[४९वां ज्ञानपीठ पुरस्कार वरिष्ठ हिन्दी कवि केदारनाथ सिंह को दिए जाने की घोषणा हुई है. इसके साथ एक ऐसा एकाकी समाज सामने आ गया है, जहां किसी को भी इस पुरस्कार से कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन बीते कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ का हिसाब देखें तो यहां से निकलने वाले सम्मानों-पुरस्कारों के सामने दृष्टिहीन हो जाना पड़ता है. ये अनियमितता से भरे हुए हैं, यहां कुछ भी कभी भी हो जाता है और तमाम जोड़तोड़ सामने आते ही रहते हैं. इस क्रम में यदि हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि को शामिल कर दिया जाता है तो जर्जरनामा और व्यापक हो जाता है और इस परम्परा पर अविश्वास थोड़ा और बढ़ जाता है. समय यदि उस कवि के सम्मान का होता है तो उसे कमतर आंकने का भी बन जाता है. बाहर से दिखे या न दिखे लेकिन यह कालखंड बहुकोणीय है. चुनने और लक्षित करने का यही समय क्यों? फ़िर भी कुछ प्रश्न हैं, जिन पर अविनाश मिश्र ने कलम चलाई है. बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी.]
व्यक्तिपूजन से हटकर
अविनाश मिश्र
‘अभाव से उपलब्धि उपजती है और उपलब्धि से अभाव...’
—लाओत्से
‘बधाई’
ऊपर उद्धृत लाओत्से के वाक्य से नहीं, मुझे ‘बधाई’ से ही शुरू करनी चाहिए यह प्रतिक्रिया, जैसे कभी-कभी कुछ प्रेमीजन अपनी प्रेमिका के तलवों शुरू करते हैं रतिक्रिया। ‘49वां भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान समादृत कवि केदारनाथ सिंह को’, इस खबर से फेसबुक के ‘भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन’ एक ‘अजीब-सी चमक’ से भर उठा। ‘बधाई’ की अंतरव्याप्ति यहां प्रस्तुत प्रसंग में बहुत अर्थपूर्ण और गहरी है। बधाइयों का सिलसिला देर रात तक चलता रहा...। युवा कवि-उपन्यासकार हरेप्रकाश उपाध्याय ने तो सारी बधाइयों को जोड़कर कुछ यूं प्रस्तुत किया—बधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाई। बाद इसके उन्होंने इसे अलग-अलग कर कई जगहों पर बांटा, जैसे यह ‘बधाई’ नहीं मिठाई हो...। यहां यह गौरतलब है कि इससे ठीक पहले हरेप्रकाश उपाध्याय को भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा हो चुकी है।
‘पहल’ के संपादक कथाकार ज्ञानरंजन ने कहा है कि ‘हिंदी में मरण का बड़ा महात्म्य है...।’ हिंदी में पुरस्कार भी सृजनात्मक रूप से रचनाकार के मरण के ही सूचक हैं और इनका महात्म्य अब हिंदी में कोई अलग से रेखांकित करने की चीज तो है नहीं, इसलिए इस पुरस्कार-प्रसंग-प्रतिक्रिया को निर्मम नहीं होना चाहिए। तब तो और भी नहीं जब यह पुरस्कार साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय पुरस्कार हो और तब तो और भी नहीं जब यह आपकी ही भाषा के एक कवि को मिला हो और तब तो और भी नहीं जब कवि सवर्ण हो और तब तो और भी नहीं जब वह आपके के ही प्रदेश का हो और तब तो और भी नहीं जब आप उसके छात्र रह चुके हों और तब तो और नहीं जब आप उसकी कविता की भद्दी नकल करते रहे हों और तब तो और भी नहीं जब वह इस उम्र में भी आपको लाभ पहुंचाने की स्थिति में हो और तब तो और भी नहीं जब खुद उसने गए कई वर्षों से अपना आभामंडल एकदम ज्ञानपीठ पुरस्कार के सुपात्र के रूप में गढ़ लिया हो...। हालांकि यह अलग से चर्चा का विषय है, लेकिन इस तथ्य को भी यहां याद कर लेना चाहिए कि बहुतेरे प्रसंगों में केदारनाथ सिंह ने बहुतेरे निकृष्ट कवियों को पुरस्कृत किया है।
