सौंदर्य
सब कुछ नहीं सिखला सकता
मुक्तिबोध
का वीरेंद्र कुमार जैन के नाम यह पत्र 6 जून 1989 को ‘नवनीत’ के किसी अंक से डायरी में उतारा था। उसी वर्ष
के किसी अंक में यह छपा होगा। लिखा कब गया होगा, यह बताना मुश्किल है।
- योगेंद्र आहूजा
शुरुआत और अंत के अभिवादन आदि को छोड़कर पत्र इस तरह है :
‘‘इस
सौंदर्य क्षेत्र में भी मेरी कार्यवृत्ति तुमसे अलग रही क्योंकि सुदूर विपिन के
आम्र-प्रच्छाय, गंध मर्मरित वातावरण में तुम अपनी आंखों
से रम्माण हुए और इस तरह बाह्य दृष्टि से अंतर्दर्शन करने में असाधारण रीति से सफल
हुए।
इसके विपरीत प्रकृति मेरे अंतर का एक विस्तार थी। प्रकृति मेरे लिए कभी भी बाह्य नहीं
रही, वह मेरे हृदय की छाया थी। वह मेरी ही बनावट थी, मेरा ही विकार थी। इसलिए प्रकृति में मेरा फेथ नहीं जगा। सायं मेरे लिए मरण सौंदर्य था, रजनी उसकी निविड़ मंजु गंभीरता थी— एकरूपता थी। प्रातः की अरुणाई मेरे लिए ज्ञानोदय था। मुझे कभी
प्रात: से अत्यंत अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ, जितना
कि संध्या से था, क्योंकि उस महापावन प्रात: पुलक से अनुभूत
होना मेरे निविड़ गहन छायांधकार में कातर स्वभाव के लिए कृत्रिम था। प्रात:
सौंदर्य में लीन होने के लिए आत्मशक्तिपूर्ण, ज्ञानजन्य अंत:स्वास्थ्य की अत्यंत आवश्यकता है मेरे लिए।
उसी
ज्ञान के पीछे पागल मेरे मन ने सौंदर्य से सब कुछ सीखने से इंकार कर दिया। सौंदर्य
सब कुछ नहीं सिखला सकता। उसके लिए मस्तिष्क की भी आवश्यकता है, और मस्तिष्क के लिए अनुभूति की
आवश्यकता है।
यदि इन दोनों की समबलता है तो जगत का रहस्य अधिक आलोकित हो सकता है। यह मेरा
अनुभव है जिस पर मैं कभी अविश्वास नहीं कर सकता।
और
ज्ञान का स्त्रोत अबाह्य है। बाह्य दृष्टि से जाना जाता है, अंतर्दृष्टि पहचानती है। इसी अंतर्दृष्टिगत ज्ञान को मैं ज्ञान कहता हूं,
इसीलिए मुझे ज्ञान में रसानुभूति होती है। ज्ञान-रस मुझे सर्वोत्तम लगता है।
यहीं
मैं तुमसे अलग हो गया, तुम रस के द्वारा ज्ञान पर आए— मैं ज्ञान के द्वारा रस पर ठहरा। इसीलिए तुममें
अधिक तीव्रता और मुझमें अधिक व्यापकता आ गए। मैंने जानबूझकर अपने को subjectivism से हटाया, objective आर्ट पर जोर दिया। मानवी
चरित्र की अपरंपार भिन्नता, उसकी परस्पर विरोधी अवस्थाएं मेरे मन के अभ्यास की
वस्तु बन बैठीं।
उनकी गहरे में स्थित एकता मेरे मन में implicit रही, unity understood रही, और विविधता को प्रकाश मिला।
मेरी
वृत्ति उसी तरह की बन चली और यहीं तुम्हारा मेरा मन ही मन विरोध रहा। मैं तुमसे
हटता चला और अपना रास्ता आप बनाता गया। तुम्हारे ज्ञान के प्रति मेरी असहानुभूति
रही और तुम्हारे रस के प्रति असंतोष... किंतु दिल ने फिर उचाट खाया, उसको कुछ वर्शिप भी चाहिए थी, कुछ फेथ की भी आवश्यकता थी। इतना पढ़-लिखकर, इतना समझकर मेरा अदम्य अहम् अंधकार में बिलख
उठा। उसे
अपनी कीमत समझ में नहीं आई। अहम् का मूल्य उसके स्वयं के लिए अपने फेथ, अपनी स्पिरिचुअलिटी के बिना शून्य था...
और
इसी अहम् ने मूर्तिवादी बनना चाहा। वह घूम-फिरकर फिर वहीं आ गया, जहां से वह चला था। और अब वह फिर अपना फेथ, अपनी वर्शिप
पुन: प्राप्त करना चाह रहा है। ईश्वर करे वह प्रथम श्रद्धा देखे।
इसी क्षण जबकि श्रद्धा का प्रश्न आ खड़ा हुआ, मुझे
तुम्हारी याद आई और इसीलिए यह पत्र लिखा जा रहा है, मैं सोचता हूं, मुझे रोज दो घंटे मेडिटेशन (ध्यान) की
आवश्यकता है— उसके बिना जीवन को समेट नहीं सकता।’’
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें