मंगलवार, 29 अगस्त 2017

विनोद कुमार शुक्ल और पंकज चतुर्वेदी : बातचीत के हिस्से



विनोद जी, आपके पहले कविता-संग्रह 'वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह' को पढ़ते हुए लगता है - ख़ास तौर पर उसमें बरती गयी भाषा और मिज़ाज से - कि आप शुरूआत में मुक्तिबोध के काव्य-संसार से, कविता के उनके एजेंडे से कुछ प्रभावित रहे हैं? 

यह बताना तो बहुत ज़्यादा मुश्किल है, लेकिन जैसा मुझे लगता है कि दूसरे की रचना मुझमें इस तरह नहीं होती कि मेरी रचना में अस्पष्ट रूप से भी शायद झलके, ऐसा गहरा प्रभाव मुझमें नहीं हुआ होगा शायद। लेकिन शुरूआत में जब मैं लिखता था, तो घर में इसका वातावरण था। एक चचेरे बड़े भैया भगवती प्रसाद शुक्ल ने दो खंडकाव्य लिख लिये थे। उन्होंने भाभी के गहने बेचकर इलाहाबाद जाकर छपवाया। बहुत बाँटने के बाद भी बड़ा बंडल लम्बे समय तक घर के कोने में पड़ा रहा। अम्मा कम उम्र में शादी होकर उस समय बंगाल से आयी, इसलिए गुड़ियों की गठरी में बंगाल की संस्कृति का प्रभाव भी बँधा हुआ आ गया था। उन्होंने बांग्लादेश में घर पर रहकर ही पढ़ाई की थी। शरतचंद्र, बंकिम, रवीन्द्र को तब से जानती थीं। 'दुनिया में सबसे अच्छी किताबें, पूछ-पूछकर ज़रूर पढ़ना!'-कहती थीं। 

शुरूआत में जब लिखना शुरू किया, तो दूसरों का मुझ पर स्पष्ट असर हुआ। भवानीप्रसाद मिश्र का -'मैं गीत बेचता हूँ' का 1953-54 में मेरी शुरूआती कविता पर असर हुआ। अन्य बड़े भैया श्री बैकुंठनाथ शुक्ल मुक्तिबोध को व्यक्तिगत जानते थे, पर मैं नहीं। भवानी प्रसाद मिश्र के असर देख भगवती प्रसाद बड़े भैया नाराज़ भी हुए। पर अम्मा कहती रहतीं- मुझे लिखना चाहिए। कहती थीं-' कभी अपने घर-ख़ानदान के बारे में ज़रूर लिखना!' मैं जब उनसे कहता- मैं लिखता हूँ, तो दूसरे का लिखा हुआ उसमें आ जाता है और ऐसे लिखने से मुझे डर लगता है। जवाब में वह कहतीं-'चाय या आटा छानने की अलग-अलग तरह की चलनियाँ होती हैं। अपने मन को चलनी जैसा बना लो! जब तुम लिखते हो, तो तुम्हारे मन में ऐसी एक चलनी बन भी जानी चाहिए कि जब तुम लिखो तो दूसरों का छनकर उसमें न आ पाये।'

और मैंने पढ़ना धीरे-धीरे कम करना शुरू कर दिया। लिखने के लिए पढ़ना बहुत ज़रूरी है। ''पढ़ना लिखने की ख़ुराक है''-मुक्तिबोध कहते थे। बड़े भैया ने कहा-कॉपी बना लो, लाओ, मैं इसमें कुछ लिख देता हूँ। पहली दो पंक्तियाँ उसमें लिखीं-'हुजूँमें बुलबुल हुआ चमन में किया जो गुल ने कमाल पैदा।' दो पंक्तियाँ और लिखीं-'उम्मीदें टूटने से बहुत सदमा पहुँचता है/उम्मीदें जो करेगा कम, उसे सदमे भी कम होंगे।'

फिर देखिये, मैं बार-बार यही कहता हूँ कि जो लिखना बिलकुल न जानता हो, मिट्टी का लोंदा हो, अगर कविता के किसी बहुत बड़े कुम्हार के हाथों में पड़ जाये- जैसे मुक्तिबोध राजनाँदगाँव आ गये, जहाँ का मैं हूँ, सगे बड़े भाई दंगू दादा, जो बहुत झगड़ा करनेवाले, बहुत ग़ुस्सैल थे, उन्होंने मुझे मुक्तिबोध से मिलवाया। कविता की दुनिया की शुरूआत के दरवाज़े से मुक्तिबोध मुझे अंदर ले गये। कविता की दुनिया में जैसे मैं उनके घर में चला आया। और कविता के संसार में मेरा जाना अपने घर में जाने जैसा भी था। मैं यहीं का होकर रह गया। कुछ लोग मुझे घरघुसना कहते हैं। लेकिन मैं अपने घर के अंदर का ख़ानाबदोश हूँ और इस ख़ानाबदोशी में, मैं जैसे कविता के संसार में घर के अंदर भटकता रहता हूँ।

आपके पहले कविता-संग्रह के बाद दूसरा संग्रह 'सब कुछ होना बचा रहेगा' लगभग ग्यारह साल के ज़रा दीर्घ अंतराल पर वर्ष 1992 में आया। क्या इसलिए यह संभव हुआ कि आप मुक्तिबोध से सर्वथा स्वायत्त अपना निजी मुहावरा गढ़ सके?

