(इसे याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि गौरव सोलंकी बीते दिनों किन कारणों से चर्चा में रहे. अपने साहस और विवेक के बूते पर उन्होनें हिन्दी के लगभग सबसे बड़े प्रकाशन और साहित्य की अकादमी बनने का प्रयास कर रहे संस्थान से लोहा लिया, और जीते. 'छिनाल' प्रकरण ने इस संस्थान को बाज़ार में और ज़्यादा उधेड़ दिया था, बाकी रही सही कसर इसके नाम के नीचे हो रहे बलात्कारों ने निकाल दी. अविनाश फ़िर से सामने हैं, बात मूलतः गौरव सोलंकी के कविता और कहानी संग्रह पर होगी. हिन्दी में व्यक्ति तो क्या रूपकों से डरने का भी चलन चल पड़ा है, जिसका परिणाम यह होता है कि आगे पढ़ा जाने वाला लेख एक मासिक और त्रैमासिक पत्रिका में छापने से मना कर दिया जाता है. इस मामले की नींव में एक छोटा सा झरोखा खोला है अविनाश ने, हम उनके आभारी रहेंगे.)
भार एक नेपथ्य की व्याख्या का
अविनाश मिश्र
यहां एक ‘समय’ है... हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों का एक काल्पनिक ‘रूपक’ है... युवा कवि-कहानीकार गौरव सोलंकी के पहले प्रकाशित कविता संग्रह ‘सौ साल फिदा’ से कुछ काव्य पंक्तियां हैं और उनके पहले अप्रकाशित कहानी संग्रह ‘सूरज कितना कम’ की पांडुलिपि की समीक्षा है... सब कुछ संपृक्त है, अलगाते हुए न पढ़ें...
वह लगभग हांफता रहा दो भाषाओँ के दरमियान। एक भाषा वह थी जो आप पढ़ रहे हैं और एक भाषा कोई भी हो सकती है। इस पृथ्वी का कोई भी अनुवादक उसे मुतमइन न कर सका। वह हांफता ही रहा बराबर। अपनी देह से पृथक सारी सजीवता को अपना विरोधी मानता हुआ। वह हांफता हुआ ही आया प्रवेश के समय, जब उसके मातहत उसे आया देख खड़े हो गए और उन्होंने पाया कि उसका मुंह खुला हुआ था और जीभ बाहर की ओर लटक रही थी। उसे सख्त थोड़े से आराम की दरकार थी।
जरा संभलते ही वह अपने मातहतों पर गुर्राया और उनसे दफा हो जाने को कहा। बाद इसके उसने अपने आस-पास की जगह साफ की और सो गया।
जब वह जागा तब उसने पाया कि उसकी तरह ही नव नियुक्त उसका सहायक उसकी नींद का ढंग सीख चुका है।
वह सहायक के साथ आधी रात तक शराब पीते हुए हिंदी के कई साहित्यकारों को गालियां बकता रहा। खराब शाइरी सुनाते और भुने हुए काजू खाते हुए उसने कहा- ‘कुछ भी नहीं है आज की हिंदी कविता में, जाने क्यों कविताएं लिखते हैं ये बहन के… (सुनो...) कल काम का पहला दिन है और मैं नहीं चाहता अपनी मेज पर कोई मनहूस कविता।‘
अगले दिन एक सदाबहार खुमार के साथ उसने काम करना शुरू किया और कहा- ‘अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहेगा...’ यह कहते ही तुरंत बदल गया पत्रिका का आकार, मूल्य और खेमा।
एक नींद और एक तलवार लेकर वह सब कुछ संपादित करता रहा- दुनिया, पीढ़ियां और कहानियां…।
कहानियां एक जल्दबाज समय से गुजरकर पहुंचती थीं उसके पास और वह उतरकर अनर्गल विस्तारों में बदल दिया करता था शीर्षक। पंक्तियां उसका आहार थीं और रचनाएं खो देना उसकी प्रवृत्ति।
वह कहानियों का मुस्तकबिल तय करता था। जैसे कहानीकारों की होती हैं वैसे ही कहानियों की भी राशियां होती हैं। हर कहानी के लिए एक कार्ड था उसके पास और हर कार्ड पर एक प्रतिष्ठित कहानीकार की तस्वीर थी। इस तरह से एक भाषा के एक दर्जन अप्रतिम गद्यकार न चाहते हुए भी उसके इस खेल में शरीक थे। वह कार्ड्स फेंटता रहता था… और जब वह कार्ड्स फेंकता था... कहानियां अंगड़ाई लेती थीं, मुस्तकबिल बदलता था...।
वह कहानियों को शयनकक्ष में ले जाते हुए कहता- ‘मुझसे डरो मत मैं तुम्हारे पिता की तरह हूं।‘ इस पर कहानियां कहतीं- ‘हमारी मांओं के साथ भी यही हुआ था।‘ बाद इसके वह देर तक कहानियों को चाटता और काटता रहता था।
और फिर एक दिन ये सारी बेतरह थकी हुई कहानियां एक ‘युवा कहानी विशेषांक’ में प्रकाशित होती थीं...।
याद कि कौन सी कंपनी के बल्ब कौन सी दुकान पर नहीं मिलते थेकितनी छत फांदकर थी केबल की तारप्यार होने का चलन थासूरज कितना कम था, शादियां हर इतवारनदी कोई नहीं वहांऔर मैं सोचता उसे परी या लताक्योंकि उसके रूप भी पढ़ाए जाते थेयाद सब इश्तिहार, उनको बदलने वाले सब वारजैसे लौटना हो बार-बारपर लौटता नहीं...
