(ज्योति कुमारी और राजेन्द्र यादव प्रकरण में कुछ बातें और कुछ जवाबदेही इतनी ज़रूरी हो गयीं कि मानो उनके बिना प्रसंग की प्रासंगिकता नहीं बन पाएगी. इन्हीं सब के फेर में 'फेसबुकी तुरत-फुरत विरोध जताऊ' वर्ग ने मामले को ज्योति कुमारी के 'विक्टिम्स स्टेटमेंट' को अंतिम सच मानना शुरू कर दिया. हो भी क्यों नहीं, भारत में पीड़ित से सहानुभूति रखने की परम्परा रही है. ये सही भी है, लेकिन एक-पक्षीय नज़रिया एक ऐसा घातक फ़ैसला है जिससे घटना से जुड़े सभी पक्ष किसी न किसी तरीके से लाभान्वित होते रहते हैं. 'ऐसे में' ज्योति पर कोई आरोप लगाना बेसमय शोर सरीखी बात हो सकती है, लेकिन ज्योति ने राजेन्द्र यादव का चेहरा पूरी तरह से सामने नहीं रखा. ये ज्योति की नादानी है या चालाकी इसका निर्णय पाठक करें, लेकिन कहानीकार अनिल यादव एक गहरी नज़र से मामले को देख रहे हैं.साथ की चित्र-कृति गोया की.)
कोलाहलमय कारस्तानियों पर चुप्पी के खतरे
अनिल यादव
जानता हूं, ज्यादातर लोगों की दिलचस्पी सिर्फ जल्दी से उस वीडियो को देखकर भर्त्सना में छिपी उत्तेजित किलकारी मारते हुए आगे बढ़ लेने में है ताकि प्रधानमंत्री, पड़ोसन, चुनिंदा मॉडलों और धर्माचार्यों के अलग-अलग रस देने वाले अन्य वीडियो देखने के लिए आंखे मुस्तैद रख सकें. फिर भी कभी न कभी मुझे इस व्यापार में पड़ना ही था. तो आज ही क्यों नहीं?
बीती मई में राजेन्द्र यादव से जिन्दगी में पहली बार कायदे से मुलाकात हुई. साल के शुरू में उन्होंने अपनी बेटी रचना के जरिए मेरा ट्रैवलॉग मंगाकर पढ़ा था, पाठकों से उसे पढ़ने की सिफारिश करते हुए प्रशंसा के झाग से उफनाता संपादकीय ‘हंस’ में लिखा था. उससे पहले दुआ सलाम भर थी. उन्होंने दो बार मेरी लंबी कहानी ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ को यह कहते हुए कहानी मानने से ही इनकार कर दिया था कि इसमें कोई नायक नहीं है. मेरा कहना था, नायक समाज में ही नहीं है तो कहानी में जबरदस्ती चला आएगा?
मैने पहले ही शर्त रख दी थी कि मैं आपसे सिर्फ महिला लेखिकाओं और सेक्स व क्रिएटिविटी के बीच के धागों पर बात करना चाहता हूं. वे राजी थे और जरा खुश भी.
मयूर विहार के उनके घर में अभी अंडे की भुजिया से भाप उठ रही थी, पहला पेग हाथ में था, कान भी गरम नहीं हुए थे कि हिन्दी की नई सनसनी ज्योति कुमारी का जिक्र चला आया. पैतृक पृष्ठभूमि, कलही दाम्पत्य, अलगाव, बीमार विचार का डिक्टेशन, बेस्ट सेलर लेखिका, नामवर सिंह की समीक्षा, महत्वाकांक्षा वगैरा से ऊबा डालने की सीमा पर (मैं पहले कुछ पुरानी लेखिकाओं के बारे में सुनना चाहता था) उन्होंने कहा, उसके बिना अब मेरा काम नहीं चलता. उस पर बहुत निर्भर हो गया हूं. सोती बहुत है. मैं ही रोज फोन करके जगाता हूं.
‘अच्छी लड़की है’...उन्होंने गर्व से कहा. उसके बिना मैं अब कुछ नहीं कर पाता.
मैने सुना...मेरे अनुकूल लड़की है. इन दिनों जीवन में जो अच्छा है उसी की वजह से है.
‘अब तो शरीर निष्क्रिय हो चुका होगा. आप क्या कर पाते होंगे’.
‘तुम्हारा क्या मतलब है?’ उन्होंने मुझे मोटे लेंसों के कारण और बड़ी दिखती, थकी आंखों से मुझे घूरा.
‘ये तो कोई चमत्कार ही होगा कि आप इस उम्र में भी सेक्सुअली एक्टिव होंगे.’
मन नहीं मानता... उन्होंने कुर्ते के गले के ऊपर ऊपर बेचैनी से पंजा हिलाते हुए कहा, ‘कभी सीने से चिपका विपका लिया, सहला दिया. और क्या होना है.’
