[इसे लिखा गया है तो कवि से ज्यादा जूझना हुआ है, उसकी काव्यजिजीविषा से जूझना हुआ है और तो और वे कन्टेक्स्ट हैं जिनमें कवि जीवन के उत्पाद गहरे शामिल हैं. असद ज़ैदी का काव्य बेहद लम्बी दूरी तक साथ चलता है. उसके सन्दर्भ बेहद मुस्तैदी और तैयारी के साथ आपके रोजनामचा में आयातित होते हैं. कविता की मौजूदा पीढ़ी में ऐसे लोग कम हैं. कविताएं दिनोंदिन संवेदनात्मक कम और वैज्ञानिक ज्यादा होती जा रही हैं. यह बुरा नहीं, लेकिन कोई अच्छा भी तो नहीं. अविनाश मिश्र ने यह गद्य लिखा है. इसमें कुछ बिंदु छूट गए हैं, उन पर बात आगे हो सकती है. या समानांतर भी हो सकती है. इस आलेख के लिए बुद्धू-बक्सा अविनाश मिश्र का बेहद आभारी. कवि का चित्र नलिनी तनेजा द्वारा.]
असद ज़ैदी की कविताएं उसके अनुराग का संसार हैं। इन कविताओं पर लिखने की उसकी सारी कोशिशों को भाववादी आलोचना के खाते में डाला जा सकता है। हिंदी आलोचना की अकादमिक शैलियों में असद को अब तक समझा नहीं गया है और उसका ख्याल है कि गालिबन समझा भी नहीं जा सकता। वह अब एक घोर राजनीतिक कवि हैं। इतने घोर कि कोई राजनीतिक विचलन उनकी कविताओं में कहीं भी खोजा नहीं जा सकता। राजनीतिक रूप से सही होने के स्तर पर इतना संतुलित या सख्तजान होना, हिंदी में कविताओं को बेजान करता आया है। इस पर हैरत न हो तो और क्या हो कि असद के साथ ऐसा नहीं है और वह इस मामले में बतौर एक अपवाद हिंदीकवितासंसार में संलग्न और सक्रिय हैं।
वह असद ज़ैदी की कविताओं के अनुराग में तब पड़ा, जब वह अपनी बहनों को घुटन भरी स्थानिकताओं में छोड़ एक नई नागरिकता में बसने लगा। वह प्रभात की एक कविता ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ का ‘मैं’ था :
‘‘उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एक बार भी नहीं बुलाया
ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया’’
असद ज़ैदी की कविता ‘बहनें’ एक दोस्त की डायरी में पढ़कर वह रोने लगा था। यह रुदन बहुत देर तक धीमे-धीमे होने वाली बारिश सरीखा था। यह आस्वाद की अत्यंत भावुक और संवेदनशील पद्धति है, इसका गैर-भावुक शाब्दिक प्रकटीकरण इसे असंवेदनशील और गैर-ईमानदार बनाकर रख देगा। वह चाहता है कि प्रभाव का सार्वजानिक प्रकटीकरण उतना ही ईमानदार हो जितना जलती जमीन पर नंगे पांव खड़े आदमी के चेहरे की रेखाएं होती हैं। ईमानदारी कम या बहुत नहीं होती, वह बस होती है। वाक्य बनाना सीख चुके अकादमिक जिज्ञासु और विचारधाराग्रस्त व्यक्तित्व सबसे पहले इस ईमानदारी को ही निरस्त करते हैं। उनका प्रकटीकरण आस्वादेतर घालमेल से तैयार किया गया होता है। उनकी दिलचस्पी रचना के मर्म तक पहुंचने में कम, सैद्धांतिक-वैचारिक जुगाली या फरेब में बहुत होती है।
वह ‘बहनें’ पढ़कर रोया था और वह यह मानता है कि रुला देने वाली रचनाएं आलोचना की चालू पगडंडियों से परे होती हैं। इस प्रकार की रचनाएं बहुत तर्काधारित विश्लेषणों से अलग जाकर जिंदगी में कुछ इस कदर जज्ब हो जाती हैं कि उन्हें जीते-जी उनके आस्वादक से अलग नहीं किया जा सकता।
वह ‘बहनें’ पढ़ चुका था और अन्य कविताएं खोज रहा था। लेकिन यह उस दौर का बयान है, जब असद ज़ैदी के तब तक शाया दोनों कविता-संग्रह — ‘बहनें और अन्य कविताएं’ और ‘कविता का जीवन’ — अनुपलब्ध हो चुके थे। दो दशक से भी ज्यादा खिंची इस अनुपलब्धता के दिनों में उसके नजदीक ऐसी लाइब्रेरियां और ऐसे दोस्त नहीं थे जो इस अन्वेषण में उसकी मदद करते। वह उन दिनों सारी सृष्टि में सिर्फ दो ही लोगों से मिलना चाहता था, इनमें से एक असद ज़ैदी थे और दूसरे विष्णु खरे।
*
देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता कहती है :
‘‘रात में गूंजती थीं रेलगाड़ियों की आवाजें। दिन में भी। यह इस बात की सूचना थी कि लोग आ रहे हैं और शहर छोड़कर जा भी रहे हैं।
यह दंगों में शहर छोड़ने की बदहवासी थी या बलात्कार से बचने की आपाधापी या किसी मरणांतक पहचान से निजात पाने की उदग्रता या कि किसी बंधुएपन से मुक्ति की विकलता। कहीं पहुंचने की उम्मीद या उदासीनता।
कुछ तो था ही कि रेलगाड़ियों की आवाजें गूंजती रहती थीं। सुबहो-शाम। पूरे ब्रह्मांड में। चौबीसों घंटे।’’
वह उन दिनों जहां रह रहा था, वहां जब चाहे तब गुजरती हुई रेलगाड़ियों को देख सकता था। उनकी आवाजें सुन सकता था— रात-दिन... दिन-रात...
उसे यूं लगता कि जैसे वह बराबर किसी रेलवे स्टेशन पर है — कहीं से आया हुआ, कहीं जाने को तत्पर — विपत्तियों से घायल, विपत्तियों की ओर।
वह भर रात ट्रेन छूट जाने की आशंका से भरी नींद लेता। लेकिन जागता हर बार उस उद्घोषणा से जो बताती कि ट्रेन सही वक्त पर है, फलां प्लेटफॉर्म पर पहुंचें।
उसे लगता कि सही वक्त पर आती कोई ट्रेन ही उसे ले जाएगी उन सारी ट्रेनों तक जो उसे भविष्य में पकड़नी हैं।
यह ट्रेन अगर छूटी तो बाकी सारी ट्रेनों के आगे छा जाएगा कुहासा…
*
वह एक धुंध में नहाई हुई ठंडी तारीख थी जिसमें वह नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर सोलह पर खड़ा था। वह कहीं से आया जरूर था, लेकिन उसे अब जाना कहां है यह साफ नहीं था। असद ज़ैदी की कविता ‘संस्कार’ उसने इस असमंजस के कुछ बाद में पढ़ी, लेकिन वह घटित उसके साथ कुछ पहले हुई :
‘‘बीच के किसी स्टेशन पर
दोने में पूड़ी-साग खाते हुए
आप छिपाते हैं अपना रोना
जो अचानक शुरू होने लगता है
पेट की मरोड़ की तरह
और फिर छिपाकर फेंक देते हैं कहीं कोने में
अपना दोना।
सोचते हैं : मुझे एक स्त्री ने जन्म दिया था
मैं यों ही दरवाजे से निकलकर नहीं चला आया था।’’
‘जाना कहां है’ की अनिश्चितता और अनिर्णय में डूबते चले जा रहे दिनों में उसने विष्णु खरे का बहुत पीछा किया। उसे लगता था कि विष्णु खरे के पास जरूर कोई ऐसा पता होगा, जहां इस बेचैन जिंदगी को ले जाया जा सकता है। दरअसल, हिंदी में हुए उन सारे महानुभावों को बारहा उसने बहुत हसरत और उम्मीद से देखा जिन्हें कवि-आलोचक कहकर पुकारा गया। केवल कवियों के पास भी रौशनी थी, लेकिन केवल आलोचक कहलाने वाले शख्स हिंदी में उसे बहुत जड़ और घृणायोग्य लगते थे। वे बहुत महत्वाकांक्षी, मौकापरस्त और मतलबी थे। ये अवगुण उन्होंने अपने एक नामवर सरगना से पाए थे।
बहरहाल, उसके ‘पीछे’ की उत्कटता उसे अंतत: विष्णु खरे के डेरे तक ले गई। जहां खुद और खुद से बाहर की प्राथमिक और जरूरी बातें जान और बता देने के बाद विष्णु खरे उससे बोले :
‘‘और कोई किताब जो तुम पढ़ना चाहते हो और यहां तुम्हें दिख रही हो तो तुम उसे ले सकते हो।’’
‘‘सर, कुछ हिंदी कवियों के पहले कविता-संग्रह पढ़ना चाहता हूं, लेकिन अब कहीं मिलते नहीं। साहित्य अकादमी लाइब्रेरी में भी नहीं।’’
‘‘जैसे?’’