किसी साल दस कविताएँ भी लिख लेता था, तो मुझे लगता था कि मैंने बहुत लिख लिया। रही बात स्वायत्त होने की, तो मुक्तिबोध कविता के एक ऐसे स्थान पर थे, जहाँ कोई आसानी से नहीं पहुँच सकता था। वह कठिन स्थान था। मुझे लगता था कि अगर मुक्तिबोध बहुत दूर हैं, वहाँ पहुँचना मुश्किल है, कभी थोड़ी देर, कभी ज़्यादा समय उनके कुछ पास रह लेता था। अगर प्रभाव पड़ता है, तो स्वाभाविक है। मेरी उपलब्धि क्या है? मैं भुलक्कड़ क़िस्म का आदमी हूँ। रचना किसी दूसरे की लिखी हुई मुझे याद नहीं रहती और मेरी अपनी भी लिखी हुई याद नहीं रहती। मेरी भूल जाने की आदत शायद इसका कारण हो कि मैंने, जैसा आप कह रहे हैं- अपनी कोई मौलिकता पा ली हो। 

कुछ रचनाकारों और आलोचकों का यह मानना है कि बीसवीं सदी के आख़िरी दशक में दुनिया में सोवियत संघ और पूर्वी योरप की साम्यवादी व्यवस्थाओं के पराभव के नतीजे में हिंदी का रचनात्मक साहित्य इधर के वर्षों में भारतीय परम्परा से अधिक संबोधित रहा है। क्या आपको ऐसा लगता है? 

यह तो आलोचक या दूसरे ही बता सकते हैं, मैं तो जैसा था, वैसा ही रहा आया। हो सकता है, कोई बदलाव मुझमें आया हो, पर मुझे मालूम नहीं। 

आपके घर में एक सादगी है, अधबनापन, जैसे यह किसी आधुनिक ऋषि का घर हो। चहारदीवारी पर जाफरी लगी हुई है। कोई भव्यता, अलंकरण या उस तरह की आक्रामक साज-सज्जा नहीं, जैसी आजकल के घरों में होती है? 

यह तो मेरी आदत ही है। देखिये, मुझमें कुछ आदतें हैं। तब मकान में सवा लाख रुपये मैंने ख़र्च किये। मेरे लिए सवा लाख के हाथी जैसा था। सुदीप बॅनर्जी उन दिनों बस्तर के कमिश्नर थे। जब आते, तो इसे अधूरा बनता हुआ पाते और कहते थे कि आपने तो इसे बनाने की कई पंचवर्षीय योजना बना ली है और यह सचमुच पाँच साल में अधूरा बना। इसके लिए मैंने आवास-संघ से साठ हज़ार का ऋण लिया और अपनी पत्नी के सारे, सोने के गहने स्टेट बैंक में गिरवी रखके रुपये उधार लिये। उसे छुड़ाना मेरे लिए मुश्किल हो गया। तो बैंक मैनेजर ने सलाह दी कि कुछ पैसे जमा करके उतनी क़ीमत का सोना निकाल लें और उतने सोने को बेच दें। इसी क्रम से पूरा सोना बेचा। इसके बाद भी ऋण चुकता करने के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे देने पड़े। फिर भी यह अच्छा ही हुआ। वैसे यह मेरी आदत है कि बनते हुए घर देखना मुझे अच्छा लगता है और शादी हो जाने के बाद बनती हुई नई गृहस्थी देखना भी। मेरा यह घर पैंतीस-चालीस साल पहले बना था। 

मैं फिर वही बात आपसे जानना चाहूँगा कि दुनिया में समाजवादी ध्रुव के पराभव का हिंदी रचनाशीलता पर क्या असर पड़ा है? क्या इससे विदेशी साहित्य से हमारे रचनाकारों का संवाद कम हुआ है?

विदेशी साहित्य मैंने बहुत कम पढ़ा है, लेकिन जो कुछ भी विदेशी साहित्य पढ़ने की शुरूआत की, वे टॉलस्टॉय, चेखव, गोर्की जैसे लेखकों की पीपल्स पब्लिशिंग हाउस से बहुत सुंदर छपी हुई किताबें होती थीं और सस्ती होती थीं और इन्हीं लेखकों के नाम ज़्यादा सुने जाते हैं। नेहरू के ज़माने में लोग सोवियत संघ के ज़्यादा क़रीब रहे। मैं मुक्तिबोध के कारण भी। सोवियत संघ का विघटन होने से विचारधारा को तो झटका लगा और निराशा-सी हुई। मैक्सिम गोर्की की तस्वीर 1954 के आस-पास मैंने पहली बार बैकुण्ठनाथ शुक्ल की मेज़ पर देखी, जब मैं आठ-नौ या दस साल का था। 

विदेशी कविता मैंने बहुत कम पढ़ीं। 'तनाव' के अनुवाद पढ़ना अच्छा लगता है। कविता किस तरह लिखी जाती है, अच्छी कविता जब भी पढ़ता हूँ, सबसे पहले यही लगता है कि कविता का कभी कोई अंत नहीं है। 

कविता की आपकी अवधारणा या कसौटी क्या है, आपके लिए उसके प्रतिमान क्या हैं?

