अशोक वाजपेयी, १९५६ |
(अशोक वाजपेयी के आलोचक-व्यक्तित्व पर एक प्रतिक्रिया)
व्योमेश शुक्ल
एक
हिंदी साहित्य संसार कितना अशोक वाजपेयी है। यह व्याप्ति दूर तक जाती है और बहुत पास चली आती है। यह नियम है और नियम का अपवाद। यह कठिन की लोकप्रियता है और कभी धीमी न होने वाली सामयिकता। यह हिन्दी के संख्याबल का प्रतिपक्ष है। यह हमारी आदत है। यह कविता का तर्क और आलोचना की दख़लंदाज़ी है। यह उत्सवों का रतजगा है। यह कई बार चली आती बहसों का एजेंडा पलट देने की नैतिक और इंटेलेक्चुअल हैसियत है। यह न इधर है, न उधर; एक ‘खुला और ख़तरनाक़ बीच’ है।
दो
इधर हिंदी कविता में सर्वानुमति की गुंडई बहुत बढ़ी हुई है। तमाम शोरगुल और असहमति की सतह के नीचे वह इतनी सतर्क, गोपनीय, अंत:सलिल और उम्रदराज़ है कि अक्सर उसके शरीफ़ और वास्तव होने का भ्रम होता है। यही हिंदी की मुख्यधारा है। इस गुण्डई में अमरत्व और महानता के रजिस्टर्स खुले हुए हैं और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ की तर्ज पर एक तरफ़ पूरे दृश्य को उसकी असह्य यथास्थिति के साथ आशीर्वादपूर्वक स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर, बदले में, स्वीकार करने वाला और अमर और महान हुआ जा रहा है। यहाँ अस्वीकार, जिज्ञासा, जाँच और विश्लेषण – यानी कुल मिलाकर आलोचना – को भूलने और उस वैचारिक समर को कमतर करने का काम अबाध चलता रहता है जो नये साहित्य की पहचान और प्रतिष्ठा के लिए लड़ा गया था और इन सब दि़क़्कतों के बावजूद लड़ा जाना है। हो सकता है कि यह अवमूल्यन कभी-कभी अनजाने हो जा रहा हो, लेकिन अनजाने किये गये गुनाह क्या गुनाह ही नहीं होते? इस गुण्डागर्दी का नाम है अजातशत्रुता। दृश्य में इस चीज़ का बड़ा दबदबा है और गुस्ताख़ी माफ़ हो — इसके दो संस्करण हैं — एक है ‘पडरौना’ संस्करण और दूसरा ‘कठोपनिषद्’ संस्करण। इन दोनों संस्करणों ने हिंदी की सजर्नात्मक आलोचना को, सीधे-सीधे कहें तो कवियों द्वारा लिखी जा रही आलोचना में जोख़िम न लेने, हाथ कटाने से बचने, उपलब्ध में
‘सर्वाइव’ करने और आलोचना लिखकर ‘स्टैण्ड’ न लेने के फ़ायदे युवतम पीढ़ियों तक को सिखा दिये हैं। आजकल आख़िर और कैसे अमर हुआ जाता है?
तीन
ऐसे दृश्य में अशोक वाजपेयी ने महान या अमर होने की बजाय आलोचना का वरण किया है। ज़ाहिर है कि वह हमारे कहने से आलोचक नहीं हैं। रोलाँ बार्थ के शब्दों में, ‘आलोचक समाज द्वारा प्रदत्त कोई पद नहीं है, बल्कि एक ख़ास तरह से जीने की पद्धति है।’
लगभग पचास साल से इस ख़ास तरह से जीते हुए उन्होंने विश्लेषणविहीन सर्वानुमति के प्रतिपक्ष की वह जगह हासिल की है जहाँ वह हैं। यहाँ पहुँचना आसान नहीं रहा है। आलोचना निष्कवच और वेध्य होकर ही संभव है। वह एक ऐसा युद्ध है जिसमें दुश्मन की सरहद पर अकेले ही जाना होता है – आत्मरक्षा का कोई भी सामान लिये बग़ैर।
चार
हमें यह मान लेना चाहिये कि जहाँ ‘सेल्फ डिफ़ेंस’ होगा, वहाँ और कुछ भले ही हो, आलोचना नहीं होगी। अशोक वाजपेयी ने आलोचना में कहीं भी अपनी कवि-दृष्टि को बचाने या बढ़ाने की ज़रा-सी भी कोशिश नहीं की है। यह बात उसे अनिवार्य बनाती है। यों, उनके बाद, मंगलेश डबराल को छोड़कर, आठवें दशक में दृश्य में आने वाले ज़्यादातर कवियों ने आलोचना के नाम पर जो लिखा है वह मुमकिन है कि एक ख़ास दौर में बड़ा झरनेदार रहा हो, यहाँ तक आते-आते मुरझा गया है। उसे पढ़कर ज़्यादा से ज़्यादा ख़ुद लेखक की कविता के बारे में कुछ जाना जा सकता है। उसकी सामाजिक उपयोगिता और उसका उत्तर जीवन – दोनों संदेहास्पद हैं; बल्कि थोड़ा निर्मम होकर कहा जाय तो आजकल यह लगने लगा है कि नवें दशक में आने वाले कवियों में से पंकज चतुर्वेदी को छोड़कर किसी का भी आलोचनात्मक गद्य न लिखना और आठवें दशक के कवियों का वैसा गद्य लिखना, दोनों एक ही बात है।