ऊपर नुमायां काव्य पंक्तियां गौरव सोलंकी के पहले कविता संग्रह ‘सौ साल फिदा’ की एक कविता ‘याद सब मेहनताने, छोड़े हुए काम और गरीब पूर्वज’ से हैं। इन्हें गौरव ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘सूरज कितना कम’ के समर्पण पृष्ठ के लिए चुना था। कविता की किताब के समर्पण पृष्ठ पर गौरव ने लिखा था- ‘घर के लिए, जिसे जितना ढूंढ़ो, वह उतना खोता जाता है।’ दोनों ही संग्रहों के समर्पण पृष्ठ पर कोई नाम, कोई संबंध नहीं है। ऐसा क्यों है? इस पर गौरव कहते हैं- ‘किसी व्यक्ति को समर्पित किया जा सकता है या किया जाना चाहिए, यह शायद मेरे दिमाग में ही कभी नहीं आया। किसी लेखक का तो लंबे अंतराल तक इतना असर भी नहीं था कभी, कि उसे समर्पित कर सकूं। कविता की किताब 'घर के लिए, जिसे जितना ढूंढ़ो, उतना खोता जाता है' की तर्ज पर शायद कहानी की किताब को अपनी कविताओं का शुक्रगुजार बताता। शायद इसीलिए पहले पन्ने पर कविता की लाइनें लिखना चाहता था, जो हैं भी। उन्हीं में से किताब का शीर्षक है। मुझे लगता है कि कई मौकों पर मेरे कविता लिखने ने मुझे कहानियों में गैरजरूरी सेल्फ ऑबसेस्ड होने से या कहानी से नाइंसाफी करने से रोका है। मैं जैसी भी कहानियां लिखता हूं, उनमें मेरी कविताओं का बहुत बड़ा योगदान है।‘
छह कहानियों वाली इस अप्रकाशित पांडुलिपि के बारे में मैं यह नहीं कहूंगा कि इसे नब्बे के बाद बदलते आए यथार्थ के पुनरीक्षण के रूप में देखना चाहिए। मैं नहीं कहूंगा कि इन कहानियों ने कहन की सर्वथा एक नई भंगिमा अर्जित की है और इनकी भाषा और शैली दूर से ही चमकती है। मैं नहीं कहूंगा कि गौरव सोलंकी ने बहुत कम समय में अपनी निजी भाषा, मुहावरा और कथन का एक खास लहजा प्राप्त कर लिया है। मैं नहीं कहूंगा कि यहां रिश्तों और स्त्री की आजादी से जुड़े नए संदर्भ और प्रश्न हैं। मैं नहीं कहूंगा कि इन कहानियों का कैनवस बड़ा है। मैं नहीं कहूंगा कि इनमें संघर्ष और समानता की ललक है। मैं नहीं कहूंगा कि यहां प्रेम का नया भाष्य है। मैं नहीं कहूंगा कि ये जातिवादी वर्चस्व को तोड़ने वाली कहानियां हैं। मैं नहीं कहूंगा कि ये कहानियां हिंदी भाषी समाज के दृष्टिगत बदलावों के कई सुराग छोड़ती हैं। और मैं यह भी नहीं कहूंगा कि ये कहानियां हिंदी कहानी की आगे बढ़ती हुई उस परंपरा का नया हिस्सा हैं जो मौजूदा समय की उथल-पुथल के बीच अपना कथ्य और दृष्टि विकसित कर रही है। ऐसी सारी घृणित और घिनौनी पंक्तियों को मैं हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं और रंगीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में घर की सब्जी और बच्चे के दूध वगैरह के लिए समीक्षाएं लिखने वाले समीक्षकों के लिए छोड़ता हूं।
‘सूरज कितना कम’ की कहानियों के बारे में यहां से बात शुरू की जा सकती है कि यहां वह सब कुछ है जिसकी मांग हिंदी के एक युवा कहानीकार से की जाती है, लेकिन फिर भी यहां किन्हीं शर्तों पर कुछ भी ओढ़ा हुआ नहीं है। यहां ये प्रयत्न सायास हैं और ये युवा समय की महत्वकांक्षाओं के दबावों और प्रेम के संवेगों से उपजे हैं।
इन कहानियों को अगर आप ‘चश्मा’ लगाकर पढ़ते हैं तो थोड़ी परेशानी होती है। कुछ प्रसंगों में आंखें बार-बार भीगती हैं, आपको चश्मा उतारकर उन्हें साफ करना पड़ता है। सख्त होकर सूखते समय में संवेदन और आंसुओं का मूल्य बराबर कम होता गया है। हमारे दर्द ने हमें चिड़चिड़ा बनाया है, भावुक नहीं। हमारा बहुत सारा देखना-पढ़ना-समझना हमारे बहुत सारे पूर्वाग्रहों की बलि चढ़ गया। कई लोग कई वर्षों से इस फंदे में हैं, ये कहानियां अपने नजदीक आए जन को ऐसे दुष्प्रभावों से मुक्त करती हैं।
ये गौरव सोलंकी के हिस्से की कहानियां हैं और इनमें कोई भी अपना प्रतिशत खोज और पा सकता है। क्योंकि कहानीकार ने इन्हें इसी समाज से चुराया है और कोई भी इनमें अपने अक्स देख सकता है, अपने किरदार चुन और पहचान सकता है, इनके सच से छलनी होकर इनसे असहमत होने का स्वांग करते हुए इन्हें नकार भी सकता है। लेकिन ये हैं और रहेंगी, और किसी पर भी ऐसा कोई दबाव नहीं बनाएंगी कि वह इन्हें पढ़कर उस ओर बदल जाए जिस ओर ये चाहती हैं। यह इन कहानियों का दुःख, तकलीफ या कहें कमजोरी है कि ये ऐसी किसी उम्मीद में नहीं लिखी गई हैं।
इनमें इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पैदा हुए युवाओं का बचपन है। राजीव गांधी की हत्या और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आए उदारवाद और पहली गैरकांग्रेसी केंद्र सरकार के बाद गर्मियों की बिना बिजली वाली दोपहरों में काली आंधी की तरह चली आईं नई-नई हिंसाएं और हताशाएं हैं। गौरव के ही शब्दों में कहें तो कह सकते हैं- ‘यहां एक अजीब-सा सम्मोहन है जिसकी तह में निराशा और ग्लानि है।‘ यहां एक अनिवार्य युवा आत्मरति है।
