गए साल के दिसंबर का वह कोई एक रविवार था। सर्द वक्त जल्द ही अंधेरे में डूबने वाला था, जब मैं उनके उस घर में दाखिल हुआ जो किराए का था। अपनी तीसरी पत्नी भूमिका द्विवेदी से लड़ाई-झगड़े और मार-पीट के बाद वह अंकुर विहार, गाजियाबाद वाले अपने घर से भागकर यहां रह रहे थे। ठीक-ठाक किताबें, कम्प्यूटर, दवा-दारू और जरूरत की करीब-करीब सारी चीजें उनके आस-पास मौजूद थीं। इन दिनों में ही यास्मीन खान नाम की एक महिला भी मेरठ से उनके यहां आवाजाही कर रही थी, जिसे वह अपनी मित्र कहकर मिलवाते थे और कहते थे कि इसके लिए मैं मुसलमां होने को भी तैयार हूं। बाद में वह नीलाभ को बकौल उनके ही बर्बाद करके गई। यहां पेश बातचीत उनकी इस बर्बादी और भूमिका के साथ उनकी सुलह से कुछ पहले की है। इसे और तवील करने के मौके हमें नहीं मिले। कल उनके इंतकाल के बाद उनकी अंत्येष्टि से लौटकर जब आज अलस्सुबह इसे टाइप कर रहा हूं, उनके साथ हुईं अब तक की सारी मुलाकातें-बातें-बहसें, उनकी अब तक पढ़ीं सारी लिखावटें और उनका चेहरा, एक पूरा जीवन मन-मस्तिष्क और सजल आंखों के आगे घूम रहा है। संभवत: कवि-लेखक-अनुवादक-संपादक नीलाभ से उनके व्यक्तिव और कृतित्व पर की गई यह अंतिम बातचीत (रिकॉर्डेड) है।
—अविनाश मिश्र
‘अब मैं स्त्रियों का बड़ा पक्षधर हूं’
एक लंबी आयु आप संसार और साहित्य में जी चुके हैं, ऐसे में एक बेहद प्रचलित और कुछ गैरइंसानी-सा सवाल है आपसे जिसे कई संवाददाता अक्सर आपदाओं या अनहोनियों के बाद उत्तरजीवियों से पूछते हैं कि कैसा महसूस कर रहे हैं?
देखो, ऐसा है कि हमने कभी चाहा तो नहीं कि हमारे जीवन में आपदाएं आएं, कोई नहीं चाहता है। हमने बस अपने ढंग से जीवन जीने की कोशिश की। हमको इसका मलाल भी नहीं है। लेकिन दो चीजों में हमसे गलती हुई। जैसे, हमें अपना इलाहाबाद वाला घर नहीं बेचना चाहिए था। उस घर में जब हम साढ़े तीन बरस के रहे होंगे, तब आए। जब 2010 में हमने उसे बेचा तो समझो हम पैंसठ के थे। इसका मतलब उस घर में साठ बरस से भी ऊपर हम रहे, मगर पते मेरे बहुत रहे। एक दिन इधर मैंने लिस्ट बनाई तो मुझे पता चला कि बाईस जगहों पर मैं रह चुका हूं, जहां बाकायदा मेरी डाक आती-जाती रही। मैं लंदन भी रहा। लेकिन इतने सारे ठिकानों में भी मेरा इलाहाबाद वाला घर था। केवल इधर तीन ठिकाने ऐसे रहे जहां मैं उस घर को बेचने के बाद रहा। इनमें दो ठिकाने बुराड़ी और एक अंकुर विहार, गाजियाबाद।
इलाहाबाद वाला घर बेचना इसलिए भी एक गलती था, क्योंकि अपना एक ठिया होना चाहिए। वह मेरा घर नहीं, मेरा किला था। मैं जहां भी जाता था, जब भी परेशां होता था, लौटकर उसी घर में आता था। जबकि ईस्ट ऑफ कैलाश वाला घर भी मेरे पास था। लंदन वाला घर भी था।
ये दोनों घर अब भी हैं ?
लंदन वाला बेच दिया और ईस्ट ऑफ कैलाश वाला घर मेरी पत्नी का है। जैसे अंकुर विहार वाला घर अब भूमिका का है। मैं तो नहीं कहता उससे कि मैं अपने घर आऊंगा, मैं तो कहता हूं कि मैं तुम्हारे घर आऊंगा।
ईस्ट ऑफ कैलाश वाला घर आपकी दूसरी बीवी का है?
