विष्णु खरे
(इस टिप्पणी के पहले मसव्विदे को प्रकाशनार्थ ‘जनसत्ता’सम्पादक को भेजा गया था, जो आम तौर पर अपने निर्णय से शीघ्र अवगत करा देते हैं. लेकिन जब 48 घंटों तक कोई इत्तला न मिली तो यह शक़ हुआ कि शायद अपेक्षाकृत लंबा होने के कारण नहीं लिया जा सकेगा. इस पर लेखक ने सोचा कि अब किसी मेहरबान ब्लॉग पर ही देना पड़ेगा, लिहाज़ा उसने इसे संशोधित-परिवर्द्धित कर लिया. अचानक सम्पादक श्री ओम थानवी का सन्देश आया कि सूचना में देर हो गयी लेकिन इसे रविवार को ही लगा रहे हैं. सो उनके यहाँ तो उपरोक्त पहला मसव्विदा छपा, यहाँ वह सुधारा-बढ़ाया गया प्रारूप ‘जनसत्ता’ और उसके सुधी पाठकों से क्षमा-याचना सहित प्रस्तुत है - वि.ख़.)
हमारे पिछले सत्तावन बरस के मित्र अशोक (वाजपेयी, ’कभी-कभार’, ’जनसत्ता’, 9 जून) ने ‘नोबेल पुरस्कार की एक शती’ की शुरूआत ही एक बहुप्रचलित भ्रान्ति से की है. साहित्य का नोबेल पुरस्कार किसी भाषाविशेष के लेखकविशेष को उसके समग्र सृजनात्मक योगदान के लिए दिया जाता है, प्रशस्ति-भाषण में भले ही उसकी कुछ विशिष्ट कृतियों का उल्लेख हो. स्वीडी अकादेमी नोबेल समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर दिए गए आधिकारिक वक्तव्य में निस्संदेह ‘गीतांजलि’ को केन्द्रीय महत्व दिया गया है किन्तु ‘द गार्डनर’, ’लिरिक्स ऑफ़ लव एंड लाइफ़’, ’ग्लिम्प्सेज़ ऑफ़ बेंगाल लाइफ़’, ’द क्रिसेंट मून’ और ‘साधना : द रिअलाइज़ेशन ऑफ़ लाइफ़’ के नामोल्लेख भी हैं.
पिछले वर्ष से ही मैं 1913 के इस पुरस्कार के कुछ तथ्यों की खोज में था और एस्तोनिया की राजधानी तालिन में स्थित राष्ट्रीय पुस्तकालय में, जिसका कुछ वर्षों से में सौभाग्यशाली ‘पाठक सदस्य’ (‘रीडिंग मेम्बर’) हूँ, मई 2012 में मुझे स्वीडी अकादमी के वे दुर्लभ वार्षिक ‘ब्रोश्योर’ मिले जिनमें पुरस्कार-समिति के सदस्यों के परिचय, उनके निर्णय, विजेताओं के जीवन-वृत्त और भाषण प्रकाशित किए जाते हैं. पिछले 112 वर्षों की यह मूल स्मारिका-पुस्तकें भारत में शायद कहीं उपलब्ध नहीं हैं. इनमें सम्बद्ध वर्ष के पुरस्कार किसे क्यों दिए गए हैं इसका एक-पंक्तीय और कभी (विशेषतः विज्ञानों में) उससे भी कम, खुलासा भी छापा जाता है. ठाकुर के विषय में मूल फ्रैंच के इस कच्चे हिंदी अनुवाद में कहा गया है : ‘उस गहरी और उदात्त प्रेरणा, उस सौन्दर्य और नावीन्य के लिए, जिसका परिचय उनकी प्रतिभा, अंग्रेज़ी रूप-विधान में, पाश्चात्य साहित्य से करवा सकी’.
गौरतलब है कि स्वीडी अकादेमी कह रही है कि ठाकुर ने अंग्रेज़ी ‘फ़ॉर्म’ में, अनुवाद में नहीं, पश्चिम को अपनी प्रतिभा से परिचित करवाया. इसमें काफ़ी सचाई है. ठाकुर भी अपनी उस ‘गीतांजलि’ को, जिसकी ख्याति और लोकप्रियता के आधार पर उन्हें नोबेल दिया गया, अपनी मूल अंग्रेज़ी कृति ही मानते दिखाई देते थे. उस ‘गीतांजलि’ और कथित मूल बांग्ला ‘गीतांजलि’ में बहुत और महत्वपूर्ण फ़र्क़ है. कवि के जीवनकाल में ही दोनों में संशोधन भी होते रहे हैं.