लेकिन कितना अच्छा होता यदि ये कहानियां मनुष्य की हीनता और दयनीयता के बजाए उसके साहस और कल्पना की होतीं, नाउम्मीदियों के बजाए उम्मीद की। स्वप्नों और संघर्षों की पराजय के बरअक्स उनके सतत साकार और जयी होते चले जाने की। लेकिन सामने के समय ने ऐसे सृजन को संभव नहीं रहने दिया, नतीजतन हिंदी साहित्य ने इसे बराबर बेदखल किया। बावजूद इसके मानवीय और महान साहित्य रचे जाने की ये अनिवार्य शर्तें हैं। प्रत्येक रचनाकार को इन शर्तों पर खरा उतरना पड़ता है और जब ऐसे खरे रचनाकार किसी भाषा के साहित्य में कम होने लगते हैं तो उस भाषा का बहुत सारा मौजूदा साहित्य सारे चर्चित व्यक्तित्वों, पुरस्कृत शीर्षकों और भाषा के समग्र चमत्कारों, प्रयोगों और वैभवों के बीच अर्जित की गई थोड़ी-बहुत लोकप्रियता के बावजूद बेहतर साहित्य का अभ्यास मात्र होता है।
छह कहानियों वाली इस अप्रकाशित पांडुलिपि के बारे में मैं यह नहीं कहूंगा कि इसे नब्बे के बाद बदलते आए यथार्थ के पुनरीक्षण के रूप में देखना चाहिए। मैं नहीं कहूंगा कि इन कहानियों ने कहन की सर्वथा एक नई भंगिमा अर्जित की है और इनकी भाषा और शैली दूर से ही चमकती है। मैं नहीं कहूंगा कि गौरव सोलंकी ने बहुत कम समय में अपनी निजी भाषा, मुहावरा और कथन का एक खास लहजा प्राप्त कर लिया है। मैं नहीं कहूंगा कि यहां रिश्तों और स्त्री की आजादी से जुड़े नए संदर्भ और प्रश्न हैं। मैं नहीं कहूंगा कि इन कहानियों का कैनवस बड़ा है। मैं नहीं कहूंगा कि इनमें संघर्ष और समानता की ललक है। मैं नहीं कहूंगा कि यहां प्रेम का नया भाष्य है। मैं नहीं कहूंगा कि ये जातिवादी वर्चस्व को तोड़ने वाली कहानियां हैं। मैं नहीं कहूंगा कि ये कहानियां हिंदी भाषी समाज के दृष्टिगत बदलावों के कई सुराग छोड़ती हैं। और मैं यह भी नहीं कहूंगा कि ये कहानियां हिंदी कहानी की आगे बढ़ती हुई उस परंपरा का नया हिस्सा हैं जो मौजूदा समय की उथल-पुथल के बीच अपना कथ्य और दृष्टि विकसित कर रही है। ऐसी सारी घृणित और घिनौनी पंक्तियों को मैं हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं और रंगीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में घर की सब्जी और बच्चे के दूध वगैरह के लिए समीक्षाएं लिखने वाले समीक्षकों के लिए छोड़ता हूं।
‘सूरज कितना कम’ की कहानियों के बारे में यहां से बात शुरू की जा सकती है कि यहां वह सब कुछ है जिसकी मांग हिंदी के एक युवा कहानीकार से की जाती है, लेकिन फिर भी यहां किन्हीं शर्तों पर कुछ भी ओढ़ा हुआ नहीं है। यहां ये प्रयत्न सायास हैं और ये युवा समय की महत्वकांक्षाओं के दबावों और प्रेम के संवेगों से उपजे हैं।
इन कहानियों को अगर आप ‘चश्मा’ लगाकर पढ़ते हैं तो थोड़ी परेशानी होती है। कुछ प्रसंगों में आंखें बार-बार भीगती हैं, आपको चश्मा उतारकर उन्हें साफ करना पड़ता है। सख्त होकर सूखते समय में संवेदन और आंसुओं का मूल्य बराबर कम होता गया है। हमारे दर्द ने हमें चिड़चिड़ा बनाया है, भावुक नहीं। हमारा बहुत सारा देखना-पढ़ना-समझना हमारे बहुत सारे पूर्वाग्रहों की बलि चढ़ गया। कई लोग कई वर्षों से इस फंदे में हैं, ये कहानियां अपने नजदीक आए जन को ऐसे दुष्प्रभावों से मुक्त करती हैं।
ये गौरव सोलंकी के हिस्से की कहानियां हैं और इनमें कोई भी अपना प्रतिशत खोज और पा सकता है। क्योंकि कहानीकार ने इन्हें इसी समाज से चुराया है और कोई भी इनमें अपने अक्स देख सकता है, अपने किरदार चुन और पहचान सकता है, इनके सच से छलनी होकर इनसे असहमत होने का स्वांग करते हुए इन्हें नकार भी सकता है। लेकिन ये हैं और रहेंगी, और किसी पर भी ऐसा कोई दबाव नहीं बनाएंगी कि वह इन्हें पढ़कर उस ओर बदल जाए जिस ओर ये चाहती हैं। यह इन कहानियों का दुःख, तकलीफ या कहें कमजोरी है कि ये ऐसी किसी उम्मीद में नहीं लिखी गई हैं।
इनमें इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पैदा हुए युवाओं का बचपन है। राजीव गांधी की हत्या और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आए उदारवाद और पहली गैरकांग्रेसी केंद्र सरकार के बाद गर्मियों की बिना बिजली वाली दोपहरों में काली आंधी की तरह चली आईं नई-नई हिंसाएं और हताशाएं हैं। गौरव के ही शब्दों में कहें तो कह सकते हैं- ‘यहां एक अजीब-सा सम्मोहन है जिसकी तह में निराशा और ग्लानि है।‘ यहां एक अनिवार्य युवा आत्मरति है।
लेकिन कितना अच्छा होता यदि ये कहानियां मनुष्य की हीनता और दयनीयता के बजाए उसके साहस और कल्पना की होतीं, नाउम्मीदियों के बजाए उम्मीद की। स्वप्नों और संघर्षों की पराजय के बरअक्स उनके सतत साकार और जयी होते चले जाने की। लेकिन सामने के समय ने ऐसे सृजन को संभव नहीं रहने दिया, नतीजतन हिंदी साहित्य ने इसे बराबर बेदखल किया। बावजूद इसके मानवीय और महान साहित्य रचे जाने की ये अनिवार्य शर्तें हैं। प्रत्येक रचनाकार को इन शर्तों पर खरा उतरना पड़ता है और जब ऐसे खरे रचनाकार किसी भाषा के साहित्य में कम होने लगते हैं तो उस भाषा का बहुत सारा मौजूदा साहित्य सारे चर्चित व्यक्तित्वों, पुरस्कृत शीर्षकों और भाषा के समग्र चमत्कारों, प्रयोगों और वैभवों के बीच अर्जित की गई थोड़ी-बहुत लोकप्रियता के बावजूद बेहतर साहित्य का अभ्यास मात्र होता है।
हम जहां भी अकेले रहना चाहते थे, वहां बाजार होता गयाजैसे सरायों में बीता बचपन, मुसाफिर थी मांएंऔर टी.वी. नक्षत्रों की तरह हमारा भविष्य तय कर रहा थाजिसमें यह कोई इतवार है जिसमें बाद में मनोरंजक हत्याएं होंगीलोग झूठे निकलेंगे, प्रेमिकाएं भुलक्कड़नहीं सीखेंगे मेरे बच्चे तहजीब, भाड़ में जाए दुनियाऔर मैं जेल में आत्मकथा लिखूंगा...
