो कलकत्ते के वातावरण को भी खासी-अच्छी तरह सूंघ आया हो, वह जीविका के लिए मुग़ल दरबार से बँधा रहकर भी, अपनी चेतना में पिछले युग से कभी जुड़ा हुआ नहीं रह सकता. इस अर्थ में ग़ालिब अपने युग में अकेला था.

कुछ जैसे निराला को रवीन्द्रनाथ से होड़-सी रही, ग़ालिब भी पूर्ववर्ती उस्तादों की श्रेणी में सगर्व अपने को रखता था. 

शायद एक चीज़ जो स्थायी है वह कला है - और वह है ग़ालिब के लिए ग़ालिब की अपनी कला. इस कला में मर्म में स्थित कवि पूर्णतया आश्वस्त निर्द्वंद और अमर-सा दिखता है. कम-से-कम स्वयं को, अपनी दृष्टि में. ..... और बहुत बाद में हमको भी वह वैसा ही दिखता है.

ग़ालिब का सूफी भाव सूफियों की परम्परा से एकदम भिन्न और मात्र उसका एकदम अपनी ही मालूम होता है. अगर ग़ालिब के सूफी-भाव की स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो वह शायराना रिवायत क़तई न होते हुए भी, कहीं अनीश्वरवादी और कुछ-कुछ अस्तित्ववादी सूफीवाद निकलेगा. यह परिभाषिकता आधुनिक है. 

अपनी कला पर ग़ालिब का कितना दृढ़ विश्वास है. अपने सर्वोपरि होने से उसे किंचित भी सन्देह नहीं. देखिये, उसका सेहरा देखिए. उसकी फ़ारसी ग़ज़ल, जिसमें उसने भविष्यवाणी की है कि आगामी युगों में ही उसकी पहचान हो सकेगी, हालांकि तब बहुत से मूर्ख भी उसको समझने-समझाने का दावा करेंगे. अपने समकालीन विद्वान् मौलाना आजुर्दा को वह तमककर कहता है - अगलों के गुणगान करते तुम नहीं थकते, मगर तुम्हारी आँखों के सामने जो महाकवि बैठा अपनी अमर रचना सुना रहा है, उसको पहचानने की शक्ति नहीं रखते, कितने आश्चर्य की बात है!

मुझे लगता है कि ग़ालिब की दिलचस्पी किसी भी प्रकार के आदर्शवाद में नहीं थी, थी तो केवल इन्सान में. उसके विडम्बनापूर्ण मगर हौसलेमंद जीवंत नाटक में. और इसलिए कि आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना!

यह कम कौतुक की बात नहीं कि हिन्दी-संसार में ग़ालिब के लिए अलग ही खाना है और शेष उर्दू के लिए अलग. जहाँ उर्दू से बिलगाव की भावना है, ग़ालिब से नहीं. इतने दुरूह कवि होते हुए भी ग़ालिब हिन्दी पाठकों के अपने हो गये. ऐसा क्यों है? इसका जवाब देना आसान नहीं है.


(गद्य-खंड शमशेर बहादुर सिंह की "कुछ और गद्य-रचनाएँ" से. ग़ालिब पर इस तेवर और इस स्वाद की टिप्पणी सिर्फ शमशेर के यहाँ मुमकिन मालूम होती है.)

3 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra ने कहा…

सुचिंतित

पूजा पाठक ने कहा…

पहली बार यह नज़र के सामने आया. दुखी हूँ, कि ऐसी रचनाओं से अभी तक दूर हूँ. सार्थक प्रयास.

पूजा पाठक,
लखनऊ

रंगनाथ सिंह ने कहा…

बुद्धू-बक्सा का यह प्रयास अच्छा लगा.....