बुधवार, 20 सितंबर 2017

अनुराग अनंत की कविताएं




इससे पहले कि
घोड़े जैसे मुंह वाला ये समय​ 
​चींटी से भी धीमा चल रहा है मेरे लिए
हो सकता है तुम्हारे लिए ये समय
गति की परिभाषा हो
और तुम हर पल में ​सदियां जी रहे हो

खैर इससे पहले कि
आदमी भाप बन ​जाएं
उनकी चिंताएं, सवाल और दर्द
दर्ज कर लिए ​जाएं

उनकी ​आंखों में
आइना उतरने से पहले
हम अपनी-अपनी तस्वीरें देख लें
वर​ना​ आइनों के झूठ को हम सच कहेंगें
और सच दूर खड़ा होकर ​रोएगा किसी गूंगे बच्चे की तरह

इससे पहले कि
आदमी सीढ़ियों से उतरकर
नदी बन जाए
उनसे पूछ लिया जाना चाहिए
क्या इसके ​अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं है
और सीढ़ियों से उतरना और नदी बनना क्या इतना जरूरी है
कि जीवन की परिभाषा में क्रांति करनी पड़े

तुम्हारे और हमारे समय में
इतना अंतर है कि
तुम जिन्हें इंसान समझते हो
वो हमारे लिए मशीन और जानवर हैं
और जिन्हें हम इंसान समझते हैं
उन्हें तुम कुछ समझते ही नहीं

खैर, जंगलों में बजते गीतों में आग लगे
और जलते हुए लोग चलें ​आएं शहर की ओर
तुम आदमी को आदमी की तरह देखो
इससे पहले कि तुम्हारी बनाई सारी ​आकृतियां टूटें
तुम अपनी रेखाओं, त्रिभुजों, वृतों और चतुर्भुजों की परिभाषाएं और माप सुधार लो
और कहो कि जीवन ​गलतियां सुधारने का ​दूसरा नाम है

खेत-खलि​हा​न जंगल और जमीन
कल-कारखाने दुखिया और दीन
नहीं रह सकते अब बहस से बाहर

इसलिए इससे पहले कि
तुम्हारी भाषा के गोल महल में
भटकतीं आत्माएं और व्यथाएं​ ​बगावत कर दें
तुम उतार कर फेंक दो अपना मुकुट
अपना सिंहासन जला दो
और त्याग दो शाही वस्त्र
और कहो कि
मुझे मंजूर है आदिम बराबरी

और यदि नहीं करते तुम ऐसा
तो समय का चेहरा बदल दिया जायेगा
आदमी सीढ़ियों से उतरकर
नदी बनकर बहेगा
और जीवन की परिभाषा में क्रांति कर दी जाएगी

उस वक़्त तुम नहीं होगे ​वहां
याद करने के लिए
मेरी चेतावनि​यां​ और भविष्यवाणि​यां​


​​ऐ, ​इक्कीसवीं सदी की कविता गवाही दो!
ऐ,​ ​इक्कीसवीं सदी की कविता
गवाही दो
कि सदी के सारे शब्द मार दिए गए हैं
और तुम एक शब्दविहीन कविता हो 
तुम एक मौन की कविता हो

तुम्हारी रगों में जो खून बह रहा है
वो बेवजह मारे गए लोगों का लहू है
और धड़कनें उन आवाजों की कराह हैं
जिन्होंने बोलने के लिए जान गंवायी है

इस दोमुंहे समय में
जब डसा जाना बिलकुल तय है
तुम लड़ते हुए बीच में खड़ी हो

हे! तप्त मौन की शापित कविता
तुम जीवित हो!
मृत शब्दों और घुटी हुई आवाजों के साथ तुम
जीवित हो

