मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

विष्णु खरे की तीन नई कविताएँ

(विष्णु खरे की ये कविताएँ प्रसार भारती और दूरदर्शन की पत्रिका 'दृश्यान्तर' के मार्च अंक में प्रकाशित हैं. विष्णु खरे एक मार्गदर्शक कवि होने के साथ कई मौकों पर जटिल कवि होने के लिए भी प्रसिद्ध हैं लेकिन 'जटिलता' का समग्र अर्थ गड्डमड्ड हो, इसलिए इसे बता देना ज़्यादा सही होगा कि यह जटिलता सिर्फ़ विषय तक ही सीमित है. उदाहरण के लिए आगे लिखी 'दज्जाल' को ही लें, उर्दू के कुछ कठिन शब्दों से सजा होने के बावजूद बिना शब्दकोश खोले, यह अपने को आपके सामने पूरी बेबाकी से प्रस्तुत कर देती है. सड़क और उसकी पारिस्थितिकी में पसरे विलाप को विस्तार देने में विष्णु खरे से अलग कोई दूसरा नाम दृश्य में सम्भव नहीं है. भारत में लोकसभा चुनाव सिर पर है, इसके साथ ही आवाजाही का दौर भी सामने आना शुरू हो चुका है. मौकों पर कविता छोड़कर सभी चीज़ें मिल रही थीं. लीजिए, सामने कविताएँ है, जिनकी प्रासंगिकता चुनाव पर भी उतनी ही निर्भर है जितना उनके समूल अर्थ पर.. मुझे नहीं याद कि २०१४ लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कुछेक वरिष्ठों से इतर किसी अन्य ने लिखा हो, जिनसे आशाएँ थीं वे रीशफलिंग का शिकार होते नज़र आ रहे हैं. बुद्धू-बक्सा के लिए हर्ष का विषय है कि विष्णु खरे को प्रतिष्ठित मराठी प्रकाशन संस्था 'मुक्त शब्द' द्वारा स्थापित और 22 मार्च को घोषित पहला 'अखिल भारतीय नामदेव ढसाळ स्मृति पुरस्कार' 3 मई को मुम्बई में दिया जाएगा. इन कविताओं के लिए बुद्धू-बक्सा दृश्यान्तर सम्पादक अजित राय और कवि का आभारी.)

दज्जाल
(इस्लामी क़यामत से पहले आनेवाला दानव, जिसका वध ईसा या मेहदी करेंगे। असद जै़दी को, पहले हवाले के लिए।)

न यह इस्फ़हान के रस्तक़ाबाद से आया है
न इसका नाम सफ़ी बिन सईद है
इस सदी में मुख्तलिफ़ मुल्कों में
मुख्तलिफ़ इस्मों से नाजि़ल हो रहे हैं दज्जाल
उनकी दोनों आँखें होती हैं अंगूर की तरह नहीं
कबंध की तरह

लोग पहले से ही कर रहे हैं इबादत इबलीस की
उनकी आँखों की शर्म कभी की मर चुकी
बेईमानी मक्र-ओ-फ़रेब उनकी पारसाई और जि़न्दगानी बन चुके
अपने ईमान गिरवी रखे हुए उन्हें ज़माने हुए
उनकी मज़बूरी है कि अल्लाह उन्हें दीखता नहीं
वर्ना वे उस पर भी रिबा और रिश्वत आज़मा लें
मशाइख़ और दानिश्वरों की बेहुर्मती का चौतरफ़ा रिवाज़ है
कहीं-न-कहीं कहत पड़ा हुआ है मुल्क में
क़त्ल और खुदकुशी का चलन है
कौन-सा गुनाह है जो नहीं होता

दज्जाल ठीक यही कहता हुआ आएगा
उस दिन लगेगा कि सूरज पच्छिम से उगा है
क्योंकि वहीं से उभरेगा दज्जाल
इबलीस का ज़ाहिद-ओ-आबिद होगा वह
लेकिन उसकी मुख़ालिफ़त का स्वांग करेगा
कहेगा उसी को नेस्तनाबूद करने उतरा है वह
सारी बदी को ख़त्म करने और नेकी का निज़ाम लौटाने का वादा करेगा
वह बक़्क़ाल शाहे-आदमज़ाद बनने के हौसले में
बेचेगा जन्नत के ख्वाब कहेगा मेरा ही इन्तिख़ाब करो
और गुमराह क़ौमें उसके हाथों क़दमों और जि़ल्ल को चूमने लगेंगी
दीवानावार उसकी मोतकिद हो जाएँगी

फिर वह एलान करेगा कि नबूवत भी उसी की है
और ख़ुदाई भी उसी की
परस्तिन्दों को एक में ही
दोनों के दीदार-ओ-इबादत का सुभीता हो जाएगा