कविता को कविता की तरह होना चाहिए। मेरा मतलब है कि कविता में कविता होनी चाहिए। ठीक-ठीक बता सकना बहुत कठिन काम है, क्योंकि वह किस तरह से और कितनी होगी, इसका कोई अंत नहीं। लेकिन इसे पहचानने का एक ही तरीक़ा है कि कविता पढ़ें, जो कविता के नाम से लिखी गयी हैं और उसके अलावा भी पढ़ें, जिन्हें कविता के नाम से नहीं लिखा गया। लेकिन इन सारी जगहों में अगर कविता होगी, तो कविता दिख जायेगी। इसलिए उसकी कोई पहचान नहीं है। क्योंकि शब्द किस तरह से कम होंगे और अधिकतम अभिव्यक्ति किस तरह से होगी यह निश्चित नहीं है। कविता छोटी हो सकती है और लम्बी भी हो सकती है। कविता अगर लम्बी है, तो वह कविता से ही लम्बी होगी। कविता अपना शिल्प स्वयं लेकर के आती है। कविता का शिल्प निश्चित नहीं। उसी तरह जैसे कविता क्या होगी, यह भी तो निश्चित नहीं है। कविता का ऐसा कोई रास्ता नहीं है, जो निश्चित हो चुका हो कि इस रास्ते पर चलने से कविता मिलेगी। जहाँ संवेदना है, सुख-दुख है, मनुष्यता है या मनुष्यता ग़ैर-हाज़िर है, जहाँ कुछ है और कुछ भी नहीं है, वहाँ भी कविता हो सकती है। प्रत्येक कविता की पहचान अलग होती है। एक सी पहचान बताकर कविता को पहचाना नहीं जा सकता। कविता हिरण का झुंड नहीं, न झुंड का अकेला हिरण। कविता पढ़ाने का विषय कम पढ़ने का अधिक है। समझने का विषय है, समझाने का कम।

अथर्ववेद में तो समूची सृष्टि को ही विधाता का काव्य कहा गया है - देवता के काव्य को देखो, जो न कभी मरता है, न पुराना पड़ता है - ''देवस्य पश्य काव्यं, न ममार न जीर्यति !''

अगर कहीं कविता है, समझ लीजिये, चूँकि उपस्थिति कविता की हर जगह है, जहाँ रचयिता के द्वारा उसे उपस्थित किया जा सकता है, कविता की कोई सीमा नहीं है, लेकिन रचयिता की सीमा है। कई बार रचयिता की सीमा से ऐसा लगने लगे कि कविता की भी सीमा है। रचयिता के द्वारा केवल एक कविता ही सारी ज़िंदगी लिखी जा सकती है। या एक कविता को टुकड़ों-टुकड़ों में सारी ज़िंदगी लिख सकता है। लेकिन मैं यह मानता हूँ कि एक ज़िंदगी अगर एक ज़िंदगी का अनुभव है, जिसमें मिली-जुली बहुत-से लोगों की बहुत-सी ज़िंदगियाँ भी होती हैं। इस सीमा में रहकर रचयिता जो जितना भी लिखेगा वह एक ज़िंदगी-भर का होगा। अगर कुछ अतिक्रमण भी होता है, तो यह अतिक्रमण रचयिता का नहीं, कविता का होगा। अतिक्रमण समय का भी हो सकता है और इस अतिक्रमण में आज की कविता आनेवाले लगातार समय में आज की कविता ही रहती है। इसके अनेक उदाहरण हैं, रचयिता के और कविता के। कविता को जब आना होता है, कविता इस तरह से आती है कि हो जाती है। जब कविता को नहीं आना होता है, तो कितना भी, कितने प्रकार से भी उसके पीछे जाकर उसको पा लेना संभव नहीं होता और यह निश्चित है कि जब कविता होती है, तब होने के लिए कहीं भी हो सकती है और नहीं होने के लिए कहीं नहीं होती। लेकिन एक समय जो बार-बार जब-तब होता रहता है, तब यदि कविता हो जाती है कि इस समय यह कविता हुई है चाहे आप उसमें तारीख़ डाल दें, समय डाल दें कि कब हुई, परंतु कविता अपने होने को हर जगह हमेशा होती है।'

विनोद जी, एक कवि में आपके ख़याल से कौन-सी विशेषता सबसे अहम है, जो उसे श्रेष्ठ कवि बना सकती है?

इसमें-से कुछ भी ज़रूरी नहीं हो सकता जैसा लगेगा; क्योंकि क्या ज़रूरी है, यह बताया नहीं जा सकता। कविता होने के कोई भी कारण हो सकते हैं और कोई कारण होता भी ज़रूर है। लेकिन किस कारण से कविता होती है, यह बताया नहीं जा सकता। कविता के होने के कारण की खोज हो सकती है और ऐसा लग भी सकता है कि कविता इस कारण से हुई। लेकिन ठीक उसी कारण से कविता दोबारा नहीं हो सकेगी। 

मगर मुक्तिबोध, जहाँ तक मैं समझ पाता हूँ, आत्म-संघर्ष को आधुनिक रचनाकार के लिए लगभग अनिवार्य मानते हैं?

हाँ, यह तो है। देखिये, कविता को अपनी बराबरी में लाकर पाना चाहिए। मुक्तिबोध जी में जिस हद तक आत्म-संघर्ष था, तो उस आत्म-संघर्ष करते हुए में, चूँकि वह एक रचनाकार थे अपने को बचा पाने का एक कवि के या रचयिता के रूप में उनके पास कविता का ही सहारा था। मुक्तिबोध जी ने उस तरह से अपनी तरफ़ से कविता को पाने के लिए अपने जीवन के संघर्षों में जिस तरह के उनके जीवन के तराजू का एक पलड़ा था उसके संतुलन के लिए वे दूसरे पलड़े में अपनी कविता को रख देते थे। यही उनके जीवन का संतुलन था।

मुक्तिबोध ने अपने समूचे वजूद को दाँव पर लगा दिया था और व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि वाह्य यथार्थ और उसे अपनी रचना में रूपांतरित करने का जो भीषण दोहरा तनाव वह झेल रहे थे, उसी की परिणति उनकी जानलेवा बीमारी में हुई।....और फिर उनके न रहने पर हिंदी समाज को उनकी अहमियत का अंदाज़ा हुआ। इसी स्थिति पर डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है कि गोया 'महत्त्व के अभिज्ञान के लिए मृत्यु-बोध से कम का आघात काफ़ी नहीं!'