‘यह गौरव सोलंकी की किताब है। इसमें कुछ चीजें हैं जो कहीं और नहीं हो सकती थीं। ऐसा भी समझ सकते हैं कि उन्हें कहीं और जगह नहीं मिली।‘
गौरव का रचनालोक इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इसमें जैसे युवा अनुभवों का प्रकटीकरण हुआ है, वह समग्र हिंदी साहित्य में संभवतः अन्यत्र दुर्लभ है। ये अनुभव एक सच्चाई के साथ कुछ जल्द ही शाया भी हो गए हैं। अगर मैंने इस संसार की सारी कहानियां पढ़ी होतीं, तब मैं शायद इस रचनालोक की कुछ और बेहतर व्याख्या कर पाता। मगर फिर भी एक सामान्य आस्वादक के तौर पर मुझे इस रचनालोक का एसेंस पकड़ने के लिए बहुत कुछ अलग-अलग नहीं करना पड़ता। यहां कविता करने की शर्मिंदगी से बचकर चली आईं कहानियां हैं, क्योंकि कहानीकार के यहां कविता के प्रति बराबर एक आत्मग्लानि का भाव है कि कविता से अलग इस वक्त में वह और कुछ क्यों नहीं कर पा रहा है। इस स्वीकार के साथ असली कविताएं लिखने वाले एक कहानीकार की ये असली कहानियां हैं।
‘मैं उसके पेट पर बैठ गया और जानवरों की तरह अपने नाखून उसके चेहरे पर मारने लगा। जब तक वह मुझे अपने ऊपर से धकेलने में कामयाब हुई, मैं उसके चेहरे को लहूलुहान कर चुका था। उसकी एक आंख से भी खून बह रहा था और वह गलियां बकती हुई दर्द से छटपटा रही थी।
पापा शाम को दुकान से लौटे तो उसकी आंख पर पट्टी बंधी हुई थी। उसने मुझे पापा से खूब पिटवाया। उन्होंने रस्सी से मुझे कुर्सी पर बांध दिया और अपनी चप्पल उतारकर मेरे गालों पर मारते रहे। एकाध बार गर्दन और सिर पर भी। वह अपनी आंख पर हाथ रखकर कराहती जाती थी और पापा मारते जाते थे।
मां जो सुंदर हंसती थी और अच्छा चूरमा बनाती थी, मैं उसकी कसम खाकर कहता हूं कि उस दिन मेरी आंखों से एक भी आंसू नहीं टपका। मैं लगातार उस औरत को ही देखता रहा और यदि यह अतिशयोक्ति नहीं है तो मेरा पूरा जीवन-दर्शन और दुनिया को समझने का आधार उस देखने से ही शुरू होता है।‘
(‘पतंग’ कहानी से)
चेखव ने कहा है- ‘कहानियां वे ही बेहतर होती हैं जिन्हें अपनी शुरुआत से ही मालूम होता है कि वे कहां पहुंचना चाहती हैं।‘ इस उद्धरण के साथ यह कहना जरूरी है कि गौरव की कुछ कहानियां अपनी शुरुआत से ही धीरे-धीरे यह साफ करने लगती हैं कि उन्हें स्त्री-विरोध पर पहुंचकर खत्म होना है। यह पहुंचना और इसके लिए तय सफर एक भाषा में तात्कालिक ‘स्त्री-विमर्श’ के छद्म से उत्पन्न हुआ होगा, यहां ऐसा सरलीकरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह ‘उत्पन्न प्रभाव’ इतनी सहजता, सच्चाई और ईमानदारी से व्यक्त हुआ है कि इस पर कोई शक करना गैरमुमकिन है। इन कहानियों की स्त्रियां धोखेबाज, चालबाज, बदचलन, बेवफा, अति महत्वाकांक्षी, स्वार्थी, निर्मम, निष्ठुर, अमानवीय और नफरत करने लायक हैं। एक मां के चरित्र को छोड़कर (क्योंकि वह एक दायरे में संकुचित हो गई है, डरी हुई है और इस वजह खास कुछ कर सकने में असमर्थ है) सारी स्त्रियां पुरुषों को सताती और उनका शिकार करती हैं... पुरुष विक्षिप्त, पराजित और अवसादग्रस्त हैं।
गौरव का रचनालोक इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इसमें जैसे युवा अनुभवों का प्रकटीकरण हुआ है, वह समग्र हिंदी साहित्य में संभवतः अन्यत्र दुर्लभ है। ये अनुभव एक सच्चाई के साथ कुछ जल्द ही शाया भी हो गए हैं। अगर मैंने इस संसार की सारी कहानियां पढ़ी होतीं, तब मैं शायद इस रचनालोक की कुछ और बेहतर व्याख्या कर पाता। मगर फिर भी एक सामान्य आस्वादक के तौर पर मुझे इस रचनालोक का एसेंस पकड़ने के लिए बहुत कुछ अलग-अलग नहीं करना पड़ता। यहां कविता करने की शर्मिंदगी से बचकर चली आईं कहानियां हैं, क्योंकि कहानीकार के यहां कविता के प्रति बराबर एक आत्मग्लानि का भाव है कि कविता से अलग इस वक्त में वह और कुछ क्यों नहीं कर पा रहा है। इस स्वीकार के साथ असली कविताएं लिखने वाले एक कहानीकार की ये असली कहानियां हैं।
‘मैं उसके पेट पर बैठ गया और जानवरों की तरह अपने नाखून उसके चेहरे पर मारने लगा। जब तक वह मुझे अपने ऊपर से धकेलने में कामयाब हुई, मैं उसके चेहरे को लहूलुहान कर चुका था। उसकी एक आंख से भी खून बह रहा था और वह गलियां बकती हुई दर्द से छटपटा रही थी।
पापा शाम को दुकान से लौटे तो उसकी आंख पर पट्टी बंधी हुई थी। उसने मुझे पापा से खूब पिटवाया। उन्होंने रस्सी से मुझे कुर्सी पर बांध दिया और अपनी चप्पल उतारकर मेरे गालों पर मारते रहे। एकाध बार गर्दन और सिर पर भी। वह अपनी आंख पर हाथ रखकर कराहती जाती थी और पापा मारते जाते थे।
मां जो सुंदर हंसती थी और अच्छा चूरमा बनाती थी, मैं उसकी कसम खाकर कहता हूं कि उस दिन मेरी आंखों से एक भी आंसू नहीं टपका। मैं लगातार उस औरत को ही देखता रहा और यदि यह अतिशयोक्ति नहीं है तो मेरा पूरा जीवन-दर्शन और दुनिया को समझने का आधार उस देखने से ही शुरू होता है।‘
(‘पतंग’ कहानी से)
चेखव ने कहा है- ‘कहानियां वे ही बेहतर होती हैं जिन्हें अपनी शुरुआत से ही मालूम होता है कि वे कहां पहुंचना चाहती हैं।‘ इस उद्धरण के साथ यह कहना जरूरी है कि गौरव की कुछ कहानियां अपनी शुरुआत से ही धीरे-धीरे यह साफ करने लगती हैं कि उन्हें स्त्री-विरोध पर पहुंचकर खत्म होना है। यह पहुंचना और इसके लिए तय सफर एक भाषा में तात्कालिक ‘स्त्री-विमर्श’ के छद्म से उत्पन्न हुआ होगा, यहां ऐसा सरलीकरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह ‘उत्पन्न प्रभाव’ इतनी सहजता, सच्चाई और ईमानदारी से व्यक्त हुआ है कि इस पर कोई शक करना गैरमुमकिन है। इन कहानियों की स्त्रियां धोखेबाज, चालबाज, बदचलन, बेवफा, अति महत्वाकांक्षी, स्वार्थी, निर्मम, निष्ठुर, अमानवीय और नफरत करने लायक हैं। एक मां के चरित्र को छोड़कर (क्योंकि वह एक दायरे में संकुचित हो गई है, डरी हुई है और इस वजह खास कुछ कर सकने में असमर्थ है) सारी स्त्रियां पुरुषों को सताती और उनका शिकार करती हैं... पुरुष विक्षिप्त, पराजित और अवसादग्रस्त हैं।
तमाम विषमताओं के बावजूदहमें भगवान में आस्थाऔर प्रेम में पुरुष बचाकर रखना होगा किसी भी तरहशरीरों के नाजुक क्षण मेंऔर उसके बीतने के बाद के घंटों मेंहमें निराश भावुकता को जड़ से उखाड़ फेंकना होगायह आवाज की मधुरताकला पर थोपी गई नैतिकताप्यार की बेवकूफ मासूमियतविवाह की बासी पवित्रताऔर छलती हुई स्त्रियों के खिलाफ हमारी आग होगीजिसमें हम उनकी आंखें नहींउनके स्तन याद किया करेंगेदम घुटने से पहले हमें पी जाना चाहिए सांस भर कमीनापन...
