[लिखने के और बयां करने के कई बहाने सम्भव हैं. उन बहानों में एक लम्बी उदासी चली आ रही है. समारोहों की रिपोर्टिंग हो या फ़िल्मों पर आलोचनात्मक लेखन, दोनों में ही युवा लेखक वर्ग का रवैया इतना पिट चुका और पुराना हो चुका होता है कि धुएं से भरे कमरे से बाहर आने की चाह हो उठती है. थोड़ी ख़ामोशी लेकिन वैचारिक जत्थे के साथ चलने वाले अविनाश मिश्र का जजमेंट देते हुए भी बात रखने का यह तरीका ज़्यादा साफ़ और थोड़ा कम गड्डमड्ड है. इसे जज़्ब करने और अपने वर्तमान के स्तर से साझा बैठाने में एक सहज प्रयास की आवश्यकता है, जो हर पाठक कर ही लेता है. सुन्दर लेखन और साफ़गोई से भरे अविनाश का बुद्धू-बक्सा आभारी.]
Caricaturists - Foot Soldiers of Democracy |
समापन उसे सुंदर नहीं लगते, लेकिन समापन
प्रत्येक समारोह की नियति है। उसने कहा, ‘‘वांग कार वाय बेशक मास्टर हैं, लेकिन ‘दि ग्रैंडमास्टर’ बेहतर फिल्म नहीं
है। इसे देखकर इस सदी के संदर्भ में मेरा यह यकीन अब तथ्य में बदलता जा रहा है कि
स्वीकार्यता के बाद सृजन में सुंदरता धीमे-धीमे कम होती जाती है। स्वीकृति सौंदर्य को
नष्ट करती है और सृजन में सौंदर्य का तापमान किसी भी तकनीक से अनुकूलित नहीं किया
जा सकता।’’
वह मुझे 45वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (इफ्फी) में मिला। वह
केशव-सा लगा— ‘एक साहित्यिक की
डायरी’ से निकलकर सीधे रेड-कॉर्पेट पर चलता हुआ। मैंने उसके
साथ 11 दिन और 40
फिल्में गुजारीं। इस दरमियान मैंने
पाया कि उसका आवास फैसला सुनाने की शीघ्रता में है और इस शीघ्रता में उसके
संक्षिप्त विश्लेषण मुझे आकर्षित कर रहे हैं।
पहला दिन
‘दि ग्रैंडमास्टर’ समारोह की क्लोजिंग फिल्म थी जिसे वह पहले ही
देख चुका था। ओपनिंग फिल्म ‘दि प्रेसिडेंट’ थी जिसे देखकर बाहर
निकलते ही उसने कहा,
‘‘प्रोधान ने कहा था कि तानाशाहों के
बाद मैंने शहीदों से ज्यादा घृणास्पद किसी और को नहीं देखा।’’ वह इस उद्धरण को
प्रस्तुत फिल्म से कैसे जोड़ रहा था, मुझे समझ में नहीं आ रहा था। मोहसिन
मखमलबाफ निर्देशित यह फिल्म एक तानाशाह के पतन की कहानी है। तानाशाहों के पतन के
लिए हिंसा प्रायः अनिवार्य रही आई है। हिंसा और बहुत कुछ की तरह मासूमियत को भी
खत्म करती है। यह फिल्म हिंसा को हिंसा से खत्म करने में यकीन नहीं रखती। यह चाहती
है कि मासूमियत को हिंसा के शोर से बचा लिया जाए। हिंसा के प्रकटीकरण में भी यह
फिल्म अपने सारे प्रतीकों और दृश्यों में हिंसा का प्रतिकार है। प्रोधान को उद्धृत
करने के बाद उसने और कोई बात नहीं की, लेकिन प्रोधान के उद्धरण को वह
प्रस्तुत फिल्म से...
