[दिल्ली की एक दोपहर में बेफ़िक्र वरिष्ठ कवि, आलोचक और कलासेवक अशोक वाजपेयी से मुलाक़ात होती है, बात का एक दौर उठता है. कई सवाल रखे जाते हैं, और सुनने वाले को हवा-हवाई कर देने वाले जवाब मिलते हैं. यदि एक अवस्थिति के सापेक्ष बात करें तो हिन्दी में मुट्ठी भर वरिष्ठ ही बचे हैं जो इस भाषा को और उसमे निहित कार्यक्रम को 'एक गुज़र जाने' से अलग एक वर्ज़िश, एक परिश्रमयुक्त दीक्षा मानते हैं वरना हिन्दी को लेकर सँजोए गए स्वप्न हरेक आईपी एड्रेस पर ख़ाक होते ही रहते हैं. बहुत कठिन परिवर्तन की बात ही नहीं है, अशोक वाजपेयी की सुनें तो बेहद मूल पढ़ाई और उसके प्रशिक्षण से ही दृश्य को साफ़ रखने में मदद मिल सकती है. बात तो सच है कि हिन्दी में रैगिंग बेहद कम हो गयी है, लेकिन 'बात तो सच है' से इतर भी मामला बनाना होगा तो ही कुछ मुक़म्मिल सम्भव है. यह साक्षात्कार 'पाखी' के अप्रैल अंक में प्रकाशित. 'पाखी' की पूरी टीम का बेहद शुक्रिया.]
आपके लिए कविता में समय और स्थान का क्या महत्व है?
आपका मतलब देशकाल से है. बुनियादी तौर पर दार्शनिक अवधारणा है, लेकिन मेरा ख़याल है कि कविता का एक काम यह है कि वह समयविद्ध होकर भी समयातीत को छूने की चेष्टा करे. वह देशसीमित होते हुए भी देश का विस्तार करे या अतिक्रमण करे. कविता में ऐसी शक्ति है, उसका जो बुनियादी उपकरण यानी भाषा है, उसमें ऐसी सम्भावना है कि वह दोनों को एक साथ साध सके, यानी देश को भी और देशातीत को भी, काल को भी और कालातीत को भी. ज़्यादातर कविता इसे साधने की चेष्टा तक नहीं करती. लेकिन जो बड़ी कविता है उसमें यह चेष्टा जाने-अनजाने होती ही है. इसीलिए बहुत सारी ऐसी कविता - जो हमारे समय की नहीं है, उसमें हमारे समय की छवियाँ नहीं है, हमारे समय के जीवन चित्र नहीं हैं - भी हमको अपील करती है. क्यों करती है? इसी तरह से कोई और कविता जो किसी और देश की है, किसी और भाषा की है, किसी और संस्कृति से उपजी है वह भी हमें अपील कर सकती है. इसलिए कविता का संस्कार हमें बहुत कुछ देता है, देश और काल में अवस्थित होना और उनसे मुक्त होना.
आपके लेखन का पिछला समय और अभी का समय, दोनों को देखें, तो कौन-सा ज़्यादा आबाद है?
यह मेरे आकलन का विषय नहीं हो सकता. दूसरे जानें. मुझे शुरू से अपना समय बहुत आबाद लगता है. जैसे-जैसे समय बीतता जाता है वह बदलता जाता है. लेकिन दूसरे अर्थ में सोचें तो यह कह सकते हैं कि आपके बुनियादी सरोकार काफ़ी पहले तय हो जाते हैं. मेरे पहले कविता संग्रह से ही, मेरी बाद की सारी कविता के सरोकार विकसित हुए. मसलन प्रेम कविता, प्रकृति से तादात्म्य की कविता, कलाओं के अनुवाद की कविता, शब्द पर अटल आस्था की कविता और पास-पड़ोस, घर-पूर्वज, माता-पिता इत्यादि को समेटती कविता, मृत्यु को किसी न किसी तरह से अपने हिसाब में लेती कविता, यह सब पहले संग्रह में ही मिलता है. अब कोई यह भी कह सकता है कि साहब आपको जो लिखना था आपने पहले ही लिख दिया, खामखाह ही उसको आगे बढ़ाए जा रहे हैं.
और डिजिटलाइजेशन की वजह से कुछ अंतर पड़ा आपके लेखन में?
कोई अंतर नहीं पड़ा. मेरा उस दुनिया से रत्ती भर सम्बन्ध नहीं है. मुझे मालूम है कि एक बहुत बड़ी दुनिया बन गयी है, लेकिन न मेरा उससे कोई संवाद है ना ही कोई सम्बन्ध.
आपकी कई कविताएँ हैं जो ईश्वर को संबोधित हैं. तो क्या आपके हिसाब से ईश्वर की उपस्थिति ज़रूरी है?
मैं समझता हूँ कि विश्व के जो सबसे महान आविष्कार हैं, उनमें ईश्वर है. ईश्वर एक मनुष्य-निर्मित अवधारणा है. मुझे नहीं लगता कि बिल्लियों, बकरियों या कुत्तों का कोई ईश्वर होता है, मनुष्यों का ही होता है. यह अवधारणा ही मुझे बहुत अधिक आकर्षित करती है. मैं अपने को आध्यात्मिक व्यक्ति कहता हूँ, धार्मिक नहीं. किसी धर्म में विश्वास वगैरह नहीं है, आस्था का वरदान मुझे नहीं मिला. एक तरह से कह सकते हैं कि लड़प्पन में ही आस्था मुझसे चुक गयी. मुझे यही धारणा आकर्षित करती है. मेरी ज़्यादातर कविताएँ ईश्वर से झगड़े की कविताएँ हैं, बीच-बीच में कभी-कभी एक रूपक की तरह उसका इस्तेमाल करते हुए विराटता से तादात्म्य का बोध पैदा करने की चेष्टा करता हूँ. मेरी समझ में आध्यात्मिक दृष्टि का अर्थ है इस बात का एहसास कि आप एक विराट सचाई का हिस्सा हैं, और दूसरा यह कि उस विराट सचाई में हर चीज़ दूसरी चीज़ से जुड़ी हुई है, चाहे वह नक्षत्र हों, पृथ्वी हो या आकाशगंगाएं और सौरमंडल हों, फ़ूल-पत्ती-पेड़-पशु-मनुष्य हों. तीसरा यह कि हम एक दूसरे से जुड़े होने के बाद एक दूसरे के लिए ज़िम्मेदार हों और चौथा कि इस संग्रंथन को बचाए रखने की और पोषित करने की हमारी ज़िम्मेदारी बनती है. और मेरी समझ से कविता ही एक ऐसा माध्यम है जो विराटता और अकिंचनता – यानी हमारी जो नगण्यता है – को जोड़ सकती है. जिसका, सौभाग्य से कह लीजिए या दुर्भाग्य से, मैं साधक हूँ.
आपकी चेतना का सबसे पुख्ता आधार क्या है?
