शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

'अंधेरे में' पर अविनाश मिश्र

अनलिखे लेख का केंद्रीय संवेदन
अविनाश मिश्र




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गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ अब एक प्रतीक है। इसे अमर कर दिया गया है। सारी अमरताएं ‘अभिशाप’ होती हैं, क्योंकि मुक्ति का कोई विकल्प उनके पास नहीं होता। हिंदी के सामूहिक विवेक के बीच ‘अंधेरे में’ अब भी स्वीकृत है, लेकिन हिंदी की केंद्रीय कविता इसके प्रकट प्रभाव से पृथक स्वयं को विकसित और सुनियोजित कर चुकी है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि समय और संसार इस कविता से बहुत दूर चला आया है। इसमें मौजूद ‘पूर्वानुभव’ अब अतीत है और अब इसमें वे आहटें और चेतावनियां भी नहीं हैं जिन्हें भविष्य में सुना जाना बाकी है। इस अर्थ में यह भविष्य की कविता नहीं है। इसमें अभिव्यक्त संकटों से सामना हो चुका है और निष्कर्ष यह है कि मुक्तिबोध जैसा जीवन और ‘अंधेरे में’ जैसी कविता न आज के कवि का अभिप्रेत और व्यवहार है, न समाज का। इस निष्कर्ष में कहें तो कह सकते हैं कि इस कविता के नायक का आत्मोन्न्यन नहीं हुआ, लेकिन जीवन-शैली बदल गई। 


[2]
‘अंधेरे में’ जैसा अंधेरा अब नहीं है। नई-नई रंगीनियों में ‘अंधेरे में’ आंखों को चुभता हुआ श्वेत-श्याम है अब। वह व्यवहार से छिटका हुआ आदर्श है। असत्य का परिहार करती हुई और सत्य में आस्थावान वह एक ऐसी महानता है जिसे अब कोई दोहराना नहीं चाहेगा। वह अब एक स्मारक है। वक्त-वक्त पर इस पर से धूल झाड़ी जाएगी और कालजयी वैभव चमक उठेगा। इस पर माल्यार्पण होते रहेंगे, आयोजन और प्रवचन होते रहेंगे। बाद इसके ‘नपुंसक श्रद्धा सड़क के नीचे के गटर में छिप जाएगी’ और गुनगुनाएगी कि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’

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मैं इस कविता के पास जाता हूं और मुक्तिबोध को इसमें वैसे ही पाता हूं जैसे इस कविता के नायक ने इस कविता में महात्मा गांधी को पाया था— अंधेरे की स्याही में डूबा हुआ। मैं भी वैसे ही अति दीन हो जाता हूं पास कि :

बिजली का झटका
कहता है—
‘‘भाग जा, हट जा
हम हैं गुजर गए जमाने के चेहरे
आगे तू बढ़ जा।’’



‘‘परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करने के लिए मैं कभी अपने आदर्शों को नहीं छोड़ सकता।’’ यह महात्मा गांधी का वाक्य है। मुक्तिबोध ने जीवन और कविता दोनों में ही परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करने के लिए कभी अपने आदर्शों को नहीं छोड़ा। मैं ‘अंधेरे में’ के स्वप्नचित्रों में मुक्तिबोध के सपनों के आशय खोजता हूं और देखता हूं कि समय और जनचरित्र ने मुक्तिबोध के सपनों के साथ भी वही किया जो महात्मा गांधी के सपनों के साथ किया।


[4]
तथ्य बताते हैं कि यह समय मुक्तिबोध के समय से बेहतर है। गुजरे हुए वक्त से मौजूदा वक्त हर दौर में बेहतर रहा आया है। मुक्तिबोध आज होते तो उनके पास कई विकल्प होते, जीवनयापन और प्रकाशन के लिए। ज्यादा हाय-हाय से किसी वक्त का काम नहीं चला है और प्रवचन से ज्यादा कर्म का महत्व प्रत्येक युग में सतत स्थापित होता चला गया है। ‘अंधेरे में’ अगर अब भी प्रासंगिक लगती है तो यह इस कविता समेत हिंदी में इसके बाद सृजित सारी कविताओं की विडंबना है। इस विडंबना में इस कविता की असफलता है, और असफलता की सबसे बड़ी त्रासदी यह होती है कि सफलताएं उस पर विमर्श करने लगती हैं। इस विमर्श में नाउम्मीद नपुंसकताएं जान ही नहीं पातीं कि कब उनकी विडंबना को सफलताओं ने महान बना प्रतीक में बदल डाला।