दूसरा दिन
मोहसिन मखमलबाफ, क्रिस्ताफ
किस्लोवस्की और दक्षिण कोरिया के फिल्मकार जिआन सू इल की फिल्में समारोह के रेट्रॉस्पेक्टिव
सेक्शन में थीं। मखमलबाफ और किस्लोवस्की के सिनेमा से हम परिचित थे, इल की फिल्मों से
परिचित होना था। उसने कहा, ‘‘अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में
भारतीय फिल्मों को देखने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। इसलिए मैं परेश मोकाशी
की मराठी फिल्म ‘एलिजाबेथ एकादशी’ जो ‘इंडियन पैनोरमा’ की ओपनिंग फिल्म थी, की जगह लतिन
अमेरिकी निर्देशक पाब्लो सीजर की ‘दि गॉड्स ऑफ वाटर’ और जीतू जोसेफ की
मलयालम फिल्म ‘दृश्यम’
की जगह टर्की की फिल्म ‘दि लैंब’ देखूंगा।’’
जब 79
देशों की 178 फिल्मों में से
अपने देखने लायक फिल्में चुननी हों तो स्नोवा बार्नो की एक कहानी का शीर्षक याद
आता है, ‘मेरा अज्ञात तुम्हें बुलाता है।’ मैंने ‘दि लैंब’ छोड़कर किस्लोवस्की
की ‘दि डबल लाइफ ऑफ वेरोनिका’ देखी। किस्लोवस्की के सिनेमा को
सिनेमाघर में देखने का मोह मैं संवरण नहीं कर पाया। फ्रेंच फिल्म ‘पार्टी गर्ल’ देखकर जब हम कला
अकादमी से बाहर निकले तो रात के 12 बजने ही वाले थे, उसने कहा, ‘‘फ़्रांस में बहुत खराब
फिल्में बन रही हैं इन दिनों, सुबह ‘थ्री हार्ट्स’ भी बकवास थी। खैर, ‘दि लैंब’ आउटस्टैंडिंग थी, तुम कहां गायब रहे?’’
तीसरा दिन
‘लिबास का जादू’ शीर्षक से अनिल यादव ने एक कहानी लिखी
है। इस कहानी और गुलजार निर्देशित फिल्म ‘लिबास’ में कोई समानता नहीं है, लेकिन इस फिल्म और
उसके बाद इस पर गुलजार की मौजूदगी में हुई चर्चा के बाद उसने कहा, ‘‘मुझे अनिल यादव याद
आ रहे हैं।’’
मैंने पूछा— ‘लिबास का जादू’ की वजह से?’
उसने कहा— ‘लिबास’
के जादू की वजह से।
इंडियन पैनोरमा के रेट्रॉस्पेक्टिव सेक्शन
में जहानु बरुआ और 2013
के दादा साहेब फाल्के अवार्ड से
लिबास |
सम्मानित गुलजार की फिल्में प्रदर्शित जानी थीं। गुलजार की ‘लिबास’ से इस खंड की
शुरुआत हुई। ‘लिबास’
सार्वजनिक सिनेमाघरों में अब तक रिलीज
नहीं हो पाई है। यह कभी दूरदर्शन या किसी अन्य चैनल पर प्रसारित भी नहीं हुई है, न ही इसकी कोई
डीवीडी/सीडी बाजार में है और न ही इसे इंटरनेट की मदद से डाउनलोड किया जा सकता है।
इस अर्थ में दुर्लभ इस फिल्म को खुद गुलजार ने 26 साल बाद देखा। स्क्रीनिंग के बाद
चर्चा में उन्होंने कहा,
‘‘मैं चिंतित था कि कहीं यह फिल्म
आउटडेटेड न लगे, लेकिन इसे देखकर लगा कि मानवीय संबंधों की जटिलताएं कभी
पुरानी नहीं पड़तीं।’’
फिल्म के अब तक रिलीज न हो पाने का
ठीकरा उन्होंने इसके प्रोड्यूसर के सिर फोड़ते हुए मजाहिया लहजे में कहा, ‘‘यह ‘लिबास’ अब तक लांड्री में
धुल रहा था और मैं इसलिए भी चिंतित था कि पता नहीं यह कितना साफ होगा।’’ इस मौके पर विशाल
भारद्वाज और मेघना गुलजार भी मौजूद रहे। विवाह-संस्था को अपना विषय बनाने वाली इस
फिल्म में शबाना आजमी,
नसीरूद्दीन शाह और राज बब्बर की
