एक बिलकुल नए कवि के लिए बेहद जरूरी है कि वह कुछ वर्षों तक प्रकाशन से परहेज करे, उसके प्रति उदासीन रहे, आत्म-प्रचार से बचे, संपादकों-उप संपादकों, ब्लॉग मॉडरेटरों, प्राध्यापकों, प्रायोजकों, आयोजकों को मुंह न लगाए... उन्हें विनम्रता से या डपटकर मना कर दे. अपनी दैनिकता में वह अपने अध्यवसाय को लेकर सदा सशंकित रहे, लेकिन साथ ही इस आत्म-विश्वास से भी भरा रहे कि वह जब भी कोई कविता पढ़े या सुने उसे लगे कि इससे अच्छी कविता वह लिख सकता है.
युवा साथी अरमान आनंद बिलकुल नए कवि हैं. लेकिन उन्होंने प्रकाशन से परहेज नहीं किया है, थोड़ी उदासीनता जरूर दिखलाई है, लेकिन इसके पीछे प्रकाशन के नए, आसान और तुच्छ रास्ते हैं, जो आत्म-प्रचार के दलदल तक ले जाते हैं - जितना ही निकलने की कोशिश कीजिए, उतना ही धंसते जाइए. यहां उनकी पांच कविताओं की प्रस्तुति इस उम्मीद में है कि वह अपने अध्यवसाय को लेकर सशंकित और अपने प्रकाशन को लेकर सचेत हो जाएं. बिलकुल संभव आत्म-मुग्धता से आत्म-विश्वास की ओर बढ़ जाएं. इस प्रवचन के प्रकाश में अरमान की कविताओं पर एक वाक्य भी नहीं है. बिलकुल नए कवियों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, तब तो और भी नहीं जब प्रशंसा के अतिरिक्त उस कवि ने अपने आस्वादक के निकट और कोई विकल्प न छोड़ा हो.
- अविनाश मिश्र
अरमान आनंद |
जुर्माना
तुम मुझे
जब गौर से देखोगे
मेरे होठों पर मिलेंगे
मेरे माशूका के दांत
मेरी पीठ पर मेरी बीवी के नाख़ून
झुके हुए कन्धों पर टंगा हुआ दफ़्तर
मेरी ऊंगली के काले धब्बों पर
चुनी हुई सरकार
और नीचे से
ठोंक दिया गया है मेरा संस्कार
मैं
हर रोज़
आदमी होने का
जुर्माना भरता हूं
इच्छाएं
तुम
एक गिरी हुई गाछ
तुम पर चढ़े हुए
सहलाते लिपटते हुए
और ज़ोर-ज़ोर से हुमचते हुए
कुछ बच्चे
और
अपनी बालकनी में
खड़ा मैं
अपनी टांगों को आपस में उलझाकर
सोचता हूँ
काश!
तुम
मेरे हाते में गिरी होती
प्रेम, जो शीर्षकविहीन कविता ही था
मेरे जीवन का पहला गीत
जो मैने तेरे साथ गाया था
मेरे प्यार की तरह अधूरा है
मेरा बचपन तेरे स्कूल के पुराने बस्ते में कहीं पड़ा है
और मेरे पास रह गया है
तेरा आखिरी चुम्बन उधार की तरह
दिन की रौशनी मेरे सपनों की दुनिया तबाह करती है
अंधेरी रात ज़ेहन में तुम उभर आती हो
सुकून की चाह में
मैंने न जाने कितनी छातियां टटोल डालीं
प्यार की तलाश में कितने दिलों के गुल्लक तोड़ डाले
तेरी खुशबू पाने को कितने जूड़े खोल डाले
कहां मिली तुम
कहीं नहीं
क्यों नहीं लौट आते तुम मेरी पहली मुहब्बत
तेरे बिना दिल जंगल होता जा रहा है...
बजरडीहा
नल का पानी
जहां उतर कर सड़क पर जमे
और शर्म से काला पड़ जाये
जहां मर्द आंत के रेशों को बुन कर
संसार की सबसे सुन्दर स्त्री के लिए साड़ियां तैयार करते हों
औरतें
हया को ज़रूरत मानकर
चिथड़ों में लिपटी हुई
धागों के थान लपेट रही हों
दुनिया के ट्रेडमिल पर हांफने के साथ जहां
रात की रोटी
अगली सुबह के लिए पानी में गर्क कर दी जाती हो
जहां करघों के खटर-पटर में दुधमुहें की आवाज़
अनंत कालों के लिए दबा दी जाती हों
जहां करघा ही मां है बाप है भाई है
स्कूल है
नवाज़ुद्दीन की किसी फिल्म का डायलोग है
करघे का चलना सांसों का चलना है
करघे का बंद होना
किसी कुपोषित बच्चे का अनाथ होना है
अच्छे दिन जहां दिन में भी झाँकने नहीं आते
अच्छे दिन के लिबास वहीँ से जाते हैं
ये वही बजरडीहा है
ऐ मेरे मदमस्त बनारस
बता न
बजरडीहा में तेरा पता क्या है?