गौरव की कहानियों में स्त्री-विरोध का मेरा यह ऑब्जर्वेशन ‘तुम्हारी बांहों में मछलियां क्यों नहीं हैं?’ और ‘पतंग’ के स्त्री किरदारों को लेकर है। जबकि ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ और ‘सुधा कहां है?’ के पुरुष किरदार भी इन कहानियों के स्त्री किरदारों की तरह ही स्वार्थी, बेरहम और बुरे हैं। बहुत जगहों पर वे खुद पर तरस खाने वाले और अधिकांशत: बेबस हैं। वे लगातार डिप्रेशन में हैं और इस वजह मजबूर भी। वहीँ ‘ब्लू फिल्म’ में कोई पूरा पॉजिटिव किरदार नहीं है। 'लो हम डूबते हैं' और 'पीले फूलों का सूरज' के स्त्री किरदार भी ‘तुम्हारी बांहों में मछलियां क्यों नहीं हैं?’ और ‘पतंग’ के किरदारों जैसे ही हैं। यह अलग बात है कि ये दोनों कहानियां प्रस्तुत पांडुलिपि में नहीं हैं। ऐसे में इस ऑब्जर्वेशन के लिए ‘स्त्री-विरोध’ शायद सटीक और सकारात्मक शब्द न हो, लेकिन अपनी सीमाओं के चलते फिलहाल मैं कोई और शब्द नहीं खोज पा रहा हूं। लेकिन एक चीज जो गौरव की कविताओं की तरह ही कहानियों में भी स्थाई रूप से मौजूद है, वह है समाज के प्रति नाराजगी और गुस्सा। इसके चलते यहां जो घृणा है वह करुणा की अपूर्ण यात्रा है और यह अपूर्णता एक निष्कर्षवंचित दर्द से तप रही है...।
गौरव की कहानियां उन सभी शर्तों को जो कहानी के असल कथ्य को प्रभावित करती हैं, मुंह चिढ़ाते हुए आगे बढ़ जाती हैं। ये जो कहना चाहती हैं उसके लिए जो टेक्सचर और स्ट्रक्चर इनके पास है वह खुद में इतना पर्याप्त और शक्तिसंपन्न है कि इन्हें प्रभावी होने के लिए कहीं और मुंह नहीं मारना पड़ता। इनमें अपने प्राचीनों से बहुत कुछ ग्रहण करने के लक्षण नहीं हैं। गौरव के रचनालोक में उपस्थित कविताएं और कहानियां विषयवंचित होते हुए ‘एक-सा’ होने के कई जोखिम उठाती हैं, लेकिन इन्हें एक बार पढ़ना शुरू कर देने के बाद अधूरा छोड़ना संभव नहीं है। बहुत संभव है कि ये सबके लिए यादगार न हों, बहुत संभव है कि केवल इनके शीर्षक याद रह जाएं और शीर्षकों का टेक्स्ट आस्वादक की स्मृति में परस्पर अदल-बदल जाए। ये बहुत यादगार होने की हसरत या जुर्रत में नहीं हैं, लेकिन इनसे गुजरने वाले को ये फिर भी याद आएंगी... कभी बातचीत में या अकेलेपन में, कभी ऑफिस की उस रोज की तयशुदा पैदल यात्रा में या कभी ट्रेन या बस की विंडो सीट पर, कभी प्रेमिका को चूमते हुए या कभी सिनेमाघर में किसी फिल्म के मध्यांतर में, टी.वी. देखते या मॉल में टहलते हुए, पोर्नोग्राफी सर्च और सिस्टम शटडाउन करते हुए... ये यकीनन याद आएंगी और तब वह आस्वादक जो एक बार इनसे गुजर चुका है, एक युवा समय के संदर्भों को पुन: पाने और समझने के लिए यहां बार-बार लौटना चाहेगा।
‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ बरास्ते मंटो
‘यह अजीब बात है कि लोग उसे बड़ा विधर्मी, अश्लील व्यक्ति समझते हैं और मेरा भी खयाल है कि वह किसी हद तक इस कोटि में आता भी है। वह अक्सर बड़े गंदे विषयों पर कलम उठाता है और ऐसे शब्द अपनी रचनाओं में इस्तेमाल करता जिन पर आपत्ति की गुंजाइश भी हो सकती है।‘
(बकलम खुद : सआदत हसन मंटो)
‘जो लोग शरीर को निकृष्ट मानते हैं और दुनियावी प्रेम को पतित, दरअसल वे संसार से भागे हुए लोग हैं। वे उस गहरे अंधेरे गड्ढे को नहीं देखना चाहते जिसमें दिन रात जीवन का व्यापार चलता है और लोग एक दूसरे की पत्नियों के साथ सोते हैं। अपने बच्चों को सुलाकर उन्हीं के पास लेटे हुए सी.डी.प्लेयर पर ब्लू फिल्में देखते हैं। औरतें अपने बेटों की उम्र के लड़कों का सान्निध्य पाने के लिए उनके सामने अश्लील बातें फुसफुसाती हैं, शराब पीती हैं, अपनी महंगी गाड़ियों में घुमाती हैं और कामुक लाड़ से उन्हें छाती में भींच लेती हैं। जिंदगी एक पल्प फिक्शन है, फुटपाथ पर बिकने वाला सस्ता साहित्य।‘
(‘तुम्हारी बांहों में मछलियां क्यों नहीं हैं?’ कहानी से)
माफ कीजिएगा मैं कीमती वक्त ले रहा हूं, लेकिन यहां मुझे यह बता भी देना जरूरी लगता है कि गौरव सोलंकी के कहानी संग्रह को प्रकाशन से रोके जाने और इस थोड़े से तवील सिलसिले में उन्हें बेतरह परेशान किए जाने और अंतत: उनके ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से किताबें वापस ले लेने के पीछे कई अफवाहें व अंतर्कथाएं हैं, लेकिन इसका प्रकट कारण गौरव की कहानियों पर अश्लीलता का आरोप है और इनमें भी खासतौर पर पांडुलिपि की अंतिम कहानी ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ पर। यह ‘अश्लीलता का आरोप’ इतना ज्यादा अविश्वसनीय और हास्यास्पद है कि इसके आगे अफवाहें व अंतर्कथाएं ही सच लगती हैं, तब तो और भी जब यहां तक आते-आते वे सिद्ध भी होने लगी हैं।
