शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

दीवान - २ : ग़ालिब

यह न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इन्तिज़ार होता

तिरे वा'दे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता

तिरी नाज़ुकी से जाना, कि बंधा था 'अेहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

यह कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त, नासेह
कोई चारः साज़ होता, कोई ग़मगुसार होता

रग-ए-संग से टपकता, वह लहू, कि फ़िर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, यह अगर शरार होता

ग़म अगरचेः जाँगुसिल है, प कहाँ बचे, कि दिल है
ग़म-ए-'
अिश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

हुए मरके हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जना
ज़ः उठता, न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख़ सकता, कि यगानः है वह यकता
कि दुई की बू भी होती, तो कहीं दुचार होता

यह मसाइल-ए-तसव्वुफ़, यह तिरा बयान, ग़ालिब
तुझे हम वाली समझते, जो न बाद:ख़्वार होता

 

[बोदा = कमज़ोर, उस्तुवार = मज़बूत, चारः साज़ = चिकित्सक, ग़मगुसार = हितैषी, रग-ए-संग = पत्थर की नस, जाँगुसिल = दुखदायी, यगानः = अनुपम, दुचार = आमना-सामना, बाद:ख़्वार = शराबी]


(दीवान में इस दफ़ा मिर्ज़ा ग़ालिब, इश्क़ को जो रौ ग़ालिब से मिलती है, वह और कहीं से मुमकिन नहीं है. ग़ालिब की शायरी इतनी विकसित और भाषा इतनी परिष्कृत है, कि यहाँ से कई शायरों की उत्पत्ति को देखा जा सकता है, फ़िर भी ग़ालिब को दुहरा पाना नामुमकिन है. किसी शायर या कवि के लिए ग़ालिब होना, विधा की आख़िरी मंज़िल पर होना है. इस स्तम्भ की पहली कड़ी में फ़ैज़ पढ़े गए.)

1 टिप्पणियाँ:

मृत्युंजय ने कहा…

गालिबे खस्ता के बगैर ...

शुक्रिया सिद्धांत भाई, अच्छा लगा फिर से इस ग़ज़ल से रू ब रू होकर