​ऐ, इक्कीसवीं सदी की कविता
गवाही दो!
कि सदी के सारे शब्द मार दिए गए हैं

पिटे हुए विदूषक और लफ्फाज
संविधान की छाती पर चढकर राष्ट्रगान गा ​रहे हैं
राष्ट्रगान कि जिसमें राष्ट्र कहीं नहीं है
महज़ गान है
प्रेमिका की नाभि पर खिले हुए कमल पर लिखा गान

कंक्रीट के जंगल में सपनों के पांव खो गए ​हैं​
और ​हांफते हुए हौसलों ने भटकना अपनी नियति मान ली है 
नसों में बहता हुआ बहुरंगी बाज़ार तेजाब है
पर मजबूरी है कि तेजाब पीकर मरते हुए जीना है 

एक देश दूसरे देश पर चढ़ा है
और दबे हुए देश की पीठ पर कानून अशोक की लाट​-​सा खड़ा है
हर चौराहे पर एक अंधी बनिया औरत है
जो अदालत की उस देवी से मिलती है
जिसने ​लक्ष्मणपुर​ ​बाथे के अपराधियों को
​आंखों पर पट्टी बांधकर बेक़सूर देखा था

सुनो!​ ​वो देश जो जंगल में रहता है
खेतों में उगता है
नदियों में बहता है
लोहों में ढलता है
बचपन में मचलता है
और रोटी के ख्याल में भटकता हुआ
खुले आसमान के नीचे सोता है
​तुम्हें गा रहा है
संविधान की चारदीवारी के उस पार
संसद के ​पहुंच से बहुत दूर
पेट की लड़ाई लड़ता हुआ
​तुम्हें गा रहा है
भूख की ताल पर ​तुम्हें गा रहा है

​ऐ, इक्कीसवीं सदी की कविता
अकेले पड़ते इंसान के अकेलेपन की गवाही दो
​​ऐ, इक्कीसवीं सदी की कविता
इंसान​ के मृत्यु​ की गवाही दो

​​ऐ, इक्कीसवीं​ ​सदी की कविता
गवाही दो​ ​कि सदी के सारे शब्द मार दिए गए हैं
गवाही दो​ ​कि अब कहने के लिए कुछ नहीं है
और करने को बहुत कुछ


​​भाषा के ​अंधेरे कमरे में
कांटो की कोख से पत्तियां चुरा कर खाने की कला
सिर्फ और सिर्फ बकरियों के पास ही है 
इसीलिए ​कांटों के इस जंगल में वो जिन्दा हैं
तब​ ​तक​ ​जब​ ​तक किसी को भूख न लगे

जब वो काटीं जाती हैं 
तो हिंदी सिनेमा के गाने, देशप्रेम से पाट दिए जाते हैं
और हज़ार चेहरे वाले लोग
गोल गुम्बद के ऊपर मेला सजाते हैं
उनकी ​आंखों में आंसू
और होंठो पर मुस्कान एक साथ रह सकती है
वो किसी भी समय राष्ट्रगान गा सकते हैं 

वो इतने माहिर हैं कि
संविधान उनके सामने
भीड़ में खोये हुए बच्चों की तरह रोता है
और वो भाषा के ​अंधेरे कमरे में
संविधान का चेहरा चूमकर नीला कर देते हैं

स्कूल जाने वाले बच्चों को
नागरिकशास्त्र की मशीन में झोका जा रहा है
और जब वो बाहर निकलते हैं
तो उनके ​पांवों में पहिए जड़े होते हैं
उनके दिमाग में कुछ रंगीन​-​सा हमेशा रेंगता रहता है
वो तेज़ाब को पानी कहते हैं
और आंसू के चेहरे पर थूक देते हैं
गैरइरादतन ही मारते हैं सैकड़ों ​तितलियां
पक्षियों के पंख उखाड़कर ​हंसते हैं
और जब वो देश का नाम लेते हैं
तो शर्म आती है भूखे लोगों को