देखिये, यह तो चलन में है। ऐसा नहीं है कि यह उस समय की ही घटना है। मुक्तिबोध जी के साथ न मालूम किन कारणों के साथ में ऐसा हुआ। इसका कारण उनका संकोची स्वभाव भी हो सकता है। यद्यपि यह अचानक नहीं हुआ, होने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी, मुक्तिबोध जी के रहते शुरू हो गयी थी जब अचानक यह लगने लगा उनकी बीमारी से। ऐसा भी कि वह बचेंगे भी नहीं, तो उनकी तरफ़ से दौड़ पड़नेवाली सारी स्थितियाँ जो जहाँ पर, जैसी थीं, उनके पास होने लगीं। मुक्तिबोध जी के साथ में न्याय बहुत देर से हुआ। जो उनके साथ रहते हो जाता, तो मुक्तिबोध जी परिणामस्वरूप हमारे बीच में अपनी नई कविताओं के साथ शायद और दिन रहते।  

चूँकि आपका सृजन - कविता हो या कथा-साहित्य - प्रकृति के ज़्यादा क़रीब है, इसलिए यह जानने का मन होता है कि आज की ज़िंदगी में मशीनों का, ख़ास तौर पर टेक्नोलॉजी का जो लगातार बढ़ता हुआ हस्तक्षेप है, उसे आप किस तरह देखते हैं? यानी उसके दख़ल से मानवीय संवेदना और कर्मण्यता को हो रहे नुक़सान के अर्थ में?

उसे हस्तक्षेप न कहें, टेक्नोलॉजी की उस तरह की आदत न होने की वजह से हम टेक्नोलॉजी पर आश्रित न होकर स्वयं पर आश्रित होते हैं, जो आसान है। टेक्नोलॉजी समय बचाकर अपने तरीक़ों से आपकी सहूलियत को और आसान कर देती है। टेक्नोलॉजी के द्वारा मिली सहूलियतें तकनीकी तौर पर बहुत सेंसिटिव और अलग होती हैं। इस संवेदनशीलता की वजह से गड़बड़ियाँ भी बहुत हो जाती हैं। एकबारगी अपनी आदतों को टेक्नोलॉजी की तरफ़ मोड़ देना पहले कठिन होता है। जबकि हम जैसे लोग, जो उम्र के आख़िरी दौर पर टेक्नोलॉजी के साथ चल नहीं पाते। बाद की सभी पीढ़ियाँ टेक्नोलॉजी के साथ-साथ होती हैं; क्योंकि नयी टेक्नोलॉजी का सम्बन्ध नयी पीढ़ी के साथ सीधे-सीधे जुड़ा हुआ होता है। 

लेकिन उसके हस्तक्षेप से संवेदना के नुक़सान की जो बात आप कर रहे हैं, हो सकता है, टेक्नोलॉजी का असर उस तरह होता हो। मेरा मतलब यह है कि अगर टेक्नोलॉजी ने मनुष्य के कार्य से मनुष्यता को कम करना शुरू कर दिया, तब तो यह ठीक नहीं। टेक्नोलॉजी से शारीरिक कर्मण्यता या मेहनत कम हुई है, जिसकी भरपाई कुछ और मेहनत से हो सकती है।

अभिव्यक्ति का जो एकदम नया लहजा आपने आविष्कृत किया है, वह इतना अनूठा है कि कह सकते हैं कि हिंदी में आपका कोई पूर्वज नहीं है और समकालीन भी नहीं? यानी वे अगर हैं भी, तो उनके प्रभाव से आप अछूते रहे हैं?

मैं अनुवाद में विदेशी कवियों की कविताएँ पढ़ता हूँ, तो वे मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। जब अनुवाद में अच्छी लगती हैं, तो मूल भाषा में कितनी अच्छी होती होंगी! कविता तो कविता की ही तरह होती है। लेकिन वह क्यों कविता की तरह है? 

कविता की रचना करना बौद्धिक काम है। इसमें रचनाकार शब्दों को शतरंज की गोटियों की तरह कविता पाने में इस्तेमाल करता है ताकि वह अपनी अभिव्यक्ति को शह की स्थिति तक पा सके। और ‘अभिव्यक्ति’ शब्दों की चाल से बने वाक्यों के घेरे बंदी के शिल्प या कौशल से होती है। अभिव्यक्ति को सफलता तक ले जाने वाले सामान्य शब्द भी अपनी ताकत को नये अर्थों में पाते हैं। अभिव्यक्ति सच्चाई की सौम्य स्पष्टता है। किसी भी भाषा की ताकत यही है कि भाषा की अभिव्यक्ति किस तरह की और कितनी? एक कविता लिखना एक लंबा सफर है, चाहे कविता कितनी भी छोटी हो। कविता कभी महीनों नहीं लिखाती और कभी जल्दी हो जाती है। जल्दी हुई कविता भी सोच में लंबे समय का सफर तय कर चुकी होती है। कविता के विचार में लिखते समय शब्द जीवंत होकर कविता होने को कविता होने की तरफ आते हैं। व्याकरण का पहरा कविता में उतना नहीं होता। भाषा की छूट मिल जाती है। कविता, भाषा की एक स्वतंत्रता भी है। कविता में शब्द वाक्य के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से बढ़ते हैं, क्योंकि जो कहना है वह तो मालूम नहीं और उसे ढूंढकर पाना है। 