नहीं, मेरी पहली पत्नी का।
और बुराड़ी वाला?
वह तो मेरा था। मैंने और मेरी दूसरी बीवी ने मिलकर लिया था, लेकिन उसकी डेथ हो गई। बच्चों ने अपना हिस्सा लेकर बाकी एक तिहाई मेरे नाम कर दिया और मैंने भूमिका के। इसका कोई मलाल नहीं है।
दूसरी गलती?
भूमिका से शादी करना। वह भी बिना सोचे-समझे, बिना ज्यादा वक्त अदा किए। उस वक्त मैं इमोशनली बहुत हिला हुआ था। अगर वह अच्छी निकल गई होती तो आज सारे लोग मुझसे रश्क कर रहे होते। लेकिन वह अच्छी नहीं निकली। इसमें दोष मेरा ही है। मुझे और ज्यादा वक्त देकर और ज्यादा परखकर शादी करनी चाहिए थी उससे। बस अब यही और बहुत आजाद महसूस कर रहा हूं। मैं तो उससे कई बार कहता हूं कि तुम मुझसे तलाक लो और किसी अच्छे आदमी से शादी करो। तुम्हारी जो इच्छाएं हैं, वे बहुत हैं। तुम उम्दा से उम्दा गहने चाहती हो। उम्दा से उम्दा घर चाहती हो। उम्दा से उम्दा घूमना-फिरना चाहती हो। कार-मोटर चाहती हो...। ये सब मैं एक सीमा तक ही दे सकता हूं। तुम सोचकर आईं कि कोई बहुत मालदार आदमी होगा। वह तो मैं हूं नहीं। तुमने जो कहा था उस पर तुम टिकी नहीं। तुमने कहा था कि मैं तो पेड़ के नीचे भी आपके साथ रह लूंगी। ठीक है, तुम्हारे पास अच्छा-खासा दहेज हो गया है, अस्सी-नब्बे लाख का मकान हो गया है। अभी बिक नहीं रहा, लेकिन जब मार्केट उठेगी तब वह अस्सी-नब्बे लाख का घर है, बल्कि इससे ज्यादा का ही। इसके अलावा गहने हैं बारह-पंद्रह लाख के। करीब चार-साढ़े चार लाख रुपए हैं। फर्नीचर है मेरा सारा वहां, वह भी आज बनवाने जाओ तो करीब दस-बारह लाख का होगा। तो तुम्हारे पास अच्छा-खासा दहेज है, तुम दूसरे से शादी कर लो। मुक्ति दो मुझे और खुद भी मुक्ति पाओ। इस अजाब में क्या रखा है।
बहरहाल, यही दो गलतियां हैं। महसूस तो मैं अच्छा करूंगा, अगर भूमिका मुझे तंग करना बंद कर दे।
आपने कहा कि आजाद महसूस कर रहे हैं अब?
आजादी से तो मैं कोई समझौता कर ही नहीं सकता। क्योंकि कभी मेरी आजादी में कोई खलल नहीं डाला गया। मैं सबसे छोटा था घर में। लेकिन मेरे पिता मुझे बहुत मानते थे। चूंकि उन्होंने और मेरी मां ने शुरू से ही मुझे बहुत कर्तव्यनिष्ठ बनाया। छोटा होकर भी मुझे बहुत कुछ देखना पड़ता था। आज भी जब मेरे घरवालों को जरूरत पड़ती है तो मैं उनके काम आता हूं। बहुतों को मैंने काम दिलाया। दिक्कत यह है अविनाश कि यह है प्रयोजनमूलक हिंदी का युग, तो निष्प्रयोजन कोई आपसे दोस्ती नहीं रखता और मैं निष्प्रयोजन दोस्ती का कायल हूं। दूसरी चीज है कि दोस्ती में जो यार होता है, उसका अच्छा और बुरा आप दोनों स्वीकार करते हैं। यह तो नहीं होता कि अच्छा-अच्छा ले लें और बुरा-बुरा छोड़ दें। बहुत सारे हमारे दोस्तों में गड़बड़ियां रही हैं, लेकिन हम उनकी अच्छाइयों को याद करते हैं। दोस्त तो वही है जो आपको रोक दे।
एक बार मैं पाकिस्तान जाने के चक्कर में था तो मुझसे मेरे पुराने डायरेक्टर ने कहा कि ये इंदिरा गांधी पर दो डॉक्यूमेंट्री फिल्में हैं, इनकी स्क्रिप्ट लिख दो और वॉयसिंग कर दो। मैंने कहा कि इंदिरा गांधी से तो हमारा झगड़ा है।
आपके डायरेक्टर कौन थे?