दंगे का फूल
किताबों ने
अर्थ का अनर्थ कर दिया था
तलवारें
गर्भ से बच्चे निकालने में व्यस्त हो गयीं थीं
चौराहे
जलते हुए टायरों के हवाले कर दिए गए
शहर
कर्फ्यू के शिकंजे में घिघिया रहा था
श्री राम और अल्लाह-ओ-अकबर के
नारों के बीच
नाड़ों के टूटने की आवाज़ें
मौत की बांहों में सिमटने से पहले तक सिसक रही थीं
आंखों के पानी के सूखते ही
घर
आग की आगोश में समा गए
इसी सुबह
रधिया की कॉपी पर जुम्मन ने लिखा था
'लभ यू'
दोपहर चौथी घंटी में
जुम्मन के बस्ते के पते पर
एक चिट्ठी आई
जिसमें कुछ हर्फ़ों के साथ उकेरा गया था
साड़ी का किनारा
उगता हुआ सूरज
और एक कमल
शाम होने तक
कमल
राक्षस में बदल गया
और चबा गया जुम्मन का दिल
जिसमें
रधिया के नाम का तीर
रोज कहीं से उड़ता
और आकर
धंस जाता था
[बनारस में बसे हुए मोहल्ले बजरडीहा में बुनकरों की अच्छी आबादी मौजूद है. बनारसी साड़ी के बुनकरों की हालत पर जो भी बहसें हुई हैं, वहां दो ही बातें सुनने को मिलती हैं. एक, 'ज़रा जाइए बजरडीहा और सचाई देखिए'; और दो, 'आपको पता भी है? ऐश्वर्या राय की शादी में साड़ी बजरडीहा से बनकर गयी थी'. इन कविताओं के लिए अरमान आनंद और प्रस्तुति-परिचय के लिए अविनाश मिश्र का बुद्धू-बक्सा आभारी.]
4 टिप्पणियाँ:
'तुम मुझे
जब गौर से देखोगे
मेरे होठों पर मिलेंगे
मेरे माशूका के दांत
मेरी पीठ पर मेरी बीवी के नाख़ून
झुके हुए कन्धों पर टंगा हुआ दफ़्तर
मेरी ऊंगली के काले धब्बों पर
चुनी हुई सरकार
और नीचे से
ठोंक दिया गया है मेरा संस्कार
मैं
हर रोज़
आदमी होने का
जुर्माना भरता हूं'......!!!
जुर्माना और बजरडीहा ख़ास तौर पर पसंद आईं .
बहुत अच्छी कविताएं हैं । जैसे सोते हुये को कोई चिकोटी काट कर भाग जाए ..... या चला जाए और जाते हुये दिखाई दे ।
Gyasu Shaikh said:
अरमान आनंद की कविताएं पढ़ी
और पढ़ी आपकी टिप्पणी और अनूठे सूचन भी।
आगाह करना कवि को उसे गलत फैलने
से रोकना भी है…
अरमान आनंद की कविताओं में ग्रिप और
संवेदन है। ग्रिप सूक्ष्म और परिक्षेत्रीय भी है
जहां हमारा एक बहुत बड़ा तबका जी भी
रहा है और जीने के बहाने मर भी रहा है…
मुग्धताओं का आभास भी है जहां…
और मनुष्य की अपनी जैविक विडम्बनाएं भी…
कविताओं में शब्दों के चयन कहीं-कहीं
परिशुद्ध से और कविता का फॉर्म भी
अच्छा लगा ।
हमारे गुजरात के एक मूर्धन्य कवि-लेखक
थे श्री सुरेश जोशी जिन्हों ने अपनी
ज़िंदगी के अंतिम दशक में कहा था कि
"मने माणस होवानो थाक लागे छे !"
मीन्स "मुझे मनुष्य होने की थकान
महसूस हो रही है "
(अरमान आनंद ने लिखा है:
मैं
हर रोज़
आदमी होने का
जुर्माना भरता हूं…
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