बात को थोड़ा दिशाहीन यहीं से किया जा सकता है कि ये तब लिखा जा रहा है, जब सुबह की कॉफ़ी हाथ में है और नींद महज़ पांच मिनट पहले ही खुली है. यह एक किंचित भौंडा रोमांटिक 'प्रीटेक्स्ट' पैदा करने की ही कोशिश क्यों न लगे, लेकिन ऐसा कर ही दिया तो क्या कर लोगे?
तस्वीर किम की डुक की फ़िल्म 'थ्री आयरन' का आख़िरी दृश्य है. इस तस्वीर ने खुद को मुफ़ीद घोषित किया और मुझसे पूछा कि क्या कर लोगे?
इस ब्लॉग पर आज कुछ इसलिए लिखा जा रहा है कि बगल के ड्रॉपडाउन मेन्यू पर जब आप क्लिक करंगे तो कम से कम जून में आपको एक पोस्ट देखने को मिल जाएगी. हालांकि यह ब्लॉग राष्ट्रवाद की बहसों से दूर नहीं है, यह सच है.
सरकार की नब्ज़ जांचने का कोई भी धागा आपको हवा में हाथ फेरते ही पकड़ में आ जाएगा, उसे आराम से पकड़कर कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ बातें की जा सकती हैं. यह क्या कम होगा कि यह बातें रचना का आधार बन सकती हैं और यही क्या कम होगा कि कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ की यह पकड़ रचना में एक स्थान घेर सके. बुद्धू-बक्सा ने यह नहीं देखा. देखा तो ऐसा कि उसे भी नहीं देखा.
यह कोई 'पंथी' जगह नहीं है, लेकिन खुद के लिबरल होने के दावे को भी इसने पूरी तरह से जस्टिफाई नहीं किया.
इसने फ़िज़ूल के रोमांस के ख़िलाफ़ खड़ा होना स्वीकार नहीं किया, इसने यह माना कि यह रोमांटिसिज़्म रचनाकार का जो भी करता हो, रचना के भले की बात करता है. बुद्धू-बक्सा ने बीते दिनों किसी नए डिस्कोर्स को जन्म नहीं दिया, यह खुद एक लार्जर डिस्कोर्स में हस्तक्षेप की संभावनाएं तलाश रहा था.
इसने बीते दिनों फ़िल्में देखीं, प्रेम किए, नशा किया, कुछ अधूरे गद्य लिखे और उन्हें पोस्ट ड्राफ्ट से चलता कर दिया. फ़िल्में ऐसी थीं जनाब कि कमाल थीं.
हिन्दी में छापने वाले अच्छे ब्लॉगों की कमी नहीं है. वह ठीक-ठीक उतने ही हैं, जितने लिखने वाले. संख्या यह माकूल है. लेकिन शिकायत यह कि इन ब्लॉग मॉडरेटरों की सैद्धांतिक, वैचारिक व राजनीतिक अवस्थिति का अंदाज़ यूं नहीं लग पाता.
चूंकि अपराध, दंगों, बलात्कार और धर्माधारित राजनीति का सबसे बड़ा माध्यम इंटरनेट है, इसलिए यह अपेक्षा कहां से बुरी है कि लेखकों को - ख़ासकर वरिष्ठ लेखकों को - भी प्रिंट के साथ-साथ वेब पर आना होगा. वेब पर, फेसबुक पर नहीं. मुश्किल से एक या दो नाम छोड़ दें तो लिबरल डिस्कोर्स के सबसे बड़े नाम अभी भी वेब पर नहीं है. बुद्धू-बक्सा उनके होने का इसरार करता है तो क्या गलत है?
एक ब्लॉग की चुप्पी ऐसी होती है कि संभावनाओं से भरी होती है. उसमें नौकरी से जूझते रह जाने के बहाने नहीं होते हैं. अव्वल तो उसे बस एक आदमी नहीं चला रहा होता है. काव्य का वैभव अपने प्रभाव में कई शक्तियों को बांधे रखता है. यहां वही वैभव अपने स्वरूप में कार्य करता है.
लिखिए, ऐसा लिखिए कि आपको पुरस्कार न मिले. सभी अच्छे रचनाकारों से सभी बड़े पुरस्कार चुक जाएं तो इससे भला क्या होगा, लेकिन अच्छे रचनाकारों से समाज चुक जाए तो रचनाकार की इससे बड़ी हत्या क्या होगी?