रचनाकार अपनी रचना से उसके हो जाने के बाद अलग हुआ रहता है। और जब भी वह अपनी हुई रचना से रचनाकार की तरह जुड़ना चाहेगा तो वह रचना को दुबारा रचने की कोशिश करेगा। 

रचना प्रक्रिया में रचनाकार शब्दों के पदचिह्नों से चलता है। और शब्द के ये पदचिह्न कविता के रास्तों पर चलते हुए बदलते जाते हैं। जब पदचिह्नों में ठहर गये शब्द पूरे रास्ते होते हैं तब कविता अपने होने के पूरे साथ होती है। 

पाठक रचना के अपने अनुभवों के कारणों से कविता के समीप जाने की कोशिश करता है। जितने समीप वह जा सकता है। रचना हो जाने के बाद भी रचनाकार एक पाठक की तरह अपनी कविता को पढ़ता है। और इस पढ़ने और लिखने के तब और अब में फर्क हो जाता है। वह, संभवतः अपनी ही कविता के समीप कई तरह से होता है। लेकिन, उस तरह से नहीं जिस तरह वह उस रचना के होने के समय होता है। 

कवि जब भी अपनी रचना से रचनाकार की तरह जुड़ना चाहेगा तो वह रचना को दुबारा रचने की कोशिश करेगा। और यह भी होता है कि रचनाकार दूसरों की कविताओं को पाठक की तरह भी नहीं रचनाकार की तरह पढ़ सकता है। जैसे वह कविता को पढ़ते हुए अपने तरीके से कुछ पंक्ति इधर-उधर कर अपनी तरह भी बनाकर पढ़ने में कविता को पा लेता है। 

अभी आपने कहा कि विदेशी कवियों की कविताएँ आपको बहुत अच्छी लगती हैं। उनके कुछ नाम बतायेंगे?

नाम मैं भूल जाता हूँ। नाम मुझे याद नहीं रहते। 

हिंदी कवियों में आपको कौन-से कवि पसंद हैं?

मुक्तिबोध, शमशेर, विष्णु खरे और अशोक वाजपेयी की भी अच्छी लगती हैं। बहुत से कवि हैं जिनकी कोई-न-कोई कविता मुझे अच्छी लगती है। लेकिन कितनी कविता अच्छी लिख पाने के बाद भी कोई कवि अच्छा कहलाता है, यह बतलाना तो मुश्किल है। लेकिन तब भी यह तो कहा जा सकता है कि अगर किसी ने एक भी अच्छी कविता लिखी, तो उसकी पहुँच अच्छी कविता तक तो है। हिमालय की चोटी पर सभी पर्वतारोही हमेशा तो नहीं होते। कोई एक बार होता है, कोई दूसरी बार होता है, बहुत-से लोग एक साथ शिखर पर नहीं होते, इक्का-दुक्का ही होते हैं। कोई कभी, तो कोई कभी। लेकिन जो अच्छे कवि होते हैं, वे अपना शिखर बना लेते हैं, जहाँ वे होते हैं और अपने होने में बने रहते हैं। जहाँ बहुत-से लोग इकट्ठे हों, वहाँ पठार होता है। शिखर में इतना तो बचा ही होता है कि वहाँ केवल एक ही हो सके!

हिंदी कविता में आपकी नज़र में शिखर पर कौन है?

मुक्तिबोध हैं। और शमशेर, लेकिन शमशेर भी मुक्तिबोध की तुलना में नहीं हैं। मुझे ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध अकेले हैं। 

केदारनाथ सिंह और रघुवीर सहाय आपको कैसे कवि लगते हैं?

मुझे लगता है कि केदार जी विस्मय-बोध के बड़े कवि हैं। उनकी कविता जब पूरी होने को होती है, तो कवि के विस्मय से होती है। वही विस्मय पाठक का विस्मय होता है। केदार जी में अगर यह विस्मय न हो, तो उनकी कविता केदार जी की कविता नहीं लगेगी। यूँ समझ लें कि केदार जी अपनी कविता को धीरे-धीरे बहुत ऊँचाई पर पाठक को ले जाकर ‘विस्मय’ की छतरी देकर छोड़ देते हैं। पाठक को कभी डर लग सकता है कि छतरी नहीं खुली तो, पर छतरी खुल जाती है। और हम कविता से संतुष्ट होकर उसे धरातल तक पा जाते हैं।

रघुवीर सहाय मुझे बहुत-सी अच्छी कविताओं के कवि नहीं लगते। परंतु जैसा कि मैंने आपसे कहा कि अगर कोई एक भी अच्छी कविता लिखता है, तो उसकी पहुँच अच्छी कविता तक है। 