अब बात ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की। यह कहानीकार की अब तक की सबसे अधिक प्रयोगशील कहानी है, लेकिन बोल्डनेस इससे अधिक इससे पहले की कहानियों में मिल जाएगी। ‘धुआं’, ‘बू’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘काली सलवार’, ‘खोल दो’, ‘ऊपर नीचे और दरमियान’... अश्लीलता के अभियोगों से लांछित भाषा इतनी आगे बढ़ आई है कि ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की भाषा को अश्लील नहीं कह सकते। यह नजर कहानी के विषय व मूल पाठ को कमजोर कर सकती है, तब तो और भी जब जादुई यथार्थवाद के सहारे बुनी गई इस कहानी की दृश्यात्मकता में भी नेकेडनेस या न्यूडनेस नहीं है। इसके मैसेज और पंक्तियों के मध्य के अलिखे को ठीक से पढ़ने के बाद बेशक यह कहा जा सकता है कि जो समय चल रहा है और जो समय प्रतीक्षित है, उस समय के लिए ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ बिलकुल भी अश्लील नहीं है। अश्लीलता इस कहानी में केवल नादानियों, नासमझियों और पूर्वाग्रहों की शर्तों पर खोजी और पाई जा सकती है, और ऐसा करने के लिए सब सतहजीवी स्वतंत्र हैं।
‘जैसाकि मैंने पहले भी कहा था कि जिंदगी एक पल्प फिक्शन है जो भी इसे उच्च आदर्शों वाले साहित्य में बदलने की कोशिश करेगा, उसे चारों तरफ से घेरकर मार डाला जाएगा। हमें जिंदा रहना है इसलिए हम कोशिश करेंगे कि अश्लील चुटकुलों पर हंसते रहें और अपने हिस्से की रोटी खाकर चुपचाप सो जाएं।‘
(‘तुम्हारी बांहों में मछलियां क्यों नहीं हैं?’ कहानी से)
गौरव की कहानियां उन सभी शर्तों को जो कहानी के असल कथ्य को प्रभावित करती हैं, मुंह चिढ़ाते हुए आगे बढ़ जाती हैं। ये जो कहना चाहती हैं उसके लिए जो टेक्सचर और स्ट्रक्चर इनके पास है वह खुद में इतना पर्याप्त और शक्तिसंपन्न है कि इन्हें प्रभावी होने के लिए कहीं और मुंह नहीं मारना पड़ता। इनमें अपने प्राचीनों से बहुत कुछ ग्रहण करने के लक्षण नहीं हैं। गौरव के रचनालोक में उपस्थित कविताएं और कहानियां विषयवंचित होते हुए ‘एक-सा’ होने के कई जोखिम उठाती हैं, लेकिन इन्हें एक बार पढ़ना शुरू कर देने के बाद अधूरा छोड़ना संभव नहीं है। बहुत संभव है कि ये सबके लिए यादगार न हों, बहुत संभव है कि केवल इनके शीर्षक याद रह जाएं और शीर्षकों का टेक्स्ट आस्वादक की स्मृति में परस्पर अदल-बदल जाए। ये बहुत यादगार होने की हसरत या जुर्रत में नहीं हैं, लेकिन इनसे गुजरने वाले को ये फिर भी याद आएंगी... कभी बातचीत में या अकेलेपन में, कभी ऑफिस की उस रोज की तयशुदा पैदल यात्रा में या कभी ट्रेन या बस की विंडो सीट पर, कभी प्रेमिका को चूमते हुए या कभी सिनेमाघर में किसी फिल्म के मध्यांतर में, टी.वी. देखते या मॉल में टहलते हुए, पोर्नोग्राफी सर्च और सिस्टम शटडाउन करते हुए... ये यकीनन याद आएंगी और तब वह आस्वादक जो एक बार इनसे गुजर चुका है, एक युवा समय के संदर्भों को पुन: पाने और समझने के लिए यहां बार-बार लौटना चाहेगा।
‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ बरास्ते मंटो
‘यह अजीब बात है कि लोग उसे बड़ा विधर्मी, अश्लील व्यक्ति समझते हैं और मेरा भी खयाल है कि वह किसी हद तक इस कोटि में आता भी है। वह अक्सर बड़े गंदे विषयों पर कलम उठाता है और ऐसे शब्द अपनी रचनाओं में इस्तेमाल करता जिन पर आपत्ति की गुंजाइश भी हो सकती है।‘
(बकलम खुद : सआदत हसन मंटो)
‘जो लोग शरीर को निकृष्ट मानते हैं और दुनियावी प्रेम को पतित, दरअसल वे संसार से भागे हुए लोग हैं। वे उस गहरे अंधेरे गड्ढे को नहीं देखना चाहते जिसमें दिन रात जीवन का व्यापार चलता है और लोग एक दूसरे की पत्नियों के साथ सोते हैं। अपने बच्चों को सुलाकर उन्हीं के पास लेटे हुए सी.डी.प्लेयर पर ब्लू फिल्में देखते हैं। औरतें अपने बेटों की उम्र के लड़कों का सान्निध्य पाने के लिए उनके सामने अश्लील बातें फुसफुसाती हैं, शराब पीती हैं, अपनी महंगी गाड़ियों में घुमाती हैं और कामुक लाड़ से उन्हें छाती में भींच लेती हैं। जिंदगी एक पल्प फिक्शन है, फुटपाथ पर बिकने वाला सस्ता साहित्य।‘
(‘तुम्हारी बांहों में मछलियां क्यों नहीं हैं?’ कहानी से)
माफ कीजिएगा मैं कीमती वक्त ले रहा हूं, लेकिन यहां मुझे यह बता भी देना जरूरी लगता है कि गौरव सोलंकी के कहानी संग्रह को प्रकाशन से रोके जाने और इस थोड़े से तवील सिलसिले में उन्हें बेतरह परेशान किए जाने और अंतत: उनके ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से किताबें वापस ले लेने के पीछे कई अफवाहें व अंतर्कथाएं हैं, लेकिन इसका प्रकट कारण गौरव की कहानियों पर अश्लीलता का आरोप है और इनमें भी खासतौर पर पांडुलिपि की अंतिम कहानी ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ पर। यह ‘अश्लीलता का आरोप’ इतना ज्यादा अविश्वसनीय और हास्यास्पद है कि इसके आगे अफवाहें व अंतर्कथाएं ही सच लगती हैं, तब तो और भी जब यहां तक आते-आते वे सिद्ध भी होने लगी हैं।