अब यह तो मुझे मालूम नहीं कि कोई पुख्ता आधार है भी या नहीं लेकिन मुझे लगता है कि आधार एक से अधिक भी हो सकते हैं. एक आधार तो यह है कि हमें अपने ज़रूरी एकांत और अपनी अनिवार्य सामुदायिकता इन दोनों में से किसी एक को चुनना आवश्यक नहीं है. बिना एकांत के भी हम सृजनधर्मी नहीं हो सकते और बिना सामुदायिकता के भी हम मनुष्य के रूप में पूरी तरह से चरितार्थ नहीं हो सकते. दूसरा जो मुझे लगता है कि हमें बहुत सारी चीज़ों से मुक्ति चाहिए, स्वतंत्र होने की आकांक्षा. तीसरा आधार लगता है कि बहुत सारी चीज़ों में किन्हीं भी परिस्थितियों में समानता नहीं है. मैं समानता की अवधारणा को सिर्फ़ मनुष्यों के बीच समानता तक सीमित नहीं रखता, बल्कि सकल ब्रह्माण्ड की समानता. फ़िर एक बदलने की आकांक्षा, मैं उन लोगों में से हूँ जो जानते हैं कि साहित्य दुर्भाग्य से उन शक्तियों में से नहीं है जो मानवीय परिस्थिति को बुनियादी रूप से बदलने में सक्षम हो, फ़िर भी हम ऐसे लिखते हैं मानो हमारे लिखने से बदलाव आता है.
रोज़ कैसे लिखते हैं?
रोज़ तो नहीं लिखते हैं, इसलिए यह प्रश्न ही थोड़ा गलत है. अब सप्ताह में एक स्तंभ ही लिखना होता है, उसे शुक्रवार तक पूरा कर लेता हूँ. अक्सर उसे एक बार में लिख ही लेता हूँ. वैसे मैं रोज़-रोज़ नहीं लिखता लेकिन कई बार दौरे से आते हैं तो छोटे समय में बहुत अधिक लिख लेता हूँ. कई-कई बार महीने गुज़र जाते हैं जब कुछ नहीं लिखता. इसकी कोई निश्चित लय नहीं है.
तो वह दौरा कब आता है?
अब ख़ुदा जाने कि कब आ जाए, कुछ कहना मुश्किल है. कुछ न कुछ उद्वेलन होता रहता है, जाने कब वह पक जाए और कुछ फूट पड़े. और कभी-कभी बहुत सारे बहाने बनते हैं, कविताएँ उस बहाने से नहीं लिखी जातीं लेकिन आलोचनाएं उसी बहाने से लिखी जाती हैं कि कहीं बोलना है या कहीं निबन्ध पढ़ना है.
जब नहीं लिखते तब क्या करते हैं?
इसका उत्तर एक बार रघुवीर सहाय ने दिया था कि ‘जब मैं नहीं रच रहा होता हूँ, रचने की तैयारी कर रहा होता हूँ’, यही उत्तर ठीक है.
सबसे आसान नोट पर प्रेम को समझना हो तो क्या कह सकते हैं?
आसान कैसे समझाया जाए यह मैं नहीं जानता लेकिन अपने को दूसरे में देखना और दूसरे को अपने में पाना, यही प्रेम होगा.
आपकी प्रेम कविताओं के ऐतबार से आपके जीवन में प्रेम की उपस्थिति के बारे में बहुत कुछ पता चलता है. फ़िर भी जीवन में प्रेम की मौजूदगी के बारे में कुछ बताइये?
जीवन में प्रेम की मौजूदगी....तो....पोशिदा ही रहे तो ठीक है. हमारे समाज में ऐसी हालत नहीं आई है कि आप अपने प्रेम ज़ाहिर कर दें तो आप सराहे जाएँ. मेरी निंदा तो प्रेम कविता लिखने के कारण ही हुई है, यदि मैं बता भी दूँ कि मेरे जीवन में इतनी स्त्रियाँ थीं तो उनसे निंदा पर कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ने वाला, कुछ अधिक तीखी हो जाएगी, और क्या होगा? ज़्यादातर प्रेम कविताएँ व्यक्ति संबोधित कविताएँ हैं, उन व्यक्तियों के नाम बताना ज़रूरी नहीं है. उन प्रेम कविताओं में से अधिकांशतः प्रेम-पत्र हैं. कई बार तो प्रेम-पत्र की तरह लिखे ही गए हैं, उसके अलावा कुछ विशेष नहीं है. मैं अपने को प्रेम से बहुत समृद्ध मानता हूँ. मेरे पास समृद्धि के जो तीन-चार पैमाने हैं उनमें एक है कविता से मिलने वाली समृद्धि यानी साहित्य और कलाओं से मिलने वाली समृद्धि, दूसरी प्रेम से मिलने वाली समृद्धि और तीसरा दूसरों के लिए कुछ कर पाने की इच्छा और प्रयत्न से मिलने वाली समृद्धि.
तो जिस समय जीवन में प्रेम रहा, वह समय कैसा रहा लेखन के लिए?
अव्वल तो एक बार रहा नहीं, अलग-अलग रहा है. लिखने की बात करें तो मैं बहुत निर्लज्ज प्रेम कवि हूँ, अभी भी प्रेम कविताएँ लिखता हूँ. उससे ख़ैर यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि मैं अभी भी प्रेमासक्त हूँ. अभी थोड़ा-बहुत युवाओं ने भी प्रेम कविता लिखना शुरू किया है वरना एक ज़माने में तो मेरे अलावा बहुत सारे लोग सामाजिक यथार्थ इत्यादि से इतना दो-चार होते रहते थे कि उन्हें कविता में प्रेम करने की फ़ुर्सत नहीं रहती थी. तो हम ही एक थे जो प्रेम का राग अलापते थे जिसे बहुत से लोग सुनते भी नहीं थे, उसे मूर्खतापूर्ण मानते थे. एक ज़माने में मैनें माँ पर बहुत कविताएँ लिखी थीं तो हमारे अकवितावादी कवि ने कहा था कि माँ जैसे पिछड़े विषय पर अशोक वाजपेयी के अलावा और कोई कविता नहीं लिख रहा.
किसने कहा था?
सौमित्र मोहन ने.
वह समय कितना रचनाशील था?
आमतौर पर प्रेम का समय रचनासक्रिय तो बनाता ही है अब ज़रूरी नहीं है कि वह रचनासक्रियता ‘प्रेम-कविता’ के रूप में ही सामने आए. मैं तो यह मानता हूँ कि जो व्यक्ति संसार से प्रेम नहीं करता उसे कवि नहीं होना चाहिए. बहुत सारे अच्छे काम हैं, बेहतर काम हैं दुनिया में करने के लिए लेकिन कविता तो संसार के अनुराग से ही उपजती है यानी, इस अर्थ से, कविता तो अपने मूल में ही प्रेम कविता है.
आप लेखक क्यों बने?
हमारे एक अध्यापक थे, जब वे हमारे स्कूल से जा रहे थे तो उन्होंनें मुझसे कहा कि तुम प्रशासकों के परिवार से हो, पिताजी, नाना, मामा सब प्रशासनिक सेवा में थे, तो तुम्हें बनना तो प्रशासक चाहिए, लेकिन मरना कवि की तरह. मैनें शायद दोनों निभा लिए हैं लेकिन रहना कवि की तरह थोड़ा कठिन था.
लेकिन ऐसा तो नहीं है आपने उस घटना से प्रेरणा ली होगी?
नहीं ऐसा तो नहीं है, लेकिन आगे जाकर समझ आया कि दोनों को साध सकता हूँ. लोग इन दोनों में बैर देखते रहे हैं कि भला प्रशासन और कविता में क्या सम्बन्ध है? लेकिन मैं समझता हूँ कि आप प्रशासन को थोड़ा अधिक मानवीय, थोड़ा अधिक द्रवणशील, अधिक ग्रहणशील बना सकते हैं अगर आपमें थोड़ी कविता भी हो और कविता को कुछ कच्चे, खुरदुरे, सच्चे यथार्थ के क़रीब ला सकते हैं अगर आप प्रशासन में भी हो.
तो क्या प्रशासक होने से कविता में और कवि होने से प्रशासन में कोई फ़र्क पड़ा?
हो सकता है यह फ़र्क पड़ा हो जो अभी कहा है, लेकिन यह मैं कैसे बता सकता हूँ? वैसे मैनें प्रशासन को कभी कविता के आड़े नहीं आने दिया और वह आया भी नहीं. वैसे भी कविता हमारे समाज में फालतू-सी कार्रवाई मानी जाती है. आप कविता करते हैं तो किसको परवाह है? जब तक आप प्रशासन के काम में कोताही न करें, तब तक कोई ध्यान क्यों देगा कि आप कवि हैं?
जब लिखते हैं तो किस समय को मुफ़ीद मानते हैं?
सुबह का, एकदम सुबह नहीं. घूमघाम कर, अखबार पढ़कर, नहा-धोकर तब अक्सर जो समय होता है उस समय लिखता हूँ. अब इन दिनों हमारे पास कोई काम-धाम तो है नहीं, निठल्ले हैं तो यहाँ आने के पहले यानी सुबह और दोपहर में लिख लेता हूँ. रात को नहीं लिखता, यह भी कहा जा सकता है कि मैं ‘धूप-प्रिय’ हूँ मतलब उजाले में लिखता हूँ, अँधेरे में नहीं लिखता हूँ.
लिखने की जो जगह है, उसे कैसा देखना पसंद करते हैं?
मेरा घर बेहद कियॉटिक है. मेरे पास एक ऐसी मेज तक नहीं है, जिसे लिखने-पढ़ने की मेज कह सकूँ. जो हैं उन पर चीज़ों और किताबों का ढेर लगा हुआ है इसलिए कहीं भी बैठकर लिख लेता हूँ. मैनें बहुत बचपन में ही टाईपराइटर चलाना सीख लिया था इसलिए मैं सीधे टाईपराइटर पर ही लिखता हूँ. वह कम्प्यूटर-वम्प्यूटर हमारे बस का नहीं है. उसी टुटहे रैमिंगटन टाईपराइटर पर सभी कुछ जैसे ‘कभी-कभार’ और दूसरी चीज़ें लिख लेता हूँ, यदि बाहर रहा तो कागज़-कलम पर. मेरे लिखते समय यदि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत बज रहा हो तो और अच्छा लगता है. हालांकि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत वैसे भी अच्छा लगता है जब नहीं लिख रहा होता हूँ. मैनें यहाँ अपने दफ़्तर में भी यही व्यवस्था की थी कि हमारे कमरे में हमेशा शास्त्रीय संगीत बजता रहे.
रोज़मर्रा की व्यस्तताएं और लिखना छोड़ दें, तो कौन-सा काम अधिक प्रिय है?
शास्त्रीय संगीत सुनना बेहद पसंद है, गंभीर-विषय पर गंभीर बहस सुनना अच्छा लगता है. अपनी कार में भी मैं किताब रखे रहता हूँ और पढ़ता रहता हूँ. जो अराजक दृश्य बाहर है, कम से कम उससे बचा रहता हूँ.
क्या कभी आपका लिखने से मन ऊबा या ऐसी थकान ही सही कभी हुई हो?
अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ, ऐसी थकान भी नहीं हुई है. उम्र बहत्तर से ऊपर हो गयी है, शरीर थक ही जाता है लेकिन अभी तक लिखने से नहीं थका. हम जानते हैं कि लिखने से कुछ नहीं होगा, लेकिन औरों को फ़र्क पड़े न पड़े, आपको फ़र्क पड़ता है. इसलिए लिखना आपका एक ज़रूरी काम है, ज़रूरी यह नहीं कि आप हर रोज़ लिखें लेकिन यह ज़रूरी है कि लिखें.
प्रभावों की बात करें तो फ़िल्में आपको कैसे प्रभावित करती हैं?
एक जमाने में मैं फ़िल्में देखता था लेकिन अब फ़िल्मों की आदत छूट गयी है. इधर बीच की कई फ़िल्में छूट गयी हैं. टेलीविज़न भी उतने शौक़ से नहीं देखता. थोड़ा पिछड़ा हुआ-सा आदमी हूँ. हमारे घर में टीवी है, हमारा पोता है बस वही देखता है, यदि मैं वहाँ से गुज़र रहा हूँ और कुछ अच्छा दिख गया तो देखने लगता हूँ. फ़िल्मों की बात करें तो मणि कौल और कुमार शहानी की फ़िल्मों का प्रोड्यूसर भी रहा हूँ. चूंकि उस माध्यम का हमारे यहाँ वैसा सुघर कल्पनाशील दुस्साहसिक उपयोग बहुत कम लोग ही करते हैं तो मेरा मनोरंजन कलाओं से हो जाता है. हालांकि कलाएँ मनोरंजन की विधा नहीं हैं. मैं उस सिनेमा को तो देख सकता हूँ जो मनोरंजन भले करे लेकिन मनोरंजन की विधा न हो. उसका प्रतिफल मनोरंजन तो हो लेकिन मुख्य लक्ष्य मनोरंजन न हो. अब चूंकि ऐसी ही फ़िल्में ही बन रही हैं जिनका लक्ष्य मनोरंजन ही है, इसलिए मेरा मनोरंजन इस माध्यम से नहीं हो पाता.
और कलाएँ कितना प्रभाव डालती हैं?
कई तरह के प्रभाव.....आप जानते ही होंगे कि मेरे ऊपर एक आलोचनात्मक किस्म का प्रभाव है यानी शास्त्रीय संगीत, नृत्य, रंगमंच, ललित कलाओं पर मैनें हिन्दी अंग्रेज़ी दोनों में आलोचना लिखी है. दूसरा प्रभाव तो यह कि मैनें कलाओं से प्रभावित होकर कई कविताएँ लिखी हैं बल्कि मैनें कलाओं पर तो एक पूरा संग्रह ही रच डाला है. तो कलाएँ मेरी सृजनात्मकता को भी उद्वेलित करती हैं. तीसरा प्रभाव जो मुझ पर है, यदि कोई मुझे ध्यान से देखे - हालांकि क्यों देखे, उसके पास दुनिया के और भी काम होंगे - मेरी कविता पर ललित कला से सीखी चित्रमयता और शास्त्रीय संगीत से सीखी आवर्तन इत्यादि की वृत्तियों का या उसके बढ़त का बहुत प्रभाव है. मैं तो यह मानता रहा हूँ साहित्य और कलाएँ हमारा दूसरा जीवन हैं. हमारा जो एक जीवन है वह भौतिक है लेकिन हमको यह सौभाग्य भी मिला कि हमारे चाहने पर हमको एक दूसरा जीवन भी मिल सकता है. वह जीवन हमें कलाएँ उपलब्ध कराती हैं.