‘‘बहनें और अन्य कविताएं।’’
‘‘जरा उठो और वहां जाओ फैक्स मशीन से थोड़ा उधर ‘ऋग्वेद’ के नीचे जो किताब है उसे निकालो।’’
वह किताब कुछ जर्जर हालत में थी, लेकिन यह जर्जरता उसके अविराम अन्वेषण को अविलंब विराम देने वाली थी। सुरेंद्र राजन के रचे आवरण की पीली आभा में स्याह रेखाएं और पैरहन लिए बहनें थीं और भीतर अन्य कविताएं भी। जयश्री प्रकाशन, दिल्ली। प्रथम संस्करण : 1980। मूल्य : 25 रुपए। ब्लर्ब के दूसरे हिस्से पर युवा असद ज़ैदी : जन्म – 31 अगस्त 1954, करौली, राजस्थान में। इस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अध्ययनरत। शुरू में कुछ कहानियां लिखीं जिनमें से कुछ प्रकाशित। समय-समय पर रंगमंच, कला तथा साहित्य संबंधी आलोचनात्मक लेखन। विदेशी साहित्य से अनेक अनुवाद। एक संपूर्ण उपन्यास ‘जागना रोना’ भी लिखा है। बीच के कुछ वर्ष पत्रकारिता, अनुवाद और छिटपुट नौकरियों में बिताए। 1975 से मुख्यत:, और नियमित रूप से, कविताएं लिखी हैं। यह पहली किताब है। संपर्क : 39, पेरियार, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067।
ब्लर्ब के पहले हिस्से पर जो टिप्पणी है उस पर किसी का नाम नहीं है, लेकिन वह अपनी भाषा से विष्णु खरे की लिखी हुई लगती है : ‘‘ये कविताएं जिंदगी के संपृक्त अहसास की कविताएं हैं— इनकी जड़ें बहुत गहरे लगावों से जिए गए जीवन में हैं। इसलिए ये आज की जिंदगी की तरह वैविध्यपूर्ण हैं और इस झूठ को फाश कर देती हैं कि प्रतिबद्ध कविता को एक-आयामीय ही होना चाहिए। इनसे कुछ भी छूटा नहीं है— अपने घर और परिवार से जटिल नाता, बचपन और कैशोर्य की स्मृतियां, बड़े होने और खुद के पैरों पर खड़े होने के प्रयत्नों की निर्मम, उद्घाटक प्रक्रिया, अपने वक्त और समाज, मित्रों, शत्रुओं, प्रियजनों की पहचान तथा एक द्वंद्वात्मक जीवनदृष्टि को अनुभवों और सबकों के रास्ते हासिल करना।’’
प्रिंट लाइन के ठीक ऊपर एक आत्म-स्वीकार : ‘‘इस संग्रह के लिए अंतिम रूप से कविताओं का चुनाव श्री विष्णु खरे ने किया है जिनका मैं शुक्रगुजार हूं।’’
समर्पण : शारका के लिए।
उसे उसमें ही खोया देख, विष्णु खरे ने कहा : ‘‘इधर ले आओ। तुम इसे ले जाना। लेकिन इससे पहले मैं तुम्हें इससे एक कविता सुनाता हूं :
कोयला हो चुकी हैं हम बहनों ने कहा रेत में धंसते हुए
ढक दो अब हमें चाहे हम रुकती हैं यहां तुम जाओ
बहनें दिन को हुलिए बदलकर आती रहीं
बुखार था हमें शामों में
हमारी जलती आंखों को और तपिश देती हुई बहनें
शाप की तरह आती थीं हमारी बर्राती हुई
जिंदगियों में बहनें ट्रैफिक से भरी सड़कों पर
मुसीबत होकर सिरों पर मंडराती थीं
बहनें कभी सांत्वना पाकर बैठ जाती थीं हमारी पत्नियों के
अंधेरे गर्भ में बहनें पहरा देती रहीं’’
...वह देखता है कि विष्णु खरे की आंखें भीगी हुई हैं और गला भी शायद इस कदर भर आया है कि आगे की कविता-पंक्तियां वह बोल नहीं पा रहे हैं। उनका चश्मा कुछ धुंधला गया है। वह थोड़ा रुककर कविता-संग्रह उसके आगे बढ़ाते हुए कहते हैं : ‘‘ले जाओ, तुम पढ़ना। मुझसे पढ़ी नहीं जाती यह कविता, दिल डूबने लगता है।’’
वह विष्णु खरे थे— हिंदीसाहित्यसंसार में अपनी आक्रमकता, असहिष्णुता और अभद्रता, अपने आक्रोश के लिए कुख्यात। कालांतर में विष्णु खरे की इन विशेषताओं का वह भी शिकार हुआ। उसने भी बहुतों की तरह उनके मुंह से गालियां सुनीं, लेकिन उसने कभी भी अपनी मौजूदगी में विष्णु खरे को दी गई गालियां बर्दाश्त नहीं कीं, क्योंकि साल 2007 की एक सर्द तारीख में — जो उसे कभी नहीं भूलेगी — वह जान चुका था कि विष्णु खरे भीतर से कितने आर्द्र हैं।
साल 2014 में असद ज़ैदी के तीनों कविता-संग्रह — ‘बहनें और अन्य कविताएं’, ‘कविता का जीवन’ और ‘सामान की तलाश’ — एक जिल्द में ‘सरे-शाम’ शीर्षक से आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित होकर आए। सभी बहुत पुराने दोस्तों को समर्पित और बाद के दोस्तों से मुखातिब अपनी कविताओं के इस वर्तमान संस्करण में — अपने कविता-संग्रहों की लंबी अनुपलब्धता का जिक्र करते हुए — असद ज़ैदी ने ‘दो शब्द’ कुछ यूं कहे हैं : ‘‘एक अरसे बाद लिखने वाले को अपनी लिखावट कुछ और कहती लगती है, और ऐसी गुंजाइश रहनी चाहिए। एक युग तो गुजर ही गया है। वक्त का गुजर मनुष्य पर होता है और उसके कामों पर भी, पर अलग-अलग तरह से। मैं यही उम्मीद कर सकता हूं कि वक्त की मार इन कविताओं पर ऐसी न पड़ी हो जैसी कि मुझ पर पड़ी है।’’
वक्त की मार उस पर भी पड़ी थी। इस मार से वह रो नहीं सका था। भीतर कहीं कुछ जमता चला गया था। विष्णु खरे ने एक कविता-संग्रह की शक्ल में उसे एक पता दे दिया था, काफी देर तक एक आवारा जिंदगी इसमें आवाजाही करती रही :
‘‘कब से चारों तरफ शब्दरहित शोर से घिरा हूं
कब से मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं
समय से घूमते विचार को
लोग किन कथाओं से निकल आए हैं
और किन कथाओं को खोजते फिरते हैं
देखो, दोस्तो, जैसे दूसरे युग थे
समाप्त होने को है
अपना यह युग भी’’
उस जर्जर पते के आवरण को लैमिनेट करवाकर वह उसके भीतर रहने लगा। उसकी रंगतों, उसके अंतरालों और उसकी महक से उसे इश्क हो गया। वह उसके लिए होने और रोने की जगह हो गई :
‘‘दो साल पहले मैं खुद को
अपनी स्मृति में
इतना खुश पाऊंगा
जितना मैं बिल्कुल नहीं था दो साल पहले’’
‘घर’ शीर्षक कविता में आईं ऊपर उद्धृत पंक्तियों के कवि ने इन पंक्तियों की उत्पत्ति के करीब तीन दशक बाद यानी ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ वाले वक्त में कुछ यूं महसूस किया :
‘‘अच्छी चीजों का खत्म होना लाजिमी है जैसे कि
बुरी चीजों का शुरू होना’’
‘सामान की तलाश’ शीर्षक संग्रह के बाद संभव हुई ये ‘इब्तिदाए इश्क’ शीर्षक एक कविता की दो शुरुआती पंक्तियां हैं। एक कवि के मूल्यांकन में आलोचना-पद्धतियों को — अगर वे अपने मौलिक चेहरे में कहीं हैं तो — इसका ख्याल रखना चाहिए कि कवि ने भविष्यवाणियां की हैं या नहीं, अगर की हैं तो वे कितनी सच हुईं। बेहतर कवि बुरे भविष्य को जान लेते हैं जो भारतीय लोकतंत्र में ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ वाले वक्त की शक्ल में आता है :
‘‘सुनो, कालांतर में इस गिरोह का जाना भी
एक अच्छी चीज का जाना होगा’’
ऊपर उद्धृत दो पंक्तियों से ‘इब्तिदाए इश्क’ का अंत होता है। ‘घर’ और ‘इब्तिदाए इश्क’ के बीच के सालों में तब युवा कवि रहे राजेंद्र धोड़पकर — जिन्हें तब अधेड़ रहे आलोचकों ने भविष्य का बेहतर कवि बताते हुए पुरस्कृत किया — ने ‘दो बारिशों के बीच’ अपनी एक कविता में दर्ज किया :
‘‘अच्छे लगेंगे ये दिन भी
जब ये भी बीते हुए दिन हो जाएंगे’’
ये पंक्तियां जब उसने पढ़ीं तब वह राजेंद्र धोड़पकर से भी मिलना और उनसे इस सवाल का एक ईमानदार जवाब सुनना चाहता था कि उन्होंने आखिर कविता लिखना क्यों बंद कर दिया, लेकिन यूं कभी हो न सका और वह दिल्ली में अपने होने और रोने की वह जगह एक जगह छोड़कर और यह सोचकर कि बेहतर आलोचक बहुत गलत भविष्यवाणियां करते हैं, एक रोज लखनऊ चला गया। रविवार और मजदूर दिवस की दुपहर थी, जब वह लखनऊ की गर्म सड़कों पर चल रहा था। उसने महसूस किया कि वह पहले भी एक बार इस शहर में आ चुका है। लेकिन इस बार यह आना एक अखबार में नौकरी के मकसद से था। उसे यहां कब तक बसना है, कुछ पता नहीं था। दिल्ली से लखनऊ के सफर के लिए और वहां रहनवारी के इरादे से सामान बांधते समय कुछ अनपढ़े और अधूरे पढ़े उपन्यासों के बीच उसने एक पढ़ा जा चुका कविता-संग्रह रख लिया था— ‘कविता का जीवन’।
वह अपना अनुराग साथ लेकर चलने का हामी था, लेकिन सब प्रसंगों में यह संभव नहीं हुआ।
वह ‘कविता का जीवन’ एक लाइब्रेरी से चुराकर एक साथी ने उसे भेंट कर दिया था। उस साथी ने इस पर अपना नाम नहीं लिखा था, लेकिन लाइब्रेरी का नाम काटकर बस ‘सप्रेम’ लिख दिया था।
‘‘सुबह के विषाद में मैंने आंखें खोलीं
और थाम लिया एक अजनबी तौलिया
पराई-सी साबुनदानी जिसे देखकर मेरे अंदर
कोई चीज बेकाबू हुई जाती थी’’
*