उनकी जमीन और सपनों की परिभाषा में
सम्भोग महकता है
जब वो खेलते हैं कोई खेल​ ​तो अश्लीलता ​हंसती है
और उनकी हथेली पर नाचने लगते हैं, सातों दिन, नंगे ही

चौराहों पर बात करते हुए लोग
अफवाहों को सांस समझ बैठे हैं
अगर अफवाह न हो तो वो खुद को मरा
और देश को उजड़ा हुआ मान बैठेंगे
इसलिए अफवाहों की फैक्ट्री
हर दिमाग में लगाने की परियोजना पर काम तेजी से चल रहा है
हर पढ़ा-लिखा आदमी खुद अफवाह में बदल रहा है

मैं जब उनसे कहता ​हूं, भूख
तो वो फसल सुनते है
मैं जब दर्द कहता ​हूं
तो वो मुझे देख ही नहीं पाते
मेरे शरीर में भाप और कांच घुलकर बहते हैं
और मैं न चाहते हुए भी पारदर्शी हो जाता ​हूं
सब साफ़ ​दिखता है आरपार
मेरे भीतर का किसी को कुछ नहीं दीखता
​जहां एक कैंसर दिनरात शतरंज खेलता रहता है

​यहां जिन लोगों के हाथों में देश है
उन्होंने इसे आड़ा, तिरछा, सीधा, उल्टा
हर तरह से गाया है
​गांधी उनके लिए गाय हैं
और भगत सिंह भात
उन्हें जब भी मौका मिला
या भूख लगी है
उन्होंने गाय का मांस और भात
खूब चाव से खाया है

थप्पड़ खाए हुए किसी आदमी की सूरत से
टपकते चावल के माढ़ पर
भिनभिनाती हुई ​मक्खियों की बोली में
मैंने प्रेम गीत सुना है
पर जब जब दुहराना ​चाहा है उसे
लोगों ने कहा कि
मैं पलायन गीत गा रहा हूं

मैं उस वक्त खुद को
किसी एक्सप्रेस रेल के जनरल डिब्बे में
टॉयलेट के पास गठरी​-​सा पड़ा पाता हूं
मेरे हांथों में एक पॉलिथीन की थैली होती है 
​जिसमें बाप की चिंताओं की ​पूड़ी
और ​मां के आंसुओं का चार होता है
मैं उसे खाता ​हूं ​​​​और भिनभिनाती हुई ​मक्खियों की तरह गाता ​हूं

छोटे कस्बों और गांवों का प्यार
चेहरों पर आंसुओं का दाग बन कर रह जाता है
महानगरों और शहरों का प्यार
किसी रात बेडशीट पर बहता है
और फिर लॉन्ड्री में धुल कर
फिर से बिछ जाता है

मैं इन सब के बीच
खुद की और अपनी कविता की पहचान तलाशता रहता ​हूं
कभी लगता है, मैं और मेरी कविता
किसी महंगी दवा का अजीब ट्रेडमार्क हैं
और कभी लगता है
नंगे पैर बहुत दूर से आ रहे किसी आदमी के पैरों की ​बि​वाई


​​एक नंगे आदमी की डायरी
कागज पर कुछ लिखकर मिटा देना
नाजायज़ संतानें पैदा करके मार देने जैसा होता है
और लिखे हुए को काट देना
अपने बच्चों का गला घोंट देने जैसा कुछ

मैं ये बात जानता हूँ
और इसे मैंने डायरी के आखरी पन्ने पर लिख दिया है
डायरी के बाकि पन्नों पर भी
मैंने यही लिखा है कि मैं हत्यारा हूँ
और तुम भी
और वो भी जिसे हम तुम जानते है
या नहीं भी जानते
हर कोई एक हत्यारा है