समाज को धर्म की कितनी ज़रूरत है?
शुद्ध भौतिक साक्ष्य देखें और मनुष्य के इतिहास का बिलकुल आरंभिक रूप छोड़ दें, तो उसके बाद संभवतः ऐसा कोई युग नहीं रहा जिसमें धर्म न रहा हो या मनुष्य ने धर्म को छोड़ दिया हो. तो मनुष्य की कोई एक बुनियादी ज़रूरत तो धर्म है, इन धर्मों ने महान कला, महान साहित्य और महान स्थापत्य इत्यादि को जन्म दिया है. लेकिन आज मेरे हिसाब से सारे धर्मों से उनका उदार चरित्र, उनकी बुनियादी उदारता, सहिष्णुता, उनका अपना अध्यात्म, उनकी अपनी दृष्टि, बहुलता...ये सब गायब हैं. हम जिस समय में रह रहे हैं, इस समय में सारे धर्म हिंसक और आक्रामक हैं. सारे धर्म अपनी ही बहुलता से इनकार कर रहे हैं, इसलिए मेरे हिसाब से धर्म अपने इन विकृत रूपों से मनुष्य और समाज के लिए हानिकारक हैं. हमारे यहाँ राजनीति में इनका जिस तरह से हस्तक्षेप है, वह बहुत ही भयानक और लोकतंत्र को विकृत करने वाला हस्तक्षेप है.
तो ऐसे में धर्म छीनने के बाद मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ने के आसार हैं?
बहुत सारे आचार,नियम, मर्यादाएं इत्यादि धर्मों ने ही निर्धारित किये हैं. एक तरह से समाज उनका पालन करता आया ही है. अगर धर्म हट जाएँ तो हो सकता है कि मर्यादाओं और आचार-विचार की पद्धतियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े. लेकिन दूसरी तरफ़ यह कहा जा सकता है कि हमको एक वैकल्पिक अध्यात्म खोजने और पाने की ज़रूरत है जो इन धर्मों के दूषण से, इनमें आई विकृतियों से मुक्त हो और जो मनुष्य की बुनियादी आध्यात्मिक आकांक्षा, यानी विराट से जुड़ने की इच्छा, को फ़िर भी पोस सके या उसे संबोधित कर सके.
हिन्दी में कौन-से कवि प्रिय हैं?
अरे बहुत सारे हैं, मैं इतने नाम न ले पाऊंगा और न आप छाप पाएंगे. केवल हिन्दी कविताएँ तो पढ़ता नहीं हूँ इसलिए इतने सारे कवि हैं कि नाम बताते-बताते थक जाऊँगा और आप भी थक जाएंगे सुनते-सुनते. लेकिन सिर्फ़ हिन्दी में बात करें तो कबीर, तुलसीदास, सूरदास, देव, पद्माकर, रसखान, थोड़ा आगे बढ़ें तो निराला, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, विजयदेवनारायण साही, सीमित अर्थों में मलयज, कुछ और सीमित अर्थों में धूमिल...बस यही लोग हैं.
और अगर आज के कवियों में बात करें तो?
आजकल की ज़्यादातर कविता मुझे पसंद ही नहीं हैं. हां...विनोद कुमार शुक्ल का नाम लेना भूल गया था. आजकल के कवियों में बहुत कम कवि ही ऐसे हैं, तेजी ग्रोवर, मंगलेश डबराल की कुछ कविताएँ, उदय प्रकाश की कुछ कविताएँ, उदयन, व्योमेश शुक्ल, विष्णु खरे की कविताएँ, चंद्रकांत देवताले, ऋतुराज, सविता सिंह.
कविता के कौन-से आलोचक या गद्यकार प्रिय हैं?
देखिए आलोचना में मैं समझता हूँ कि बहुत अच्छा गद्य रामचंद्र शुक्ल, नन्ददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा. इनके बाद विजयदेव नारायण साही, अज्ञेय, मुक्तिबोध, मलयज, कई वैचारिक असहमतियों के साथ रमेश चन्द्र शाह, नन्द किशोर आचार्य और मैनेजर पाण्डेय.
लेकिन अभी जो आलोचना सक्रिय है, उसमें?
एक तो आपके बनारस के हैं, शायद विश्वविद्यालय में हैं, आशीष त्रिपाठी, उनका वक्तव्य अच्छा था, प्रियम अंकित ने कहानी पर अच्छा लिखा है, अर्चना वर्मा हैं, पुराने मित्रों में.... कवियों में कमलेश का नाम लेना भूल गया, मदन सोनी, वागीश शुक्ल और पंकज चतुर्वेदी.
किन कवियों का गद्य पसंद है?
सबसे अच्छा गद्य अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, विजयदेव नारायण साही.....धर्मवीर भारती का भी, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण ने लिखा है. इधर के कवियों में थोड़ा बहुत गद्य मंगलेश डबराल का, राजेश जोशी और अरुण कमल...हां, बस यही लोग हैं.
कौन से कवि आपको वैचारिक तौर पर उद्वेलित करने की क्षमता रखते हैं या जिनमें इतनी सम्भावना है कि कभी आपको उद्वेलित कर सकें?
अब ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है, एक समय गीत चतुर्वेदी ऐसी क्षमता रखता था, लेकिन वह क्षमता अभी व्योमेश में है. सोचने पर भी यही नाम याद आते हैं.
आपने एक बार कहा था कि ‘हिन्दी में स्मृतिवंचित, परम्परावंचित और विचारवंचित पीढ़ियां सक्रिय हैं’, बावजूद इसके कोई अपवाद ज़ेहन में आते हैं?
बस यही दो-चार नाम जो लिए, इन्हीं में अपवाद ही हैं. अब हिन्दी की ही परम्परा की बात करें तो यह एक हज़ार वर्ष पुरानी है और इसमें संस्कृत को भी जोड़ दें तो कम से कम पाँच हज़ार वर्ष, इसकी कोई अंतर्ध्वनि ज़्यादातर कविता में नहीं है. बल्कि ज़्यादातर कविता में तो रघुवीर सहाय के पहले की कविता की भी अंतर्ध्वनि नहीं है. न कबीर की, न तुलसी की, निराला तक की नहीं. इन सब का नाम आप भले ही अपनी वैधता के लिए ले लें, ताकि ऐसा लगे कि आप सब जानते-वानते हैं लेकिन कविता की काया में कोई अंतर्ध्वनि नहीं है. और मैं यह कई बार कह ही चुका हूँ कि ‘वह कवि कम बोलता है जिसकी कविता की काया में दूसरे कवि कम बोलते हैं.’
अब समकालीन कविता पर बात करें तो इसका कौन-सा अध्याय सबसे अधिक निराशाजनक लगता है?