रमेश शर्मा जिनके साथ मैंने पहले एक सीरियल बनाया था ‘कसौटी’। तो मैंने उनसे कहा कि ये तो हमारे धर्म में ही नहीं है। वह बोले कि नहीं ये फिल्में सेकुलरिज्म पर हैं। इंदिरा गांधी की आपको कोई तारीफ नहीं करनी हैं। हां, उनके परिप्रेक्ष्य में ये जरूर हैं। मैं यह काम करके लंदन से पाकिस्तान चला गया। लौटा तो मुझे आनंद स्वरूप वर्मा ने फोन किया कि भई ये तुम क्या कर बैठे। मैंने कहा कि यार ये गलती हो गई मुझसे। दोबारा नहीं होगी। दोबारा ऐसा कुछ नहीं हुआ। तो कम से कम दोस्त ऐसा हो जो गलती करने पर आपको डपट दे। हमदर्दी के साथ बता दे कि तुमने यहां गलती की। पर वो दोस्तियां अब हैं कहां। हैं नहीं। सारी महफिलें जा चुकी हैं।
मलाल होता है?
अपने किसी फैसले पर मुझे कोई मलाल नहीं। बीबीसी से लोग निकलना नहीं चाहते, मैं खुद छोड़कर चला आया। वहां कोई इस्तीफा नहीं देता है, तो मैंने कहा कि ये रिकार्ड में दर्ज कर लीजिए कि नीलाभ इस्तीफा देकर गया।
बीबीसी में कोई इस्तीफा नहीं देता?
नहीं देता। देखो, लोग पड़े हुए कार्यकाल पूरा होने के बाद भी। मैंने जब इस्तीफा दिया तब मेरे दो साल बाकी थे और इसके बाद वे कह रहे थे कि परमानेंट कर देंगे।
वैसे मलाल होता है मुझे, संगीत न सीख पाने का। मुझे शुरू में ही संगीत सीखना चाहिए था। मेरे घर में बहुत सुंदर एक हारमोनियम था। आज भी है। भूमिका के पास छूट गया। वह जर्मन मेड है और मेरी मां का है।
मैं अखाड़ेबाजी, बॉडी-बिल्डिंग, कुश्ती और न जाने क्या-क्या करता रहा। ये सब भी ठीक है, लेकिन इसके साथ-साथ मुझे संगीत भी सीखना चाहिए था। मैं देर से जागृत हुआ और वह भी मंगलेश डबराल की वजह से। मंगलेश की संगीत में दिलचस्पी बहुत थी। वह जब पड़ोस में रहने लगा, तब धीरे-धीरे हमने जाना कि शास्त्रीय संगीत क्या है। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा मैं तो जैज और अंग्रेजी संगीत सुनता था। जैज तो अब बिल्कुल क्लासिकल म्यूजिक बन चुका है। लेकिन मैं अब महसूस करता हूं कि मुझे अपना संगीत बहुत गहराई से सुनना और सीखना चाहिए था।
मंगलेश जी अच्छा गाते भी हैं?
हां, यही मानना चाहिए।
आपने सुना है?
हां, मैंने सुना है। कई बार सुना है। ठीक है कि वह दारू पीकर ही गाता है, जब एकाध पैग हो चुका हो।
और कोई मलाल नहीं?
नहीं। ये जो घर है किराए का है तो क्या हुआ हजारों-हजार लोग किराए पर रहते हैं। सुमित्रानंदन पंत ही सारी उम्र किराए पर रहे। हमारा तो बंगला इलाहाबाद वाला इतना बड़ा था कि एक पूरी कॉलोनी बस जाए। वह चौबीस सौ गज का था। फूल-पत्तियों का बहुत शौक है मुझे, लेकिन वह शौक भी अब जाता रहा। मलाल नहीं है लेकिन। यह शौक पूरा करना होगा तो किसी बाग में चले जाएंगे।
स्त्री-पुरुष संबंधों में आप वफादारी या एकनिष्ठता को कैसे देखते हैं?