[5]
‘अंधेरे में’ हिंदी साहित्य से परास्नातकों को अमूमन पढ़नी ही पड़ती है और हिंदी विभाग के प्राध्यापकों को इसे पढ़ाना ही पड़ता है। छठवें वेतन आयोग और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) द्वारा दी जाने वाली जूनियर रिसर्च फैलोशिप (जे.आर.एफ.) के कारण हिंदी के अकादमिक जगत में इन दिनों सुविधाभोग का माहौल है। यहां होने वाले 99 प्रतिशत शोध ऐसे ही सुविधाभोगियों की उपज हैं। सत्ता यहां कामयाब रही है, क्योंकि उसने हिंदी से उसका सारा प्राथमिक संघर्ष छीन उसे बंजर कर दिया है। आज हिंदी की सारी उल्लेखनीय प्रतिभाएं इस दायरे से बाहर हैं। हिंदी में ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज किसी किस्म के सुविधाभोग में संभव नहीं हो सकती। सरकारी अनुदानों और सुविधाओं का दुरुपयोग कर उस पर पलने वाले पालतू ‘अंधेरे में’ को क्या खाकर समझेंगे। इस कविता के स्मारक बन जाने में इस वर्ग का बड़ा योगदान है जो मुक्तिबोध के एक प्रचलित प्रश्न को आज बदलकर पूछता है— ‘पार्टनर तुम्हारी सेलरी क्या है?’


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हिंदी के अकादमिक जगत और लेखक संगठनों का पतन साथ-साथ हुआ है। जैसे ‘अंधेरे में’ विचार के रास्ते शिल्प से जुड़ जाती है, ऐसे ही हिंदी के अकादमिक जगत की सारी मूर्खताएं लेखक संगठनों से जुड़ जाती हैं। जनचरित्र में महान प्रतीकों को ढोने की असीमित शक्ति होती है, बस इसे निर्देश मिलते रहें।


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‘‘यदि आप यहूदी ईश्वर ‘याहवे’ के स्थान पर ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, ‘मसीहा’ के स्थान पर ‘कार्ल मार्क्स’, चुने हुए व्यक्तियों के स्थान पर ‘प्रेलोतेरियत या मजदूर वर्ग’, एक लाख चौबीस हजार पैगंबरों के स्थान पर ‘कम्युनिस्ट पार्टी’, यीसू के पुन: प्रकट होने के स्थान पर ‘सशस्त्र क्रांति’, काफिरों को जलाने वाले नर्क की जगह ‘पूंजीपतियों का सर्वनाश’ और ‘स्वर्ग’ के स्थान पर ‘वर्गहीन समाज’ कहकर पूरे मार्क्सवाद की बात करें तो सारी की सारी यहूदी विचारधारा अपने आधुनिकतम रूप में दोहराई जाएगी। कार्ल मार्क्स और उनके श्रद्धालुओं का आदर करते हुए मैं यह बात करने की आज्ञा चाहूंगा कि दया, प्यार, सहानुभूति और संतुष्टता की विचारधारा मार्क्सवाद की विचारधारा नहीं है।’’