लेकिन दज्जाल अपनी असली किमाश को
कब तक पोशीदा रख सकता है
जब उसका दहशतनाक़ चेहरा सामने आएगा
और वह वही सब करेगा जिसके खि़लाफ़ उतरने का
उसने दावा और वादा किया था
बल्कि और भी बेख़ौफ़ उरियानी और दरिन्दगी से
तो अगर तबाही से बचे तो ख़ून के आँसू रोते हुए अवाम
ज़मीन पर गिर कर छटपटाने लगेंगे
किसी इब्ने-मरिअम किसी मेहदी किसी कल्कि की दुहाई देते हुए

जो आए भी तो तभी आएँगे जब क़ौमें पहले ख़ुद खड़ी नहीं हो जाएँगी
दज्जाल की शनाख़्त कर शय्याद मसीहा के खि़लाफ़


फ़ासला
(वर्णित मढ़ा-हुआ फ़ोटो मित्र-पत्रकार कुलदीप कुमार के ‘पायनियर’ कैबिन में लगा रहता था। यह उसके अज्ञात फ़ोटोग्राफ़र को समर्पित।)

थोड़ा झुका हुआ देहाती लगता एक पैदल आदमी
अपने बाएँ कंधे पर एक झूलती-सी हुई वैसी ही औरत को ढोता हुआ
जो एक हाथ से उसकी गर्दन का सहारा लिए हुए है
जिसके बाएँ पैर पर पंजे से लेकर घुटने तक पलस्तर
दोनों के बदन पर फ़क़त एकदम ज़रूरी कपड़े
अलबत्ता दोनों नंगे पाँव
उनकी दिखती हुई पीठों से अंदाज़ होता है
कि चेहरे भी अधेड़ और सादा रहे होंगे

दिल्ली के किसी चैंधियाते दिन में ली गई स्याह-सुफ़ैद तस्वीर थी वह
शायद 4.5 या सुपर 1200 एमएम टेलीलेंस वाले
किसी कैनन ए ई 1 या निकोर एफ़ 801 से खींची गई -
फोटोग्राफ़र ने खुद को मोहनसिंह प्लेस या खड़कसिंह मार्ग के
एम्पोरिअमों के सामने कहीं स्थित किया होगा

यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं कि ले जाई जा रही औरत
ढोने वाले आदमी की ब्याहता ही रही होगी
लेकिन दूर-दूर तक दोनों के साथ और कोई (आखि़र क्यों) नहीं

सड़क के बाएँ से उन्हीं की दिशा में जाता हुआ
एक ख़ाली ऑटो वाला कुछ उम्मीद से यह मंज़र देखता है
दाईं ओर के एंबेसेडर और मारुति के ड्राइवर हैरत और कुतूहल से -
उन दोनों के अलावा सड़क पर और कोई पैदल नहीं है
जिससे धूप और वक़्त का अंदाज़ा होता है

यह लोग जंतर-मंतर नहीं जा रहे
आगे चल कर यह राह विलिंग्डन अस्पताल पहुँचेगी
जहाँ शायद इन्हें पलस्तर कटवाना है
या क्या मालूम पाँव और बिगड़ गया हो
ऐसे लोगों के साथ पचास रोने लगे रहते हैं
एक तो यही दिखता है कि इनके पास कोई सवारी करने तक के पैसे नहीं हैं
या आदमी इस तरह आठ-दस रुपये बचा रहा है
जिसमें दोनों की रज़ामंदी दिखती है
इनकी दुनिया में कहीं भी कैसा भी बोझ उठाने में शर्मिंदगी नहीं होती
यह तो आखि़र घरवाली रही होगी

वह सती शव नहीं थी अपंग थी
यह एकाकी शिव जिसे उठाए हुए अच्छी करने ले जा रहा था
किसी का यज्ञ-विध्वंस करने नहीं

किस तरह की बातें करते हुए यह रास्ता काट रहे थे
या एकदम चुप्पी में क्या-क्या सोचते हुए
शायद किसी पेड़ का सहारा लेकर सुस्ताए हों
क्या रास्ते के इक्का-दुक्का लोगों ने इसे माँगने का एक नया तरीक़ा समझा
फिर भी अगर किसी ने कुछ दिया तो इनने लिया या नहीं
अस्पताल पहुँचे या नहीं
पहुँचे तो वहाँ क्या बीती

शायद उसने कहा हो
कब तक ले जाते रहोगे
यहीं कहीं पटक दो मेरे को और लौट जाओ
उसने जवाब दिया हो
चबर चबर मत कर लटकी रह

खड़कसिंह से विलिंग्डन बहुत दूर नहीं
लेकिन एक आदमी एक औरत को उठाए हुए
कितनी देर में वहाँ पहुँच सकता है
यह कहीं दर्ज नहीं है