एक विचित्र तथ्य है कि ठाकुर स्वयं पुरस्कार लेने स्वीडन नहीं गए. पुरस्कार-रात्रिभोज पर जो बहुत छोटा भाषण देना होता है उसकी जगह उन्होंने अकादेमी को एक एक-पंक्तीय तार अंग्रेज़ी में भेजा जिसे स्वीडन में ब्रिटिश दूतावास के तत्कालीन शार्ज़े-द’फ़ैर्स (कार्यभारी राजदूत) क्लाइव ने उपस्थित भद्रलोक को पढ़कर सुनाया. क्लाइव ने ही ठाकुर की अनुपस्थिति में उनका पुरस्कार भी ग्रहण किया. इससे भी अजीब वाक़या यह है कि ठाकुर ने अपना कोई नोबेल-स्वीकृति भाषण लिखकर नहीं भेजा कि अकादेमी का कोई निर्णायक या अधिकारी उसे उस ऐतिहासिक अवसर पर पढ़ सके. हाल के वर्षों में हमारी परिचिता ऑस्ट्रियाई उपन्यासकार-कवयित्री-नाटककार एल्फ़्रीडे येलीनेक ने, जिन्हें भीड़ के बीच जाने और उसके सामने बोलने से वहशत है, अपना नोबेल-भाषण वीडिओ कर के भिजवाया था और वही दिखाया-सुनाया गया. विलक्षणतम यह है कि स्वीडी अकादेमी का यह प्रकाशन कहीं कोई आधिकारिक कारण नहीं देता कि ठाकुर ऐसे अमर क्षण को जीने, अपना एक अद्भुततम भाषण देने स्टोकहोल्म क्यों नहीं पहुँचे. उसके एवज़ में स्वीडी अकादेमी नोबेल समिति के अध्यक्ष, मानद प्रोफ़ैसर डॉ. हाराल्ड ह्यैर्ने ने ठाकुर पर अपना एक अपेक्षाकृत लंबा भाषण दिया.
बहुत अफ़सोस है कि एडवर्ड सईद ने यह भाषण नहीं देखा वर्ना अपनी ‘ओरिएंटलिज़्म’ में, जो यूँ तो कोई बहुत संतोषप्रद पुस्तक नहीं है, कम-से-कम इसका ज़िक्र शायद वह करते. यह अध्यक्षीय उद्बोधन इतने अधकचरेपन, भ्रांतियों और कृपाभाव से भरा हुआ है कि खुद उस पर एक पुस्तिका लिखी जा सकती है. पता नहीं इसका अनुवाद बांग्ला में है या नहीं और उस पर अपने शोनार लेखकों की क्या प्रतिक्रिया रही, लेकिन इस शती-वर्ष में हिंदी में तो उसे लाया ही जाना चाहिए.
अव्वल तो इसमें ठाकुर को प्रथमग्रासे ही ‘एंग्लो-इंडिअन पोएट’ घोषित कर दिया गया है. ’गीतांजलि’ को निर्भीकता से ‘ए कलैक्शन ऑफ़ रिलीजस पोएम्स’ (‘धार्मिक कविता संग्रह’) माना ही गया है, उसे ‘अंग्रेज़ी साहित्य की थाती’ (‘हैज़ बिलॉन्ग्ड टु द इंग्लिश लिटरेचर’) बना दिया गया है. ठाकुर के बारे में कहा गया है कि वे ‘उस काव्य-कला के नए और प्रशंसनीय निष्णात हैं जो साम्राज्ञी एलिज़ाबेथ के युग से ब्रिटिश सभ्यता के प्रसार की अमोघ सहचरी रही है’ (‘ए न्यू एंड एन एड्मिरेबिल मास्टर ऑफ़ दैट पोएटिक आर्ट दैट हैज़ बीन ए नैवर-फेलिंग कॉन्कोमिटेंट ऑफ़ द एक्सपैंशन ऑफ़ ब्रिटिश सिविलिज़ेशन एवर सिंस द डेज़ ऑफ़ क्वीन एलिज़ाबेथ’). भाषण में भारत के पुनर्जागरण का पूरा श्रेय, जिसमें आधुनिक भारतीय भाषाओँ का उदय और विकास भी शामिल है, ईसाई मिशनरियों को, जिनके आंशिक योगदान से इन्कार तो नहीं किया जा सकता, दे दिया गया है. भक्ति आन्दोलन को भी पश्चिम के विदेशी धर्मों से अप्रभावित नहीं माना गया है. इससे बड़ा दावा ‘ब्राह्मो समाज’ के लिए किया गया है. ठाकुर को इस सब से प्रभावित, बल्कि इनका एक ‘प्रोडक्ट’-नुमा संत, दार्शनिक, धार्मिक व्यक्ति, लगभग एक पैग़म्बर, जैसा पेश करने में कोई कसर छोड़ी नहीं गई है.
वैसे अब नोबेल अकादेमी उनके पुरस्कार को बांग्ला को दिया गया कहती है लेकिन चूँकि नोबेल समिति में 1913 में कोई बांग्ला-लिपि को पहचानता तक न था इसलिए भाषा का सिर्फ़ एक उड़ता-उड़ता ज़िक्र इतिहास के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर ह्यैर्ने ने किया, वर्ना बांग्ला साहित्य की परम्परा का कोई उल्लेख उनके भाषण में नहीं है, संस्कृत सहित किसी अन्य भारतीय भाषा या साहित्य का नामोनिशान नहीं है - बीच में उनकी इतिहास-दृष्टि 1857 के संग्राम को कुचल दिए जाने की सराहना अवश्य करती है. यह मालूम करना मुश्किल है कि ठाकुर को इस पूर्वलिखित वक्तव्य का ज्ञान था या नहीं या यह उनकी अनुपस्थिति से प्रभावित था. बाद में उनकी इस पर क्या प्रतिक्रिया रही इसका भी कुछ पता नहीं चलता. ठाकुर बाद में 1920 के दशक में अवश्य दो बार स्वीडन गए.
दुर्भाग्यवश कुछ जटिल वजहों से 1925-30 तक पश्चिम के साहित्यिक हल्क़ों में ठाकुर की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा घटती गई, जबकि सब जानते हैं कि ‘गीतांजलि’ का नोबेलीय अंग्रेजी संस्करण गढ़ने और प्रचारित-प्रसारित करने में ठाकुर के कई मूल अंग्रेजीभाषी विदेशी मित्रों-प्रशंसकों का हाथ था जिनमें एज्रा पाउंड और बर्ट्रेंड रसेल सरीखे नाम भी थे, किन्तु उसका अधिकतर श्रेय सुविख्यात और स्वयं 1923 में नोबेल पानेवाले आइरिश-अंग्रेजी कवि विलिअम बटलर येट्स को दिया जाता है. बाद में येट्स भी ठाकुर के प्रतिकूल हो गए और 1935 में एक बार यूँ उबल पड़े : “भाड़ में जाए टैगोर.हम ( स्टर्ज मूर और मैं ) ने (उसकी) तीन बढ़िया किताबें निकालीं और फिर, क्योंकि उसने सोचा कि अंग्रेज़ी जानना महान कवि होने से ज़्यादा अहम है, तो उसने भावुकता-भरा कूड़ा छपवाना शुरू कर दिया और अपनी ख्याति को बर्बाद कर लिया. टैगोर अंग्रेज़ी नहीं जानता, कोई भी हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ी नहीं जानता’’. प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि फ़िलिप लार्किन ने तो 1956 में एक बार ठाकुर के नाम को बिगाड़ कर ‘रवीन्ड्रम’ किया और एकाध अश्लील शब्द भी कहा.
एक जीवित, शीर्षस्थ, महँगे कलाकार के नाम और पूँजी से चल रहे निजी ट्रस्ट द्वारा प्रस्तावित वैश्विक कवि-सम्मेलन के लिए, जिससे अंततः उसके चित्रों के दाम कुछ बढ़ेंगे ही, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की ख्वाबगाहों में ठाकुर की नोबेल शती का ढोल बजाना कितना उपयुक्त है यह तो भारतीय लेखक जानें लेकिन हम न भूलें कि तीनों (साहित्य, संगीत-नाटक और ललित कला) राष्ट्रीय अकादेमियाँ अब भी जिस नितांत अपर्याप्त कैटिल-क्लास कोरिया-तबेले जैसी इमारत में रँभा या रेंक रही हैं उसका नाम ठाकुर पर ‘रवीन्द्र भवन’ है और जिसमें घुसते ही उनकी (कुछ शरारती तत्वों का कहना है कि शर्म से) गर्दन-झुकाई शीर्ष-मूर्ति दीखती है. तो क्या इन निकम्मी अकादमियों को भी इस वर्ष कुछ करना नहीं चाहिए? क्या ‘गीतांजलि’ के सभी ठाकुर-अधिकृत संस्करणों को, जिनमें ‘फैक्सिमिली’ भी शामिल हों, एक ही जिल्द में नहीं छापा जा सकता? और अशोक को यह क्यों नहीं सूझा कि अपना व्योमेश जो ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’ के लोकप्रिय किन्तु प्रभाव में संदिग्ध समझे जा सकने वाले निजी मंचनों तथा श्रीकांत वर्मा के शोधन में अपना त्रैलोक्य नष्ट करता घूम रहा है, उसे ‘गीतांजलि’ का भी कोई अकल्पनीय नाट्य-रूपांतर ‘असाइन’ कर दें और लगे-हाथ ममतादी से भी ‘मैचिंग ग्रांट’ ले लें? कपिल सिब्बल और नरेंद्र मोदी की तरह वे भी तो कवि हैं. यूँ शुरूआती कवि-छँटाई हो जाए तो इस बार भारतीय भाषाओँ से छः ही और पकड़ने रह जाएँगे. अगले आम चुनावों के बाद तो रेसकोर्स रोड पर सब-कुछ नमो-नारायणी हो ही जाएगा. बल्कि तब विश्व के सभी वर्तमान और पूर्व सत्तारूढ़ नेता-कवियों का अद्वितीय, ऐतिहासिक, अमर सम्मेलन भी बुलाया जा सकता है. जयपुर, हैबिटाट, सिक्किम आदि एक झटके में लज्जित-पराजित हो जाएँगे.
गंभीर मसला यह है कि बांग्ला पाठकों को छोड़कर ठाकुर को अब, मेरी ही तरह, लगभग न कोई पढ़ता है न पढ़ना चाहता है. विश्व-साहित्य में फ़िलहाल उनकी ख्याति ऐतिहासिक है, जीवंत नहीं. मैं निर्लज्ज, बेपशेमान धृष्टता से कह चुका हूँ कि मेरे लिए आज भारत में ठाकुर से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक नामदेव ढसाल जैसा युगप्रवर्तक दलित है, जिसकी कविता और संदिग्ध, बल्कि आपत्तिजनक, राजनीतिक चाल-चलन एक तीखा वाद-विवाद निर्मित तो करते हैं. इसी सदी-अवसर को भुनाने के लिए ठाकुर की कुछ किताबें अंग्रेज़ी में ज़रूर छपी हैं लेकिन बहुत सीमित संस्करणों में. फ्रांस में तो कभी-कभार सुनने में आता है कि जबसे हिंदी से एक सबाल्टर्न एवज़ी खोज लिया गया है, ठाकुर को लोग भूल रहे है, भले ही, उदाहरणार्थ, यहाँ टीटीनगर में भी उसका उदय न हुआ हो. बहरहाल, तथ्य यह है कि ठाकुर का समानधर्मा कवि ख़लील जिब्रान अब भी उनसे हज़ारों गुना ज़्यादा ख़रीदा-पढ़ा जाता है जबकि जिब्रान और ठाकुर दोनों को संसार के प्रासंगिक,वास्तविक साहित्य के क्षेत्रों में पिछले कई दशकों से कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेता. एक विचित्र संयोग है कि इसी वर्ष जिब्रान की 130वीं जयन्ती है और बीसियों अनुवादों और करोड़ों प्रतियों में बिक चुकी उनकी ‘गद्यकाव्य’ कृति ‘दि प्रोफ़ेट’ की 90वीं वर्षगाँठ भी, जो शेक्सपियर-समग्र के बाद संसार में अब भी सबसे अधिक बिकनेवाली दूसरी साहित्यिक पुस्तक कही जाती है.