— बर्टेंड रसेल


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‘अंधेरे में’ की उम्र 50 वर्ष है। आज प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियां जनसमर्थन से केंद्र में सक्रिय हैं। यह अचानक नहीं हुआ और न ही इसकी मूल वजहों की खोज के लिए बहुत सुदूर अतीत में जाने की जरूरत है। यह सब इन्हीं 50 वर्षों में हुआ। समाज में हो रहे बदलावों से बेखबर हिंदी का बौद्धिक वर्ग (जिसे मुक्तिबोध ने क्रीतदास और किराए विचारों का उद्भास कहा) एक लगातार में अपनी प्रतिष्ठा खोकर हास्यास्पद होता गया। अपने जन के बारे में उसकी और हिंदी कविता की समझ और पकड़ सतत संकीर्ण और कमजोर होती चली गई। बुनियाद को मजबूत करते हुए हिंदी कविता पूरी तरह पाताल में पहुंच गई। इस बुनियाद पर सारी महानताओं के स्मारक बन गए, सारे आदर्श प्रतीक में बदल गए और धीरे-धीरे भयावना जुलूस बढ़ता चला गया। इस सबके बावजूद ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने का मतलब अब तक नहीं बदला। अब भी इसका मतलब मठों और गढ़ों को तोड़ना और ‘अरुण कमल’ की खोज में दुर्गमता के पार जाने का जोखिम उठाना ही है।



['अंधेरे में' के साथ बड़ी दिक्कतें जुड़ी हुई हैं. एक तो यह कि कविता नवकाव्याभाषियों के रियाज़ में शामिल नहीं है, और जो युवा इस घोंट पा रहे हैं उनसे हस्तक्षेप की पैदाईश होती ही नहीं है. यह दृश्य उतनी ही उदासी से चला जाता है, जितनी याचना और जीवट के बाद इसे बीच लाया गया था. अविनाश मिश्र की समस्या एक अलग किस्म की है. उनके पास इस कविता की प्रासंगिकता को नापने के एकदम अलग पैमाने हैं. उनके लिए कविता से ज्यादा इस समय में इस कविता का मतलब प्रासंगिक है. अव्वल तो यह कि इस कविता की पहुंच को हिंदी के संस्थाओं से बाहर देखना होगा. यदि अब वह एक स्मारक है तो अभी भी 'अभिव्यक्ति के खतरे' उठाने का मतलब नहीं बदला है. यह आलेख 'सापेक्ष' में शीघ्र प्रकाश्य. कविता से ज्यादा इस कविता के समय के तीक्ष्ण आंकलन के लिए बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी.]

2 टिप्पणियाँ:

Kumar Ambuj ने कहा…

विचारणीय टीप।

भारत भूषण तिवारी ने कहा…

गुस्ताखी माफ़, पर मेरे विचार में बर्ट्रेंड रसल का मार्क्सवाद पर क्रिटीक यहाँ पूरी तरह ‘आउट-ऑफ़-प्लेस’ है. अगर ‘अँधेरे में’ के बाद के पचास वर्षों और उस दौरान हिन्दी साहित्य की ‘एंगेजमेंट’ यहाँ विचाराधीन है तो हिन्दी साहित्य/हिन्दी का अकादमिक जगत/बौद्धिक वर्ग मोटे तौर पर वामपक्षीय होते हुए भी क्या ‘एक्स्लूज़िव्ली’ मार्क्सवादी है? बड़े लेखक संगठन ज़रूर घोषित रूप से मार्क्सवादी हैं मगर ये भी विवाद का विषय है और फ़र्क केवल पार्टी लाइन को लेकर नज़र आता है.
पिछले पचास या सौ सालों में किसी भी अन्य भाषा/जातीयता/उपराष्ट्रीयता/राष्ट्रीयता की तरह हिन्दी (या उसके साहित्य, अकादमिक जगत या बौद्धिक वर्ग) में भी वाम/समाजवादी/प्रगतिशील विचारों का एक पूरा स्पेक्ट्रम मौजूद रहा है. और यह बात बड़ी सीधी और साफ है.
सम्पादकीय टिप्पणी कहती है कि अविनाश के लिए ‘कविता से ज्यादा इस समय में इस कविता का मतलब प्रासंगिक है’, मगर एक बार फिर अंग्रेजी के शब्द (या पूरा मुहावरा) उधार लेकर कहूँ तो जनाब रसल के क्रिटीक के कारण यह विचारणीय टीप, इन माइ हम्बल ओपिनियन, ट्रिविअलाइज़ हुई जाती है.