देखो, वफादारी हमेशा दोहरी होती है। मैंने बहुत बदसूरत औरतों को बहुत खूबसूरत मर्दों के साथ शादीशुदा रहते देखा है और इसमें पतियों को बहुत एकनिष्ठ भी पाया है। वह कौन-सी चीज है जो उन्हें बांधे रखती है। ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में अवसर नहीं आते। मैंने ही बहुत खूबसूरत औरतों के पतियों को इधर-उधर मुंह मारते भी देखा है। इसलिए मैं समझता हूं कि शादी का बंधन ही बेकार है। जब प्रेम रहेगा तो आदमी खुद ही इतना बंधा हुआ रहेगा कि उसे दूसरी ओर जाने की जरूरत क्या है, जब तक कि वह कोई बिल्कुल ही पैथालॉजिकल केस नहीं है। मेरे तो बहुत सारे अफेयर्स रहे पहली बीवी के जमाने में जिसके साथ मैं अट्ठाईस साल रहा, बाकायदा शादीशुदा। दूसरी बीवी के साथ मैं अठारह साल रहा और मेरा एक भी अफेयर नहीं हुआ, जबकि मैंने उसके साथ शादी भी नहीं की थी। हम लिव-इन में रहते थे।
पहली बीवी से आपके अलगाव की और उनके साथ रहते आपके दूसरे अफेयर्स की वजहें क्या थीं?
देखो, जब तक मेरी बीवी मेरे प्रति एकनिष्ठ रही, यह जरूरी नहीं कि यह एकनिष्ठता किसी दूसरे मर्द से खंडित होती हो, जब उसने बच्चों को मुझसे ज्यादा तवज्जोह देना शुरू की, तब मेरा महत्व घट गया। क्या जरूरत है फिर उसको मेरी। मेरे बच्चे उसके सामने ही मुझे कहने लगे कि आपको क्या समझ है। ठीक है फिर नहीं समझ है तो। असल में दोष मेरी पहली पत्नी का नहीं था, उस परिवेश का था जहां से वह आई थी। सवाल यह नहीं है कि वह कायस्थ थी और मैं ब्राह्मण था। सवाल यह था कि वह आई थी एक न्यूक्लियर फैमिली वाले सेट-अप से। सरकारी अफसर हो, कोई आईएएस हो, कोई सास-ससुर न हो, कोई सौतेलापन न हो कहीं। पति-पत्नी-बच्चे और उसी में रमना। पति आया ऑफिस से, रिलेक्स किया, चाय-वाय पी और फिर दोनों सौदा-सुलुफ लेने निकल गए। वहां से लौटकर आए खाना खाया, सो गए। लेकिन मेरी जिंदगी ऐसी नहीं थी। मैं एक कवि हूं, लेखक हूं। मेरी भिन्न दिलचस्पियां हैं। हालांकि मेरी पहली बीवी बहुत गुणी थी। सारे स्त्रियोचित गुण थे उसमें, साथ ही वह बिजनेस भी मैनेज कर लेती थी। उसके साथ मेरी शारीरिक जिंदगी भी अच्छी थी। बस ज्वाइंट फैमिली सेट-अप में उसे दिक्कत होती थी। जाहिर है कि जिस परिवार में आपका बड़ा भाई सौतेला हो और उसके साथ आपका अपने भाइयों जैसा संबंध हो, सौमनस्य हो तो यह तो होगा ही। हमारे घर में कुछ भी बंटा हुआ नहीं था और सबकी सारी जरूरतें पूरी होती थीं। लंदन जाने के बाद ये हुआ कि वहां वो मालकिन थी।
लंदन आप परिवार के साथ गए थे?
हां, पत्नी-बच्चे सब।
वहां आपकी पत्नी खुश थीं?
हां, वहां तो वह एक लांड्री चलाती थी, उसकी मालकिन थी। बाद में उसे एक लाइब्रेरियन की भी जॉब मिली। लेकिन बाद में बहुत दिक्कतें हुईं। जब मैं सीरियल बना रहा था, तब वह बहुत क्रोनिक हो गई। क्योंकि मैं चाहता था कि वह यहां आकर रहे या कम से कम महीने में दस दिन तो रहे। लेकिन वह बिल्कुल भी नहीं आती थी। कभी बच्चे का ये देखना है, कभी बच्चे का वो देखना है, कभी फलाना, कभी कुछ... अरे वह बच्चा क्या था, अठारह-उन्नीस बरस का लड़का था अच्छा-खासा।
बच्चों पर आप ध्यान नहीं देते थे?