हर कोई एक चलता-फिरता कब्रिस्तान है
​जिसमें न जाने कितनी
नाजायज़ संताने ​दफ्न हैं

हर कोई एक जिन्दामकतल है
​जिसमें न जाने कितने
बच्चे मारे गए हैं
जिनके दिमाग में खिलौने
मुंह पर पहाड़ा
और हाथों में बिना ​नोंक वाली पेन्सिल थी
(​आंखों की बात मैं नहीं ​करूंगा. मुझे बच्चों की ​आंखों ​से डर लगता है)

जब हम नाजायज़ संतानें पैदा कर रहे होते हैं
बच्चों को मार रहे होते हैं
या डायरी लिख रहे होते है
तब हम बिलकुल नंगे होते है
बिलकुल​!​

कटी हुई पतंगों के पीछे
हवाएं रोते हुए भाग रहीं हैं
और अपने पीछे कदमो के निशान की जगह छोड़े जा रही हैं
टूटी हुई ​चूड़ियां
ढहे हुए घर
बिकी हुई दुकानें
खून के सूखे ​पपड़े
गुर्राती हुई भूख
फटे हुए कपड़े
सब कुछ पिघला देने वाली सर्दी
और सब कुछ जमा देने वाली गर्मी

हवाएं अपने ही क़दमों तले रौंदी जा रही हैं
वो रोते​-​रोते मर रहीं हैं
और मरते-मरते रो रहीं हैं

बिन हवाओं के जीना कितना सुखद होगा न!
धड़कनों और ​सांसों की जेल से बाहर
हरे मैदान में टहलने जैसा

बेहद कमज़ोर कविता के बेहद मज़बूत हिस्से में 
मैं तुमसे बता रहा ​हूं
कि तुम्हारे भीतर खून की जगह
गहरे काले राज़ बह रहे हैं
और मेरे भीतर एक ख़ामोशी है
जो लगातार बोल रही है
कोई उसे चुप क्यों नहीं करता​!​

एक जंगल है ​जहां आवाजों के बड़े-बड़े पेड़ हैं
और सन्नाटों के लंबे-लंबे रास्ते
मैं अकेला ​हूं तुम्हारे साथ
और तुम अकेले हो मेरे साथ

इसलिए सुनो!
तुम चले जाओ
मुझे खुद से बातें करनी ​हैं
मुझे हत्याएं करनी हैं
नंगा होना है
बिलकुल नंगा
मुझे डायरी लिखनी है
नाजायज़ संतानें पैदा करनी हैं
और उन्हें मारना है

जाओ तुम चले जाओ
मुझे ​सांसों के फंदों पर लटकना है
एकांत का ज़हर पीना है
और कुछ लिखते-लिखते मर जाना है

[अनुराग अनंत नए कवि हैं. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में शोध छात्र हैं.  अनुराग की कविताओं में एक अजीब और ताज़ा बेचैन कथ्य शामिल है. इन कविताओं का स्वरूप एक दफ़ा पुरानी भाषा और क्रांति की आवाजों की तरफ ले ज़रूर जाता है, लेकिन हम फिर-फिर लौट आते हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए गोरख पांडेय याद आते हैं, ठीक वैसे ही जैसे उनकी कविता 'एक झीना-सा परदा था' याद आती है. कहीं न कहीं, बेहद कठिन समय को बेहद सरल कथ्य के साथ बरतने की नयी और अचरज से भर देने वाली कोशिश हैं यह कविताएं. लगता तो यह भी है कि अनुराग कई जगहों पर अपना गुस्सा दबा गए. इस कवि को बुद्धू-बक्सा पर लाते हुए हमें ख़ुशी हो रही है. इन कविताओं के लिए हम अनुराग के आभारी.]

3 टिप्पणियाँ:

शचीन्द्र ने कहा…

शानदार

Unknown ने कहा…

हर कोई एक चलता-फिरता कब्रिस्तान है
​जिसमें न जाने कितनी
नाजायज़ संताने ​दफ्न हैं
वाह

सुनील चौधरी ने कहा…

बहुत ही प्रभावी कविताए भैया जी।