वह दिल्ली छोड़कर अब एक नए नगर में लगभग बस चुका था। कुछ वक्त बाद ही नए कार्यालय में उसे एक नियुक्ति-पत्र भी मिल गया और बाद इसके मनचाहा पढ़ने-सुनने-देखने-कहने की गुंजाइश कम पड़ती चली गई। सब कुछ बेवक्त हो गया और वक्त नहीं रहा। यूं वक्त की मार पड़ी कि उसे याद आया : ‘‘वक्त पुष्पा को पुष्पा की मां जैसा बना देता है।’’ वह अलस्सुबह उठता और हजरतगंज से रेजीडेंसी तक दौड़ता। रात में भी देर तक हजरतगंज के रंगीन उजाले साथ देते। वे गहरे आत्म-अन्वेषण के क्षण थे और वह सब जगह नया था। नए रोजगार में अवकाश असंभव होता जा रहा था और उसने पाया कि लखनऊ की पहले गर्म, फिर भीगी और फिर सर्द होती रातों में नींद आने से पहले उसका साथ उसकी थकान ने नहीं, असद ज़ैदी की ‘निद्राविहीन रात्रि’, ‘दिन भर की थकान’, ‘महाजीवन क्षमा करो’, ‘सुबह की दुआ’ और ‘मांग’ जैसी कविताओं की याद ने दिया। ये कविताएं अपने असर और पंक्तियों में उसके साथ रही आईं। लेकिन जिस जर्जरित किंतु लैमिनेटेड काया में वे रह रही थीं, फिलहाल वह उसके पास नहीं थी। उसके नजदीक : ‘कविता का जीवन’... रातें कैसी भी हों, उसके साथ... उसका साथ देता हुआ :
‘‘मैं यहां क्या कर रहा हूं जरा पूछो
इन खबीस मसखरों से
जिन्हें सचमुच यकीन है कि मैंने किए हैं
बड़े अच्छे काम
और यह कि मैं ज्यादा वेतन का
इससे ऊंचे ओहदे का हकदार हूं’’
कुछ अनवकाश और कुछ आलस्य कि उसने लखनऊ में लगभग एक साल गुजार देने के बावजूद कभी इन पंक्तियों के कवि के तीसरे संग्रह को पाने की कोशिश नहीं की, जबकि उसके प्रकाशक का दफ्तर इसी शहर में था। इस अवधि के दरमियान कभी उसे यह बहुत जरूरी इसलिए भी नहीं लगा क्योंकि वह ‘कविता का जीवन’ में शामिल ‘हमारी लाचारी’, ‘कविता का सवाल’, ‘सामान्य व्यवहार’, ‘हिंदी पत्रकारिता’ और ‘एक गरीब का अकेलापन’ जैसी कविताओं से बाहर नहीं आ पा रहा था। सुबह की सैर में रेजीडेंसी जाने पर ‘पुश्तैनी तोप’ भी बहुत दूर तक घेरकर मारती :
‘‘आप कभी हमारे यहां आकर देखिए
हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है
एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा मुश्किल है
हमारी इस मिल्कियत का
पीतल हो गया है हरा, लोहा पड़ गया है काला’’
उसे ‘सामान की तलाश’ पढ़ने की तलब फिलहाल नहीं थी, क्योंकि इस संग्रह की शीर्षक कविता समेत कुछ कविताओं पर हिंदीसाहित्यसंसार में इतना शोर मचा था कि दृश्य को स्पष्ट देख सकने के लिए दृश्य से दूरी बना लेने की शर्त समझ में आने लगी थी। ‘सामान की तलाश’ शीर्षक कविता सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के 150 साल पूरे हो जाने पर लिखी गई। इस संग्रह के बाद से ही असद ज़ैदी की शिनाख्त एक राजनीतिक कवि के तौर पर की गई और अब इस पहचान से उन्हें निजात नहीं और न ही इससे निजात पाने की उनके यहां कोई कोशिश। उनकी कविताओं पर जारी बहस के बीच में उनके कुछ साथियों ने कहा कि उन्हें एक मुस्लिम हिंदी कवि के रूप में भी देखा जाना चाहिए, यह उनके कवि-कर्म के मूल्यांकन में सहायक होगा। वह कभी उन्हें इस तरह नहीं देख पाया। ‘सामान की तलाश’ की वे कविताएं उसे सबसे खराब लगती थीं, जिन्होंने ऐसे आग्रहों को जमीन मुहैया कराई। दृश्य से दूरी बना लेने की शर्त मानने के बाद अब ‘सामान की तलाश’ भी उसे एक बेहद कमजोर कविता लगती है। बेहतर कविताओं की एक शक्ति उनके याद आने में भी है... आलोचना-प्रणालियों को — अगर वे अपने मौलिक चेहरे में कहीं हैं तो — इसका भी ख्याल रखना चाहिए। ‘सामान की तलाश’ की कुछ कविताओं ने एक दौर में उसका खूब साथ निभाया और वक्त जो आने को था — बहुत कुछ को उसके लिए नापैद बनाता हुआ — उसमें वे कई प्रसंगों में, अवसरानवसर याद भी बहुत आईं। वे कविताएं थीं : ‘अप्रकाशित कविता’, ‘हलफनामा’, ‘कोमल रे असावरी’, ‘बहिर्गमन’, ‘घर की बात’, ‘एक याद’, ‘सरलता के बारे में’, ‘एक उम्र’, ‘हिंदी साहित्य विमर्श’, ‘अल्मारी’, ‘किराएदार’, ‘यात्रा-बिंब’, ‘दूसरी तरफ’, ‘पुरस्कार समारोह’, ‘दिव्य नाश्ता’, ‘नौबतपुर में रंगमंच का हाल’, ‘अनुवाद की भाषा’।
असद ज़ैदी का कवि-कर्म करुणा से शुरू होकर व्यंग्य और फिर हिकारत की प्रमुखता तक आया है। यह बदलाव संग्रह-दर-संग्रह हुआ है। यह उनका विकास-क्रम है और इसलिए शोचनीय है। शाया संग्रहों से बाहर की उनकी नई कविताओं पर नजर मारने पर कहीं करुणा, कहीं व्यंग्य, कहीं हिकारत नजर आती है। एक कवि की जिंदगी में ‘सरे-शाम’ यह हादसा है या सबक — सब कुछ इतना बिखरा हुआ है कि — फिलहाल इस पर कोई राय नहीं बनती। ‘लाल किताब’, ‘शल्यचिकित्सा’, ‘करने वाले काम’, ‘एक मुलाकात’, ‘इब्तिदाए इश्क’, ‘राज्यसभा’, ‘जागना रोना’, ‘वेणुगोपाल, आदिकवि, 1942-2008’, ‘खाला का घर’, ‘अनुभवी हाथ’, ‘अठारह महीने’, ‘पहाड़ी गांव, पर्यटक, कवि’, ‘असील घराना’, ‘शानदार लोग’, ‘बाप की जायदाद’, ‘पुरानी बात’, ‘होटल खुरासान’, ‘राग भूप’, ‘दान-पुण्य’, ‘कवि-राजनेता’, ‘कठिन प्रेम’, ‘शिकस्त’, ‘पांच स्टेशन’, ‘खाना पकाना’, ‘आहत भावनाओं का युग’, ‘कुछ एकालाप’ शीर्षक साल 2008 के बाद मुमकिन हुईं कविताओं से गुजरकर वह पाता है कि ये कविताएं असद ज़ैदी की पूर्ववर्ती कविताओं की तुलना में मुंहचढ़ी, नकचढ़ी और प्राय:उद्धृत या बहसतलब कविताएं अब तलक नहीं बन पाई हैं। घर-परिवार, रोजगार, प्रेम, पराभव, स्मृतियां, यात्राएं, संगीत, राजनीतिक यथार्थ और कुछ प्रायश्चितों वाले —उनके कविता-संसार में — अब तक कामयाब और आजमाए गए औजारों और नुस्खों के बावस्फ इन कविताओं में रुलाने, चौंकाने और याद आने की सामर्थ्य नजर नहीं आती। बाजदफा अखबारी यथार्थ को काव्यात्मक वक्तव्य-सा बना देने का नया कौशल जरूर है :
‘‘उन समाचारों को फिर से लिखो
जो अफवाहों और भ्रामक बातों से भरे थे
कि कुछ भी अनायास और अचानक नहीं था
दुर्घटना दरअसल योजना थी’’
‘सामान की तलाश’ पर वापस आएं तब कह सकते हैं कि वह उसे लखनऊ में इसलिए भी नहीं चाहिए था क्योंकि उसे वह दिल्ली में खरीद चुका था— विश्व पुस्तक मेला, 2008 में। इस पर उसने उसके कवि से दस्तखत भी करवाए थे— शुभकामनाएं/सप्रेम/असद – 8 फरवरी 2008। ये शुभकामनाएं, प्रेम, दस्तखत और तारीख वैसे ही कहीं छूट गए जैसे मुस्तकबिल में छूटना था ‘कविता का जीवन’ — कहीं न ले जाती हुई रेलगाड़ियों में सफर करते हुए — यात्रा-बिंबों के साथ।
यहां आकर उसके संदर्भ में यह प्रचलित वाक्य लिखना चाहिए कि ‘जीवन अपनी रफ्तार से चल रहा था।’ लेकिन इसे थोड़ा बदलकर भी लिखा जा सकता है कि उसे ‘जीवन अपनी रफ्तार से कुचल रहा था।’ दफ्तर में एक नियंत्रित स्वतंत्रता और दफ्तर से बाहर एक उपेक्षित अराजकता उसे अस्थिर कर रही थी। उसके शब्द उससे छूट रहे थे। वे उसके जज्बातों और इशारों से बाहर दूसरों की सुन रहे थे। अनपढ़े उपन्यास अनपढ़े ही पड़े हुए थे और अधूरे पढ़े उपन्यासों के सफे वहीं के वहीं मुड़े हुए थे। उनमें से एक अज्ञेय का ‘नदी के द्वीप’ भी था जिसका यह सफा पढ़कर एक शाम वह फिर कभी दफ्तर न लौटने के लिए दफ्तर से बाहर निकल गया था :
‘‘अवध की शामें मशहूर हैं, लेकिन हजरतगंज में शाम होती नहीं, दिन ढलता है तो रात होती है। या शाम अगर होती है तो अवध की नहीं होती— कहीं की भी नहीं होती, क्योंकि उसमें देश का, प्रकृति का कोई स्थान नहीं होता, वह इंसान की बनाई हुई होती है : रंगीन बत्तियां, चमकीले झीने कपड़े, प्लास्टिक के थैले-बटुए, किरमिची होंठ कमान-सी मूंछों पर तिरछे टिके हुए और ऊपर से रिकाबी की तरह चपटे फेटट हैट... और राह चलते आदमी जिनके सामने बौने लगने लगें, ऐसे बड़े-बड़े सिनेमाई पोस्टरोंवाले चेहरे — कितना छोटा यथार्थ मानव, कितने बड़े-बड़े सिनेमाई हीरो — अगर लोग सिनेमा के छाया-रूपों के सुख-दुःख के सामने अपना सुख-दुःख भूल जाते हैं तो क्या अचंभा कि उन छाया-रूपों के स्रष्टा एक्टर-एक्ट्रेसों के सच्चे या कल्पित रूमानी प्रेम-वृत्तांतों में अपनी यथार्थ परिधि के स्नेह-वात्सल्य की अनदेखी कर जाते हैं तो क्या दोष... यथार्थ है ही छोटा और फीका, और छाया कितनी बड़ी है, कितनी रंगीन, कितनी रसीली...।’’
वह फरार चाहता था। इस दृश्य में दिल्ली में उसके एकमात्र शुभचिंतक योगेंद्र आहूजा जब उसके हाल-चाल जानने के लिए उसे लखनऊ कॉल करते तब संवाद कुछ यूं होता :
यो. आ. : कैसे हो?
वह : ठीक हूं। आप कैसे हैं?
यो. आ. : मैं भी ठीक हूं। तुम्हारा पत्रकारिता में मन लग रहा है?