‘गिल्ट फील नहीं होता आपको?’
‘नहीं तो. क्यों होगा. मैं जबरदस्ती नहीं करता. किसी को ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं करता.’
‘मन्नू जी से बात होती है.’
‘उससे...आज ही हुई थी. बायोडाटा का सही अनुवाद क्या होगा. इस पर हम दोनों देर तक माथापच्ची करते रहे.’
थोड़ा ठहर कर गिलास को देखते हुए सहज भाव से उन्होंने कहा, ‘पंजाबी में एक शब्द है ठरक. सुना है कभी.’
फिर मुझे देखा, ‘समझ लो कि वही ठरकी बुड्ढा हूं.’
‘हमारे यहां भोजपुरी में इसका पैरेलल है ‘हिरिस’. ऐसी दुर्निवार कामना जो कहते हैं कि कपाल क्रिया के बाद भी खोपड़ी में बची रहती है.’
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अस्मिता बचाने के साहसिक अभियान पर निकली ज्योति कुमारी सबको बता रही हैं कि राजेंद्र यादव उन्हें बेटी की तरह मानते थे. और इसके अलावा कोई रिश्ता नहीं था. वह ऐसा करके एक कल्पित नायिका स्टेटस और शुचिता की उछाल पाने के लिए एक संबंध और अपने जीवन को ही मैन्यूपुलेट कर रही हैं. वह उस असल तथ्य को ही झूठ के नीचे दफन कर दे रही हैं जो वीडियो बनाने, ब्लैकमेल की कोशिश, झगड़ा, कपड़े फटने और प्रमोद नामक युवा के जेल जाने की वजह है. यह अस्वाभाविक नहीं है कि लोग मानते हैं कि एक कहानीकार के तौर खुद को धूमधड़ाके से प्रचारित करने के लिए उन्होंने ऐसा ही एक और मैन्यूपुलेशन किया होगा. दूसरी ओर राजेंद्र यादव एक बमुश्किल परिचित आदमी के सामने खुद को ठरकी बुड्ढा कहते हुए ज्योति के साथ अपनी अंतरंगता को स्वीकार करते हैं. इस पेंचीदगी और खुलेपन के बीच एक बड़ा समकालीन सच फंसा हुआ है.
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ज्योति कुमारी अकेली नहीं हैं. हमारे बौद्धिक तबके द्वारा उपलब्ध कराया जीवन का पुराना मॉडल यही है. हिन्दी का विचारक, लेखक, बुद्धिजीवी ऐसे जीता है जैसे बेचारा जन्मते ही बधिया कर दिया गया हो. जो यौन आवेग उसके मन और शरीर के सबसे अधिक स्पेस में दनदनाते रहते हैं और उसका रोजमर्रा का व्यवहार निर्धारित करते हैं वही लेखन और वक्तव्यों से नदारद हो जाते हैं. यह ऑटो सेन्सर है जिसका काम हर तरह के खतरे से सुरक्षित रखना और भली छवि के साथ कल्पित कीर्ति दिलाना है. वह अपनी रचनाओं में एक अधकचरा, लिजलिजा जीवन प्रस्तुत करता है जो दरअसल कहीं होता ही नहीं. इसीलिए पाठक उसकी ओर आंख उठाकर देखता भी नहीं क्योंकि वह कहीं अधिक मुकम्मल जीवन को भोग रहा होता है.
जिस देश में सेक्स के मंदिर हों, शास्त्र सम्मत चौरासी आसन हों, कामसूत्र हो, कालिदास जैसा कवि हुआ हो, सर्वाधिक प्रकार के विवाहों और संतानोत्पत्ति के प्रयोगों का अतीत हो वहां के लेखक की सांस शरीर के अंगों, चुंबन, हस्तमैथुन, सोडोमी के जिक्र से उखड़ने लगती है. वह आतंकित होकर कलम फेंक देता है. साहित्य की एक नकली भाषा ईजाद की गई है जिसमें वे गालियां तक नहीं है (मंटो, इस्मत चुगताई, उग्र, काशीनाथ सिंह, राजकमल चौधरी जैसे कुछ अपवाद भी हैं) जिन्हें घरों, खेतों, सड़कों पर सुनते हुए हर भारतीय बच्चा बड़ा होता है. हमारे लेखक की हालत हिन्दी भाषी देहाती महिला से भी गई बीती है जो स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर के सामने समझ ही नहीं पाती कि अपनी समस्या कैसे कहे. पूछा जाना चाहिए कि बातूनी होने के लिए निन्दित हिन्दी पट्टी की महिला के अंतर को किसने लकवाग्रस्त कर डाला है?