हिंदुत्व के बारे में आप क्या सोचते हैं? जो लोग संविधान की दृष्टि से भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के बल पर राजनीति करते रहना चाहते हैं, वे यह दावा भी करते हैं कि हिंदुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन-शैली है?
पता नहीं क्यों, मुझको आँगन में दिया का जलना बहुत अच्छा लगता है। इसका सीधे-सीधे मतलब है तुलसी के गमले या चौरे के पास, यह दिये के जलने का जो दृश्य है, बचपन से मुझे जोड़ता है, परंपरा से जोड़ता है। इस बात का एहसास दिलाता है कि मैं पहले जैसा थोड़ा-सा बचा हुआ हूँ। और पहले जैसा बचा होना ही परम्परा है। दूसरा होने के लिए यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि आप परम्परा को छोड़कर अलग हो जायें। लेकिन एक बात ज़रूर है मेरा बचपना ईश्वर है के साथ में शुरू हुआ था, फिर बार-बार ईश्वर है कि नहीं जैसी स्थिति में तर्क करता हुआ बाद का जीवन। फिर बीच-बीच में ऐसा भी लगने लगा कि ज़िंदगी में ईश्वर है कि नहीं की जगह ईश्वर नहीं है की जगह बनने लगी है। उदाहरण के लिए अगर मेरी पत्नी मुझे मंदिर जाने के लिए कहती है, तो उसे मैं मंदिर लिवा ले जाता हूँ। वह मुझसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने के लिए कहती है, तो मैं प्रार्थना भी करता हूँ। हम एक ही जगह खड़े होते हैं, परन्तु उसकी प्रार्थना ईश्वर है की जगह में है, जिसके सामने ईश्वर की मूर्ति है; उसी के सामने मैं भी खड़ा हूँ और सोचता हूँ कि ईश्वर नहीं है की जगह पर खड़ा हूँ। और मैं ईश्वर नहीं है की जगह में प्रार्थना करता हूँ कि मुझे एक अच्छा आदमी बना दे!

हमारे समय में दुनिया के मशहूर वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग ने हाल में कहा है कि ईश्वर नाम की किसी चीज़ का कोई वजूद नहीं है। कुछ विचारक यह भी कहते हैं कि प्रकृति की शक्तियों से हमारे पूर्वजों को जो भय लगता था, उससे उबरने के लिए उन्होंने ईश्वर की कल्पना की। आपका मंतव्य क्या है?

जब डर लगता तब मेरी बड़ी बहन कहती थीं, 'हनुमान चालीसा' पढ़ो! कई बार अम्मा रामलीला देखने चली जाती थीं। अम्मा पास में नहीं होतीं तब मच्छरदानी में टँगी हुई अपनी क़मीज़ देखकर डर जाता था कि भूत है। शर्मीला, डरपोक बहुत था। मेरा बचपन का एक दोस्त था, भीड़ू। साथ में पढ़ता था, बाद में पिछड़ने लगा। पिता की पान की दुकान थी। भीड़ू अपनी माँ को बहुत मारता था। उसके पिता भी। मैंने बहुत अजीब क़िस्म का अत्याचार देखा। माँ का रंग साफ़ था, गोरा। उनकी नज़र हमेशा सहमी हुई रहती थी। उनका चेहरा तपाया हुआ-सा चेहरा था। समझ नहीं आता था। बाद में मैंने देखा कि जब वह रोटी सेंक रही थीं, कल के दिनों की आटे की लोई छप्पर में खुँसी हुई देख भीड़ू के पिता अचानक नाराज़ हो जाते। सिंकती हुई रोटी जैसे ही फूलकर निकलती वे उस रोटी को भीड़ू की माँ के मुँह में रोटी को फिरा देते। ऐसा मैंने कई बार देखा। कई बार भीड़ू भी पिता का साथ देते हुए अपनी माँ के मुँह में गरम रोटी मुँह में फिरा देता। फिर हम अलग भी हो गये, दोस्ताना नहीं रहा। मेरा मतलब बड़े होने लगते हैं तब यथार्थ भी बहुत डराता है। हमारे एकांत में भूत प्रेत एक यथार्थ था। तब ईश्वर उबार सकता था कि भीड़ू की माँ को बचा ले। 

आपने भीड़ू से पूछा नहीं कि वह ऐसा क्यों करता था?

उसने बताया कि उसकी माँ आटे का बहुत नुक़सान करती है। ज़्यादा आटा सानती थीं, कम पड़ जाने के भय से, छप्पर या टीन की पेटी में कहीं भी छिपा देती थीं। श्यामलाल पिता थे। उनकी पहली पत्नी मर गईं थीं, दूसरा विवाह किया था। पिता की मृत्यु के पहले भीड़ू की मृत्यु हो गयी। श्यामलाल के पैरों में बिवाइयाँ बहुत होती थीं। वह बेटे से कहता था कि उसकी मरी हुई चमड़ी को नोचकर निकाल दे! तकलीफ़ होने पर लात से धक्का मारकर ज़ोर से गिरा देता था।

आपकी एक कविता में नैरेटर या वाचक बिलासपुर में समाप्त होनेवाली 'छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस' में सवार है और बीच में वह ट्रेन देर तक खड़ी रह जाती है, बग़ल से एक दूसरी ट्रेन आती है और सारे यात्री उतरकर उसमें चले जाते हैं। एक बूढ़ा यात्री नैरेटर से कहता है: 'तुम भी उतर जाओ / अब अगले जनम पहुँचेगी यह गाड़ी।' फिर भी वाचक उस गाड़ी से नहीं उतरता और उसका बयान है: ''मैं गाड़ी में बैठा रहा / दो-चार स्टेशन बाद मुझे राजनाँदगाँव उतरना था / जहाँ मेरा जन्म हुआ था।'' कविता अंत में एक अप्रत्याशित अर्थ को ध्वनित करती है कि जैसे आपका कवि अगले जन्म में भी राजनाँदगाँव को ही अपनी जन्मभूमि रखना चाहता है?