ऐसा नहीं है, बच्चों पर मैं भी ध्यान देता था। लेकिन बच्चे आखिर बच्चे होते हैं, उन्हें इस लायक बनाओ कि खुद अपना ध्यान रख सकें। हमारी मां कैसे बिजनेस करती, अगर इस सबमें ज्यादा पड़ती। हिंदी की पहली महिला प्रकाशक थीं वह। मेरी मां खाना भी बहुत अच्छा बनाती थी। उससे अच्छा खाना और कोई नहीं बनाता। वह भी सब चीजों में माहिर थी। मेरी पत्नी उसकी कॉपी थी एकदम। उसे तो किसी बड़े मिलिट्ररी अफसर की, किसी आईएएस की, किसी प्रिंसिपल की पत्नी होना चाहिए था। कहां वह पड़ गई मेरे जैसे फक्कड़ आदमी के पल्ले। ऐसे में दिक्कतें तो होनी ही थीं। कई बार बच्चों की वजह से होने वाली प्रॉब्लम्स को आप मुल्तवी भी कर देते हैं। लेकिन आप प्रेम तो ढूंढ़ते ही हैं, घर में नहीं तो बाहर। इससे एतराज नहीं होना चाहिए। आदमी किसी की प्रॉपर्टी नहीं होता है कि जिस पर हक जताएं, उसके लिए लड़ें।
एक बार उसने मुझसे पूछा कि आप ये जो इधर-उधर इश्कबाजी करते रहते हैं, अगर मैं करूं तो। मैं कहा कि पहली बात तो ये है सुलक्षणा कि अगर तुम्हारे ऊपर इतना ही इश्क सवार होगा तो तुम मुझसे पूछने नहीं आओगी। मैं तुम्हें अभी नहीं बता सकता कि तब मेरा क्या रिएक्शन होगा। हो सकता है कि मैं बिल्कुल नजरअंदाज कर दूं, हो सकता है कि मैं बहुत नाराज हो जाऊं। दरअसल, औरतें चाहती तो हैं बाज और शेर, लेकिन जब शेर मिलता है तो उसके गले में पट्टा पहना देती हैं। इसके बाद वह शेर नहीं रहता, कुत्ता बन जाता है और बाज भी पिंजड़े में आकर गौरैया से बदतर हो जाता है।
सर्कस का शेर भी नहीं?
सर्कस का शेर भी कुत्ता ही है। और बाज तो पिंजड़े में बुलबुल भी नहीं रह जाता, क्योंकि बुलबुल तो कैद में भी गाएगी। बाज नहीं गा सकता। उसकी फितरत है उड़ना। यह दोनों के साथ है। एक लेडी बाज ले आइए और उसे पिंजड़े में डाल दीजिए, उसकी भी वही हालत होगी जो मर्द बाज की।
क्या आप हिंदीसाहित्यसंसार में खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं?
शिकायत तो ये लगभग सभी लेखकों को रहती है कि वे उपेक्षित हैं। मुझे भी है तो कौन-सी बड़ी बात है। क्या करिएगा। लेकिन मैं बिल्कुल खुद को उपेक्षित महसूस करता हूं। मैंने अपने साथियों से कमतर नहीं लिखा है। अगर निचोड़ सबका निकाला जाए तो मेरा बीस ही पड़ेगा। यहां तुम एक किस्सा सुन लो। मुझसे किसी ने एक दफा पूछा कि भाई क्या करते हो? मैंने उससे कहा कि देखो भाई मैं सत्रह साल की उमर में एक औरत के भयंकर प्रेम में पड़ा। अज्ञेय से एक बार किसी ने पूछा था कि आप स्त्री में क्या देखते हैं? उन्होंने कहा था कि मैं उसे पीछे से देखता हूं। उसकी गेट कैसी है, उसकी चाल कैसी है। जाहिर है कि यह उसके नितंबों के बारे में है। तो मैंने एक औरत को अपने पास से गुजरते देखा, सफेद साड़ी में। मुझे वह बहुत मोहक-आकर्षक लगी। मैं उसके पीछे हो लिया कि देखूं उसका चेहरा कैसा है। मैं तेज हो जाऊं तो वह और तेज हो जाए। मैं धीमा हो जाऊं तो वह भी धीमी हो जाए। बहुत दिनों तक यह चलता रहा। मैं ऊबिया गया। मैंने कहा कि ऐसी की तैसी में जाओ। मैं दारू में चला गया। फिर लौटकर आया तो देखा कि वह वहीं खड़ी है पेड़ के पास। फिर मैं उसके पीछे हो लिया। वह फिर आगे बढ़ गई। यह खेल चलता रहा। वह शक्ल दिखाने को राजी नहीं। मैंने कहा कि यार ये तो मानती ही नहीं। इससे क्या प्रेम करना। अबकी बार मैंने कहा कि चलो कहीं और लौंडियाबाजी-इश्कबाजी करते हैं। उधर चले गए। लेकिन है वह बहुत ईर्ष्यालु, आपका इश्क कामयाब नहीं होने देती। फिर जब मैं उधर से घूम-फिरकर, तृप्त या अतृप्त जो कहो होकर आया, देखा फिर वह खड़ी है। फिर मैं उसके पीछे हो लिया। अगर मैं कहीं बैठ गया, तो वह भी बैठ गई। यह क्रम आज तक चल रहा है। वह मुड़कर देखती ही नहीं और हम कहते हैं कि बिना देखे तुम्हें हम मानेंगे नहीं। तो समझो कि यह उपेक्षा उसी की है।
चेहरा नहीं देख पाए आप?
