गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

अनिल यादव के कहानी संग्रह से गुज़रकर

(यूँ तो अनिल यादव का कहानी संग्रह किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है और ना ही नया है...लेकिन रीडर्स प्लीज़र भी कोई चीज़ होती है भाई. इसी रीडर्स प्लीज़र की आड़ में बुद्धू-बक्सा आपके सामने कहानी संग्रह 'नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं' की इसी शीर्षक की कहानी का एक बेहद मार्मिक अंश आपसे साझा कर रहा है. ये कहानी इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये वहीं से निकलती है, जहाँ से सृष्टि का निर्माण होता है और जिसके भीतर हर पौरुष-पुरुष की परिणति सिमटी होती है, जहाँ से हम सब का जन्म-निर्माण-उत्थान प्रकाश पाता है. इस महिला-महिला कोलाहल से सिक्त देशकाल में इतनी जगह तो बची ही है कि फांसी और जनदनाशन जैसी कठिन और बर्बर मांगों के बीच एक कहानी का हिस्सा पढ़ा जा सके, जहाँ थोड़ी सी चेष्टा और थोड़ा साहस बरकरार है, जहाँ एक सच भी छिपा हुआ है और गल्प की परेशानियां भी हैं. जिन्होंने इस कहानी संग्रह को अभी तक नहीं पढ़ा है, वे नई-युवा कहानी के एकदम नए नज़रिए को जानने-समझने के लिए इसे पढ़ सकते हैं. बुद्धू-बक्सा अनिल यादव का आभारी, और ये आशा कि वे और ज़्यादा पक्के और मजबूत कामों के साथ आते रहेंगे. संचालन की अनियमितता के लिए बुद्धू-बक्सा क्षमाप्रार्थी है.)


रंडियाँ... रंडियाँ... देखो, रंडियाँ

लेकिन वे किसी को देख नहीं रही थीं! उनकी आँखों में भीड़ से घिरे जानवर के भय की परछाई थी और रह-रहकर गुस्सा भभक जाता था. लड़ेंगे... जीतेंगे, लड़ेंगे... जीतेंगे वे किसी का सिखाया हुआ, अजीब सा नारा लगा रही थीं जिसका उनकी ज़िंदगी और हुलिए से कोई मेल नहीं था. ज़्यादातर औरतें बीमार, उदास और थकी हुई लग रही थीं. मामूली साड़ियों से निकले प्लास्टिक की चप्पलों वाले पैर संकोच के साथ इधर-उधर पड़ रहे थे मानो सड़क में अदृश्य गड्ढे हों, जिनमें गिरकर समा जाने का ख़तरा था. बच्चे और कुत्ते भी सहमे हुए थे. नारे लगाते वक्त उठने वाले हाथों में भी लय नहीं झिझक और बेतरतीबी थी. लेकिन उनकी चिंचियाती, भर्राई आवाज़ों में कुछ ऐसा मार्मिक ज़रूर था जो रह-रहकर कचोट जाता था. उनके साथ-साथ सड़कों के किनारे-किनारे लोग भी गरदनें मोड़े चलने लगे.

लोगों के घूरने से घबराकर गले में हारमोनियम और ढोलक लटकाए साजिंदों ने तान छेड़ी और वे चौराहों पर रुक-रूक कर नाचने लगीं. झिझकते, नाचते-गाते यह विशाल जुलूस जब कचहरी में दाखिल हुआ तो वहाँ भी सनसनी फ़ैल गई.

वे नारे लगाती कलेक्टर के दफ़्तर के सामने के बरामदे और सड़क पर धरने पर बैठीं. चारों ओर तमाशबीनों का घेरा बन गया. जल्दी ही वकील, मुवक्किल, पुलिसवाले और कर्मचारी कागज़ की पर्चियों पर गानों की फरमाईशें लिखकर उन पर फेंकने और नोट दिखाने लगे. कुछ ढीठ किस्म के वकील हाथों से मोर और नागिन बनाकर भीड़ में बैठी कम उमर की लड़कियों को नाचने के लिए इशारे करने लगे. वेश्याओं ने उनकी ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया, वे अपने बच्चों को संभालती नारे लगाती बैठी रहीं.