गंभीर मामला यह है कि जो विदेशी कवि आएँगे वे नोबेल-पुरस्कार की इस हीनभावग्रस्त गुलामी, महिमा-मंडन और परस्तिश पर ब्रेष्ट के लहज़े में ऐसे दरिद्र मेज़बान देश पर दया ही करेंगे जिसे इस ईनाम की इतनी भूख है. मुझे पूरा यकीन है कि उनमें से कई ने न ठाकुर को पढ़ा होगा न पढ़ना चाहते होंगे, शर्मा-हुज़ूरी में आप भले ही सार्वजनिक रूप से उनसे अस्फुट कुछ कहलवा लीजिए. यदि उन्होंने कहीं ठाकुर की आलोचना कर रखी होगी तो अलग तरह के विवाद और संकट खड़े हो सकते हैं – राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री अपने सबसे महांन कवि के आशंकित विदेशी निंदकों की अंतर्राष्ट्रीय काव्य-कान्हा-यात्रा को किसी दो कौड़ी के हिन्दी प्रकाशक की तरह मनसे तो सब्सिडाइज़ नहीं कर सकते. यह बात अलग है कि यदि यह भारत के दूसरे साहित्य-नोबेल के लिए एक मुजराना लॉबीइंग का हिस्सा है तो वह शायद स्वयं आयोजक, या कुँवर नारायण, या सच्चिदानंदन, या किसी स्वयंभू अन्य उम्मीदवार को मिल ही जाए. हालाँकि हिंदी के कुछ अन्य जाहिल आशावादियों की तरह मैं भी सोचता हूँ कि यदि वह मिलेगा तो मंगलेश डबराल को, जिनके बारे में उनके कॉकस ने वैसी भविष्यवाणी भी कर दी है, हालाँकि जो इस पर भी कमोबेश मनस्सर करता है कि अशोक उन्हें अपने विश्व-कवि-सम्मेलन में क्या रोल देते हैं, या, श्रीकांतजी के लहज़े में, देता भी है या नहीं देता है काल. क्या उन्हें मेहमानों के अनुवाद करने-पढ़ने या रसरंजन तक में घुसने नहीं दिया जाएगा?
खैर, इस तरह की सुपरिचित छिछोरी बातें छोड़ें और फिर से कुछ संजीदगी की बातें करें. मैं नोबेल पुरस्कार को कोई महत्व नहीं देता. आप स्वयं देख लीजिए कि अब तक के सौ से ज़्यादा विजेताओं में से कितनों को दुनिया जानती है, याद करती है, पढ़ती है? क्या वे सभी अनिवार्य है? भारत में उनके कितने अनुवाद हुए हैं और उपलब्ध हैं? सच तो यह है कि नोबेल पुरस्कार सहित अन्य सभी पुरस्कारों में भी गुणवत्ता-श्रेणियाँ बन जाती हैं, बन चुकी हैं – उनमें से कुछ ही असंदिग्ध रूप से दीर्घकालीन श्रेष्ठ या प्रासंगिक माने जाते हैं. क्या हम अपनी सारी भाषाओँ के ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी और सैकड़ों अन्य सरकारी-ग़ैर-सरकारी पुरस्कारों के विजेताओं को जानने, स्मरण रखने या पढ़ने लायक समझते हैं? सबसे बेरहम और स्पष्टवादी टिप्पणीकार और निर्णायक तो काल होता है और वह उनमें से अधिकांश अभागों को विस्मृति या इतिहास के कोशीय कूड़ेदान में फेंक चुका है. वह रोज़ यही करता है.
फिर भी यदि भारत को नोबेल न मिलना एक राष्ट्रीय शर्म है, जबकि पिछले 66 साल से डेली बेसिस पर अखबार का मुखपृष्ठ बता रहा है कि असल में वह क्या होती है, तो अशोक को चाहिए कि यदि उनकी इतनी रसाई है तो वह राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-वित्तमंत्री-संस्कृतिमंत्री से पचास करोड़ का एकमुश्त अनुदान प्राप्त कर एक भारतीय साहित्य अनुवाद और प्रकाशन संस्थान का निर्माण करवाएँ, जिसका पहला काम हो हमारे साहित्यों के विदेशी भाषाओँ में अनुवाद और प्रकाशन को सब्सिडाइज़ करना, जो आज अदना-से-अदना देश कर रहा है. ठाकुर के युग में ही नहीं, आज भी स्वीडी अकादेमी के पास भारतीय साहित्यों का कोई विद्वान नहीं है, व्यापक सलाह वह कथित रूप से ज़रूर लेती रहती है – लेकिन साहित्य अकादेमी से भी! वह बड़ी यूरोपीय भाषाओँ में भारतीय साहित्यों के सीधे अनुवाद स्वयं पढ़ना चाहती है. जब तक किसी भारतीय लेखक की न्यूनतम पाँच-छः कृतियों के अनुवाद उसे इंग्लिश के अलावा जर्मन, फ्रैंच, स्पैनिश, इतालवी, रूसी, स्वीडी आदि में नहीं दिखेंगे, तब तक वह महज़ रविवारी सैंटरस्प्रैड पर छपे अखबारी कॉलमों पर तो कुछ लाख यूरो लुटाने से रही.