पाँच
कवि-दृष्टि, बल्कि कवि-व्यक्तित्व को आलोचना में घंघोल कर, हिलामिला कर, लगभग विलीन करते हुए अशोक वाजपेयी ने अपना आलोचक हासिल किया है। इसलिए भी उनकी आलोचना का ‘प्रोजेक्ट’ व्यापक और बहुस्तरीय है। उसने अनेक काम अपने हाथ में ले रखे हैं। वह कविता पर एकाग्र ज़रूर है लेकिन कवियों के मूल्यांकन तक सीमित नहीं है। ख़ुद लेखक के शब्दों में, ‘.....तब तक यह अहसास तीखा और गहरा होने लगा था कि हमारे समय की अच्छी कविता के लिए समझ और जगह की ज़रूरत है। यह भी मन में साफ़ था कि स्वयं कवि के कारण सिर्फ़ अपने ढंग की कविता के लिए ऐसा करना न तो काफ़ी होगा न ही कुल मिलाकर बहुत नैतिक। आलोचना एक व्यापक चेष्टा का हिस्सा बनी जिसमें संपादन और आयोजन भी शामिल थे।’
देवीशंकर अवस्थी और अशोक वाजपेयी |
छह
इस बहुस्तरीयता और वैविध्य ने उनकी आलोचना को कुछ दिलचस्प अंतर्विरोध सौंपे हैं। अशोकजी के ही मुहावरे में कहें तो ‘मानवीय तात्कालिकता’। मिसाल के लिए, हिन्दी की जिस समकालीन कविता की स्मृतिहीनता, अबुद्धिवाद, पैगम्बराना और शहीदाना अंदाज़ की वह लगातार निंदा करते आये हैं, उसी कविता को हिंदीतर मंचों पर वह उपलब्धि की तरह अविचलित पेश करते हैं। कविता में जटिल और सूक्ष्म के प्रवक्ता को, उसी कविता की जाँच के लिए एक ऐसी भाषा खोजनी होती है जो बिलकुल बातचीत के शब्दों में विन्यस्त हो। कथ्य और शिल्प, प्रगति और प्रयोग, लघु और गुरु, हाइकू और महाकाव्य, गद्य और पद्य के प्रचलित द्वैतों का अतिक्रमण करती उनकी आलोचना कई बार ऐन्द्रियता और विचारशीलता की अलग-अलग कसौटियों पर विभाजित करके कविता का मूल्यांकन करती रही है। इस आलोचना की शक्ति और सौन्दर्य इन अंतर्विरोधों में तो है ही, इस बात में भी है कि इन्हें कृत्रिम तरीक़े से ढँकने और अनर्जित नैतिक ऊँचाई से कुछ कहकर ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने की कोई कोशिश उनके यहाँ नहीं है।
सात
अशोक वाजपेयी की आलोचना की जीवंतता का सबब इस बात में भी है कि वह अपने समय के वैचारिक संघर्षों का आभ्यंतरीकरण करके संभव हुई है। वह हमेशा एक समवेत प्रतिफल है। दरअसल सातवें दशक के आसपास शुरू होने वाली नए साहित्य की आलोचना — जिसे अशोक वाजपेयी और उनके हमक़दम आलोचकों ने मिलकर बनाया था — अपनी बुनियाद में ही इतनी युयुत्सु और संवादपरक थी कि वह अकेले और शांतिपूर्वक लिखी ही नहीं जा सकती थी। उस समय हिन्दी का साहित्यिक प्रतिष्ठान, आज की ही तरह, विश्वविद्यालय थे, जो अपनी अभिरुचि, मूल्यदृष्टि और लेखन में ‘नए’ को लेकर असहिष्णु और हमलावर थे। इसी स्थापित व्यवस्था के ख़िलाफ़ लगातार लड़ते हुए अशोक वाजपेयी के गद्य ने वह चमक, उत्तेजना, सार, क्षिप्रता और लोकप्रियता हासिल की है जो आज हमारी आलोचना की बेहद ख़ूबसूरत और यादगार उपलब्धि है और आने वाले आलोचकों का उत्तराधिकार।
आठ