मुझे अभी तक दिख रहा है
कि वह दोनों अब भी कहीं रास्ते में ही हैं
गाड़ियों में जाते हुए लोग उन्हें देख तो रहे हैं
लेकिन कोई उनसे रुक कर पूछता तक नहीं
बैठाल कर पहुँचाने की बात तो युगों दूर है


जा, और हम्मामबादगर्द की ख़बर ला
(हातिम को सौंपा हुआ आखि़री जिम्मा)

पहले मिलते हैं तनोमंद दीवाने नौजवान जो डूब जाते हैं
बेरहम परीज़ादियों की सराबी मुहब्बत में
फिर कहीं आगे उन आदमज़ाद दोशीज़ाओं की नुमाइश होती है
जिन्हें अज़दहे पसंद कर उठा ले जाते हैं
वहाँ होते हैं जिन्नात जिनके पास
किसी शय की कि़ल्लत नहीं होती
उकाब बबर कल्ब रूबा की मिली-जुली शक्लो-सूरत
वह कभी-भी अख्तियार कर लेते हैं
उनकी दुम शिगाल की मानिंद होती है
लगता है उनकी आवाज़ जहन्नुम से आती है

वहाँ रेगिस्तान फ़िलिज़्ज़ के होते हैं
जहाँ सुनहरी ख़ारों की फ़सलें तलुओं को लहूलुहान कर डालती हैं
वहाँ कातान के बादशाह हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि कोई
उनके तिलिस्मों तक न पहुँचे
पहुँचे तो उन्हें तोड़कर ज़िंदा न लौटे

वहाँ दालाने-ग़ुस्ल की गुम्बद चट्टानों में बदल जाती है
इन्सान अगर वहाँ डूबता नहीं है
तो खुद को सहरा में पाता है
फिर नमूदार होता है एक ऐवान
जिसके बाग़ के गुलों और मेवों से तस्कीन नहीं होती
जिसके अन्दर होते हैं मर्मर के मुजस्समे
एक कतार में खड़े
पैर से कमर तक पथराए हुए

वहाँ कफ़स में होता है उड़ता फड़फड़ाता
एक तोता इंसानों की ज़ुबान बोलता हुआ
जिसकी शिक्म में बादशाह क़ैयूमारात ने छिपा रखा है
दुनिया के नायाबतर हीरे को
और जो तीन तीरों में उस ख़ुद-रवाँ परिंदे की गर्दन काट नहीं देता
वह पत्थर का होता जाता है

तीसरे तीर से जब तोते का सर धड़ से अलग हुआ
तब घनगरज हुई बिजलियाँ कौंधीं अँधेरा छा गया
अपनी संगियत से रिहा हुआ मैं
सारे मुजस्समे जि़न्दा हो गए वे सब मुझसे पहले आए थे
मेरे पैरों के पास पड़े हुए थे तीर-कमान
और यह हीरा जो मैं बतौर सुबूत साथ ले आया हूँ
लेकिन जिसे मुझे इसके हक़दारों को लौटाना है

वह तेरी आखि़री पुर्सिश थी या मुराद
लेकिन उसका यही जवाब ला सका मैं ऐ हुस्नबानू
शुक्र है तेरी धाय को यह सात ही मालूम थीं
वर्ना मैं आजिज़ आ ही रहा था लगातार सामने नुमूदार नंगीमुनंगी हूरों
और मेरे चूतड़ों के गोश्त के लिए पीछा करनेवाले लज़्ज़तपसंद भेड़ियों से
अभी न जाने कितने शुब्हो-सवाल मेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं यमन में
कितनी जद्दोजहद
अच्छा हुआ तूने मुझे उनकी आदत डाल दी
लौटते हुए मुनीरशामी को बताता जाऊँगा कि अब तू उसकी हुई
परवरदिगार उसकी मुहब्बत और तेरी जौजि़यत को महफ़ूज़ रक्खे
तुम दोनों का कितना शुक्रिया अदा करूँ
जो तुम्हारी वजह से हासिल कर पाया
पसोपेश और मुसीबत के हर लम्हे में
हज़रत ख़्वाज़ा खि़ज़्र के मेहरबान मुक़द्दस साये की रहनुमाई को -
उनके पास दोनों जहान के सारे सवालों के हल हैं

2 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

I'm deeply delighted to have read these beautiful poems! Thanks to you for your huge contribution :)

Yash Thakur ने कहा…

विष्णु खरे की एक कविता जो उन्होंने 'चिड़ियों' पर लिखी है, कोशिश, सबसे पहली बार मैंने इसी साल सुनी। बहुत ही पसंद आयी।

और 'फ़ासला' पढ़ कर मन अति प्रेरित हुआ की किस प्रकार वे एक तस्वीर को एक सुन्दर कविता में बदल सकते हैं।

और वर्णन कितना सुन्दर, बहुत ही करीब है असलियत के।

आभार
यश ठाकुर