ज्योति कुमारी और बुद्धिजीवी ही नहीं पूरे हिन्दी समाज में शरीर, सेक्सुअलिटी समेत हर ऐसी चीज के आसपास चुप्पी से गूंजता हुआ ब्लैकहोल है जिसे कहने के लायक नहीं समझा जाता है. पूजा पंडाल, संतों के प्रवचनस्थल, मंदिर, बस, ट्रेन या किसी भी भीड़ वाली जगह पर एक बिडंबना को मंचित होते देखा जा सकता है. पुरूष शातिर चोरों की तरह औरतों को टटोलते, मसलते रहते हैं, औरतें बुत की तरह अनजान बनी खड़ी रहती हैं क्योंकि जो चल रहा है उसके बारे में बात करने का रिवाज नहीं है. शारीरिक जरूरतें अदम्य हैं लेकिन उन पर समाज गूंगा है लिहाजा वे पूरा होने के लिए ताकत, तिकड़म, प्रलोभन के आदिम, बर्बर, निःशब्द रास्ते खोजती हैं. यह चुप्पी ही वह जगह है जहां औरतों पर सेक्सुअल हमलों, बलात्कार, योजनाबद्ध यौनशोषण के समीकरण बनाए और अमल में लाए जाते हैं। अगर सेक्सुअलिटी की अभियक्ति हमारे जीवन का हिस्सा होती तो शायद किसी महिला या पुरूष के साथ जोर जबर्दस्ती की स्थितियां ही नहीं बनतीं. सबसे पहले तो यही होता कि हम सिनेमा के परदे पर बलात्कार से कामुक उत्तेजना की खुराक खींचना बंद कर देते.
देर सबेर युवाओं को समाज और हिंदी साहित्य में सेक्सुअलिटी पर एक दिन खुलकर बात करनी ही पड़ेगी क्योंकि बलात्कार, शोषण और यौन हमले असंख्य सुराखों वाले हमारे जर्जर लोकतंत्र में कानून और पुलिस के रोके रूकने वाले नहीं हैं. यौन अपराधों को रोकने वाले खुद यौन हिंसा के अलावा और कोई तरीका नहीं जानते. अभी तो पुलिस वाले समलैंगिकों से बलात्कार और बलात्कारियों की गुदा में पेट्रोल टपकाने और उत्पीड़ित महिलाओं से बलात्कार का पुनर्मंचन कराने में ही व्यस्त हैं. मिशेल फूको ने किसी और से अधिक हिन्दी की सबसे नई पीढ़ी से ही कहा था- एक रोज लोग ये सवाल पूछेंगे कि अपनी सबसे कोलाहलमय कारस्तानियों पर छायी चुप्पी को बनाए ऱखने पर हम इतने आमादा क्यों हैं?
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इसमें कोई शक नहीं राजेन्द्र यादव हिन्दी के अकेले संपादक हैं जिन्होंने महिलाओं, दलितों की फुसफुसाहटों को मुखर बनाने के साथ ही इस चुप्पी को तोड़ने के सर्वाधिक साहसिक प्रयोग किए हैं और उसकी कीमत भी चुकाई है. उनके बनाए कई वीर बालक और बालिकाएं हैं जो सीमाएं तोड़ने के संतोष और निन्दा के अभिशाप के बीच आगे का रस्ता खोज रहे हैं.
लेकिन उनका कसूर यह है अपनी ठरक को सेक्सुअल प्लेजर तक पहुंचाने की लालसा में उन्होंने आलोचकों (जिसमें नामवर सिंह भी शामिल हैं), प्रकाशकों, समीक्षकों की मंडली बनाकर ढेरों अनुपस्थित प्रतिभाओं के अनुसंधान का नाटक किया, चेलियां बनाईं और साहित्य के बाजार में उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया जो खुद उन्हें भी अपने करतबों से चकित कर रही हैं. जनपक्षधरता, नाकाबिले बयान समझी जाने वाली चीजों को व्यक्त करने के प्रयोगों, डेमोक्रेटिक टेम्परामेन्ट, लेखकीय ईमानदारी और लगभग बिना संसाधनों के जनचेतना को प्रगतिशील बनाने की कोशिशों का क्या यही हासिल होना था. ऐसा क्यों हुआ कि विवेक के फिल्टर से जो कुछ जीवन भर निथारा उसे अनियंत्रित सीत्कार और कराहों के साथ मुंह से स्खलित हवा में उड़ जाने दिया. अगर वे मूल्य इतने ही हल्के थे तो राजेंद्र यादव को हंस निकालने की क्या जरूरत थी किसी सांड़ की तरह यौनेच्छाओं की पूर्ति करते और मस्त रहते. जिस तरह आसाराम बापू नामक संत से अनपेक्षित था था कि वह समस्याग्रस्त भक्तिनों को सेक्स के लिए फुसलाएगा और धमकाएगा वैसे ही हंस के संपादक से भी उम्मीद नहीं थी कि वह किसी लड़की को दाबने-भींचने के लिए जीवन भर की अर्जित विश्वसनीयता, संबंधों और पत्रिका की सर्कुलेशन पॉवर को सेक्सुअल प्लेजर के चारे की तरह इस्तेमाल करने लगेगा. ज्योति कुमारी का महत्वाकांक्षी होना अपराध नहीं था लेकिन उन्होंने इसे उसकी कमजोरी की तरह देखा, उसे साहित्य का सितारा बनाने के प्रलोभन दिए और उसका इस्तेमाल किया. अब भी राजेन्द्र यादव को पिता बताकर ज्योति कुमारी उनकी मदद ही कर रही हैं. अगर वाकई उन्हें स्त्री अस्मिता के लिए लड़ना है तो पहले वात्सल्य और कामुकता में फर्क को स्वीकार करना पड़ेगा. वरना इस समाज को तो देवी और देवदासी, बहन और प्रेमिका, सेक्रेट्री और रखैल के बीच के धुंधलके में चलने वाले खेलों से मिलने वाली उत्तेजना पर जीने की आदत पड़ चुकी है.