केंद्रीय भूमिकाओं के साथ-साथ उत्पल दत्त और अन्नू कपूर का अभिनय भी काबिले-गौर
रहा। यह ‘लिबास’
का जादू ही था कि दर्शकों ने इसे
सीढ़ियों पर बैठकर और खड़े होकर भी देखा। समारोह में गुलजार
निर्देशित ‘आंधी’,
‘अंगूर’, ‘इजाजत’, ‘कोशिश’, ‘लेकिन’, ‘माचिस’ और ‘मेरे अपने’ भी पर्दे पर उतारी
जानी थीं... इस पर उसने हंसकर कहा, ‘‘ये सब रिलीज हो चुकी हैं।’’
चौथा दिन
‘विद दि गर्ल ऑफ ब्लैक सिओल’ ...जिआन सू इल के सिनेमा से यह परिचय की
शुरुआत थी। मैंने इल की इस फिल्म पर उसकी राय जाननी चाही। वह बोला, ‘‘इस फिल्मकार की और
फिल्में देखनी चाहिए,
वैसे कल हमने एक बड़ी फिल्म छोड़ दी— ‘लिटिल इंग्लैंड’।’’
मैंने कहा, ‘‘हम ‘लिबास’ देख रहे थे।’’
पांचवां दिन
कल हमने स्टेफेनी वोलाटो की डॉक्यूमेंट्री
‘कार्टूनिस्ट्स : फुट सोल्जर्स ऑफ डेमोक्रेसी’ भी देखी। अंतरराष्ट्रीय
पटल पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो हमले गए वक्त में हुए हैं, उन्हें यह डॉक्यूमेंट्री
मशहूर कार्टूनिस्ट्स के बयानों के माध्यम से बयां करती है। कार्टून राज्य और सत्ता
के लिए बौखलाहट और दहशत का सबब कैसे बन जाते हैं, यह इस डाॅक्यूमेंट्री की रफ्तार में पैवस्त
कार्टूनों की व्यंग्य की पैनी धार और जोखिम उठाने की क्षमता देखकर ज्ञात होता है।
उसने दोपहर में कहा,
‘‘सुबह देखी सर्बिया की फिल्म ‘मोनुमेंट टू माइकल
जैक्सन’ को कल देखी डॉक्यूमेंट्री की स्मृति में सोचना एक मुस्कुराते हुए
शोक से भर जाना है— अभिव्यक्ति, संस्कृति और इनकी
सीमाओं के संदर्भ में।’’
रात के 12 बजते-बजते उसके शोक से मुस्कुराहट उतर
चुकी थी। शोक अब बिलकुल एकाकी था। व्याकुलता ने हमें घेर लिया था। यह नर्गिस
अब्यार निर्देशित ईरानी फिल्म ‘ट्रैक 143’ का असर था। यह फिल्म युद्ध में सैनिक बन अदृश्य
हो गए पुत्र के लिए एक मां की प्रतीक्षा का आख्यान है।
छठवां दिन
‘आई केम फ्रॉम बुसान’ देखने के बाद उसने कहा कि ‘वन ऑन वन’ देखने के बाद इस पर
बात करते हैं। ये दोनों ही फिल्में दक्षिण कोरिया की थीं। जिआन सू इल के सिनेमा से
हमारा परिचय बिलकुल अभी का था और ‘वन ऑन वन’ किम की डुक की
फिल्म थी जिनकी सारी फिल्में हम देख चुके थे। ‘वन ऑन वन’ इफ्फी के ‘मास्टरस्ट्रोक्स’ में थी।
One on One - Kim Ki Duk |
‘फेस्टिवल केलिडोस्कोप’ और ‘मास्टरस्ट्रोक्स’ के अंतर्गत 2013-14 की अवधि में निर्मित संसार भर
की कई शानदार फिल्मों का प्रदर्शन होना था। इनमें ज्यां लुक गोदार, क्रिस्ताफ जानुसी, किम की डुक, लार्स वान ट्रिएर, नाओमी कवास, पॉल कॉक्स, नूरी बिल्जे चेलान
और रॉय एंडरसन जैसे नामचीन निर्देशकों की नवीनतम फिल्में शरीक थीं।
‘वन ऑन वन’
में किम की डुक हिंसा को परिकल्पित कर
उसकी व्याख्या करते हैं। यहां प्रायश्चित को हिंसा से पराजित होते
प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म में बहुत सारे प्रतिशोध और बहुत सारी हिंसा को
देखते हुए लगता है कि कोई बगैर कहे हुए कह रहा है कि सुनो— क्षमा और अहिंसा बहुत महान मूल्य हैं।
सातवां दिन