असल में देखिए मैनें लगभग सन् अस्सी तक कविता की आलोचना भी लिखी. उसके बाद ज्यादातर मैनें आलोचना नहीं लिखी. लोग अकसर पूछते हैं कि क्यों नहीं लिखी तो कह देता हूँ कि फुरसत नहीं थी, काम था, बहाने बना देता हूँ. और क्या जवाब देता? लेकिन असल जवाब तो यह है कि जो अस्सी के दशक के बाद की कविता है उसमें किसी तरह से विचारोत्तेजित होने का कारण ही नहीं समझ आता. उसका विचार पहले से ही दिया हुआ है, आप क्या खोजेंगे उसमें? अब अपवाद तो होते ही हैं, कुछेक अच्छी कविताएँ दिख ही जाती हैं. लेकिन कुल मिलाकर अस्सी के बाद कविता में विचार का अनुचित हस्तक्षेप बढ़ा है जबकि कविता स्वयं सोचने की एक विधा है, मनुष्य के बारे में, संसार के बारे में. यहाँ कविता से इतर विचार का कब्ज़ा और उसका आतंक बढ़ गया है. ज़्यादातर कविता अखबारी और अभिधा में हो गयी, उसमें भाषा की दूसरी शक्तियों का इस्तेमाल करना न कवि जानता है और न कवि को ज़रूरी लगता है. तीसरा यह कि कविता का अर्थ उसके विषय पर केंद्रित हो गया. मान लीजिए कविता का विषय कुछ है, तो यह ज़रूरी तो नहीं कि कविता का अर्थ भी वही हो. उदाहरण के तौर पर अगर आप ‘वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर’ को लें तो उसका विषय तो यह है कि एक मजदूरन पत्थर तोड़ रही है, लेकिन उसका अर्थ यह थोड़े ही है. किसी तरह का शिल्पगत नवाचार बंद हो गया यानी कुल मिलाकर बीस-तीस वर्ष में जो कविता लिखी गयी है उसमें शिल्प में ताज़गी, नयापन या तोड़-फोड़ नहीं है. मैं कई दिनों से यह चिल्लाता रहा हूँ कि हिन्दी कविता में कोई आवांगार्द नहीं है. आवांगार्द का काम यह है कि वह आकर नए शिल्प को स्थापित करे, नए नज़रिए से दृश्य देखने को स्थापित करे...वह नहीं है. तो आप दूसरों द्वारा अर्जित स्वतंत्रता का उपभोग भर कर रहे हैं कविता में. इसके लिए आपने कोई संघर्ष नहीं किया है और अब चूंकि संघर्ष नहीं किया है इसलिए आपके यहाँ ढाँचे में कोई परिवर्तन भी नज़र नहीं आता. फ़िर एक दूसरे स्तर पर एक किस्म की सतही सामाजिकता ने असली आन्तरिकता या व्यक्तित्व को कविता से देश निकाला ही दे दिया. सब लोग यही सिद्ध करने में लगे हैं. अब समाज में क्या हो रहा है, इसे जानने के बहुत सारे माध्यम हैं, जो ज़्यादा तेज़, ज़्यादा चश्मदीद, ज़्यादा आसानी से समझ में आने वाले और आप तक बहुत जल्दी पहुंच जाने वाले हैं. यह माध्यम इतने बढ़ गए कि कोई कविता के पास क्यों जाएगा? पिछले बीस वर्ष कविता में एक नए तरह का रीतिकाल हैं. रीतिकाल इस अर्थ में कि कवि बनी-बनायी रूढ़ियों का पालन कर रहे हैं. थोड़ी बहुत शब्दावली, थोड़ी भाषा और थोड़ा इधर-उधर फेरबदल करने के बाद कुल मिलाकर कॉम्पोजिट दृश्य बनता गया और साथ ही एक और बात हुई, जो बेहद दिलचस्प है, सबसे युवा पीढ़ी में आलोचनावृति का लगभग अभाव है. अज्ञेय और मुक्तिबोध के ज़माने से लेकर हम लोगों की पीढ़ी तक ज़्यादातर कवियों ने आलोचना भी लिखी और आलोचना की बिलकुल अलग धारा विकसित हुई जिसमें अज्ञेय, मुक्तिबोध, साही, कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, मलयज, रमेशचंद्र शाह, मैं, नंदकिशोर आचार्य और भी कई लोग शामिल हैं. सभी मूलतः कवि हैं लेकिन सबने आलोचना लिखी. इनमें से मुझको छोड़कर सब ने बहुत अच्छी आलोचना लिखी है और उससे नई अवधारणाएं, नई विधियां, विशेषण की नई पद्धतियां विकसित हुई हैं. यह काम अस्सी के दशक के बाद के कवियों ने प्रायः बंद कर दिया. अब इस सूची में कोई इज़ाफा ही नहीं हो रहा है. आपस में सब जो एक दूसरे की प्रशंसा में लिखते हैं, वह तो ठीक है, लेकिन उससे बात ख़ास आगे तो बढ़ती नहीं है. बात तो आगे बढ़े? अपने से पहले के कवियों को, किसी प्राचीन कवि का, किसी मध्यकालीन कवि का कोई पुनरावृत्तिक आविष्कार या कोई खोज करने की कोशिश इस दौरान नहीं हुई. हुई है तो दूधनाथ सिंह, पुरुषोत्तम अग्रवाल और मैनेजर पाण्डेय के द्वारा हुई है, जो इस पीढ़ी के हैं नहीं.
यानी अस्सी के बाद की कविता में ख़ास बदलाव नहीं देखा आपने?
नहीं...बदलाव तो बहुत आया. लेकिन ज़्यादातर बदलाव बेहद ख़राब बदलाव है और यह कोई कहना नहीं चाहता. क्योंकि सब अपने को अपने से बाद की पीढ़ी में लोकप्रिय रखना चाहते हैं. नामवर जी से लेकर तमाम लोग व्यर्थ की प्रशंसा करते घूमते हैं, मैं ही एक निंदक रह गया हूँ. इसका अर्थ यह नहीं कि सभी बिलकुल ख़राब हैं लेकिन इतनी ज़्यादा खराब कविता को यदि कुछ न कहा जाए तो उसे क्लीनचिट ही मिल गयी.
आपकी कल्पना का साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन कैसा होगा?
वह ऐसा आयोजन होगा जिसमें ढीले-ढाले लोग नहीं होंगे यानी पूरी समझ और तैयारी के साथ लोग उसमें भाग लेंगे. अब जैसे चलता है कि कुछ न कुछ तो उसमें कह ही देंगे, जो मन में आया बोल ही देंगे, कुछ सनसनीखेज बात कह देंगे जिसको लेकर अगले दिन हड़कंप मच जाए और आपकी वह क्या कहलाती है?....कौन-सी बुक...(फेसबुक!) हां, फेसबुक पर कुछ तहलका मच जाए, ऐसे लोगों को मैं ऐसे आयोजन में आमंत्रित नहीं करूंगा, एक. दूसरा, ऐसे लोग हों जो दूसरों के विचारों और दृष्टियों का असहमत होते हुए भी सम्मान करें. असहमति को व्यक्त करने के लिए आरोपों और लांछनों जैसे व्यक्तिगत माध्यम न चुनें. तीसरा यह कि उसमें दृष्टियों की बहुलता होनी ही चाहिए. कई तरह-तरह के लोग अलग-अलग ढंग से विचार करें. इस बहुलता में अपवाद करना ज़रूरी है कि ऐसे लोगों को मैं उसमें नहीं बुलाऊंगा, चाहे वह धर्मान्ध हों या विचारांध हों, विचारों के भी अंधभक्त हैं और धर्मों के तो हैं ही, जो हमारी बुनियादी स्वतंत्रता, बुनियादी न्यायबुद्धि और बुनियादी समता की भावना के घोषित या अघोषित सिद्ध विरोधी हों. हम उनको बहुलता के नाम पर कीचड़ फैलाने की इजाज़त नहीं देना चाहते. ऐसा हो तो ठीक है फ़िर.