हां। समझो कि कौन है वह— दुर्गा और लक्ष्मी से ज्यादा हठी। वह पूरा आदमी चाहती है। उसकी मांगें बहुत सख्त हैं। उसकी चिंता से ऊपर आपने कोई और चिंता रखी तो वह बर्दाश्त नहीं करती है। वह चाहती है कि आप बस उसी के होकर रहें। फिर कहां जा सकता है भला आदमी, मर गया वह। बाकी साली ये कवि-संसार की उपेक्षा से मुझे क्या मतलब। तुम समझ गए न मैं किसकी बात कर रहा हूं?
आपने उसे दुर्गा-लक्ष्मी से ज्यादा हठी बताया है न, इससे सब समझ जाएंगे कि वह कौन है।
मैं उसे तंबूरेवाली कहता हूं। अचानक एक रोज उसने अपने हाथों में तंबूरा पकड़ लिया। मेरे बाल पक गए हैं, लेकिन वह अब तक जवान है। अब इससे ज्यादा क्या होगा भाई। अगर मेरी कविता में दम होगा तो पाठक मुझे जिला देंगे अविनाश। तुम्हें बताऊं कि भास का जिक्र मिलता था, उनके नाटक कहीं नहीं मिलते थे। फिर 1912 के आस-पास तेरह नाटक मिले।
हां, अभी। लोग दंग रह गए। कालिदास तो कवि हैं, नाटक तो भास के देखो। उनमें नाटकीय गुण कम हैं, लेकिन उनमें नाटक है। ‘उरुभंगम’, ‘पंचरात्रम्’, ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘दरिद्र चारुदत्तम्’ जिसके शुरू के चार अंक हूबहू शूद्रक ने लिए ‘मृच्छकटिकम्’ में और आगे की कथा विकसित कर ली।
कालिदास के नाटक आपको पसंद नहीं हैं?
हैं, लेकिन उनके नाटकों में काव्य बहुत है, नाटक कम है।
आपकी नजर में मित्रता की परिभाषा क्या है?
हमारे पिताजी कहते थे कि मैत्री हमेशा एकतरफा होती है। लेकिन हम इसे इस रूप में देखते हैं कि कुछ संबंध होते हैं जिन्हें आप बदल नहीं सकते। अब बाप-महतारी को आप क्या बदलेंगे। भाई-बहन, चाचा-चाची आदि को क्या बदलेंगे। लेकिन मित्र और बहुत संभव हो तो स्त्री आप खुद चुनते हैं। इसलिए इन संबंधों को मैं बहुत बड़ा भी मानता हूं। मित्रता में उसे बरतने और निभाने की सलाहियत होनी चाहिए। हालांकि तुलसीदास मेरे प्रिय कवि नहीं हैं, लेकिन उनकी कुछ सूक्तियां मुझे बेहद पसंद हैं, जैसे कि ये : ‘धीरज धरम मित्र अरु नारि/ आपद काल परिखिअहीं चारि।’ जरूर ये सूक्ति उन्होंने संस्कृत से उठाकर पेली है। वह अद्भुत अनुवादक हैं। मतलब किसी को अनुवाद सीखना हो तो ‘श्रीरामचरितमानस’ से बेहतर कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है। संस्कृत का मूल देख लो और देखो कि कैसे उसे अपना बनाकर तुलसी ने डाल दिया है। यह कौशल है। इसलिए कुशल कवि हैं तुलसी। बाकी तो ‘रामचरितमानस’ पॉलिटिकल ग्रंथ है, वह कोई धार्मिक किताब थोड़े ही है। तुलसीदास मामूली मेधा नहीं हैं। वह बहुत बड़े कवि हैं, लेकिन मुझे जायसी पसंद हैं। जायसी मुझे बहुत छूते हैं। उनकी अवधी, उनका विषय सब तुलसी से बहुत बेहतर है।
और ‘गीतगोविंद’?