जिआन सू इल के सिनेमा पर हमारी बातचीत
नहीं हो पा रही थी। सुबह टर्की की फिल्म ‘सिवास’ और दोपहर रशियन फिल्म ‘दि फूल’ देख लेने से बहुत
उम्दा वक्त गुजरा। ‘सिवास’
में एक 11 साल बच्चे और सिवास
नाम के कुत्ते की और ‘दि फूल’
एक प्लम्बर और एक गिरती हुई इमारत के
बहाने एक गिरते हुए समाज की कहानी है। इन दोनों फिल्मों को एक साथ देखना मासूमियत
को बदलते और ईमानदारी को मरते हुए देखना है— उस समाज में जिसमें अब दरारें आ गई हैं और जिसे ढहने से अब कोई
नहीं बचा सकता। ‘दि फूल’
के बाद उसने कहा, ‘‘रघुवीर सहाय ने
अपनी एक कविता में कहा है कि जब समाज टूट रहा होगा तो कुछ लोग उसे बचाने नहीं, उसमें अपना हिस्सा
लेने आएंगे।’’
आठवां दिन
रवि जाधव की नॉन फीचर फिल्म ‘मित्रा’ भी अपने विषय और प्रस्तुतिकरण
के कारण चर्चा में रही थी, इसलिए इसकी रिपीट स्क्रीनिंग मैंने
मिस नहीं की। ‘मित्रा’
में विजय तेंदुलकर की कहानी को गुलजार
की कविताओं के साथ बहुत खूबसूरती से पेश किया गया। फिल्म का समय 15 अगस्त 1947 के आस-पास का है और
विषय है— समलैंगिकता।
उसने ‘मित्रा’ नहीं देखी और कहा कि उसने ऐसा इसलिए
क्योंकि वह जिआन सू इल के सिनेमा पर एक राय कायम करना चाहता था। उसने कहा, ‘‘इल की फिल्में अपने
सादे कथ्य को बहुत धीमी गति में प्रस्तुत करती हैं। इन फिल्मों में कहीं-कहीं गति इस कदर
ठहर जाती है मानो तस्वीर में बदल गई हो। बेरौनक वस्तुओं से यह फिल्मकार एक
अद्वितीय सिनेमाई सौंदर्य गढ़ता है। भावनाएं इस सौंदर्य का आधार होती हैं और
मानवीय संबंध इसकी सांस।’’
मैंने उससे कहा कि कल इल ने प्रेस
कॉन्फ्रेंस में कहा कि वह बॉलीवुड, अमिताभ बच्चन और रजनीकांत इनमें ये
किसी को भी नहीं जानते।
इस पर उसने कहा, ‘‘जिआन सू इल की तुलना मारिया शरापोवा
से मत करना।’’
नौवां दिन
कल शाम हमने एक भयानक फिल्म देखी थी। जो
शाम से साढ़े छह बजे शुरू होकर रात 12 बजे खत्म हुई। यह फिल्म थी लार्स वान
ट्रिएर निर्देशित दो वाल्यूम में ‘इन्फोमेनिक’ (NYMPHOMANIAC)। करीब 30
प्रतिशत पोर्नोग्राफी वाली इस फिल्म
में अगर दर्शक अंत तक न ऊबे तो वह जान पाएगा कि मनुष्य का मूल स्वभाव केवल
हिप्पोक्रेसी है। फिल्म में खुद अपना गर्भपात करती असीमित और असाधारण
यौनाकांक्षाओं वाली एक नायिका का बचपन, यौवन और अधेड़ावस्था है। संभोग के
विभिन्न आयाम और निष्कर्ष हैं जो धोखों और संदेहों के बीच दंड और यातना की तरह आते
हैं। यह फिल्म खत्म होने के बाद भी एक समय तक साथ रहती है। रात गए उसने कहा, ‘‘शायद यह ‘इन्फोमेनिक’ का ही खुमार था कि
आज हमें न गोदार की ‘गुडबॉय टू लैंग्वेज’ समझ में आई और न ही नूरी बिल्जे चेलान
की ‘विंटर स्लीप’ ...जटिलताओं को अवकाश न मिले तो वे और
जटिल हो जाती हैं।’’
दसवां दिन
लगातार फिल्में देखते-देखते अब एक गंभीर ऊब
मुझ पर सवार थी। क्या कर सकता था मैं इस ऊब का, इसे समुद्र के पास ले जाने के सिवाय।
उसने कहा, ‘‘ऊब से घबराना नहीं चाहिए। बहुत सारे लोग केवल ऊब का अभिनय करते हैं, उसे महसूस नहीं