केदारनाथ सिंह के कवि पर अगर दस पंक्तियों का एक निबंध लिखना हो तो वह कुछ यूं होगा :
ऊपर उद्धृत पंक्तियां केदारनाथ सिंह द्वारा वर्ष 1977 में लिखी गई कविता ‘चट्टान को तोड़ो वह सुंदर हो जाएगी’ से हैं। इस कविता के अंत में कवि एक और नई चट्टान की खोज में अपना यकीन जाहिर करता है। आधी सदी से भी अधिक की केदारनाथ सिंह की कविता-यात्रा कई स्मरणीय कविताओं और काव्य-पंक्तियों से बुनी हुई है। मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद वह आजाद भारत की हिंदी में अब तक सबसे ज्यादा बार उद्धृत किए गए हिंदी-कवि हैं। ‘हाथ’ और ‘जाना’ जैसी लगभग साढ़े तीन दशक पुरानी और शब्द-संख्या के लिहाज से बेहद छोटी कविताएं अब तक पुरानी नहीं पड़ी हैं, और लगभग इतनी ही पुरानी कविता ‘बनारस’ की फरमाइश भी अब तक जारी है। ‘सूर्य’, ‘रोटी’, ‘तुम आईं’, ‘बारिश’, ‘टूटा हुआ ट्रक’, ‘फर्क नहीं पड़ता’ जैसी कविताएं केदारनाथ सिंह की कविता के मुरीदों के लिए जीवन भर की स्मृति हैं। लेकिन लोकप्रिय-प्रासंगिकता अपना मूल्य भी मांगती है और केदारनाथ सिंह इसके प्रमाण हैं। वह निर्विवाद रूप से हिंदी के एक श्रेष्ठ कवि हैं, लेकिन एक ऐसे श्रेष्ठ कवि जिनका दशकों से कोई उल्लेखनीय काव्य-विकास नहीं हुआ है। उनके नवीनतम कविता-संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ को इस तथ्य की तस्दीक के तौर पर पढ़ा जा सकता है।
गए कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से कुछ कमतर प्रतिभाओं को भी नवाजा गया है। इस पुरस्कार की ख्याति इस रूप में भी रही है कि यह प्राय: ऐसे ही रचनाकारों को मिलता आया है जिनके बारे में साफतौर पर यह मान लिया जा चुका होता है कि रचनात्मक-उत्कर्ष के स्तर पर ये अपना चूड़ांत बहुत पहले ही छू चुके हैं...। इस तरह से देखें तो ज्ञानपीठ पुरस्कार केदारनाथ सिंह के बहुत पहले ही चुकने की पुष्टि करता है, या यह भी कह सकते हैं कि यह पुरस्कार कई वर्षों से साहित्य-समीर में व्याप्त इस तरह की तमाम वाचिक सच्चाइयों पर ऐतिहासिक और प्रामाणिक मुहर है। यहां आकर केदारनाथ सिंह का वह काव्यात्मक-संघर्ष समाप्त होता है जो एक लंबे अर्से से औसत की बहुलता से ग्रस्त रहा है।
- वर्ष 1934 में जन्मे केदारनाथ सिंह ने विधिवत काव्य-रचना 1952-53 के आस-पास शुरू की।
- उनका पहला कविता-संग्रह ‘अभी बिलकुल अभी’ वर्ष 1960 में प्रकाशित हुआ।
- उन्हें एक साथ गांव और शहर का कवि कहा जाता है।
- उनके काव्य-संसार में एक प्रयोजनमूलक सरलता दृश्य होती है।
- उनकी कविता कहीं भी एकालाप नहीं है।
- उनकी कविता अपने समय-समाज से एक लयपूर्ण संवाद है।
- उन्होंने अपनी कविता में कामचलाऊ शब्दों को एक मार्मिक जीवंतता दी है।
- उनके काव्य-पंथ ने हिंदी में अपने कई अनुयायी उत्पन्न किए हैं।
- उन्हें ‘अकाल में सारस’ के लिए वर्ष 1989 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- समग्र साहित्यिक-अवदान के लिए उन्हें वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।
‘अब लौट आओ
तुमने अपना काम पूरा कर लिया है
अगर कंधे दुख रहे हों
कोई बात नहीं
यकीन करो कंधों पर
कंधों के दुखने पर यकीन करो’
7 टिप्पणियाँ:
अपने कथ्य, शैली और शिल्प में अविनाश मिश्र की यह टिप्पणी हिंदी साहित्य और उसके Realpolitik में एक ऐतिहासिक संग-ए-मील है .मेरे लिए इसमें से एक भी शब्द हटाना या बदलना या इससे तनिक भी असहमत होना असंभव है.