वह : इसका उत्तर हां या न में नहीं दे सकता। मन लगना ही चाहिए क्योंकि मैं ऊब और एकरसता से घायल होकर यहां आया था। लेकिन मन लग नहीं रहा है। खुद के लिए वक्त कम होता जा रहा है।
यो. आ. : शुरू-शुरू में ऐसा होता है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा और तुम्हें बेहतर लगने लगेगा। बस जैसे भी हो कुछ समय चुरा-बचाकर साहित्य पढ़ते रहना। यह बहुत साथ देता है।
वह : पढ़ नहीं पा रहा हूं, और लगता है कि यही आदत मुझे अशांत कर रही है। ‘कविता का जीवन’ साथ लाया था, जब भी अवकाश मिलता है इससे ही कुछ कविताएं पढ़ लेता हूं। जब तक नींद नहीं आती, मैं इन्हें कहीं से भी खोलकर पढ़ने लगता हूं :
‘‘लोग हमें
हमारे अभिशाप को नहीं पहचानते
वे हमें जानते हैं नामों
और नौकरियों से
जानते हैं असामान्य-सा इनका
कोई व्यवसाय है
पर व्यवसाय है
गोया हम नहीं हैं कोई और इसके अलावा
गोया हमने कुछ किया ही नहीं
इसके अलावा
जैसे कि उन्हें कुछ दिखाई ही
नहीं देता इसके अलावा’’
यो. आ. : क्या तुमने जैक लंडन की कहानी ‘मैक्सिकन’ पढ़ी है? एक अद्भुत, महान कहानी। उसमें एक दुबला-पतला, कुछ रहस्यमय युवक है, मैक्सिकी क्रांति का एक सिपाही। क्रांति के लिए धन की व्यवस्था करने वह सीमा से अमेरिका में अवैध रूप से घुसता है। वहां शिकागो की गलियों में मुक्केबाजी के शो होते हैं, पहले से तय। उसे पेशेवर गुंडे मुक्केबाजों से मुकाबला करना है। वहां हर मुक्का बिकाऊ है, हर पिटाई बिकी हुई है। हर हार या जीत का दाम तय है। खेल के नियम, रेफरी, माहौल सब कुछ उसके खिलाफ है। वह कमजोर और कुपोषण का शिकार है। मगर उसके पास जो ताकत है उसकी वे पेशेवर गुंडे कल्पना भी नहीं कर सकते। एक विचार की और एक सपने की ताकत।
उसे अपने भीतर ऊर्जा का एक-एक कतरा बचाना है। हिसाब लगाते हुए कि सासेज का एक बासी टुकड़ा कब खाएगा, वह कितनी देर के बाद उसे कितनी ऊर्जा देगा। उस वक्त कौन-सा राउंड होगा, सामने के बॉक्सर की कितनी ताकत खर्च हो चुकी होगी, कितनी बाकी होगी। निर्णायक पल आने तक उसे ऊर्जा का हर कतरा, हर बूंद बचाते हुए केवल पिटना है, लहूलुहान हो जाना है। वह जब चाहे अपनी पिटाई के दाम वसूलकर मुकाबले के बाहर हो सकता है। लेकिन उसे इनाम की सारी रकम चाहिए, या कुछ भी नहीं। वह आखिरी क्षण में वार करेगा अपनी सारी ऊर्जा, सारी ताकत समेटकर, बेहोश होने के एक पल पहले। या तो खत्म हो जाएगा या सारा इनाम पाएगा।
‘‘दिन में तलाश की अपनी दिक्कतें हैं
अवकाश नहीं मिलता’’
वह ऊपर उद्धृत दो पंक्तियां सुनाकर उन्हें ‘शुक्रिया’ कहता और वह ‘शुभकामनाएं’ ...संवाद यहीं रुक जाता।
वह योगेंद्र आहूजा के दिए गए परामर्श से पूर्व ‘मैक्सिकन’ के नायक की तरह ही सोच रहा था। वह ‘कविता का जीवन’ के साथ अकेला हो गया था और उसे लगने लगा कि इसे और इससे पूर्व पढ़े सारे कविता-संग्रह उसने बहुत हड़बड़ी में पढ़े थे। वह इस कदर उनसे घिरा रहता था कि उन्हें पढ़कर जल्द से जल्द उनसे मुक्त होना चाहता था। आस-पास इतना अपरिचय था कि इस प्रक्रिया के बाद उसने जाना कि बेहतर कविता से कभी मुक्त नहीं हुआ जा सकता, अगर ऐसा हुआ है तो जरूर कहीं कोई जल्दबाजी हुई होगी। वह यहां स्मृति से दर्ज कर रहा है :
‘‘जीवन के अंत में अचानक दिखाई देंगी
हमें अपनी कुछ कारगुजारियां’’
इसके बाद एक पंक्ति का स्पेस है और फिर आगे की पंक्तियां हैं :
‘‘अरे हमें खुद कभी पता नहीं चल पाया कि हम
एक बेहतर दुनिया के लिए जिए थे’’
यह ‘जीवन के अंत में’ शीर्षक से एक पूरी कविता है और उसे इस दर्ज को संग्रह से देखकर जांचने की जरूरत नहीं है। वह गलत नहीं हो सकता क्योंकि ‘कविता का जीवन’ की बहुत सारी पंक्तियों ने उसकी स्मृति में आवास बना लिया था।
*
लखनऊ में रहनवारी के दिन प्यार में रहनवारी के दिन भी थे। इसमें जब नाकामयाबी तय हो चली तब उसने एक रोज असद ज़ैदी की इन पंक्तियों को अपनी निजता में सार्वजनिक किया :
‘‘प्यार जो अपार कोलाहल में शांत रहा
प्यार जो दोपहर भर महसूस नहीं हुआ
प्यार जिसने अजनबियों से घृणा नहीं की
परिणाम जो कारण में बदल गया’’
आठवें दशक की हिंदी कविता में असद ज़ैदी अकेले कवि हैं, जिनके पास विशुद्ध प्रेम-कविताएं हैं। ‘आयशा के लिए कुछ कविताएं’ शीर्षक से संपन्न चौदह कविताएं उन्हें अपने साथी कवियों से बहुत दूर ले जाती हैं। वह एकदम अलग से चमक उठते हैं। वह फिलहाल इस चमक से दूर था, लेकिन उसने इसे दूरियों में भी पा लिया क्योंकि एक अपार कोलाहल में उसे शांति से रोने की जरूरत महूसस हुई :
‘‘मैं तुम्हारे शरीर का खोया हुआ हिस्सा हूं
जो अपनी भूमिका भूल-सा गया है
मैं कभी न पहचाना गया चोर हूं भीड़ में व्याकुल
छिपकली की कटी हुई पूंछ हूं
दीवार पर भटकती हुई
तुम्हें न स्वीकार करने दी गई वास्तविकता हूं
मैं तुम्हारे सतत श्रम का छीना गया परिणाम हूं
नींद में भी नहीं मिलता
और पता नहीं कब कहां होकर गुजर जाता है
आयशा मैं तुम्हारी मौत हूं रुकी हुई
तुम्हें खोजती हुई तुम्हारी खोज हूं
एक ठंडी करुणा में सब पर हंसती हुई’’
*
...और एक रोज उसने लखनऊ छोड़ दिया और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में कई महीने भटकता रहा। जब भी उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारा घर कहां है? उसने कहा : यहीं। वह उत्तर प्रदेश का होकर भी उत्तर प्रदेश को सबसे कम जानता था, लिहाजा वह ज्यादा जानने की कोशिशों में भटकने लगा। रेलगाड़ियां उसका घर हो गईं। वह शहरों, कस्बों और गांवों से एक लगातार में गुजर रहा था। सूर्योदय-सूर्यास्त और आसमान और सब कुछ के सारे बदलते हुए रंग, पतझड़ समेत सारी ऋतुएं और वृक्ष उसके साथ भाग रहे थे। जल उसके साथ बह रहा था। धूल उसके साथ उड़ रही थी। धूप उसके साथ जल रही थी। डबरों और खेतों में उठती-बैठती मानवाकृतियां और हवाएं और सारी सजीवताएं उसके साथ चल रही थीं। बादल उसके साथ बरस रहे थे। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे, जब चुनाव-प्रचार के सिलसिले में देवरिया से नोएडा आ रही एक बड़ी कार में उसे लिफ्ट मिली। वह थककर बहुत चूर हो चुका था। जब उसकी नींद खुली उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनना तय हो चुका था। उसे लखनऊ बहुत याद आया और आलोकधन्वा भी :
‘‘दूर था अवध का शहर लखनऊ
और रेखते से भीगी
उसकी दिलकश जबान
फिलहाल कोई एक देश नहीं
गोधूलि में पहले तारे के सिवा
पीठ के पीछे जो शहर था
वह शहर था भी और नहीं भी था
बनते-बनते उसे
अभी बनना था’’
बाद इसके उसने अपनी थकान उतारने के लिए नोएडा में एक आठ घंटे बैठने वाली नौकरी पकड़ी, और नई तरह से थकने लगा। वह दिल्ली में — जो बकौल असद ज़ैदी : ‘‘एक हृदयविदारक नगर है’’ — फिर लगभग दुबारा बस गया। इस हृदयविदारक नगर में जब वह बहुत महरूम महूसस करता और बहुत व्याकुलता बहुत घेर लेती और बहुत रोने को बहुत जी करता, वह ‘बहनें और अन्य कविताएं’ की वही जर्जरित किंतु लैमिनेटेड काया उठाता और बहुत गर्म हवा फेंकते सीलिंग फैन के नीचे नंगे बदन पसीने में भीगते हुए पढ़ता :
‘‘यह आदमी रोएगा नहीं जब जिस्म में
खून की बहुत कमी होगी
थकान काइदा बन जाएगी रोज का तब यह नहीं थकेगा’’
लेकिन वह रोता और पता नहीं चलता कि चेहरे पर आंसू कहां हैं, पसीना कहां। नमक नमक से मिलता और अनुराग अनुराग से :
‘‘यह प्यार है या चीजों के प्रति
अपने अंदर लंबे समय से पलती
एक खामोश चिढ़
यह प्यार है नम्रता से लिया जाता
कोई बदला
यह प्यार है जिसका नाम सुनते ही
थकान मुझे घेर लेती है
मैं तुम्हारा हाल जानना चाहता हूं आयशा
दूरी के इतने बरस
बीत जाने के बाद इस विषय पर
तुम्हारे अपने ख्यालों के साथ’’