अब बात ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की। यह कहानीकार की अब तक की सबसे अधिक प्रयोगशील कहानी है, लेकिन बोल्डनेस इससे अधिक इससे पहले की कहानियों में मिल जाएगी। ‘धुआं’, ‘बू’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘काली सलवार’, ‘खोल दो’, ‘ऊपर नीचे और दरमियान’... अश्लीलता के अभियोगों से लांछित भाषा इतनी आगे बढ़ आई है कि ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की भाषा को अश्लील नहीं कह सकते। यह नजर कहानी के विषय व मूल पाठ को कमजोर कर सकती है, तब तो और भी जब जादुई यथार्थवाद के सहारे बुनी गई इस कहानी की दृश्यात्मकता में भी नेकेडनेस या न्यूडनेस नहीं है। इसके मैसेज और पंक्तियों के मध्य के अलिखे को ठीक से पढ़ने के बाद बेशक यह कहा जा सकता है कि जो समय चल रहा है और जो समय प्रतीक्षित है, उस समय के लिए ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ बिलकुल भी अश्लील नहीं है। अश्लीलता इस कहानी में केवल नादानियों, नासमझियों और पूर्वाग्रहों की शर्तों पर खोजी और पाई जा सकती है, और ऐसा करने के लिए सब सतहजीवी स्वतंत्र हैं।
‘जैसाकि मैंने पहले भी कहा था कि जिंदगी एक पल्प फिक्शन है जो भी इसे उच्च आदर्शों वाले साहित्य में बदलने की कोशिश करेगा, उसे चारों तरफ से घेरकर मार डाला जाएगा। हमें जिंदा रहना है इसलिए हम कोशिश करेंगे कि अश्लील चुटकुलों पर हंसते रहें और अपने हिस्से की रोटी खाकर चुपचाप सो जाएं।‘
(‘तुम्हारी बांहों में मछलियां क्यों नहीं हैं?’ कहानी से)
सब अपनी समझदारी चुनें और हैरान होंसब देखें रात को होते हुए और मर जाएंकागजों के बीच से उड़ते हुएमैं बचा ले जाऊंगा यह दुनिया, मुझे गुमान हैऔर रेत का बवंडर हैसबके पास अपने घर हैं, तब भीखत्म करो यह किस्सा, मुझे छुट्टी दो साहबमुझे बीमार पड़ना है और होना है हर उस जगह से अनुपस्थितजहां आप मुझे तलाशते हैं, चाहते हैं देखते रहना...
अब ‘वह’ इस दुर्गंध से दूर चला गया है। नहीं, उसने कभी हिंदी का एक लेखक बनना नहीं चाहा था। इतना निहत्था कि डर नहीं, चूमना और रोते जाना, डायल किया गया नंबर अभी व्यस्त है, शहर के जिस हिस्से में मैं अमर हुआ, बहुत दूर तक घेरकर मारते हैं पुराने सुख, हम अकेले खोद लेंगे सारे कुएं, आसमान फाड़ डालेंगे किसी दिन, कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं मां, कहीं और करेंगे हम अपने बच्चे पैदा... ये उसकी कविताओं के शीर्षक नहीं हैं और ‘सौ साल फिदा’ इस नाम से उसका कोई कविता संग्रह कभी प्रकाशित नहीं हुआ। उसने कभी हिंदी साहित्य नहीं पढ़ा। उसने कभी कहानियां नहीं लिखीं और न ही उसकी कहानियां कभी ‘तद्भव’, ‘नया ज्ञानोदय’ और ‘कथादेश’ में प्रकाशित हुईं और न ही उन पर कभी कोई प्रतिक्रियाएं आईं। उसने कभी कोई छह कहानियां नहीं चुनीं किसी पांडुलिपि के लिए और न ही इसे ‘सूरज कितना कम’ जैसा कोई शीर्षक दिया और न ही डेविड फ्लेक की कोई तस्वीर चुनी अपनी कहानियों की इस किताब के आवरण के लिए। नहीं, गौरव सोलंकी नाम का कभी कोई युवा रचनाकार हमारे बीच नहीं था और यहां तक आते-आते मुझे खुद नहीं पता कि यह सब मैं किस पर और क्यों लिख रहा हूं...। और यह भी कि उसने ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ को कभी कोई पत्र नहीं लिखा और न ही वह पत्र कभी ‘तहलका’ में छपा और न ही उसे बहुत सारे लोगों ने शेअर किया और न ही वह पत्र इस तरह समाप्त हुआ-
...मैं जानता हूं आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं। आपके यहां धर्म जैसा कुछ होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए मैं खुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से वापस लेता हूं। कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें। और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी मैं आग्रह कर रहा हूं कि अगर हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बंद कर दीजिए। सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं। लोग कहते हैं कि आपको नाराज करना मेरे लिए अच्छा नहीं। हो सकता है कि साहित्य के बहुत सारे खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े। लेकिन फिर भी यह सब इसलिए जरूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हजार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि भले ही हम भूखे मरें, लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी जुबान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिंदी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान और अमर हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं। तब तक हम शायद थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएं...।
...मैं हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को वैसे ही पीछे छोड़ देना चाहता हूं जैसे वे इस लेख में छूट गए हैं। लेकिन इंट्रो में कही गई बात को मुकम्मल करने के लिए लेख के आरंभ में प्रस्तुत रूपक को थोड़ा विस्तार देते हुए खुला छोड़ना जरूरी है तो हुआ यूं कि...
