शनिवार, 30 जुलाई 2011

ब्लैक-रिचनेस ऑफ शागिर्द

 
एयर बैग - काला, लाल, भूरा

पैसा - एयर बैग में - 20...40...50 लाख, 10....15....25 करोड़

काले रंग की SUV

हनुमान

हनुमंत - नाना पाटेकर

गोलियां ढेर सारी

भ्रष्टाचार भी ढेर सारा

अनुराग कश्यप - कमज़ोर

तिग्मांशु धूलिया - उससे भी कमज़ोर

'हासिल' - एक अच्छी फ़िल्म और भरोसा रखने के लिए क़ाफ़ी

'शागिर्द' - अधपका आम


कुल मिलाकर तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म शागिर्द देखने के बाद आप यही समझ पाते हैं और फ़िल्म को इन्हीं बातों पर खड़ा पाते हैं. 'हासिल' बहुत सारी चीज़ों का एक सुनियोजित संकलन थी और इसी के बूते पर छात्र राजनीति और प्रेम के क्लैश का विवरण स्पष्ट हो सका. बस, इसी की कमी शागिर्द में है.

अभी के समय से दस साल पहले वाली भ्रष्टाचार और राजनीति आधारित फ़िल्मों की शागिर्द पर बीहड़ छाप है. कारण जो भी हो, लेकिन तिग्मांशु अभी के समय को फ्रेम में नहीं उतार पाए हैं. क्योंकि अजीबोगरीब तरीक़े से हो रही जासूसी और फ़िर अद्भुत कार पलटा देने वाली गोलीबारी न तो इस समय की राजनीति और ना ही फ़िल्मों की पहचान है. अभी की राजनीति में इससे ज़्यादा जटिल भ्रष्टाचार है, लेकिन वह इतना खुला और उधड़ा हुआ तो कतई नहीं है...उसमें कठिनाइयां हैं, लेकिन उनका जो बेसिक स्ट्रक्चर है, वह फ़िल्म में दिखाए गये घुमावदार स्ट्रक्चर से अलग है. 

हनुमंत सिंह(नाना) दिल्ली पुलिस, क्राइम ब्रांच के एक सीनियर इंस्पेक्टर हैं. घोर भ्रष्टाचारी, हाज़िर जवाबी और तुरत-फुरत शक़ करने वाला इंस्पेक्टर. अब आप यहाँ पर भी कुछ नया नहीं देख़ पायेंगे, पूरी फ़िल्म भर हनुमंत सिंह का चरित्र एकदम खांटी 'नाना पाटेकर मूड' को लिए चलता है. 'यशवंत' और 'शागिर्द' के नाना पाटेकर में इतना ही फर्क़ है कि 'यशवंत' में नाना भ्रष्टाचार विरोधी थे लेकिन शागिर्द में नाना ऐसे पुलिसवाले की भूमिका में हैं, जो अपने जूनियर मोहित से यह तक कह देता है कि लूट के पैसे में हिस्सा लो वर्ना इस्तीफ़ा दे दो. हनुमंत 'मेनियाक' है, जो पागलों की तरह पुराने गाने सुनता रहता है और गानों की फ़िल्म के नाम, निर्देशक का नाम, संगीतकार और गीतकार का नाम याद रखता है....लेकिन इस दीवानगी का सबसे नाटकीय पहलू ये है कि वह एनकाउन्टर के ऐन पहले ड्रग डीलर्स के दरवाज़े पर खड़ा होकर उनके टीवी से गाने सुनता है, पत्नी से लड़ाई के दौरान भी और अपनी मौत पर भी वह गाने सुनता रहता है...फ़िर मरता है.

एनकाउन्टर स्पेशलिस्ट की तरह लगने वाले हनुमंत सिंह की टीम में पहले तीन....फ़िर चार लोग हैं. चौथा मोहित है जो अपने किरदार में एक ठेठ फ़िल्मी 'पुलिसिया' कड़कपन और ईमानदारी लेकर आता है जो उसके दोमुंहे रूप के लिए कुछ ठीक लगता है.

फ़िल्म में मोहित का इकतरफा प्यार है, एक हाई-प्रोफाइल जर्नलिस्ट के साथ....अब जर्नलिज़्म की बात जब आती है तब इस फ़िल्म में दिखाई गई 'झटपट पत्रकारिता' की पोल खुली हुई पता चलती है. फ़िल्म में दिखाए गए पत्रकार अव्वल दर्ज़े के बेवकूफ़, आन्दोलन के लिए आमादा और 'न्यूज़-रिच्ड' हैं लेकिन अभी की पत्रकारिता का सत्य क्या है, ये सभी जानते हैं - अभी के पत्रकार 'न्यूज़-हंग्री', तेज़-चालाक और आन्दोलन के लिए समय की प्रतीक्षा करने वाले हैं.