दुबारा मिली दिल्ली में कुमार अम्बुज की कविता-पंक्तियों के सहारे कहें तब कह सकते हैं कि उसे जरा-सी देर में एक ऐसी नौकरी मिली जो आज तक नहीं छूटी। असद ज़ैदी के बाद के दो कविता-संग्रह — ‘कविता का जीवन’ और ‘सामान की तलाश’ — न जाने जीवन की आपाधापी में कहां छूट गए। उनके तीनों संग्रहों को अपने में समाए और उनसे ही सप्रेम पाई ‘सरे-शाम’ शीर्षक वाली जिल्द भी न जाने कौन उड़ा ले गया। लेकिन विष्णु खरे की दी हुई ‘बहनें और अन्य कविताएं’ की वह जर्जरित काया, विनय दुबे की चुनी हुई कविताओं के चयन का शीर्षक लेकर कहें तो ‘फिलहाल यह आसपास’ है— अब तक, जबकि करीब दो साल से भी ज्यादा उसने उसे खुद से दूर रखा। इधर के सालों में उसकी असद ज़ैदी से कई मुलाकातें और बातें भी हुईं। वह उनके साथ दिल्ली से लखनऊ भी जा-आ सका और उनकी कई नई और असंकलित कविताएं भी पढ़ सका। लेकिन उसने उन्हें कभी यह नहीं बताया कि वह आज तक उनकी पहली किताब की एक ऐसी प्रति के अनुराग में गिरफ्तार है जो अक्सर उससे कहती रहती है :
‘‘अगर मैंने तुम्हें नहीं समझा
तो मैं शत्रु हूं मुझे भूल जाओ’’
असदमयअनुराग
वह असद ज़ैदी की कविताओं के अनुराग में तब पड़ा, जब वह अपनी बहनों को घुटन भरी स्थानिकताओं में छोड़ एक नई नागरिकता में बसने लगा। वह प्रभात की एक कविता ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ का ‘मैं’ था :
‘‘उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एक बार भी नहीं बुलाया
ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया’’
असद ज़ैदी की कविता ‘बहनें’ एक दोस्त की डायरी में पढ़कर वह रोने लगा था। यह रुदन बहुत देर तक धीमे-धीमे होने वाली बारिश सरीखा था। यह आस्वाद की अत्यंत भावुक और संवेदनशील पद्धति है, इसका गैर-भावुक शाब्दिक प्रकटीकरण इसे असंवेदनशील और गैर-ईमानदार बनाकर रख देगा। वह चाहता है कि प्रभाव का सार्वजानिक प्रकटीकरण उतना ही ईमानदार हो जितना जलती जमीन पर नंगे पांव खड़े आदमी के चेहरे की रेखाएं होती हैं। ईमानदारी कम या बहुत नहीं होती, वह बस होती है। वाक्य बनाना सीख चुके अकादमिक जिज्ञासु और विचारधाराग्रस्त व्यक्तित्व सबसे पहले इस ईमानदारी को ही निरस्त करते हैं। उनका प्रकटीकरण आस्वादेतर घालमेल से तैयार किया गया होता है। उनकी दिलचस्पी रचना के मर्म तक पहुंचने में कम, सैद्धांतिक-वैचारिक जुगाली या फरेब में बहुत होती है।
वह ‘बहनें’ पढ़कर रोया था और वह यह मानता है कि रुला देने वाली रचनाएं आलोचना की चालू पगडंडियों से परे होती हैं। इस प्रकार की रचनाएं बहुत तर्काधारित विश्लेषणों से अलग जाकर जिंदगी में कुछ इस कदर जज्ब हो जाती हैं कि उन्हें जीते-जी उनके आस्वादक से अलग नहीं किया जा सकता।
वह ‘बहनें’ पढ़ चुका था और अन्य कविताएं खोज रहा था। लेकिन यह उस दौर का बयान है, जब असद ज़ैदी के तब तक शाया दोनों कविता-संग्रह — ‘बहनें और अन्य कविताएं’ और ‘कविता का जीवन’ — अनुपलब्ध हो चुके थे। दो दशक से भी ज्यादा खिंची इस अनुपलब्धता के दिनों में उसके नजदीक ऐसी लाइब्रेरियां और ऐसे दोस्त नहीं थे जो इस अन्वेषण में उसकी मदद करते। वह उन दिनों सारी सृष्टि में सिर्फ दो ही लोगों से मिलना चाहता था, इनमें से एक असद ज़ैदी थे और दूसरे विष्णु खरे।
*
देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता कहती है :
‘‘रात में गूंजती थीं रेलगाड़ियों की आवाजें। दिन में भी। यह इस बात की सूचना थी कि लोग आ रहे हैं और शहर छोड़कर जा भी रहे हैं।
यह दंगों में शहर छोड़ने की बदहवासी थी या बलात्कार से बचने की आपाधापी या किसी मरणांतक पहचान से निजात पाने की उदग्रता या कि किसी बंधुएपन से मुक्ति की विकलता। कहीं पहुंचने की उम्मीद या उदासीनता।
कुछ तो था ही कि रेलगाड़ियों की आवाजें गूंजती रहती थीं। सुबहो-शाम। पूरे ब्रह्मांड में। चौबीसों घंटे।’’
वह उन दिनों जहां रह रहा था, वहां जब चाहे तब गुजरती हुई रेलगाड़ियों को देख सकता था। उनकी आवाजें सुन सकता था— रात-दिन... दिन-रात...
उसे यूं लगता कि जैसे वह बराबर किसी रेलवे स्टेशन पर है — कहीं से आया हुआ, कहीं जाने को तत्पर — विपत्तियों से घायल, विपत्तियों की ओर।
वह भर रात ट्रेन छूट जाने की आशंका से भरी नींद लेता। लेकिन जागता हर बार उस उद्घोषणा से जो बताती कि ट्रेन सही वक्त पर है, फलां प्लेटफॉर्म पर पहुंचें।
उसे लगता कि सही वक्त पर आती कोई ट्रेन ही उसे ले जाएगी उन सारी ट्रेनों तक जो उसे भविष्य में पकड़नी हैं।
यह ट्रेन अगर छूटी तो बाकी सारी ट्रेनों के आगे छा जाएगा कुहासा…
*
वह एक धुंध में नहाई हुई ठंडी तारीख थी जिसमें वह नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर सोलह पर खड़ा था। वह कहीं से आया जरूर था, लेकिन उसे अब जाना कहां है यह साफ नहीं था। असद ज़ैदी की कविता ‘संस्कार’ उसने इस असमंजस के कुछ बाद में पढ़ी, लेकिन वह घटित उसके साथ कुछ पहले हुई :
‘‘बीच के किसी स्टेशन पर
दोने में पूड़ी-साग खाते हुए
आप छिपाते हैं अपना रोना
जो अचानक शुरू होने लगता है
पेट की मरोड़ की तरह
और फिर छिपाकर फेंक देते हैं कहीं कोने में
अपना दोना।
सोचते हैं : मुझे एक स्त्री ने जन्म दिया था
मैं यों ही दरवाजे से निकलकर नहीं चला आया था।’’
‘जाना कहां है’ की अनिश्चितता और अनिर्णय में डूबते चले जा रहे दिनों में उसने विष्णु खरे का बहुत पीछा किया। उसे लगता था कि विष्णु खरे के पास जरूर कोई ऐसा पता होगा, जहां इस बेचैन जिंदगी को ले जाया जा सकता है। दरअसल, हिंदी में हुए उन सारे महानुभावों को बारहा उसने बहुत हसरत और उम्मीद से देखा जिन्हें कवि-आलोचक कहकर पुकारा गया। केवल कवियों के पास भी रौशनी थी, लेकिन केवल आलोचक कहलाने वाले शख्स हिंदी में उसे बहुत जड़ और घृणायोग्य लगते थे। वे बहुत महत्वाकांक्षी, मौकापरस्त और मतलबी थे। ये अवगुण उन्होंने अपने एक नामवर सरगना से पाए थे।
बहरहाल, उसके ‘पीछे’ की उत्कटता उसे अंतत: विष्णु खरे के डेरे तक ले गई। जहां खुद और खुद से बाहर की प्राथमिक और जरूरी बातें जान और बता देने के बाद विष्णु खरे उससे बोले :
‘‘और कोई किताब जो तुम पढ़ना चाहते हो और यहां तुम्हें दिख रही हो तो तुम उसे ले सकते हो।’’
‘‘सर, कुछ हिंदी कवियों के पहले कविता-संग्रह पढ़ना चाहता हूं, लेकिन अब कहीं मिलते नहीं। साहित्य अकादमी लाइब्रेरी में भी नहीं।’’
‘‘जैसे?’’
‘‘बहनें और अन्य कविताएं।’’
‘‘जरा उठो और वहां जाओ फैक्स मशीन से थोड़ा उधर ‘ऋग्वेद’ के नीचे जो किताब है उसे निकालो।’’
वह किताब कुछ जर्जर हालत में थी, लेकिन यह जर्जरता उसके अविराम अन्वेषण को अविलंब विराम देने वाली थी। सुरेंद्र राजन के रचे आवरण की पीली आभा में स्याह रेखाएं और पैरहन लिए बहनें थीं और भीतर अन्य कविताएं भी। जयश्री प्रकाशन, दिल्ली। प्रथम संस्करण : 1980। मूल्य : 25 रुपए। ब्लर्ब के दूसरे हिस्से पर युवा असद ज़ैदी : जन्म – 31 अगस्त 1954, करौली, राजस्थान में। इस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अध्ययनरत। शुरू में कुछ कहानियां लिखीं जिनमें से कुछ प्रकाशित। समय-समय पर रंगमंच, कला तथा साहित्य संबंधी आलोचनात्मक लेखन। विदेशी साहित्य से अनेक अनुवाद। एक संपूर्ण उपन्यास ‘जागना रोना’ भी लिखा है। बीच के कुछ वर्ष पत्रकारिता, अनुवाद और छिटपुट नौकरियों में बिताए। 1975 से मुख्यत:, और नियमित रूप से, कविताएं लिखी हैं। यह पहली किताब है। संपर्क : 39, पेरियार, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067।