केदारनाथ सिंह (और कुंवर नारायण) का पारिवारिक-जैसा स्नेह मुझे अब चार दशकों से हासिल है और उनकी कविताओं का मैं प्रशंसक रहा हूँ, उनपर मैंने लिखा है और कुछ का अंग्रेज़ी तथा जर्मन अनुवाद किया, करवाया, छपवाया भी है. लेकिन यह बरसों पहले की बात है. अब उनकी कविताएँ पढ़ने के लिए कलेजे पर पत्थर रखना पड़ता है. अभी 'प्रसार भारती' की पत्रिका 'दृश्यांतर' में उन (दोनों) की रचनाएं आईं थीं जो उनकी पूर्व-प्रतिष्ठा और पत्रिका द्वारा अपनी साख-धाक बनाने के कारण ही छापी गयी होंगी वर्ना वे अप्रकाश्य और अपाठ्य ही नहीं, अलेख्य भी थीं. केदारजी (और कुंवरजी) के हाल के संग्रह संकुचित और लज्जित करते हैं. लेकिन वे अजातशत्रु हैं और उनमें मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन जैसी तीक्ष्णता और टेढ़ कभी नहीं रही. केदारजी के एकदम नए संग्रह से बहुत रियायत देते हुए मैं सिर्फ़ छः पठनीय कविताएँ छांट पाया था. इसे मैंने उन्हें बहुत शर्मिंदगी से और डरते-डरते बता भी दिया था लेकिन वह केवल अपनी सुपरिचित प्यारी हंसी हँसते रहे.
भारतीय ज्ञानपीठ तो अपने इस पुरस्कार का इस्तेमाल नाना-प्रकार के ग़ैर-साहित्यिक उद्देश्यों के लिए करता रहा है. पुरस्कार-वितरण के लिए वह अक्सर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, काबीना मंत्रियों या अन्य राजनेताओं को फांसता रहता है. महादेवी को तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने यह पुरस्कार दिया था. यह देखते हुए कि नरेन्द्र मोदी (भले ही निकृष्ट दर्जे के - मैं अटलबिहारी वाजपेयी को भी ऐसा-ही कुछ कहकर उनके युग में सरकारी रेडिओ-टेलीविज़न पर प्रतिबंधित रह चुका हूँ, जबकि दोनों पर जाता ही नहीं हूँ - ) गुजराती कवि-उपन्यासकार-चिन्तक तो हैं ही, हिंदी के वास्तविक हितैषी भी हैं, लिहाज़ा मैं अपनी ओर से प्रस्तावित करता हूँ कि केदारजी को पुरस्कार वही दें. देखें तो ऐसे प्रतिबद्ध वामपंथी कवि के बारे में प्रधानमंत्री का हिंदी भाषण-लेखक क्या कहलवाता है - कहीं अपनी सदाशयता में मुझ-सरीखों को भी उद्धृत न कर दे.
यह देखना भी मार्मिक होगा कि ज्ञानपीठ के प्रगतिकामी, मार्क्स-आम्बेडकरवादी नव-निदेशक, छिन्दवाड़ा-छत्रपति/गुढ़ी-गौरव लीलाधर मंडलोई किस तरह समारोह के लिए प्रधानमंत्री के समक्ष फ़ाइलें और कागज़ात लेकर पेश होते हैं. यूँ अब तक वह ज्ञानपीठ के अघोषित, बेताज तुग़लक़ आलोक जैन के हुज़ूर में जा-जाकर ''वैल-ट्रेंड'' हो ही चुके होंगे.
अविनाश मिश्र की इस टिप्पणी से मुझ-जैसे अकेले पड़ते जा रहे कुछ हिंदी लेखकों को बल मिलता है. मैं इस युवा प्रतिभा की हर बात से सहमत नहीं हो पाता लेकिन यह आलेख अनिन्द्य और निर्दोष है. देखते हैं कितने प्रौढ़ और युवा लेखक इसका कुछ प्रतिशत भी साहस बटोर पाते हैं. अभी हिंदी-परिदृश्य को देखकर अशोक-वाटिका नहीं, नामदेव ढसाल की कविता और संग्रह के शीर्षक ''गाँडू बगीचा'' का बरबस स्मरण हो आता है, जिसमें लंगोट के पक्के आंजनेय की नाईं अविनाश ने हुंकृति के साथ यह एक 'क्वांटम जम्प' लगाई है.
