केन्द्र में बुरी सरकार की विदाई के बाद एक बदतर सरकार आई है, जो तमाम मौकों पर अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने के लिए और तमाम अंतरों को जन्म देने के लिए मशहूर है. नई सरकार पर गंभीर आरोप हैं, जिनके साथ उन्हें हर हाल में चलना होगा. पक्ष-विपक्ष के मुद्दे से अलग यह समय बहाव से बच निकल आने का है.
कोई हैरत नहीं जब कुछ दिनों में हमारे बीच के कई वरिष्ठ-युवा कवियों लेखकों के सुर बदल जायेंगे, वे मानव प्रजाति के सबसे बड़े शत्रुओं में शामिल में से एक की कविताओं की विवेचना और उनका प्रस्तुतिकरण करते पाए जायेंगे. उनके साथ मंच पर बैठे बादाम और मिनरल वाटर की बोतल का स्वाद लेते दिखेंगे. सम्भव है कि कुछ मौकों पर वे नृत्य तक करने लगें. यह भी मुमकिन है कि अगले छः महीनों में 'नया केसरिया सूरज' उगने सरीखी कविताएं सामने आने लगें, या 'गुजरात के बाद क्या', 'वड़ोदरा - कविता की आड़ में' सरीखे यात्रा-वृत्तांत, आलोचनात्मक लेख फ़लक पर दर्ज होने लगें.
हिन्दी कुछ ही दिनों में सारे विरोधों और समस्याओं से मुक्त दिखने लगेगी, सभी के 'अच्छे दिन' आने लगेंगे, सरकारी नौकरीयाफ्ता कुछ रचनाकार संभवतः खुली बहसों में शिरकत न करें, अल्टरनेटिव मीडिया के संचालक-सम्पादक कभी भी गिरफ़्तार किये जा सकते हैं. कुछ अन्य बेरोजगार अपने निजी हित के लिए, यात्रा के लिए, पाठ के लिए, खर्च के लिए भगवा रेसकोर्स के चक्कर काटते भी पाए जा सकते हैं. कुछ लेखक ऐसे पेश आएँगे, जैसे वे अभी तक इसी सरकार का इन्तिज़ार कर रहे थे. यदि आपकी ख्वाहिश ऐसे लाभान्वित होने की न हो तो उन्हें अभी से देखिए, चिह्नित करिए और एक स्वस्थ दूरी बना लीजिए. हिन्दी की कई पत्रिकाएं आपसे रचनाएँ नहीं मांगेंगी और भेजने पर पूछेंगी कि 'कब भेजा था?'
पत्रकारिता में भी एक गरज मिलेगी. अगले पाँच सालों की पत्रकारिता 'पत्रकारिता' संज्ञा-कर्म से मुक्ति पा लेगी, जैसे इसने बीते पाँच सालों के पिछले पाँच सालों में पाया था. पत्रकारिता कोई उत्सव नहीं होगा, यहां नौकरी से निकाला जाना एक आम घटना हो सकती है, तैयार की गयी स्टोरी को डेस्क तक पहुंचाने में नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं. सब ऐसे होता रहेगा, जैसे भारत को अभी-अभी स्वतंत्रता मिली हो. अब अखबार अखबार नहीं रहेंगे, वे (पूरी तरह से) घोषणा-पत्र और रिपोर्ट कार्ड हो जाएंगे. जिन अखबारों में आप उड़-उड़कर पन्ने रंगा करते थे, सम्भव है कि वे एक हद के बाद आपके ईमेल का जवाब तक न दें.
लेकिन इन सब कठिनाइयों के बावजूद सबसे बड़ा नुकसान सभी भाषाओं के फ्री मीडिया को होगा, जिन्हें अल्टरनेटिव मीडिया के तौर पर हम ग्रहण करते हैं. इन्हें सबसे बड़ा नुकसान अपनी उपस्थिति का झेलना पड़ सकता है, इन्हें बिना किसी वजह के सस्पेंड किया जा सकता है, कभी भी दिल्ली के किसी भी इलाके से कोई भी गिरफ़्तार हो सकता है, कभी भी होस्टिंग कम्पनियाँ होस्टिंग का किराया इतना बढ़ा सकती हैं(क्योंकि उनके अच्छे दिन कभी भी आ सकते हैं) कि आपके छक्के छूट जाएं, कभी भी आपका एसबुक-फेसबुक अकाउंट बेरहमी से सस्पेंड किया जा सकता है, आपके बारे में यदि थोड़ी भी चर्चा है तो सम्भव है कि आपके घर पर पत्थर पड़ जाएं. इसलिए यह ध्यान में रखना जरूरी है कि विरोध करने का समय तो चला ही गया है, अभी आप विरोध भी करें तो भी पाँच साल तक पत्ता भी नहीं हिलेगा. अभी समय मूल्यांकन का है, जिसे हम पूरी शिद्दत से करेंगे.
इसे एक बहुत छोटी पोस्ट के रूप में देखा जाए. इस पोस्ट को जगह भरने के लिए बजाय बात रखने के लिए दिया जा रहा है. इसके यहां होने से दृश्य में बदलाव नहीं सम्भव है, लेकिन इसका आश्वासन तो हर हाल में ही दिया जा सकता है कि यह संस्थान मुक्त है और मुक्त प्रयासों को ही सामने रखने का प्रयास करेगा. यह एक जरूरी हस्तक्षेप है, जिसे करने का यही समय है. काल्पनिक रचनाओं के शीर्षक एक पैरोडी हैं, जिनसे कोई भी लक्ष्य साधने की कोशिश नहीं की गयी है. सम्भव है कि यह पोस्ट 'बुद्धू-बक्सा' की तासीर के अनुकूल न लगे, लेकिन अब यह है तो है. कृति गोया की.
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