हनुमंत एक मंत्री के लिए काम करता है, जो भविष्य में विदेश-मंत्री बनने वाला है(अगर लाल-रंग सामने न पड़ा तो), मंत्री के किरदार के साथ एकदम सही समझौता हुआ है, सारा कुछ, सारे नुमाइंदे और पैसे की बंदरबांट 'मंत्री' वाले तत्व को सही ठहराते हैं. मंत्री का किरदार सबसे मूल बिन्दु पर जहाँ चूकता है वह है उसका किसी पर भी भरोसा ना करना(हालांकि, ये तो कहानी की मांग है....फ़िर भी), यही भरोसे का अभाव हनुमंत को उसकी 'प्राइवेट ड्यूटी' से भटका देता है...साथ ही साथ यही अभाव चुपके से मोहित को हनुमंत के पिछवाड़े लगा देता है. मंत्री ज़रा-सा और कमज़ोर साबित होता है जब उसके ध्यान राजनीति के बजाय बाक़ी सभी चीज़ों पर होता है.

अप्रत्यक्ष रूप से कहानी जिसके इर्द-गिर्द घूम रही है वह है बंटी भईया(अनुराग कश्यप), जो प्रकाश झा की फ़िल्मों के राजनीतिक गुंडों की तरह लगता है....सीधे-सीधे 'अपहरण' के अजय देवगन की तरह, तो इस तरह से ये फ़िल्म 'प्रकाश झा' से प्रेरित लगती है. बहरहाल, अनुराग कश्यप फ़िल्म के किरदार के किस मूड को कैरी करके चलते हैं, पता नहीं चल पता और इसी के साथ एक बहुत अच्छे निर्देशक की अभिनय-कला की पोल खुल जाती है. बंटी भईया ठेठ गुंडा है, जो मंत्री के लिए काम करता है और अंत में उसी के हाथों मारा जाता है. इस समय में कोई भी गुंडा सिर्फ़ गुंडा नहीं होता है, या तो वह एक नेता, या कोयला व्यापारी नहीं तो फ़िर बहुत बड़ा ठेकेदार होता है, सिर्फ़ गुंडा होना - अगर यू.पी. के सन्दर्भ में ही बात करें तो - 7-8 साल पहले का मुन्ना बजरंगी, विनीत सिंह या त्रिभुवन सिंह होना है. तो, थोड़ा सा रफ़-वर्क अनुराग को करना चाहिए था, अपने अभिनय को लेकर - अगर वे कुछ-कुछ आशुतोष राणा या मनोज बाजपेयी हो जाते तो 'शायद' बात बन जाती.

तीन पत्रकारों का अपहरण(जिनमें मोहित की 'प्रेमिका' भी शामिल है) होता है और बंटी भईया के साथ दो जेहादियों की रिहाई और 15 करोड़, फ़िर 25 करोड़ की मांग की जाती है. कुल मिलाकर कहानी एक कठिन और बेहद नाटकीय रूप ले लेती है और जब ये पता चलता है कि इसके पीछे हनुमंत सिंह था तो उसी क्षण फ़िल्म से रूचि ख़त्म हो जाती है, क्योंकि ऐसे समय में आप ये जान जाते हैं कि आपको सिर्फ़ घुमाया जा रहा है.

आप किस पर शक़ करेंगे, किस बिना पर शक़ करेंगे और फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी, कहानी के बारे में क्या सोचेंगे.....ये तो कहना मुश्किल है...लेकिन इस बार अग़र आप तिग्मांशु धूलिया से नाराज़ होते हैं, तो आप सही हैं. फ़िल्म पर प्रकाश झा, अनुराग कश्यप और कुछ विदेशी फिल्मकारों का प्रभाव साफ़ दिखता है. राजनीति और पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार अपने मौजूदा लेवल से बहुत ऊंचा है और इसी को दिखाने में फ़िल्म ब्लैकनेस से रिच हो गयी है.

तिग्मांशु....यू हैव टू डू बेटर....

2 टिप्पणियाँ:

addictionofcinema ने कहा…

Puri tarah sehmat

Shyam Bihari Shyamal ने कहा…

पोस्‍ट पढ़कर फिल्‍म को सोचते हुए देखने का सुख मिला। साथ ही देखते हुए विचार-मंथन का आनंद भी। समीक्षा ने इच्‍छा जगा दी इसे देखने की... मुझे लगता है, फिल्‍म यदि भ्रष्‍टाचार के सवाल को किसी भी तरह उठाने का काम पूरा कर रही हो तो प्रयास निरर्थक नहीं।