करते। ईश्वर उनका निर्देशक होता है और वह उन्हें वहां ले जाता है, जहां ले जाना चाहता
है। लेकिन जब कोई अभिनय नहीं सच के साथ जीता है और ऊबता है तो उसका कोई निर्देशक
नहीं होता और वह पेड़ से पृथक पत्ते की तरह होता है। फ्रेंच फिल्मकार राबर्ट
ब्रेसां ने भविष्य के निर्देशकों के लिए कहा था कि अपने अभिनेताओं का सही चुनाव
करो ताकि वे तुम्हें वहां ले जाएं जहां तुम जाना चाहते हो।’’
उसे सुनकर मैं बेहतर महसूस कर रहा था।
मैं उसके साथ-साथ STALWARTS
OF INDIAN CINEMA से गुजरने लगा :
शरीफा, हिमांशु रॉय, दिनशॉ बिलीमोरिया, जुबैदा, पंडित फिरोज दस्तूर, मोती बी गिडवानी, मोहाना, वी शांताराम, शक्ति सामंत, सरदार चंदुलाल शाह, सुलोचना, इजरा मीर, सुबोध मुखर्जी, शमशाद बेगम, वसंत देसाई, रवि, सितारा देवी, जिया सरहदी, स्नेहल भटकल, बी एन सरकार, पंकज मलिक, जे पी कौशिक, होमी वाडिया, मनमोहन सिंह, बाबूभाई मिस्त्री, अबरार अल्वी, दादा साहब फाल्के, आर्देशर ईरानी, नक्श लायलपुरी, महिपाल, देव कोहली, करुणेश ठाकुर, नबेंदु घोष, फियरलेस वाडिया, कल्याणी बाई, बाबूराव पेंटर, जे बी एच वाडिया, मंजू, नौशाद...
ग्यारहवां दिन
‘इफ्फी’ में इस बार आठ श्रेणियों में पुरस्कार
दिए गए। रजनीकांत को वर्ष के भारतीय सिने व्यक्तित्व शताब्दी सम्मान से महोत्सव के
पहले दिन और वांग कार वाय को लाइफटाइम अचीवमेंट से आखिरी दिन नवाजा गया। Andrey Zvyagintsev निर्देशित Leviathan को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, The Kindergarten Teacher के लिए Nadav
Lapid को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, Alexel Serbriakov (Leviathan) और Dulal
Sarkar (Chotoder Chobi) को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, Alina Rodriguez (Behaviour) और Sarit
Larry (The Kindergarten Teacher) को सर्वश्रेष्ठ
अभिनेत्री, और श्रीहरि साठे की मराठी फिल्म ‘एक हजाराची नोट’ को विशेष ज्यूरी
सम्मान प्राप्त हुआ।
***
...कल सुबह उससे मुलाकात नहीं होनी थी और
रात जा रही थी। वह पेड़ से पृथक पत्ते की तरह लग रहा था जब मैंने उससे पूछा, ‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’
उसने कहा, ‘‘शिशिर भादुड़ी ने कहा था कि एक्टर वह
अच्छा होता है जो इंट्री नहीं एग्जिट बढ़िया लेता है। इसलिए जिगर का यह शे’र सुनो :
पहले शराब जीस्त थी, अब जीस्त है शराब
कोई पिला रहा है, पिए जा रहा हूं मैं’’
1 टिप्पणियाँ:
जटिलताओं को अवकाश न मिले तो वे और जटिल हो जाती हैं, इसी से यहां यह भी ज़ाहिर होता है कि हंसते-खेलते-भागते समारोहों में अनिल यादव की लिखाई की याद भले आये, लिबासों के जादू में उलझना नहीं चाहिये, और निम्फोमैनियाक देखकर दुखी होना ही हो तो उसकी पूंछ की तरह 'विंटर स्लीप' तो कतई नहीं देखी जानी चाहिये. और जब सब दिख चुका हो तो घर लौटकर चुपचाप अंधेरे में फिर पाओलो सौरेंतीनो की 'ला ग्रांदे बेलेत्ज़ा' देखनी चाहिये.
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