दो-ढाई घण्टे बाद जिलाधिकारी के भेजे प्रोबेशन अधिकारी ने आकर कहा कि विभाग के पास वेश्याओं के पुनर्वास के लिए कोई फंड और योजना नहीं है. इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार को लिखा गया है. उनकी मांगें सभी सम्बंधित पक्षों तक पहुंचा दी जाएंगी. नारी संरक्षण गृह में इतनी जगह नहीं है कि सभी को रखा जा सके. ज़िलाधिकारी ने आश्वासन दिया है कि अगर वे धंधा नहीं करें तो अपने घरों में रह सकती हैं, उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की जाएगी.

ज़िलाधिकारी ने राहत फंड की उपलब्धता जानने के लिए समाज कल्याण अधिकारी को बुलावा भेजा था, लेकिन पता चला कि वे इन दिनों जेल में हैं. उनके विभाग के क्लर्कों और स्कूलों के प्रधानाचार्यों ने मिलकर हज़ारों दलित छात्रों के नाम से फर्ज़ी खाते खोल उनके वजीफे हड़प लिए थे. मामले का भंडा फूटने के बाद कल्याण विभाग पर इन दिनों ताला लटक रहा था.

भीड़ में से एक बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी के आगे अपनी मैली धोती का आँचल फैलाकर खड़ी हो गई और भर्राई आवाज़ में कहने लगी... ‘जब तक जवानी रही सरकार आप सब लोगन की सेवा किया. ऊपर वाले ने जैसा रखा, रह लिए. अब बुढ़ापा है. सरकार उजाड़ीए मत! कहाँ जाएंगे, कहीं ठौर नहीं है.’ वेश्याएं हंसने लगी, बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी को ही कलेक्टर समझकर फ़रियाद कर रही थी. बुढ़िया बोले जा रही थी, ‘जब तक जवानी रही आपकी सेवा किया सरकार.’ तमाशबीन भी हंसने लगे. प्रोबेशन अधिकारी के चेहरे का रंग उतर गया. वह जल्दी से कुछ बोलकर मुड़ा और अंग्रेजों के जमाने की कचहरी के बरामदे के विशाल खम्भों के पीछे अदृश्य हो गया. 


(इसके बाद ब्रह्मचारी बटुकों और साधुओं ने सामाजिक पर्यावरण की शुद्धि के लिए आटे से वेश्याओं के पुतले बनाकर उन्हें सिन्दूर-रोरी, चन्दन और कच्चे सूत से सजाकर हवन-कुण्ड में स्वाहा किया.)

3 टिप्पणियाँ:

दीपिका रानी ने कहा…

हम वेश्याओं, आदि को इस तरह देखते हैं मानो वे समाज का हिस्सा हैं ही नहीं। उत्सुकता से या घृणा से। जब तक यह मानसिकता नहीं सुधरती, हम जैसे तथाकथित सभ्य लोग ऐसे ही रहेंगे - प्राइवेटली उनसे कहीं अधिक असभ्य, अनैतिक, कामुक होंगे लेकिन समाज में एक पारिवारिक, स्‍नेही, समाज की चिंता करने वाले व्यक्ति की छवि पेश करेंगे। अनिल यादव जी की यह कहानी लीक से हटकर है...

shivdan ने कहा…

हमारे समाज का दोहरा स्वरूप हाथी के दांत जैसा है.
खाने वाला अलग और दिखाने वाला और. अपने आप को सभ्यता और शिष्ठ्ता के पुजारी कहने वाले लोग मनुष्यता तक नहीं समझते हैं. अनिल जी की यह कहानी हमारे समाज के उसी रूप को प्रस्तुत कर रही है.

बेनामी ने कहा…

आज समाज में बदलाव की ज़रूरत हैं लोगों की विचार धारा को बदलने की ज़रूरत है | उस बदलाव में श्रीमान आप सक्रिय है | अति सुन्दर;
अब हो रहा है भारत निर्माण |