जी हाँ। इस कविता में उस तरह की बात है। कि, रेलगाड़ी में बैठे हुए हैं, जो अटकते-अटकते चलती है। ज़्यादा रुकती है, देर हो जाती है। पहुँचने की जल्दी रहती है। उसी दिशा में जानेवाली दूसरी तेज़ गाड़ी में लोग बैठ जाना तब पसंद करते हैं, एक बूढ़ा व्यक्ति भी। बूढ़े व्यक्ति का जीवन कम है। उसका अगले जनम में पहुँचने का कहना अधिकतम देरी को व्यक्त करता है। मुहावरा है। पर मेरा जन्मस्थान तो राजनाँदगाँव है। जो गाड़ी अगले जनम में राजनाँदगाँव पहुँचेगी मैं उस गाड़ी को नहीं छोड़ता। जिस अर्थ में कविता लिखी जाती है, उसी अर्थ में पाठक को मिले, यह बहुत मुश्किल होता है। स्वयं कवि कुछ समय बाद पढ़े, तो जिस अर्थ में उसने कविता लिखी है, शायद वही अर्थ वह जान न पाये, उसके सामने कोई दूसरा अर्थ कहने को आये, तब वह उसे सुधारने की कोशिश करे। मुक्तिबोध जी भी सुधार करते रहते थे। कविता का प्रकाशित हो जाना कविता के बार-बार सुधारे जाने की संभावना को समाप्त करता है या कम करता है। यदि कविता प्रकाशित नहीं होती, तो उसे सुधारने की संभावना बची रहती है। प्रकाशित को सुधारने के नाम पर प्रायः दूसरी कविता शुरू हो जाती है।

आपका सबसे प्रिय मानवीय गुण क्या है?

मेरा उत्तर है प्रेम। प्रेम का मतलब केवल स्त्री-पुरुष-प्रेम से नहीं, सम्बन्धों का प्रेम है, स्थितियों का है, कारणों का है, जिनसे मिल-जुलकर साथ की बात बनती है। 

आपकी सबसे प्रिय चीज़ क्या है?

प्रिय चीज़ें इतनी ज़्यादा हैं कि सबसे प्रिय किसी एक चीज़ को बताकर मैं उन सारी चीज़ों से अलग नहीं होना चाहता। फिर भी बताना ही हो, तो किसी की कठिनाई में, किसी की सहायता के लिए, किसी अनजान का तत्पर होकर सहायता कर देना मुझे सबसे प्रिय है। 

सर्वाधिक नापसंद आपको क्या है?

हिंसा, जो इस प्राणी-जगत् में केवल मनुष्य करता है। जिन जानवरों को हम हिंसक जानवर कहते हैं (या उनकी हिंसा), यह उन जानवरों का पेट भरना होता है। और मेरा यह मानना है कि 'हिंसा' शब्द केवल मनुष्यों के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वही एकमात्र प्राणी है, जो हिंसक है। मनुष्य को इस संसार से नष्ट होने का सबसे बड़ा ख़तरा केवल मनुष्य है। यह जो पृथ्वी है, किसी प्राकृतिक दुर्घटना से नष्ट नहीं होगी, इसकी संभावना अरबों वर्ष दूर हो सकती है। लेकिन पृथ्वी के मनुष्य के द्वारा पूरी तरह नष्ट हो जाने की संभावना कभी भी हो सकती है। 

आपने इस बातचीत में पहले बताया है कि मुक्तिबोध आपके लिए बीती अधसदी से हिंदी के शीर्ष कवि हैं। तो उनकी कौन-सी कविता आपको सबसे प्रिय है?

यह भी बताना मुश्किल है, क्योंकि कविता के साथ में यह हमेशा होता है कि कब कौन-सी कविता आपको बहुत अच्छी लगती है, इसमें कविता की समझ के साथ-साथ परिस्थितियाँ भी कारण होती हैं। एक चीज़ मुझे हमेशा लगती है, जिस तरह कविता का पाठक अच्छी कविता को पढ़ने की, जानने की कोशिश करता है, तो यह ढूँढ़ना केवल पाठक कीतरफ़ से नहीं होता, यह मान लें कि कविता भी अपना पाठक ढूँढ़ती है। कब कौन मिलेगा, जब जो भी मिले, कविता या पाठक, यह वैसा ही होगा कि वे एक-दूसरे को ढूँढ़ते हुए ही मिलें और इस ढूँढ़ने में सहायता देनेवाले रचयिता हर समय बहुत होते हैं। पाठक उस रचयिता को चुन लेता है, जो उसे अपनी अधिक-से-अधिक अच्छी कविताओं से परिचित कराता है। कोई किताब की दुकान में इस तरह नहीं जाता कि मुझे एक अच्छी कविता की किताब चाहिए, बल्कि जाता है और कहता है कि मुझे मुक्तिबोध की कविता चाहिए। 

आपके दृष्टि-बिंदु से प्रेम और सौंदर्य में क्या फ़र्क़ है? या क्या रिश्ता है?