उस आयोजन का स्कोप या फोकस कितना बड़ा होगा?
अब यह तो इस पर है कि कौन आएगा, क्या बोलेगा, कार्यक्रम का स्वरूप कैसा होगा? लेकिन देखिए, किसी एक चीज़ पर केंद्रित करना कई बार अच्छा होता है लेकिन इसे अंग्रेज़ी में कहते हैं कि ‘यू बीट इट डेड’....एक ही विषय पर दो दिन या तीन दिन कितने लोग क्या-क्या बोलेंगे? हमारी यहाँ उतनी वैचारिक विविधता या वैचारिक ऊर्जा भी नहीं है. इसलिए दो या तीन विषय होंगे जो सम्बंधित होते हुए भी स्वतंत्र होंगे ताकि उन पर अलग-अलग विचार करने की भी जगह हो.
हिन्दी में पुरस्कार की संख्या बहुत अधिक है. उन पर बात करें तो किन पुरस्कारों को बंद हो जाना चाहिए और किन्हें चलते रहना चाहिए?
हम तो यह कहेंगे कि उन्हीं पुरस्कारों को चलना चाहिए, एक सिद्धान्त के रूप में मैं कहूँगा, जिनमें पूरी तरह से पारदर्शिता हो. इसका मतलब यह हुआ कि चाहे ‘ज्ञानपीठ’ हो, चाहे ‘साहित्य अकादमी’ हो, ‘सरस्वती सम्मान’ हो, इन पुरस्कारों के अंतिम निर्णय वाले सत्र को सभी के लिए खुला होना चाहिए. वह एक खुली बहस की तरह होना चाहिए कि इस पुस्तक को पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है बजाय उस पुस्तक के? या इस लेखक को क्यों सम्मान दिया जा रहा है बजाय उस लेखक के? सभा में सुनने का अधिकार हो, कुछ कहने का नहीं. फ़ैसला वही लो, लेकिन ज्यूरी सबके सामने हो ताकि सबको पता चले कि क्या तर्क दिए गए? व्यर्थ की गोपनीयता का कोई मतलब नहीं है. मैनें कोशिश भी की थी, साहित्य अकादमी को मैनें प्रस्ताव दिया, उन्होंनें नहीं माना. मैं जब ज्ञानपीठ की ज्यूरी में था तो वहाँ भी प्रस्ताव दिया, उन्होंनें भी नहीं माना और कहा कि गोपनीयता को गोपनीय रहने दें. जिन दो-तीन पुरस्कारों की स्थापना में मेरी भूमिका रही है, उनमें ज्यूरी पूर्वघोषित है और सबको पता है. ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’ की पद्धति मैनें ही बनायी थी. ज्यूरी में पाँच-छः लोग है, वे बारी-बारी निर्णय लेते हैं. एक का नंबर फ़िर पाँच साल बाद आता है. यह सबको पता है कि इस वर्ष कौन ज्यूरी है? दूसरा ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’, उसमें भी मैनें यही करवाया था और सौभाग्य से सबने मान भी लिया था. वहां ज्यूरी परमानेंट है. बाकी पुरस्कार ऐसा क्यों नहीं कर सकते? जो पुरस्कार रेवड़ी की तरह बांटे जा रहे हैं, जैसे भारत-भारती सम्मान, राज्य सरकारों द्वारा दिए जा रहे पुरस्कार, उन्हें बंद कर देना चाहिए. इस समय हिन्दी में हालत यह है कि पात्रों से ज़्यादा तो पुरस्कार हैं और अब हर पुरस्कार के पीछे लोगों को लगता है कि कुछ तिकड़म है. इन व्याधियों को दूर करने का तरीका यही है कि आप या तो उन्हें पारदर्शी बना दें या बंद कर दें. आप असहमत भले हों कि ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’ इनको मिलना चाहिए, इनको नहीं मिलना चाहिए या ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ इनको मिलना चाहिए या इनको नहीं मिलना चाहिए, लेकिन इनकी पारदर्शिता पर कोई शक़ नहीं है क्योंकि ज्यूरी सबके सामने है. दूसरे पुरस्कारों के साथ ऐसा क्यों नहीं हो सकता? और यह भी बात है कि पुरस्कारों की संख्या बहुत अधिक है, इन्हें कम करने के प्रयास होने चाहिए.
हिन्दी में पत्रिकाएँ बहुत ज़्यादा हैं. पुरस्कारों की तर्ज़ पर बात करें तो किन्हें बंद हो जाना चाहिए और किन्हें चलते रहना चाहिए?