ब्लर्ब के पहले हिस्से पर जो टिप्पणी है उस पर किसी का नाम नहीं है, लेकिन वह अपनी भाषा से विष्णु खरे की लिखी हुई लगती है : ‘‘ये कविताएं जिंदगी के संपृक्त अहसास की कविताएं हैं— इनकी जड़ें बहुत गहरे लगावों से जिए गए जीवन में हैं। इसलिए ये आज की जिंदगी की तरह वैविध्यपूर्ण हैं और इस झूठ को फाश कर देती हैं कि प्रतिबद्ध कविता को एक-आयामीय ही होना चाहिए। इनसे कुछ भी छूटा नहीं है— अपने घर और परिवार से जटिल नाता, बचपन और कैशोर्य की स्मृतियां, बड़े होने और खुद के पैरों पर खड़े होने के प्रयत्नों की निर्मम, उद्घाटक प्रक्रिया, अपने वक्त और समाज, मित्रों, शत्रुओं, प्रियजनों की पहचान तथा एक द्वंद्वात्मक जीवनदृष्टि को अनुभवों और सबकों के रास्ते हासिल करना।’’
प्रिंट लाइन के ठीक ऊपर एक आत्म-स्वीकार : ‘‘इस संग्रह के लिए अंतिम रूप से कविताओं का चुनाव श्री विष्णु खरे ने किया है जिनका मैं शुक्रगुजार हूं।’’
समर्पण : शारका के लिए।
उसे उसमें ही खोया देख, विष्णु खरे ने कहा : ‘‘इधर ले आओ। तुम इसे ले जाना। लेकिन इससे पहले मैं तुम्हें इससे एक कविता सुनाता हूं :
कोयला हो चुकी हैं हम बहनों ने कहा रेत में धंसते हुए
ढक दो अब हमें चाहे हम रुकती हैं यहां तुम जाओ
बहनें दिन को हुलिए बदलकर आती रहीं
बुखार था हमें शामों में
हमारी जलती आंखों को और तपिश देती हुई बहनें
शाप की तरह आती थीं हमारी बर्राती हुई
जिंदगियों में बहनें ट्रैफिक से भरी सड़कों पर
मुसीबत होकर सिरों पर मंडराती थीं
बहनें कभी सांत्वना पाकर बैठ जाती थीं हमारी पत्नियों के
अंधेरे गर्भ में बहनें पहरा देती रहीं’’
...वह देखता है कि विष्णु खरे की आंखें भीगी हुई हैं और गला भी शायद इस कदर भर आया है कि आगे की कविता-पंक्तियां वह बोल नहीं पा रहे हैं। उनका चश्मा कुछ धुंधला गया है। वह थोड़ा रुककर कविता-संग्रह उसके आगे बढ़ाते हुए कहते हैं : ‘‘ले जाओ, तुम पढ़ना। मुझसे पढ़ी नहीं जाती यह कविता, दिल डूबने लगता है।’’
वह विष्णु खरे थे— हिंदीसाहित्यसंसार में अपनी आक्रमकता, असहिष्णुता और अभद्रता, अपने आक्रोश के लिए कुख्यात। कालांतर में विष्णु खरे की इन विशेषताओं का वह भी शिकार हुआ। उसने भी बहुतों की तरह उनके मुंह से गालियां सुनीं, लेकिन उसने कभी भी अपनी मौजूदगी में विष्णु खरे को दी गई गालियां बर्दाश्त नहीं कीं, क्योंकि साल 2007 की एक सर्द तारीख में — जो उसे कभी नहीं भूलेगी — वह जान चुका था कि विष्णु खरे भीतर से कितने आर्द्र हैं।
साल 2014 में असद ज़ैदी के तीनों कविता-संग्रह — ‘बहनें और अन्य कविताएं’, ‘कविता का जीवन’ और ‘सामान की तलाश’ — एक जिल्द में ‘सरे-शाम’ शीर्षक से आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित होकर आए। सभी बहुत पुराने दोस्तों को समर्पित और बाद के दोस्तों से मुखातिब अपनी कविताओं के इस वर्तमान संस्करण में — अपने कविता-संग्रहों की लंबी अनुपलब्धता का जिक्र करते हुए — असद ज़ैदी ने ‘दो शब्द’ कुछ यूं कहे हैं : ‘‘एक अरसे बाद लिखने वाले को अपनी लिखावट कुछ और कहती लगती है, और ऐसी गुंजाइश रहनी चाहिए। एक युग तो गुजर ही गया है। वक्त का गुजर मनुष्य पर होता है और उसके कामों पर भी, पर अलग-अलग तरह से। मैं यही उम्मीद कर सकता हूं कि वक्त की मार इन कविताओं पर ऐसी न पड़ी हो जैसी कि मुझ पर पड़ी है।’’
वक्त की मार उस पर भी पड़ी थी। इस मार से वह रो नहीं सका था। भीतर कहीं कुछ जमता चला गया था। विष्णु खरे ने एक कविता-संग्रह की शक्ल में उसे एक पता दे दिया था, काफी देर तक एक आवारा जिंदगी इसमें आवाजाही करती रही :
‘‘कब से चारों तरफ शब्दरहित शोर से घिरा हूं
कब से मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं
समय से घूमते विचार को
लोग किन कथाओं से निकल आए हैं
और किन कथाओं को खोजते फिरते हैं
देखो, दोस्तो, जैसे दूसरे युग थे
समाप्त होने को है
अपना यह युग भी’’
उस जर्जर पते के आवरण को लैमिनेट करवाकर वह उसके भीतर रहने लगा। उसकी रंगतों, उसके अंतरालों और उसकी महक से उसे इश्क हो गया। वह उसके लिए होने और रोने की जगह हो गई :
‘‘दो साल पहले मैं खुद को
अपनी स्मृति में
इतना खुश पाऊंगा
जितना मैं बिल्कुल नहीं था दो साल पहले’’
‘घर’ शीर्षक कविता में आईं ऊपर उद्धृत पंक्तियों के कवि ने इन पंक्तियों की उत्पत्ति के करीब तीन दशक बाद यानी ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ वाले वक्त में कुछ यूं महसूस किया :
‘‘अच्छी चीजों का खत्म होना लाजिमी है जैसे कि
बुरी चीजों का शुरू होना’’
‘सामान की तलाश’ शीर्षक संग्रह के बाद संभव हुई ये ‘इब्तिदाए इश्क’ शीर्षक एक कविता की दो शुरुआती पंक्तियां हैं। एक कवि के मूल्यांकन में आलोचना-पद्धतियों को — अगर वे अपने मौलिक चेहरे में कहीं हैं तो — इसका ख्याल रखना चाहिए कि कवि ने भविष्यवाणियां की हैं या नहीं, अगर की हैं तो वे कितनी सच हुईं। बेहतर कवि बुरे भविष्य को जान लेते हैं जो भारतीय लोकतंत्र में ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ वाले वक्त की शक्ल में आता है :
‘‘सुनो, कालांतर में इस गिरोह का जाना भी
एक अच्छी चीज का जाना होगा’’
ऊपर उद्धृत दो पंक्तियों से ‘इब्तिदाए इश्क’ का अंत होता है। ‘घर’ और ‘इब्तिदाए इश्क’ के बीच के सालों में तब युवा कवि रहे राजेंद्र धोड़पकर — जिन्हें तब अधेड़ रहे आलोचकों ने भविष्य का बेहतर कवि बताते हुए पुरस्कृत किया — ने ‘दो बारिशों के बीच’ अपनी एक कविता में दर्ज किया :
‘‘अच्छे लगेंगे ये दिन भी
जब ये भी बीते हुए दिन हो जाएंगे’’
ये पंक्तियां जब उसने पढ़ीं तब वह राजेंद्र धोड़पकर से भी मिलना और उनसे इस सवाल का एक ईमानदार जवाब सुनना चाहता था कि उन्होंने आखिर कविता लिखना क्यों बंद कर दिया, लेकिन यूं कभी हो न सका और वह दिल्ली में अपने होने और रोने की वह जगह एक जगह छोड़कर और यह सोचकर कि बेहतर आलोचक बहुत गलत भविष्यवाणियां करते हैं, एक रोज लखनऊ चला गया। रविवार और मजदूर दिवस की दुपहर थी, जब वह लखनऊ की गर्म सड़कों पर चल रहा था। उसने महसूस किया कि वह पहले भी एक बार इस शहर में आ चुका है। लेकिन इस बार यह आना एक अखबार में नौकरी के मकसद से था। उसे यहां कब तक बसना है, कुछ पता नहीं था। दिल्ली से लखनऊ के सफर के लिए और वहां रहनवारी के इरादे से सामान बांधते समय कुछ अनपढ़े और अधूरे पढ़े उपन्यासों के बीच उसने एक पढ़ा जा चुका कविता-संग्रह रख लिया था— ‘कविता का जीवन’।
वह अपना अनुराग साथ लेकर चलने का हामी था, लेकिन सब प्रसंगों में यह संभव नहीं हुआ।
वह ‘कविता का जीवन’ एक लाइब्रेरी से चुराकर एक साथी ने उसे भेंट कर दिया था। उस साथी ने इस पर अपना नाम नहीं लिखा था, लेकिन लाइब्रेरी का नाम काटकर बस ‘सप्रेम’ लिख दिया था।
‘‘सुबह के विषाद में मैंने आंखें खोलीं
और थाम लिया एक अजनबी तौलिया
पराई-सी साबुनदानी जिसे देखकर मेरे अंदर
कोई चीज बेकाबू हुई जाती थी’’
*
वह दिल्ली छोड़कर अब एक नए नगर में लगभग बस चुका था। कुछ वक्त बाद ही नए कार्यालय में उसे एक नियुक्ति-पत्र भी मिल गया और बाद इसके मनचाहा पढ़ने-सुनने-देखने-कहने की गुंजाइश कम पड़ती चली गई। सब कुछ बेवक्त हो गया और वक्त नहीं रहा। यूं वक्त की मार पड़ी कि उसे याद आया : ‘‘वक्त पुष्पा को पुष्पा की मां जैसा बना देता है।’’ वह अलस्सुबह उठता और हजरतगंज से रेजीडेंसी तक दौड़ता। रात में भी देर तक हजरतगंज के रंगीन उजाले साथ देते। वे गहरे आत्म-अन्वेषण के क्षण थे और वह सब जगह नया था। नए रोजगार में अवकाश असंभव होता जा रहा था और उसने पाया कि लखनऊ की पहले गर्म, फिर भीगी और फिर सर्द होती रातों में नींद आने से पहले उसका साथ उसकी थकान ने नहीं, असद ज़ैदी की ‘निद्राविहीन रात्रि’, ‘दिन भर की थकान’, ‘महाजीवन क्षमा करो’, ‘सुबह की दुआ’ और ‘मांग’ जैसी कविताओं की याद ने दिया। ये कविताएं अपने असर और पंक्तियों में उसके साथ रही आईं। लेकिन जिस जर्जरित किंतु लैमिनेटेड काया में वे रह रही थीं, फिलहाल वह उसके पास नहीं थी। उसके नजदीक : ‘कविता का जीवन’... रातें कैसी भी हों, उसके साथ... उसका साथ देता हुआ :