7 टिप्पणियाँ:
कड़वा और बेबाक सच... ज्योति पर सवाल उठाते ही तथाकथित नारीवादी चढ़ दौड़ेंगे कि इस देश में पीड़ित से ही सवाल पूछने की परंपरा है। लेकिन इस सच्चाई से कौन इनकार करेगा कि ज्योति के अपने बयान में भी कितने विरोधाभास हैं। दूसरे के घर जाकर नहाने का क्या यही स्पष्टीकरण है कि वह घर किसी पिता तुल्य का है? और दफ्तर का काम घर के एकांत में करने का? किसी मूर्ख को भी समझ आ जाएगा इस सब के पीछे की सच्चाई। हां यह आश्चर्य की बात है कि इस पारस्परिक सुविधापूर्ण व्यवस्था से इतर क्या हुआ जो बात घर से बाहर तक आ गई। क्या किसी छोटे आदमी (पद और प्रतिष्ठा में) का भी अपने हिस्से की मांग करना या कुछ और?
अनिल जी आपका कायल हुआ। राजेंद्र यादव से पाठकीय परिचय ही है। कभी लगता था कि जीवन में एक बार राजेंद्र यादव से मिलना है और हंस में अच्छी कहानी के साथ उपस्थिति देनी है। धीरे धीरे ऐसा हुआ कि राजेन्द्र यादव से दूर होता गया। पिछले चार सालों से तीन-चार महीने में एक बार अवश्य दिल्ली से गुज़रता हूँ और सात आठ घंटे यों ही काटकर भी बिना राजेंद्र यादव से मिले चला आता हूँ। उनके कामों के लिए जितनी इज़्जत है उसे ही बचाकर रखना चाहता हूँ। चूँकि बिना साहित्य के अब अपनी कल्पना नहीं कर सकता इसलिए ऐसे दिग्गजों, स्टारों, लेखक निर्माताओं से दूर ही रहा जाये पर अटल होता जा रहा हूँ। रही बात ज्योति कुमारी की तो मैं उनकी बहुत इज़्जत करता हूँ। हम सबको स्त्रियों को मनुष्य का, बराबरी का वास्तविक दर्जा देते हुए उनकी इज्जत करनी ही चाहिए। इस सम्मान के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध बनाये रखना चाहिए। उनका आगे अपमान न हो वे एक स्वाधीन और आत्मसम्मान से भरा जीवन जी सकें इसकी कामना करता हूँ। ज्योति कुमारी रिश्तों की सही समझ के साथ लेखकीय जीवन जियेंगी तो अस्मिताओं के लिए संघर्ष के दूसरे द्वार भी अवश्य खुलेंगे।
जटिल मामला है..
काफी बेबाकी से इस मुद्दे पर अपनी बात कह दी है। और इसमें आक्रामकता और सचाई, दोनों का उपयोग है।
गज़ब लिखा आपने...मुझे लगता है कि ये भारतीय साहित्यिक समाज की समयानुकूल और सार्थक समिक्षा है...वाकई तस्लीमा नसरीन के बाद ऐसी हिम्मत भारत में तो अभी तक देखने मे नही आई थी..
आपने लिखने में कोई कसर नही छोड़ी है...पहली बार पढ़ा आपको..और वाकई मुतास्सिर हूँ आपके लेखन कौशल से।
प्रतिक्रिया देने के लिए भी कुछ छोड़ना चाहिए।
जो भी पुरूष ज्यादा फेमिनिज्म करता है उसके साथ यही होता ह
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