ठीक है, थोड़ा पढ़कर देखा। छोड़ दिया। मन नहीं लगा उसमें। असल में बहुत ज्यादा मीठा मैं खा नहीं पाता हूं।
कैसी स्त्रियां आपको पसंद हैं?
बड़ा मुश्किल है यह बताना। निस्बतन अब मैं स्त्रियों का बड़ा पक्षधर हूं। मां से लेकर अब तक अगर इतनी स्त्रियों का प्यार न मिला होता तो मैं तो स्त्री-विरोधी हो गया होता। इसलिए मैं इस प्रश्न पर कह सकता हूं कि मुझे वे स्त्रियां पसंद हैं जो प्यार करना जानती हैं।
अकेलेपन से कितना डरते हैं?
मैं अकेले भी ठीक-ठाक रह सकता हूं, लेकिन अकेले रहना अच्छा नहीं लगता।
मृत्यु से डरते हैं?
पता नहीं कैसे आएगी। अभी आई नहीं, जब आएगी तब देखा जाएगा। प्रेमचंद अचानक गए। लखनऊ में पीडब्ल्यूए की मीटिंग से लौटे और बीमार पड़ गए। शिवरानी देवी ने पूछा उनसे कि कुछ कहना है। उन्होंने कहा कि कुछ नहीं और मर गए। मेरे पिता बहुत तकलीफ में गए और नरेश मेहता हवा की तरह। पहली मृत्यु मैंने मां के मौसा की देखी थी। दूसरी मृत्यु दूसरी जीवनसंगिनी की थी। उसे ब्लड कैंसर था। मैं उसे लेकर अस्पताल जा रहा था। उसने कहा कि राजा मैं बच तो जाऊंगी न? उसका नाम रानी था। मैं उसके गम से उबर नहीं पाया। वह अक्टूबर में गई, मैं मार्च तक नार्मल नहीं था।
आखिर सवाल भी पहले सवाल की तरह ही बहुत प्रचलित और रूढ़ है, इसे अक्सर पत्रकार किसी मामले में आदर्श बन चुकी शख्सियतों से पूछते हैं कि आपकी जिंदादिली का राज क्या है?
मैंने अपने शरीर के साथ बहुत अत्याचार किया है, लेकिन इसे साधा भी बहुत है। कई दुःख हैं, लेकिन किससे कहूं। रहीम याद आते हैं और नागार्जुन भी : ‘चाहिए किसको नहीं सहयोग?/ चाहिए किसको नहीं सहवास?/ कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराए यह उच्छ्वास?’ यह वह कवि कह रहा है जो बौद्ध हो चुका है। मन कई बार बहुत अकेला पड़ जाता है। डिप्रेशन के दौर यूं ही नहीं आते हैं। अचानक कभी फिर मन बहुत शांत होता है और अचानक फिर वही कोहराम। ये मन बहुत हिचकोले खाता है।
[कहने की स्वतंत्रता तो है ही कि इसे लाने का समय निर्लज्जता के आईने से देखा जाएगा, सो देखिए. लेकिन यह हमारे बीच का एक void है. इसे भरने के लिए और क्या रास्ता हो सकता था? इसे उपलब्धि की किस श्रेणी में रखेंगे कि नीलाभ का जीवन उनकी रचनाओं से ज़्यादा चर्चा में था. हिन्दी की युवा पीढ़ी ने नीलाभ को पढ़ा नहीं, उनके व्यक्तित्व को जाना. जहां उनकी कविताएं पब्लिक डोमेन में थीं, तो वे खुद भी थे. तो लीजिए, फिर से यहां नीलाभ हैं. यहां नीलाभ 'फॉर्म' में हैं. हम साफ़गोई नहीं सीख सकते तो हम इस रास्ते की लकीर को क्यों पीट रहे हैं. नीलाभ को हम श्रद्धांजलि दे रहे हैं. अविनाश मिश्र को आभार व्यक्त करते हैं. तस्वीर रौनक व्यास द्वारा, उन्हें भी आभार.]