‘‘मैं यहां क्या कर रहा हूं जरा पूछो
इन खबीस मसखरों से
जिन्हें सचमुच यकीन है कि मैंने किए हैं
बड़े अच्छे काम
और यह कि मैं ज्यादा वेतन का
इससे ऊंचे ओहदे का हकदार हूं’’
कुछ अनवकाश और कुछ आलस्य कि उसने लखनऊ में लगभग एक साल गुजार देने के बावजूद कभी इन पंक्तियों के कवि के तीसरे संग्रह को पाने की कोशिश नहीं की, जबकि उसके प्रकाशक का दफ्तर इसी शहर में था। इस अवधि के दरमियान कभी उसे यह बहुत जरूरी इसलिए भी नहीं लगा क्योंकि वह ‘कविता का जीवन’ में शामिल ‘हमारी लाचारी’, ‘कविता का सवाल’, ‘सामान्य व्यवहार’, ‘हिंदी पत्रकारिता’ और ‘एक गरीब का अकेलापन’ जैसी कविताओं से बाहर नहीं आ पा रहा था। सुबह की सैर में रेजीडेंसी जाने पर ‘पुश्तैनी तोप’ भी बहुत दूर तक घेरकर मारती :
‘‘आप कभी हमारे यहां आकर देखिए
हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है
एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा मुश्किल है
हमारी इस मिल्कियत का
पीतल हो गया है हरा, लोहा पड़ गया है काला’’
उसे ‘सामान की तलाश’ पढ़ने की तलब फिलहाल नहीं थी, क्योंकि इस संग्रह की शीर्षक कविता समेत कुछ कविताओं पर हिंदीसाहित्यसंसार में इतना शोर मचा था कि दृश्य को स्पष्ट देख सकने के लिए दृश्य से दूरी बना लेने की शर्त समझ में आने लगी थी। ‘सामान की तलाश’ शीर्षक कविता सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के 150 साल पूरे हो जाने पर लिखी गई। इस संग्रह के बाद से ही असद ज़ैदी की शिनाख्त एक राजनीतिक कवि के तौर पर की गई और अब इस पहचान से उन्हें निजात नहीं और न ही इससे निजात पाने की उनके यहां कोई कोशिश। उनकी कविताओं पर जारी बहस के बीच में उनके कुछ साथियों ने कहा कि उन्हें एक मुस्लिम हिंदी कवि के रूप में भी देखा जाना चाहिए, यह उनके कवि-कर्म के मूल्यांकन में सहायक होगा। वह कभी उन्हें इस तरह नहीं देख पाया। ‘सामान की तलाश’ की वे कविताएं उसे सबसे खराब लगती थीं, जिन्होंने ऐसे आग्रहों को जमीन मुहैया कराई। दृश्य से दूरी बना लेने की शर्त मानने के बाद अब ‘सामान की तलाश’ भी उसे एक बेहद कमजोर कविता लगती है। बेहतर कविताओं की एक शक्ति उनके याद आने में भी है... आलोचना-प्रणालियों को — अगर वे अपने मौलिक चेहरे में कहीं हैं तो — इसका भी ख्याल रखना चाहिए। ‘सामान की तलाश’ की कुछ कविताओं ने एक दौर में उसका खूब साथ निभाया और वक्त जो आने को था — बहुत कुछ को उसके लिए नापैद बनाता हुआ — उसमें वे कई प्रसंगों में, अवसरानवसर याद भी बहुत आईं। वे कविताएं थीं : ‘अप्रकाशित कविता’, ‘हलफनामा’, ‘कोमल रे असावरी’, ‘बहिर्गमन’, ‘घर की बात’, ‘एक याद’, ‘सरलता के बारे में’, ‘एक उम्र’, ‘हिंदी साहित्य विमर्श’, ‘अल्मारी’, ‘किराएदार’, ‘यात्रा-बिंब’, ‘दूसरी तरफ’, ‘पुरस्कार समारोह’, ‘दिव्य नाश्ता’, ‘नौबतपुर में रंगमंच का हाल’, ‘अनुवाद की भाषा’।
असद ज़ैदी का कवि-कर्म करुणा से शुरू होकर व्यंग्य और फिर हिकारत की प्रमुखता तक आया है। यह बदलाव संग्रह-दर-संग्रह हुआ है। यह उनका विकास-क्रम है और इसलिए शोचनीय है। शाया संग्रहों से बाहर की उनकी नई कविताओं पर नजर मारने पर कहीं करुणा, कहीं व्यंग्य, कहीं हिकारत नजर आती है। एक कवि की जिंदगी में ‘सरे-शाम’ यह हादसा है या सबक — सब कुछ इतना बिखरा हुआ है कि — फिलहाल इस पर कोई राय नहीं बनती। ‘लाल किताब’, ‘शल्यचिकित्सा’, ‘करने वाले काम’, ‘एक मुलाकात’, ‘इब्तिदाए इश्क’, ‘राज्यसभा’, ‘जागना रोना’, ‘वेणुगोपाल, आदिकवि, 1942-2008’, ‘खाला का घर’, ‘अनुभवी हाथ’, ‘अठारह महीने’, ‘पहाड़ी गांव, पर्यटक, कवि’, ‘असील घराना’, ‘शानदार लोग’, ‘बाप की जायदाद’, ‘पुरानी बात’, ‘होटल खुरासान’, ‘राग भूप’, ‘दान-पुण्य’, ‘कवि-राजनेता’, ‘कठिन प्रेम’, ‘शिकस्त’, ‘पांच स्टेशन’, ‘खाना पकाना’, ‘आहत भावनाओं का युग’, ‘कुछ एकालाप’ शीर्षक साल 2008 के बाद मुमकिन हुईं कविताओं से गुजरकर वह पाता है कि ये कविताएं असद ज़ैदी की पूर्ववर्ती कविताओं की तुलना में मुंहचढ़ी, नकचढ़ी और प्राय:उद्धृत या बहसतलब कविताएं अब तलक नहीं बन पाई हैं। घर-परिवार, रोजगार, प्रेम, पराभव, स्मृतियां, यात्राएं, संगीत, राजनीतिक यथार्थ और कुछ प्रायश्चितों वाले —उनके कविता-संसार में — अब तक कामयाब और आजमाए गए औजारों और नुस्खों के बावस्फ इन कविताओं में रुलाने, चौंकाने और याद आने की सामर्थ्य नजर नहीं आती। बाजदफा अखबारी यथार्थ को काव्यात्मक वक्तव्य-सा बना देने का नया कौशल जरूर है :
‘‘उन समाचारों को फिर से लिखो
जो अफवाहों और भ्रामक बातों से भरे थे
कि कुछ भी अनायास और अचानक नहीं था
दुर्घटना दरअसल योजना थी’’
‘सामान की तलाश’ पर वापस आएं तब कह सकते हैं कि वह उसे लखनऊ में इसलिए भी नहीं चाहिए था क्योंकि उसे वह दिल्ली में खरीद चुका था— विश्व पुस्तक मेला, 2008 में। इस पर उसने उसके कवि से दस्तखत भी करवाए थे— शुभकामनाएं/सप्रेम/असद – 8 फरवरी 2008। ये शुभकामनाएं, प्रेम, दस्तखत और तारीख वैसे ही कहीं छूट गए जैसे मुस्तकबिल में छूटना था ‘कविता का जीवन’ — कहीं न ले जाती हुई रेलगाड़ियों में सफर करते हुए — यात्रा-बिंबों के साथ।
यहां आकर उसके संदर्भ में यह प्रचलित वाक्य लिखना चाहिए कि ‘जीवन अपनी रफ्तार से चल रहा था।’ लेकिन इसे थोड़ा बदलकर भी लिखा जा सकता है कि उसे ‘जीवन अपनी रफ्तार से कुचल रहा था।’ दफ्तर में एक नियंत्रित स्वतंत्रता और दफ्तर से बाहर एक उपेक्षित अराजकता उसे अस्थिर कर रही थी। उसके शब्द उससे छूट रहे थे। वे उसके जज्बातों और इशारों से बाहर दूसरों की सुन रहे थे। अनपढ़े उपन्यास अनपढ़े ही पड़े हुए थे और अधूरे पढ़े उपन्यासों के सफे वहीं के वहीं मुड़े हुए थे। उनमें से एक अज्ञेय का ‘नदी के द्वीप’ भी था जिसका यह सफा पढ़कर एक शाम वह फिर कभी दफ्तर न लौटने के लिए दफ्तर से बाहर निकल गया था :
‘‘अवध की शामें मशहूर हैं, लेकिन हजरतगंज में शाम होती नहीं, दिन ढलता है तो रात होती है। या शाम अगर होती है तो अवध की नहीं होती— कहीं की भी नहीं होती, क्योंकि उसमें देश का, प्रकृति का कोई स्थान नहीं होता, वह इंसान की बनाई हुई होती है : रंगीन बत्तियां, चमकीले झीने कपड़े, प्लास्टिक के थैले-बटुए, किरमिची होंठ कमान-सी मूंछों पर तिरछे टिके हुए और ऊपर से रिकाबी की तरह चपटे फेटट हैट... और राह चलते आदमी जिनके सामने बौने लगने लगें, ऐसे बड़े-बड़े सिनेमाई पोस्टरोंवाले चेहरे — कितना छोटा यथार्थ मानव, कितने बड़े-बड़े सिनेमाई हीरो — अगर लोग सिनेमा के छाया-रूपों के सुख-दुःख के सामने अपना सुख-दुःख भूल जाते हैं तो क्या अचंभा कि उन छाया-रूपों के स्रष्टा एक्टर-एक्ट्रेसों के सच्चे या कल्पित रूमानी प्रेम-वृत्तांतों में अपनी यथार्थ परिधि के स्नेह-वात्सल्य की अनदेखी कर जाते हैं तो क्या दोष... यथार्थ है ही छोटा और फीका, और छाया कितनी बड़ी है, कितनी रंगीन, कितनी रसीली...।’’
वह फरार चाहता था। इस दृश्य में दिल्ली में उसके एकमात्र शुभचिंतक योगेंद्र आहूजा जब उसके हाल-चाल जानने के लिए उसे लखनऊ कॉल करते तब संवाद कुछ यूं होता :
यो. आ. : कैसे हो?
वह : ठीक हूं। आप कैसे हैं?
यो. आ. : मैं भी ठीक हूं। तुम्हारा पत्रकारिता में मन लग रहा है?
वह : इसका उत्तर हां या न में नहीं दे सकता। मन लगना ही चाहिए क्योंकि मैं ऊब और एकरसता से घायल होकर यहां आया था। लेकिन मन लग नहीं रहा है। खुद के लिए वक्त कम होता जा रहा है।
यो. आ. : शुरू-शुरू में ऐसा होता है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा और तुम्हें बेहतर लगने लगेगा। बस जैसे भी हो कुछ समय चुरा-बचाकर साहित्य पढ़ते रहना। यह बहुत साथ देता है।
वह : पढ़ नहीं पा रहा हूं, और लगता है कि यही आदत मुझे अशांत कर रही है। ‘कविता का जीवन’ साथ लाया था, जब भी अवकाश मिलता है इससे ही कुछ कविताएं पढ़ लेता हूं। जब तक नींद नहीं आती, मैं इन्हें कहीं से भी खोलकर पढ़ने लगता हूं :
‘‘लोग हमें
हमारे अभिशाप को नहीं पहचानते
वे हमें जानते हैं नामों
और नौकरियों से
जानते हैं असामान्य-सा इनका
कोई व्यवसाय है
पर व्यवसाय है
गोया हम नहीं हैं कोई और इसके अलावा
गोया हमने कुछ किया ही नहीं
इसके अलावा
जैसे कि उन्हें कुछ दिखाई ही
नहीं देता इसके अलावा’’
यो. आ. : क्या तुमने जैक लंडन की कहानी ‘मैक्सिकन’ पढ़ी है? एक अद्भुत, महान कहानी। उसमें एक दुबला-पतला, कुछ रहस्यमय युवक है, मैक्सिकी क्रांति का एक सिपाही। क्रांति के लिए धन की व्यवस्था करने वह सीमा से अमेरिका में अवैध रूप से घुसता है। वहां शिकागो की गलियों में मुक्केबाजी के शो होते हैं, पहले से तय। उसे पेशेवर गुंडे मुक्केबाजों से मुकाबला करना है। वहां हर मुक्का बिकाऊ है, हर पिटाई बिकी हुई है। हर हार या जीत का दाम तय है। खेल के नियम, रेफरी, माहौल सब कुछ उसके खिलाफ है। वह कमजोर और कुपोषण का शिकार है। मगर उसके पास जो ताकत है उसकी वे पेशेवर गुंडे कल्पना भी नहीं कर सकते। एक विचार की और एक सपने की ताकत।
उसे अपने भीतर ऊर्जा का एक-एक कतरा बचाना है। हिसाब लगाते हुए कि सासेज का एक बासी टुकड़ा कब खाएगा, वह कितनी देर के बाद उसे कितनी ऊर्जा देगा। उस वक्त कौन-सा राउंड होगा, सामने के बॉक्सर की कितनी ताकत खर्च हो चुकी होगी, कितनी बाकी होगी। निर्णायक पल आने तक उसे ऊर्जा का हर कतरा, हर बूंद बचाते हुए केवल पिटना है, लहूलुहान हो जाना है। वह जब चाहे अपनी पिटाई के दाम वसूलकर मुकाबले के बाहर हो सकता है। लेकिन उसे इनाम की सारी रकम चाहिए, या कुछ भी नहीं। वह आखिरी क्षण में वार करेगा अपनी सारी ऊर्जा, सारी ताकत समेटकर, बेहोश होने के एक पल पहले। या तो खत्म हो जाएगा या सारा इनाम पाएगा।
‘‘दिन में तलाश की अपनी दिक्कतें हैं
अवकाश नहीं मिलता’’
वह ऊपर उद्धृत दो पंक्तियां सुनाकर उन्हें ‘शुक्रिया’ कहता और वह ‘शुभकामनाएं’ ...संवाद यहीं रुक जाता।
वह योगेंद्र आहूजा के दिए गए परामर्श से पूर्व ‘मैक्सिकन’ के नायक की तरह ही सोच रहा था। वह ‘कविता का जीवन’ के साथ अकेला हो गया था और उसे लगने लगा कि इसे और इससे पूर्व पढ़े सारे कविता-संग्रह उसने बहुत हड़बड़ी में पढ़े थे। वह इस कदर उनसे घिरा रहता था कि उन्हें पढ़कर जल्द से जल्द उनसे मुक्त होना चाहता था। आस-पास इतना अपरिचय था कि इस प्रक्रिया के बाद उसने जाना कि बेहतर कविता से कभी मुक्त नहीं हुआ जा सकता, अगर ऐसा हुआ है तो जरूर कहीं कोई जल्दबाजी हुई होगी। वह यहां स्मृति से दर्ज कर रहा है :
‘‘जीवन के अंत में अचानक दिखाई देंगी
हमें अपनी कुछ कारगुजारियां’’
इसके बाद एक पंक्ति का स्पेस है और फिर आगे की पंक्तियां हैं :
‘‘अरे हमें खुद कभी पता नहीं चल पाया कि हम
एक बेहतर दुनिया के लिए जिए थे’’
यह ‘जीवन के अंत में’ शीर्षक से एक पूरी कविता है और उसे इस दर्ज को संग्रह से देखकर जांचने की जरूरत नहीं है। वह गलत नहीं हो सकता क्योंकि ‘कविता का जीवन’ की बहुत सारी पंक्तियों ने उसकी स्मृति में आवास बना लिया था।
*
लखनऊ में रहनवारी के दिन प्यार में रहनवारी के दिन भी थे। इसमें जब नाकामयाबी तय हो चली तब उसने एक रोज असद ज़ैदी की इन पंक्तियों को अपनी निजता में सार्वजनिक किया :
‘‘प्यार जो अपार कोलाहल में शांत रहा
प्यार जो दोपहर भर महसूस नहीं हुआ
प्यार जिसने अजनबियों से घृणा नहीं की
परिणाम जो कारण में बदल गया’’
आठवें दशक की हिंदी कविता में असद ज़ैदी अकेले कवि हैं, जिनके पास विशुद्ध प्रेम-कविताएं हैं। ‘आयशा के लिए कुछ कविताएं’ शीर्षक से संपन्न चौदह कविताएं उन्हें अपने साथी कवियों से बहुत दूर ले जाती हैं। वह एकदम अलग से चमक उठते हैं। वह फिलहाल इस चमक से दूर था, लेकिन उसने इसे दूरियों में भी पा लिया क्योंकि एक अपार कोलाहल में उसे शांति से रोने की जरूरत महूसस हुई :
‘‘मैं तुम्हारे शरीर का खोया हुआ हिस्सा हूं
जो अपनी भूमिका भूल-सा गया है
मैं कभी न पहचाना गया चोर हूं भीड़ में व्याकुल
छिपकली की कटी हुई पूंछ हूं
दीवार पर भटकती हुई
तुम्हें न स्वीकार करने दी गई वास्तविकता हूं
मैं तुम्हारे सतत श्रम का छीना गया परिणाम हूं
नींद में भी नहीं मिलता
और पता नहीं कब कहां होकर गुजर जाता है
आयशा मैं तुम्हारी मौत हूं रुकी हुई
तुम्हें खोजती हुई तुम्हारी खोज हूं
एक ठंडी करुणा में सब पर हंसती हुई’’
*
...और एक रोज उसने लखनऊ छोड़ दिया और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में कई महीने भटकता रहा। जब भी उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारा घर कहां है? उसने कहा : यहीं। वह उत्तर प्रदेश का होकर भी उत्तर प्रदेश को सबसे कम जानता था, लिहाजा वह ज्यादा जानने की कोशिशों में भटकने लगा। रेलगाड़ियां उसका घर हो गईं। वह शहरों, कस्बों और गांवों से एक लगातार में गुजर रहा था। सूर्योदय-सूर्यास्त और आसमान और सब कुछ के सारे बदलते हुए रंग, पतझड़ समेत सारी ऋतुएं और वृक्ष उसके साथ भाग रहे थे। जल उसके साथ बह रहा था। धूल उसके साथ उड़ रही थी। धूप उसके साथ जल रही थी। डबरों और खेतों में उठती-बैठती मानवाकृतियां और हवाएं और सारी सजीवताएं उसके साथ चल रही थीं। बादल उसके साथ बरस रहे थे। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे, जब चुनाव-प्रचार के सिलसिले में देवरिया से नोएडा आ रही एक बड़ी कार में उसे लिफ्ट मिली। वह थककर बहुत चूर हो चुका था। जब उसकी नींद खुली उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनना तय हो चुका था। उसे लखनऊ बहुत याद आया और आलोकधन्वा भी :
‘‘दूर था अवध का शहर लखनऊ
और रेखते से भीगी
उसकी दिलकश जबान
फिलहाल कोई एक देश नहीं
गोधूलि में पहले तारे के सिवा
पीठ के पीछे जो शहर था
वह शहर था भी और नहीं भी था
बनते-बनते उसे
अभी बनना था’’
बाद इसके उसने अपनी थकान उतारने के लिए नोएडा में एक आठ घंटे बैठने वाली नौकरी पकड़ी, और नई तरह से थकने लगा। वह दिल्ली में — जो बकौल असद ज़ैदी : ‘‘एक हृदयविदारक नगर है’’ — फिर लगभग दुबारा बस गया। इस हृदयविदारक नगर में जब वह बहुत महरूम महूसस करता और बहुत व्याकुलता बहुत घेर लेती और बहुत रोने को बहुत जी करता, वह ‘बहनें और अन्य कविताएं’ की वही जर्जरित किंतु लैमिनेटेड काया उठाता और बहुत गर्म हवा फेंकते सीलिंग फैन के नीचे नंगे बदन पसीने में भीगते हुए पढ़ता :
‘‘यह आदमी रोएगा नहीं जब जिस्म में
खून की बहुत कमी होगी
थकान काइदा बन जाएगी रोज का तब यह नहीं थकेगा’’
लेकिन वह रोता और पता नहीं चलता कि चेहरे पर आंसू कहां हैं, पसीना कहां। नमक नमक से मिलता और अनुराग अनुराग से :
‘‘यह प्यार है या चीजों के प्रति
अपने अंदर लंबे समय से पलती
एक खामोश चिढ़
यह प्यार है नम्रता से लिया जाता
कोई बदला
यह प्यार है जिसका नाम सुनते ही
थकान मुझे घेर लेती है
मैं तुम्हारा हाल जानना चाहता हूं आयशा
दूरी के इतने बरस
बीत जाने के बाद इस विषय पर
तुम्हारे अपने ख्यालों के साथ’’
दुबारा मिली दिल्ली में कुमार अम्बुज की कविता-पंक्तियों के सहारे कहें तब कह सकते हैं कि उसे जरा-सी देर में एक ऐसी नौकरी मिली जो आज तक नहीं छूटी। असद ज़ैदी के बाद के दो कविता-संग्रह — ‘कविता का जीवन’ और ‘सामान की तलाश’ — न जाने जीवन की आपाधापी में कहां छूट गए। उनके तीनों संग्रहों को अपने में समाए और उनसे ही सप्रेम पाई ‘सरे-शाम’ शीर्षक वाली जिल्द भी न जाने कौन उड़ा ले गया। लेकिन विष्णु खरे की दी हुई ‘बहनें और अन्य कविताएं’ की वह जर्जरित काया, विनय दुबे की चुनी हुई कविताओं के चयन का शीर्षक लेकर कहें तो ‘फिलहाल यह आसपास’ है— अब तक, जबकि करीब दो साल से भी ज्यादा उसने उसे खुद से दूर रखा। इधर के सालों में उसकी असद ज़ैदी से कई मुलाकातें और बातें भी हुईं। वह उनके साथ दिल्ली से लखनऊ भी जा-आ सका और उनकी कई नई और असंकलित कविताएं भी पढ़ सका। लेकिन उसने उन्हें कभी यह नहीं बताया कि वह आज तक उनकी पहली किताब की एक ऐसी प्रति के अनुराग में गिरफ्तार है जो अक्सर उससे कहती रहती है :
‘‘अगर मैंने तुम्हें नहीं समझा
तो मैं शत्रु हूं मुझे भूल जाओ’’
5 टिप्पणियाँ:
अद्भुत।
जानदार कवि पर शानदार परिचयात्मक आलोचना।
यह जितना असद है उतना ही अविनाश और विष्णु खरे। हम सब के भटकाव औऱ तलाश का संताप।
देवी
मैं गद्य के दुर्लभत्व और प्रविघि के आविष्कार से इतना सन्न हूं कि ईर्ष्या भी नहीं कर पा रहा। लेकिन अविनाश असद के संकेत भाषाओं में छिपे राजनीतिक विवेक के प्रति अनुदार हैं। अविनाश की पीढ़ी में आस्तित्विक अवसाद बढ़ रहा है। सामाजिक करुणा का राजनीतिक आभ्यंतर असद की बाद की कविताओं में है।
Vah kamaaal ka hai... Kamaaal likha hai. In dino Asad Ji ke sangrha Sare shaam ko doosri baar padh raha hun . Is beech is aalekh ko padhna achchha laga . Anuj Avinaash Ji aur agraj Asad Ji ko haardik Shubhkaamnayen !! Sidmoh.blogspot.in ka aabhaar ...
- Kamal Jeet Choudhary
हिंदी में खराब और नकारे कवियों का एक गिरोह है और इस तरह के जबरन बने या बनाये कवि बहुत हैं |.. .हिंदी के बाल सरीखे युवा कवि भी इससे कहीं बेहतर कविता लिखते हैं / लिख रहे हैं ...
महाभूत चन्दन राय
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