तस्वीर किम की डुक की फ़िल्म 'थ्री आयरन' का आख़िरी दृश्य है. इस तस्वीर ने खुद को मुफ़ीद घोषित किया और मुझसे पूछा कि क्या कर लोगे?
इस ब्लॉग पर आज कुछ इसलिए लिखा जा रहा है कि बगल के ड्रॉपडाउन मेन्यू पर जब आप क्लिक करंगे तो कम से कम जून में आपको एक पोस्ट देखने को मिल जाएगी. हालांकि यह ब्लॉग राष्ट्रवाद की बहसों से दूर नहीं है, यह सच है.
सरकार की नब्ज़ जांचने का कोई भी धागा आपको हवा में हाथ फेरते ही पकड़ में आ जाएगा, उसे आराम से पकड़कर कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ बातें की जा सकती हैं. यह क्या कम होगा कि यह बातें रचना का आधार बन सकती हैं और यही क्या कम होगा कि कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ की यह पकड़ रचना में एक स्थान घेर सके. बुद्धू-बक्सा ने यह नहीं देखा. देखा तो ऐसा कि उसे भी नहीं देखा.
यह कोई 'पंथी' जगह नहीं है, लेकिन खुद के लिबरल होने के दावे को भी इसने पूरी तरह से जस्टिफाई नहीं किया.
इसने फ़िज़ूल के रोमांस के ख़िलाफ़ खड़ा होना स्वीकार नहीं किया, इसने यह माना कि यह रोमांटिसिज़्म रचनाकार का जो भी करता हो, रचना के भले की बात करता है. बुद्धू-बक्सा ने बीते दिनों किसी नए डिस्कोर्स को जन्म नहीं दिया, यह खुद एक लार्जर डिस्कोर्स में हस्तक्षेप की संभावनाएं तलाश रहा था.
इसने बीते दिनों फ़िल्में देखीं, प्रेम किए, नशा किया, कुछ अधूरे गद्य लिखे और उन्हें पोस्ट ड्राफ्ट से चलता कर दिया. फ़िल्में ऐसी थीं जनाब कि कमाल थीं.
हिन्दी में छापने वाले अच्छे ब्लॉगों की कमी नहीं है. वह ठीक-ठीक उतने ही हैं, जितने लिखने वाले. संख्या यह माकूल है. लेकिन शिकायत यह कि इन ब्लॉग मॉडरेटरों की सैद्धांतिक, वैचारिक व राजनीतिक अवस्थिति का अंदाज़ यूं नहीं लग पाता.
चूंकि अपराध, दंगों, बलात्कार और धर्माधारित राजनीति का सबसे बड़ा माध्यम इंटरनेट है, इसलिए यह अपेक्षा कहां से बुरी है कि लेखकों को - ख़ासकर वरिष्ठ लेखकों को - भी प्रिंट के साथ-साथ वेब पर आना होगा. वेब पर, फेसबुक पर नहीं. मुश्किल से एक या दो नाम छोड़ दें तो लिबरल डिस्कोर्स के सबसे बड़े नाम अभी भी वेब पर नहीं है. बुद्धू-बक्सा उनके होने का इसरार करता है तो क्या गलत है?
एक ब्लॉग की चुप्पी ऐसी होती है कि संभावनाओं से भरी होती है. उसमें नौकरी से जूझते रह जाने के बहाने नहीं होते हैं. अव्वल तो उसे बस एक आदमी नहीं चला रहा होता है. काव्य का वैभव अपने प्रभाव में कई शक्तियों को बांधे रखता है. यहां वही वैभव अपने स्वरूप में कार्य करता है.
लिखिए, ऐसा लिखिए कि आपको पुरस्कार न मिले. सभी अच्छे रचनाकारों से सभी बड़े पुरस्कार चुक जाएं तो इससे भला क्या होगा, लेकिन अच्छे रचनाकारों से समाज चुक जाए तो रचनाकार की इससे बड़ी हत्या क्या होगी?
4 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब ।
कारण कोई भी हो लेकिन चुप्पी तो अखरती हैं।
ऐसा लिखिए कि आपको पुरस्कार न मिले...वाह! क्या बात है!
बात में दम है!
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