मुझे तो लगता है कि पहले हिन्दी में कई अखबारों को बंद हो जाना चाहिए, वे एकदम अपठनीय, विचारहीन और बल्कि खबरहीन होते हैं. मुझे तो यह लगता है कि उनका नाम ‘अखबार’ कैसे है, उनमें कहीं खबर ही नहीं है. हिन्दी अखबार बहुत बढ़ गए हैं, इन्हें कम हो जाना चाहिए. पत्रिकाएँ तो कई तरह की हैं एक तो जीवन से जुड़ी पत्रिकाएँ हैं जैसे महिलाओं से जुड़ी हुई, या अध्यात्म से जुड़ी हुई और दूसरी पत्रिकाएँ – जिन्हें फ़ौरन बंद हो जाना चाहिए – वे हैं हिन्दी अधिकारियों द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिकाएँ जो सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में हिन्दी को बढ़ावा देने की गरज से निकाली जाती हैं. वे चापलूसी की पोथियाँ होती हैं. उन पर बहुत खर्च होता है और उस खर्च को हिन्दी पर हुआ खर्च बताया जाता है. हिन्दी में कलाओं पर बेहद कम पत्रिकाएँ हैं, जो हैं उनमें से एक-दो को छोड़कर बाक़ी ख़ासी ख़राब हैं, लेकिन वे इतनी कम हैं कि उन्हें चलने देना चाहिए. इसी तरह से रंगमंच पर आ रही पत्रिकाएँ हैं. साहित्य में ही सबसे अधिक पत्रिकाएँ निकलती हैं. अब उनमें से बहुत सारी पत्रिकाएँ दृष्टिहीन पत्रिकाएँ हैं. कोई यह समझ नहीं पाता कि आखिर सम्पादकीय दृष्टि क्या है? कई ऐसी हैं जिनमें सम्पादकीय दृष्टि तो स्पष्ट है लेकिन जो सामग्री छपती है वह दृष्टिहीन है. जैसे ‘साहित्य-अमृत’ नाम की पत्रिका है - प्रभात प्रकाशन से निकलती है, त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी सम्पादक थे उसके – वह शुरू से ही ख़राब निकली. उसने ख़राब साहित्यिक पत्रकारिता का लगभग एक आदर्श ही कायम कर दिया. उससे ख़राब कोई पत्रिका हो नहीं सकती, उसे बंद कर देना चाहिए. कुछ संघों-संगठनों की पत्रिकाएँ हैं, उनकी पत्रिकाओं नहीं बंद होना चाहिए ताकि पता लगता रहे कि उनके यहाँ क्या हो रहा है? किस पर कोपदृष्टि है या किस पर नहीं है? कई ऐसी छोटी-छोटी अल्पजीवी पत्रिकाएँ निकलती हैं. एक पत्रिका है ‘तनाव’, हिन्दी में कविता के अनुवाद की वह अप्रतिम पत्रिका है और संभवतः सभी भारतीय भाषाओं में भी ऐसी कोई पत्रिका नहीं है, ऐसी पत्रिकाओं को निकलते रहना चाहिए. मध्य प्रदेश के पिपरिया से निकलती है, वंशी माहेश्वरी उसके सम्पादक हैं. फ़िर जिन पत्रिकाओं से आपका मतभेद भी हो, मसलन ‘हंस’, ‘कथादेश’, अखिलेश वाली पत्रिका...क्या नाम है उसका.....हां, ‘तद्भव’, गिरिराज किशोर की ‘अकार’, ये अच्छी पत्रिकाएँ हैं. आप इनसे सहमत हों न हों, लेकिन इन्हें निकलते रहना चाहिए. अब हिन्दी साहित्य सम्मेलन की कोई पत्रिका निकलती है तो उसे बंद हो जाना चाहिए. ‘पाखी’ के बारे में मेरी राय थोड़ी-सी अलग है. मुझे लगता है कि उनके यहां एक बहुत ही चतुर लोकप्रियता को भजाने की वृत्ति है. उसमें कभी-कभी अच्छी चीज़ें भी निकल आती हैं, लेकिन मेरे ख्याल से वे ‘हंस’ या ‘नया ज्ञानोदय’ सरीखा सनसनीखेज़ बनना चाहते हैं लेकिन कोई संकोच उन्हें रोकता है. उम्मीद कर सकते हैं कि एक दिन संकोच टूट जाएगा और वे इस सनसनीखेज़ त्रयी में शामिल हो जाएंगे.
नए काव्याभाषियों को किन्हें पढ़े बिना लिखना नहीं शुरू करना चाहिए?
देखिए, यह कहना कि किन्हें पढ़ना चाहिए, कठिन है. लेकिन आपको अपने से बड़े कवियों को जैसे कबीर, तुलसी, सूर, निराला, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, इनको पढ़े बिना हिन्दी में नहीं घुसना चाहिए. लेकिन हिन्दी में सिर्फ़ इनसे काम नहीं चलेगा, आपको मीर और ग़ालिब यानी उर्दू की परम्परा को भी पढ़ना चाहिए. अब चूंकि हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें चीज़ें एक दूसरे के बहुत पास आ गयी हैं, और आधुनिकता के आंदोलन के जो बड़े कवि रहे हैं उन्हें भी पढ़ना चाहिए. इनसे एक शिक्षा मिलती है. पहले एक कवि-शिक्षा होती थी, जैसे उर्दू में इस्लाह लेते हैं वैसे ही, लेकिन अब ये चीज़ें कहाँ होती हैं. अपने यहाँ कवि लोग ही गुरु बने बैठे हैं लेकिन अगर आप पढ़ेंगे तो तीन-चार चीज़ें आपको मोटे तौर पर समझ में आएंगी. एक, कविकर्म एक कठिन कर्म है. उसके लिए आत्मसंघर्ष भी ज़रूरी है और भाषा में भी संघर्ष भी ज़रूरी है. हमारे यहाँ आत्मसंघर्ष भाषा से अलग ही नज़र आता है, ऐसा कौन-सा आत्मसंघर्ष है जो केवल मन में ही चलता रहता है. दूसरा, कविता कैसे-कैसे किन-किन जगहों में जा सकती है? कविता का भूगोल कितना विशाल है और कविता बनाने की कितनी विधियां हैं, ये चीज़ें हमें जानना चाहिए. कई बार ऐसा होता है कि हम बहुत ईमानदारी और बहुत शिद्दत से लिखते हैं लेकिन बाद में पाते हैं कि कोई उसे पहले ही ज़्यादा स्मरणीय तरीके से लिख चुका है. इसलिए आपको यह भी जानना चाहिए कि कविता में क्या हो चुका है? और उसको आप दुहरा नहीं सकते तो कुछ अलग खोजने की और कुछ अलग कर पाने की हिम्मत तो जुटानी ही होगी.
आप आज के लेखकों में क्या देखना चाहते हैं?
अव्वल तो वह सब देखना चाहते हैं जो हम लोग नहीं कर पाए. आखिर जीवन और भाषा तो हर लेखक से बड़े हैं, तो ऐसा बहुत सारा है जो पहले के लोगों से छूट गया क्योंकि ये उनके बस में नहीं था. भाषा की मुक्ति, शिल्प का अराजक परिसर उन्हें सुलभ नहीं था, फ़िर मर्यादाओं का, इसका-उसका ध्यान रखते थे, अब ऐसी परम स्वतंत्रता जब मिली हुई है कि आप कुछ भी कर सकते हैं तब आपको कुछ टिकाऊ करने की ज़रूरत है. आपको कुछ गहरा और नया करने की ज़रूरत है. हमारे जीवन में इतनी विडंबनाएं हैं, इतनी विचित्रताएं हैं कि उनको लेकर कई तरह के विडंबनामूलक विचित्र शिल्प क्यों नहीं विकसित हुए, मेरी समझ में नहीं आता. मेरे बस का नहीं था मैं मानता हूँ, वह मेरी लाचारी थी. हम अपने हुनर और फुरसत से लाचार लोग थे, जो भी था. लेकिन जिनके पास ऐसी लाचारी नहीं है, वह क्यों नहीं करते? मैं यह नहीं बता सकता कि क्या, लेकिन ज़िंदगी दिन-ब-दिन इतनी वीभत्स होती जाती है तो उसे पकड़ने का जो भाषाई कौशल है, वह क्यों घट रहा है? या तो वह है ही नहीं, यदि है तो दिख क्यों नहीं रहा है?
युवा कवि भी सीमित होते जा रहे हैं. क्यों हो रहा है ऐसा?