अपने वक़्त के वैचारिक समर को आयत्त किये बग़ैर किसी कविता या कवि-विशेष पर सुन्दर, सुगंधित, प्रभावाभिव्यंजक और काव्यात्मक-सा कुछ तो लिखा जा सकता है, परिदृश्य का, दृश्य के द्वंद्वों, वैभिन्य, अलगाव और प्रतिवादों का, दृश्य की तब्दीली का, समयांतर का विश्लेषण नहीं किया जा सकता। यहाँ तक आते-आते शानदार लोग भी फिसड्डी हो जाते हैं। मेरा ख़याल है कि पूरे दौर को हिसाब में लेने वाली किताब के बिना आलोचक का काम माया है। दि़क़्कत यह है कि ऐसी आलोचना-पुस्तकों का हिन्दी साहित्य संसार में अभाव है — कुल जमा तीन किताबें हैं। पहली, नामवर सिंह की ‘कविता के नये प्रतिमान’, दूसरी, अशोक वाजपेयी की ‘फ़िलहाल’ और तीसरी, मदन सोनी की ‘कविता का व्योम और व्योम की कविता’। चूँकि नवें दशक के कवियों और कविता की सैद्धांतिकी वाला पंकज चतुर्वेदी का कामकाज अब तक पुस्तकाकार नहीं आया है इसलिए उन्हें ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ दिया जा सकता है।
नौ
बात फिर से शुरूआत की ओर मुड़ने वाली है यानी सर्वानुमति की ओर। सर्वानुमति एक तरह की सत्ता है और सच्ची आलोचना का सबसे बड़ा मक़सद हर तरह की सत्ता-संरचना को ढहाना है। सर्वानुमति से टकराने की आत्मशक्ति, अध्यवसाय और औद्धत्य जब क्षीण हो जाता है तो बतौर आलोचक आप निर्भीक सामान्यीकरणों में जाने से बचते हैं। आप पूरे दृश्य का हिसाब लेने का जोख़िम उठाने से कतराने लगते हैं। अलग-अलग कवि या कविता-केंद्रित निबंधों के ज़रिये आप कवि और कविता से अपना प्यार तो ज़ाहिर करते हैं लेकिन अपनी नफ़रतें, अपनी निराशाएँ छिपा ले जाते हैं।
अज्ञेय और अशोक वाजपेयी |
दस
इसी संकोच या चालाकी के कारण दृश्य मे अच्छे और बुरे, साधारण और असाधारण का भयंकर अप्रत्याशित घालमेल हो गया है। आज की तारीख़ में कविता लिखने वाला हर अच्छा कवि इसी अर्थ में अभागा है — उसे समकक्ष आलोचनात्मक पर्यावरण नहीं मिल रहा है — उसे दृश्य में ‘लोकेट’ नहीं किया जा सका है। एक चमकीले और संदिग्ध मुहावरे में कहें तो वह कवि ‘आधा है और आधा नहीं है।’ अशोक वाजपेयी में यह संकोच या चालाकी या भय कभी नहीं रहा। बतौर आलोचक, वह अपनी नफ़रतें और निराशाएँ छिपा न सके। इस ईमान ने उनकी आलोचना का तापमान बढ़ा दिया और वह बहुत ख़तरनाक जगह हो गयी। यहाँ से देखने पर जो चीज़ें बहुत शाश्वत लगती हैं, अपने समय में वह भी घटित हुई होंगी। मेरे लिए यह बेहद रोमांचक, हर बार लगभग डरा देने वाला अनुभव है कि ‘बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये’ शीर्षक निबन्ध लिखने वाले आलोचक की उम्र महज़ अट्ठाइस साल थी। यों ही, अनुत्तेजित और पीड़ा रहित निजी संसार के कवियों का रास्ता उन्होंने तभी, ‘फ़िलहाल’ के दिनों में ही, दो पृष्ठों के मूल्यांकन से हमेशा के लिए रोक दिया था।
ग्यारह
एजाज़ अहमद ने एक जगह पर लिखा है कि जब आप असहमतों को किसी भी बिन्दु पर सहमत कर लेते हैं तो तत्क्षण वह आडिएंस एक ऐसी नयी आडिएंस में रूपांतरित हो जाती है, जिसका अस्तित्व उस क्षण के पहले तक नहीं था। इसी जगह से परिवेश और मूल्यों का आरंभ होता है। अभाग्यवश अब हिन्दी में यह परम्परा रही नहीं। ज़्यादातर लोग सहमतों को ही सहमत करने के हीनतर काम में मुब्तिला हैं और असहमतियां खीझों और वर्चुअल संसार में अहर्निश बरसती गालियों में ‘रेड्यूस’ हो गयी हैं। अशोक वाजपेयी की आलोचना ने असहमतों को कभी भी अलक्षित नहीं किया है — वह न तो असहमतों से ‘आब्सेस्ड’ रही है कि सिर्फ़ उन्हीं को पुकारती रह जाय और न ही उसने उन्हें नज़रंदाज़ किया।
[इस आलेख को लिखे एक लंबा अरसा बीत चुका है. समय में काफ़ी बदलाव इस दौरान हुए हैं. तथ्य और कथ्य में मुक़म्मिल फ़ेरबदल हुए हैं. पाठकों से इतनी आशा रखना गलत नहीं है कि इस लेख के लिखे जाने और इसके यहां छपे जाने के बीच कोई साहित्येत्तर वजह नहीं ढूंढेंगे. आलोचनात्मक हस्तक्षेप का हमेशा स्वागत है, रहेगा. बुद्धू-बक्सा व्योमेश शुक्ल और अशोक वाजपेयी का आभारी.]
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