केदारनाथ सिंह मूलतः सौंदर्य बोध और दृश्यात्मक निरीक्षणों के कवि है .उनकी सारी प्रशंसाओं के बावजूद वे कलाकार चेतना के कवि हैं कवि से अधिक अपने प्रभाव में उनकी कवितायें एक बड़े चित्रकार की भषा-सर्जना का सम्प्रेषण अधिक लगती हैं उनकी कविताएं अपनी कलावादी संरचना के साथ कविता का बाजारवादी लोक प्रिय संस्करण प्रस्तुत करती है. .यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि क्रिकेट की तरह ही उनके कविता माडल की लोकप्रियता नें हिंदी कविताओं को एक असम्वादी कलात्मक उत्पाद बनाया है .बहुत देर से लोगों की समझ में आएगी यह बात कि भिन्नता के साथ वे बच्चन की परम्परा के ही शीर्ष कवि हैं उनकी कविताओं ने अपनी लोकप्रियता के कारण एक नए तरह का रीतिवाद पैदा किया है .इसनें अपने दुष्प्रभाव में मर्मस्पर्शी और भावात्मक संवाद वाली कविताओं को चलन से बहार कर दिया है ..उनकी कवितायेँ आत्मीयता का प्रसार करने वाली भाव -संवेदी कविताओं की मूल परंपरा को बहुत दूर तक भटकाती हैं यद्यपि यह भी एक सच है कि इधर की उनकी कविताये संवेदनशील स्मृतियों की और लौटने का प्रयास करती हैं -उनकी पूर्ववर्ती कई कविताओं के आधार पर .इस चेतावनी के साथ उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने के लिए बधाई
केदार जी के नए संग्रह पर विष्णु खरे जी की राय से मैं पूरी तरह सहमत हूं। इन कविताओं के कथन बहुत साधारण और औसत हैं।
खरे जी ने प्रधानमंत्री के हाथों ज्ञानपीठ दिलवाए जाने की जो आशंका जाहिर की है, वह भयावह है और उससे कवि का वैचारिक पक्ष का पता चलेगा, यों वह इधर डाइल्यूट ही होता गया है।
मैंने फेसबुक पर ज्ञानपीठ और धार्मिक सन्दर्भों के बीच सम्बन्धों पर ख़ुद आशंका व्यक्त की है। साधुता जो इस संस्थान के लिए ज़रूरी है, सबसे नहीं सधती।
अविनाश ने अपनी बात पूरी ताकत और निर्भीकता से की है। और उनके पास ये कहने का पुख्ता आधार है। केशव तिवारी।
पूरी सहमति। इस दुस्साहस के लिए अविनाश को बधाई। यह ऐसे ही बना रहे।
'गए कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से कुछ कमतर प्रतिभाओं को भी नवाजा गया है। इस पुरस्कार की ख्याति इस रूप में भी रही है कि यह प्राय: ऐसे ही रचनाकारों को मिलता आया है जिनके बारे में साफतौर पर यह मान लिया जा चुका होता है कि रचनात्मक-उत्कर्ष के स्तर पर ये अपना चूड़ांत बहुत पहले ही छू चुके हैं...। अविनाश जी आपके इन कथनों से सहमत हूँ पर यह बातें केदारनाथ सिंह जी को ज्ञानपीठ मिलने पर ही क्यों ? जबकि आप ने आज के कवियों में उन्हें श्रेष्ठ साबित करने के दर्जन भर दलीलें भी जोड़ी हैं.
निश्चित ही आज केदार जी के लिए ज्ञानपीठ कोई प्रतिमान नहीं है बल्कि हम जैसे लाखों लोगों के लिए उनके सम्मान का एक मौका भर है. लेकिन कुछ आलोचनाओं को हम बेवक्त करके बड़े साईज के लक्ष्यों पर निशाना साधने जैसा एहसास देते हैं जैसे लगता अपने बिस्तर पर सोये-सोये खिड़की से पत्थर उछाल दीजिये! और वह ठीक निशाने पर लगता है!
आपका लिखा पढता रहा हूँ. मुझे आशा है आप उन क्षद्म लक्ष्यों पर सटीक निशाना लगा सकते हैं! कृपया इस व्यवस्था पर तिरछी नजर करें!
यह विवादित किया जा सकता है कि सम्मान घोषणा के अवसर पर यह सब वार्ता क्यों लेकिन ये अवसर भी प्रसंग और संदर्भ बना देते हैं। अविनाश ने अपनी बात प्रखर तरीके से रख दी है। इधर अनेक वर्षों से तमाम तरह के महत्वपूर्ण और चर्चित पुरस्कारों/सम्मानों की अजीबो गरीब दशा हो गई है। किसी पुरस्कार से सम्मानित लेखकों की सूची बनाई जाए तो वह वरिष्ठता, श्रेष्ठता और अन्य मानदण्डों पर काफी मनोरंजक प्रतीत हो सकती है। साहित्य अकादेमी जिन्हें नहीं मिला उन हिंदी लेखकों की सूची बनाई जाए तो उसके बरअक्स अनेक साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कवि प्रभाहीन नजर आ सकते हैं। कई बार संस्थाऍं अपनी जूरी ही ऐसी बनाती हैं कि उनसे मनचाहा परिणाम प्राप्त कर सकें। कई बार जूरी देखकर कोई भी सहज अनुमान लगा सकता है कि कौन पुरस्कृत होने जा रहा है। इसमें पुराने उपकार भी चुकता किए जाते हैं और बदले तो लिए ही जाते रहे हैं। बहरहाल, यह एक तात्कालिक समस्या भर नहीं है और न ही पुरस्कृत व्यक्ति का इसमें कोई अपराध है। लेकिन टिप्पणियों की एक व्यापक परिधि होती है, उन्हें सकारात्मक तरीके से लिया जाना चाहिए। इससे नया विमर्श बने तो यह उसकी उपलब्धि होगी।
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