असल में युवा कवियों ने अपनी दुनिया स्वयं ही सीमित की है. देखिए, छायावाद के कवियों से लेकर अस्सी के दशक के बाद के कवियों तक आएँ, इन सबमें एक जिज्ञासा की निरंतरता आप देख सकते हैं. इनमें से अनेक ने विदेशी कविता के अनुवाद किए हैं. उससे कोई पैसा-वैसा नहीं मिलता था, प्रतिष्ठा में कोई वृद्धि नहीं होती थी लेकिन आप फ़िर भी अनुवाद करते थे क्योंकि दुनिया में कहीं कोई अच्छी रचना लिखी गयी है तो उसे अपनी भाषा में लाने का प्रयास करना चाहिए. इस बहाने आप उस कविता से प्रतिकृत होते थे लेकिन अब वह वृत्ति ही खत्म हो गयी. कबाड़खाना के अशोक पांडे हैं, हल्द्वानी वाले, वे करते हैं और भी कुछ होंगे जो करते होंगे. मुझे कई बार यह शक होता है कि हिन्दी में कम पढ़े-लिखे लोग लेखक हो रहे हैं. उस अर्थ में कम पढ़े नहीं, जिस अर्थ में कबीर कम पढ़े हैं. उस अर्थ में कम पढ़े, जिसमें कोई भी कम पढ़ा हो. वही जो मैनें अभी कहा कि आप कविता की पूरी परम्परा को नहीं जानते, फ़िर अपने मन में खारिज़ कर रखा है. खारिज़ करो तो जानकर खारिज़ करो, तो ठीक है. इस समय आप कबीर की तरह या रसखान की तरह तो लिख नहीं सकते, इस समय निराला और मुक्तिबोध की तरह भी नहीं लिख सकते, इस समय तो आप अपनी तरह ही लिखेंगे. लेकिन अपनी तरह लिखने के लिए भी परम्परा को जानना ज़रूरी है, नहीं तो आप अपने को अलग कैसे करेंगे?
मैनें कहीं सुना या पढ़ा था कि ‘इस पीढ़ी ने अपने आलोचक पैदा नहीं किए’, क्या ये भी एक वजह हो सकती है?
मैंने कहा कि जो आलोचनावृत्ति का अभाव है वह इसीलिए है. उसने आलोचक भी पैदा नहीं किये क्योंकि आलोचक से उसका द्वन्द होता है. उससे आप तनाव रचने लगते हैं.
सोशल मीडिया और डिजिटलाइजेशन आने के बाद कविता पर या रचनाकर्म पर फ़र्क पड़ा ही है, कितना भयावह है वह?
देखिए, मैं उस कविता को ज़्यादा नहीं जानता जो इन सब माध्यमों में है. लेकिन कभी-कभी मित्रगण बताते हैं इन सब बारे में. एक तरह की नयी तात्कालिकता पैदा हो गयी है यानी कुछ भी हुआ तो उस पर तत्काल दृष्टि पड़े, उस पर फ़ौरन कुछ कहा जाए, अपने-आप में अच्छी बात भी है और बुरी बात भी. अच्छी इसलिए है कि आपको एक तरीका या साधन मिला हुआ है तो आप उसका उपयोग करते हैं लेकिन बुरा यह कि बिना प्रतिफल जाने या परिणाम की चिंता किये बगैर जो मर्ज़ी में आया सो आपने लिख दिया क्योंकि आपकी आदत है कि उस पर बैठ कर कुछ करते रहना चाहिए. उससे एक तरह गैर-ज़िम्मेदार किस्म की और आत्मरत सामाजिकता पैदा हो गयी. आप सोचते हैं कि आप बहुत सामाजिक काम कर रहे हैं क्योंकि आपके लिखे पर इतने हिट-विट हो रहे हैं. दूसरा पक्ष यह है कि आप किसी को कुछ भी कह सकते हैं, यानी आप पर यह बाध्यता नहीं है कि आप जो कह रहे हैं उसे आप सिद्ध भी करें, उसका कोई प्रमाण भी दें. अब उदाहरण के तौर पर वरवर राव को लीजिए, वरवर राव हंस की गोष्ठी में नहीं आए, उसका कारण उन्होंनें यह बताया कि गोविंदाचार्य दक्षिणपंथी हैं और अशोक वाजपेयी का सम्बन्ध कारपोरेट जगत से है. अब कारपोरेट जगत से मेरा क्या सम्बन्ध है? तो बिना प्रमाण दिए आप कुछ भी कहकर निकल जाइए, लोग हल्ला मचाने लगेंगे. मैं तो यह मानता रहा हूँ कि हम अपनी मौत मरेंगे, किसी के कोसने से तो मरेंगे नहीं. मुझे किसी ने बताया कि आपके ऊपर फेसबुक पर हल्ला मचा हुआ है. भाड़ में जाइए, हल्ला मचाते रहिये.
हां, वह बेहद वायरल है..
वायरल है तो इलाज भी निकल ही आएगा.
मान लीजिए एकदम नई तरह से आपको हिन्दी के तीन पुरस्कार स्थापित करने हों - कविता, कहानी और आलोचना के – किनको निर्णायक मण्डल में देखना पसंद करेंगे?
यह तो ज़रा सोचने की बात है, अभी कुछ कह पाना मुश्किल है. कहानी के बारे में ज़्यादा जानता नहीं हूं लेकिन मैं चाहूँगा कि कहानी के बजाय उपन्यास या कथा पर हो, जो कहानी पर भी दिया जा सके. एक तो ऐसे लोग रखे जाएँ, जिनकी अपनी वैचारिक दृष्टि तो हो लेकिन निजी पूर्वग्रह न हो. दूसरी बात यह कि ऐसे लोग हों जिनको ज़्यादातर बड़े पुरस्कार मिल चुके हों, उनकी लालसा न बची हो ताकि उनके तटस्थ होने की पूरी सम्भावना हो. तीसरा ऐसे लोग जो इस तरह की पारदर्शिता से घबराएं न. मैं ऐसा कोई पुरस्कार स्थापित नहीं करना चाहता, जिसकी ज्यूरी का मुझे या किसी और को पता न हो. और मान लीजिए पाँच सदस्य हैं तो सभी को उनकी निर्णायक बहस सुनने का अधिकार हो. ऐसा भौतिक रूप से मुमकिन भी है.
आपका प्रिय शहर कौन-सा है?
शहर तो एक ही था, सागर, जहाँ मैं पला-बढ़ा. लेकिन मैं कहूँगा कि मेरे प्रिय शहर चार हैं, सागर, भोपाल, दिल्ली और पेरिस. पेरिस इसलिए कि वहाँ रहने के लिए रज़ा साहब के साथ साल में दो बार जाता हूं.
दिल्ली कैसी लगती है?
दिल्ली बहुत ज़्यादा जल्दबाज़ है, भयानक रूप से. अराजक है, लेकिन यहाँ हम जैसे लोग अपना रास्ता बना ही लेते हैं.
आजकल क्या कर रहे हैं?
कुछ ख़ास नहीं. बस ऐसे ही कुछ इधर-उधर.
प्रिय लेखकों के बारे में थोड़ा और समेटते हुए बताइये?
हिन्दी से होंगे कबीर, तुलसीदास, निराला, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और मलयज. वहाँ से चलें तो शेक्सपियर, जॉन डन, यीट्स, टीएस इलियट, हेर्बर्त, पाब्लो नेरूदा, मिलान कुंदेरा, बोर्हेस, रिल्के और जोज़ेफ ब्रॉड्सकी.
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