उसने अपने सहायक को समझाया कि बहुत कुछ गुस्से में आकर काटना पड़ता है, बहुत कुछ स्पेस की वजह से, बहुत कुछ दोस्तियों की वजह से, बहुत कुछ दुश्मनियों की वजह से, बहुत कुछ पूर्वाग्रहों की वजह से, बहुत कुछ डर की वजह से और बहुत कुछ चाटुकारिता की वजह से यहां-वहां जोड़ना भी पड़ता है... अच्छे से समझ लो हिंदी में संपादन सबसे मुश्किल विधा है।
एक दिवंगत परिवेश के बीच वह सामान्यताओं को महानताओं में रूपांतरित किया करता था। वह कुछ वास्तविक लगे इसलिए लगातार भौंकता रहता था, उस यथार्थ की रखवाली में जो सिर्फ उसकी आंखों को दिखता था। जबकि सच कुछ और था उसके सान्निध्य में जुटी गद्गद् भीड़ से बेहद दूर... उचित पाठ से वंचित, अंतिम समय तक भी संशोधित न हुआ जो, क्योंकि नजरअंदाजी में भी एक अंदाज होता है, और फिर क्यों न अंत तक बनी रहे एक ‘धैर्य’ की एक ‘कौशल’ में आस्था...।
एक दिन मेरी आंखों ने उसे पीछे से देखा था। वह एकदम नग्न था। वह वही था। मैं उसकी रीढ़वंचित पीठ से परिचित हूं, क्योंकि मैंने कई बार उसे भागते हुए देखा है। वह संभोग कर रहा था। उसके नितंब तीव्रता से हिल रहे थे। देख पाना इतना आसान नहीं था, मगर मेरी आंखें देखना चाहती थीं कि इस क्रिया में उसका सहायक कौन है- कोई स्त्री, कोई पुरुष, कोई पशु, कोई कविता, कोई कहानी, कोई पत्रिका... कौन था... बोलो कौन था... कौन कौन था... उसके आनंद में भागीदार...।
...मैं जानता हूं आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं। आपके यहां धर्म जैसा कुछ होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए मैं खुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से वापस लेता हूं। कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें। और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी मैं आग्रह कर रहा हूं कि अगर हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बंद कर दीजिए। सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं। लोग कहते हैं कि आपको नाराज करना मेरे लिए अच्छा नहीं। हो सकता है कि साहित्य के बहुत सारे खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े। लेकिन फिर भी यह सब इसलिए जरूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हजार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि भले ही हम भूखे मरें, लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी जुबान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिंदी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान और अमर हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं। तब तक हम शायद थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएं...।
...मैं हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को वैसे ही पीछे छोड़ देना चाहता हूं जैसे वे इस लेख में छूट गए हैं। लेकिन इंट्रो में कही गई बात को मुकम्मल करने के लिए लेख के आरंभ में प्रस्तुत रूपक को थोड़ा विस्तार देते हुए खुला छोड़ना जरूरी है तो हुआ यूं कि...
उसने अपने सहायक को समझाया कि बहुत कुछ गुस्से में आकर काटना पड़ता है, बहुत कुछ स्पेस की वजह से, बहुत कुछ दोस्तियों की वजह से, बहुत कुछ दुश्मनियों की वजह से, बहुत कुछ पूर्वाग्रहों की वजह से, बहुत कुछ डर की वजह से और बहुत कुछ चाटुकारिता की वजह से यहां-वहां जोड़ना भी पड़ता है... अच्छे से समझ लो हिंदी में संपादन सबसे मुश्किल विधा है।
एक दिवंगत परिवेश के बीच वह सामान्यताओं को महानताओं में रूपांतरित किया करता था। वह कुछ वास्तविक लगे इसलिए लगातार भौंकता रहता था, उस यथार्थ की रखवाली में जो सिर्फ उसकी आंखों को दिखता था। जबकि सच कुछ और था उसके सान्निध्य में जुटी गद्गद् भीड़ से बेहद दूर... उचित पाठ से वंचित, अंतिम समय तक भी संशोधित न हुआ जो, क्योंकि नजरअंदाजी में भी एक अंदाज होता है, और फिर क्यों न अंत तक बनी रहे एक ‘धैर्य’ की एक ‘कौशल’ में आस्था...।
एक दिन मेरी आंखों ने उसे पीछे से देखा था। वह एकदम नग्न था। वह वही था। मैं उसकी रीढ़वंचित पीठ से परिचित हूं, क्योंकि मैंने कई बार उसे भागते हुए देखा है। वह संभोग कर रहा था। उसके नितंब तीव्रता से हिल रहे थे। देख पाना इतना आसान नहीं था, मगर मेरी आंखें देखना चाहती थीं कि इस क्रिया में उसका सहायक कौन है- कोई स्त्री, कोई पुरुष, कोई पशु, कोई कविता, कोई कहानी, कोई पत्रिका... कौन था... बोलो कौन था... कौन कौन था... उसके आनंद में भागीदार...।
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4 टिप्पणियाँ:
एक निर्भीक और स्पष्टवादी समीक्षक - जिसकी आज के समय में सबसे अधिक ज़रुरत भी है. गौरव की कहानियां मैंने पढ़ी हैं और कविताएँ भी .. उनकी कहन की अपनी छाप है जो रचना में लेखक के नाम के बिना भी उनकी उपस्थिति दर्ज करवा देती है। = leena malhotra
बड़ा अच्छा लेख है। गौरव सोलंकी के पक्ष को पूरी तरह से पेश करता है। अविनाश मिश्र और सोलंकी दोनों को हार्दिक शुभकामनाएँ।
Adbhut avinash,tumhara likha padna us yakeen ki taraf lautna hai jo saalon se kshijta raha hai.gaurav ko cinema aur samayik cmnt ke alawe bahut kam pada par ise padne ke baad mauka milte hi padunga.
पूरा पढ़ा नहीं गया मुझसे ..जितना पढ़ा उतने में बस यही समझा कि बड़ी मेहनत की अविनाश ने सोलंकी के लिए .. बिना स्वार्थ कौन इतनी मेहनत करता है किसी के लिए .. पहले पढो उतना कुछ .. फिर फोन के कितने सेशन हुए होंगे और फिर इतना कुछ लिखना .. वैसे यह भी लगा कि सोलंकी के लिए बैटिंग करते हुए बयासी बॉल खेलकर बारह रन ही बना सका अविनाश .. खैर .. दुआ कि हर सोलंकी को एक अविनाश मिले .. शुक्रिया ..
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