सौंदर्य तो वह है, जो एक ऐसा मानदंड बनाता है, जिसमें सौंदर्य वाक़ई सुंदर होता है। लेकिन प्रेम में सौंदर्य प्रेम से दिखता है, सौंदर्य से सुंदर उसमें कुछ भी नहीं होता। जिससे प्रेम होता है, उसकी सुंदरता को देखकर नहीं होता ; बल्कि जिससे प्रेम होता है, वह बहुत सुंदर लगता है। एक कविता है मेरी, 'एक सुंदर स्त्री को देखना / सौंदर्य को सुंदर देखना है।' 

आपकी रचना में मार खाती हुई एक भूखी बच्ची जब ज़ोर से चीख़ती है, तो  'संसार की बोलियों में सन्नाटा 'छा जाता है। भाषा और अत्याचार में क्या रिश्ता आप देखते हैं?

भाषा और अत्याचार का रिश्ता तो यही है कि अत्याचार में चीख़ होती है और चीख़ की कोई भाषा नहीं होती। 

कविता क्या वही महत्त्वपूर्ण होती है, जो किताबों की बजाए आस-पास फैले वृहत्तर जीवन को प्राथमिक मानकर चले, उसे एक चैलेंज की तरह स्वीकार करे?

आपका यह कथन भी महत्त्वपूर्ण है। बिलकुल। कविता तो जीवन की ही होती है, बल्कि कविता तो सामूहिक जीवन की होती है। अगर मैं अपनी कविता लिखता हूँ, तो लोगों को लगे कि यह उनकी अपनी कविता है। लोगों से बात करने का यही एकमात्र तरीक़ा है। अगर मैं कविता में ‘मैं’ से शुरूआत करता हूँ, तो पाठक को लगना चाहिए कि वह मैं स्वयं है। कविता हमेशा अपनी कविता समझकर ही मिलती है, भले वह दूसरों की कविता हो। 

एक कवि या लेखक के निर्माण में जगह की, यानी उसके रहने के स्थान की क्या भूमिका होती है? क्या बड़े महानगरों, साहित्य की राजधानियों, शक्ति-पीठों में बसना रचनाशीलता के विकास या उसके प्रभुत्व और प्रसार के लिए ज़रूरी है?

मेरा ख़याल है कि मुक्तिबोध जी का उदाहरण लेकर देखें! वह ऐसे केन्द्रों में नहीं रहे। आखिरी समय नाँदगाँव में बीता। और अब नाँदगाँव को मुक्तिबोध के कारण भी जाना जाता है। और यह चर्चा दिल्ली जैसी साहित्य की राजधानी से कम नहीं। मुक्तिबोध जी की चर्चा महानगरों में न रहने के बाद भी है। अगर मुक्तिबोध दिल्ली में रहे होते तो वे नाँदगाँव की तरह रहे होते। दिल्ली में कोई नहीं जान रहा होता। हो सकता है दिल्ली में रहने वालों को वहाँ के दूतावासों के कारण विदेशों तक की पहुँच बन जाती हो! मुक्तिबोध जी विदेश कभी नहीं गये।

और मुक्तिबोध जी जहाँ-जहाँ भी रहे, उस जगह को जाना गया। शुरूआत के दिनों में भी वह साहित्य के महानगरों से दूर रहे। मुक्तिबोध जी, अपनी रचनाओं से जाने गये। यह कोई ऐसी आवश्यकता नहीं है कि लिखने के लिए ऐसी जगह हो, जिससे पहुँच दूर-दूर तक हो या रचना को दूर पहुँचाने की वहाँ कोई दिशा मिलती हो। हो सकता है, अगर वह दिल्ली जैसी जगह में रहे होते, तो कुछ कारण बनता कि सारा संसार उनको जानता। पर, मुक्तिबोध जी का स्वभाव ऐसा था ही नहीं कि किसी जगह में होने के कारण उनका साहित्य दूर तक दिखायी दे। उनका स्वभाव था ही नहीं कि वह अपने को या अपने साहित्य को जतलाने की कोशिश करते। परन्तु उनके मित्रों में, जिनके साथ उनका पत्र-व्यवहार था, जिनसे वह अपने सुख-दुख की बातें किया करते थे, वे महानगरों के भी थे।

[इस बातचीत का एक बड़ा स्वरुप तद्भव में प्रकाशित हो चुका है. हम कुछ बीन-बीनकर यहां रख रहे हैं एक बड़े कारण की आड़ में कि - हिन्दी अब पहले से कुछ ज़्यादा वेब है. और इस परिस्थिति में हम बुद्धू-बक्सा के लोग, आगे की रणनीति पर लगातार काम कर रहे हैं. इसे बहुत पहले आ जाना चाहिए था लेकिन हम समाज से विपन्न तो नहीं हो सकते हैं, इसलिए हमने समाज की विकटता को 'पहले आप' कहकर सतत आने दिया. विनोद कुमार शुक्ल और मुक्तिबोध दोनों ही ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी पूरकता चौंका देती है. शायद इसीलिए यह बातचीत 'विनोद कुमार शुक्ल' से ज्यादा 'मुक्तिबोध' है. और कमाल कि यह उनके काव्य जितना ही सरल और गद्य जैसा साफ़ है. लेकिन विषयांतर और दुहराव भी है जिसके लिए इसे संभव बनाने वाले पंकज चतुर्वेदी खुद कहते हैं कि "तो उसे 'विचार के अंतर्गत समग्र जीवन ही था' - विषय की इस मुक्त समझ से प्रतिश्रुत माना जाय." इसे सामने रखते हुए अच्छा लग रहा है. हम इसके लिए आदरणीय पंकज चतुर्वेदी के आभारी हैं.]

1 टिप्पणियाँ:

Aditya Shukla ने कहा…

बहुत ही बढ़िया साक्षात्कार। हमारे साथ वेब में साझा करने के लिए बुद्धू बक्सा का धन्यवाद।