7 टिप्पणियाँ:
इससे ज्यादा बातें कही और सुनी गयीं थी,नीलाभ जी के साथ।वह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।खुसरोबाग वाला मकान बेचतते वक्त मैंने कहा था।सर आप सही नहीं कर रहे।रानी जी का(दूसरी पत्नी) बेटा भी उस वक्त साथ था।दिनेश ग्रोवर जी के यहाँ अक्सर उनसे बहस-मुसाहिबा होता था।व्याकरण,वगैरह के लिए हम सब उनसे राय लेते थे।हालाँकि कि पुरखिन लोग उनसे सावधान रहने की हिदायत देती थीं।पर कभी ऐसा कुछ लगा नहीं ।विनम्र श्रद्धांजलि ।
असल में नीलाभ जी को आज ही समझा...एक ज़िंदादिल आदमी अपनी बेतरतीबियों के बीच से जैसे झूमता हुआ गुज़र गया !
शुक्रिया इस बातचीत को हमारे बीच लाने के लिए। कवि की ज़िन्दादिली देखने के अवसर मिले है.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " डिग्री का अटेस्टेशन - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शुक्रिया बन्धु...
Gyasu Shaikh said:
बातचीत क्या थी,
एक बायोग्राफी ही थी नीलाभ जी की जो यहां दर्ज हुई...! अविनाश जी यह
विश्वास ही था आपके प्रति नीलाभ जी का जो वे बातचीत में इतना खुल
से गए ! सारगर्भित और अपनत्व लिए हुए थे आपके सवाल कि जिनका
मर्म सहेतुक समझते हुए नीलाभ जी ने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिए।
बातचीत रसप्रद रही और पढ़ते-पढ़ते कब ख़त्म हुई कि पता ही न चला। नीलाभ जी
इंसानी बंदे थे। दिखावे का चोखापन न था उन में। वे अपने बयानों में,
अपने वक्तव्यों में साफ़ थे। वे एक भले इंसान भी थे कि जिनका उपयोग
भी हो सके। 28 साल पहली पत्नी के साथ और 18 साल दूसरी पत्नी के
साथ लाइव-इन-रिलेशनशिप में एक लंबे समय अंतराल में उनका रहना
अपने आप में ही एक अलहदा जीवन स्तर दर्शाए। अपने बेच दिए गए घर
की याद और उसका मलाल मर्मस्पर्शी है और तालीमबद्ध संगीत न सीखने
की हूक ऐसी है जो ताउम्र रहे। कितने ही उनके अपने मलालों के बारे में आपने
उन्हें टटोला जिनके कि उन्हों ने काफी उदारता से उत्तर दिए, अपने विषय में
अधिकतर जानकारी दी। कुरेदना आपका उन्हें भी एक निजता लिए हुए ही था
अविनाश जी। और नीलाभ जी भी सारे उत्तर एक अपनत्व की भावना के
तहत देते रहे। उनकी हर बात में एक अपनी सी स्पष्टता थी, विशेषता थी। एक
अच्छा व्यक्ति जिसे शायद कम ही पहचाना गया हो। भूमिका द्विवेदी का लोहा
भी मानना पड़ेगा कि जिनसे मुक्ति पाने को उन्हों ने अर्ज की थी। पर अभी फेसबुक
पर भूमिका की कविता पढ़ी। भूमिका ने पुण्य की सी हद तक जा कर नीलाभ जी
की उनके जीवन के अंतिम समय मे सेवा की, उन्हें संभाला, एक बच्चे
की तरह ही उनकी शूश्रुसा की, जिसकी की उन्हें आवश्यकता थी... इस सेवाभाव
का एहसास सुखद है... इस सेवा लाभ से नीलाभ जी को भी अपने अंतिम समय
में सांत्वना ही मिली होगी।
नीलाभ जी की जो यह पहचान आपने कराई है वह पर्याप्त सी है उन्हें जान ने
पहचान ने को... नीलाभ जी को तहे दिल से हमारी श्रद्धांजलि। उनकी कशमकश
नितांत मानवीय थी और वह जितना भी जिए जीने की तरह जिए और खूब जिए।
अविनाश जी ऐसी अनूठी बातचीत की अपेक्षा तो आपसे रहती ही हैं जिसे
आप फुलफिल भी करो। आप एक सुलझे हुए हस्ताक्षर हो हमारे समय के इस सत्य
को स्थापित करती है आपकी यह बातचीत नीलाभ जी से।
नीलाभ से मैं पहली बार 1969 में मिला था इलाहाबाद में ही. वहीं कॉफ़ी हाउस की गपशप के दौरान अनेक लोगों से उन्होंने परिचय भी कराया था. बढ़िया व्यक्ति थे, विचक्षण थे. उनकी सोच, उनके व्यक्तित्व को उजागर करता बहुत उम्दा साक्षात्कार है.
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