कठिनाई यह है कि भारत में ऐसी कोई भी संस्था चला पाने वाले किसी भी आयु-वर्ग के योग्य, ईमानदार, कल्पनाशील और परिश्रमी व्यक्तियों की एक टीम का मैं दुखद दुर्भिक्ष देखता हूँ. हमारे सामने केंद्र और राज्य स्तर की सारी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ नष्ट हो चुकी/रही हैं. उनपर अधिकांशतः अकल्पनीय नामाक़ूल और बदमाश लोगों का पुश्तैनी माफ़िआई कब्जा है. अयोग्य अनुवादक और बेईमान प्रकाशक – इस दूसरी नस्ल के जंतु विदेशों में भी पाए जाते हैं, भले ही इतनी बहुतायत में नहीं – ऐसी संस्था को धोखा भी दे सकते हैं. फिर हमारे यहाँ भाषा-बाहुल्य से और सौतिया समस्याएँ पैदा कर दी जाती हैं. हम जानते हैं कि हिंदी कुख्याति को उचित-ही न्यौता देती है लेकिन लस्टम-पस्टम काम भी उसमें सबसे ज्यादा होता रहता है – साहित्य अकादेमी जैसी पतनशील संस्था तक के अधिकांश प्रकाशन हिंदी के ही हैं. उसे विदेश में भी भारत की सबसे महत्वपूर्ण भाषा माना और सर्वाधिक पढ़ाया जाता है.अनुवाद भी अधिकतम उसी से होते हैं. नैट के सर्च-इंजिनों पर भी दक्षिण एशियाई भाषाओँ में वही ज़्यादा दिखाई देती है. जो भी हो, सारी समस्याओं के बावजूद भारतीय साहित्यों के विदेशी अनुवादों के लिए एक ऐसा फाउंडेशन यथाशीघ्र स्थापित होना ही चाहिए. ठाकुर की आरती-अरदास और झाँझ-मँजीरे एक सही अनुपात में होते रहें तो होते रहें. इस फाउंडेशन की मदद से स्वयं ठाकुर की पुस्तकों के नए अनुवाद भी होते रहेंगे क्योंकि वह सारे काल-खण्डों की सारी ऐसी पुस्तकों के लिए होगा जिन्हें विदेशी प्रकाशक अपनी भाषा में पठनीय और विक्रेय समझेंगे. वही अनुवाद्य पुस्तकें भी चुनेंगे. इसी तरह एक सम्मान्य मात्रा में भारतीय साहित्य वैश्विक पाठकों और नोबेल समिति के दिलजले निर्णायकों तक पहुँचेगा, जो कुछ नहीं तो जीवदयावश किसी देसी लेखक को मिल ही जाए. उसके लिए सामासिक अशोक, उद्-भावुक मंगलेश डबराल और अन्य उम्मीदवारों तथा उनके शिविरों के बीच जो जानलेवा संघर्ष मचेगा वह लोमहर्षक होगा. लेकिन चूँकि सी.आइ.ए. की नज़र भी ऐसी चीज़ों पर रहती है इसलिए बेहतर होगा कि एक ओर मंगलेश, जो उस आयोवा राइटिंग प्रोग्राम में हो आए हैं जो आंशिक रूप से सी.आइ.ए.–फंडेड माना जाता है, कमलेश की सार्वजनिक निंदा को मुल्तवी कर दें और दूसरी ओर अशोक ऐसी संदिग्ध, भले ही स्वयं के लिए ’यूज़-एंड-थ्रो’, संस्थाओं में अपनी कविता का परचम फहराने न जाएँ, जहाँ कुछ उचक्के ब्लैकमेलर-नुमा छोटू-भैया उनके साथ फ़ोटू खिंचवा लें और उसे Fa(e)ce(s)book की उस मल-मूत्रीय (हिं)दी-वाल पर लगा दें जिसे तत्काल भिगोने कई चिल्हर समानधर्मा भी जुट जाएँ और ऐसे व्यक्तियों से, जिनका कोई लेना-देना अशोक की इस तरह की शरारती हरकतों से कभी नहीं रहा, खुद चित्र भेजकर पूछें कि अब बताओ अशोकजी हमारे अँगने में क्यों आए और ऐसा गंदी तस्वीर भी खिंचा गए? इस तरह के स्खलनों से नोबेल पुरस्कार ख़तरे में पड़ सकता है.
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2 टिप्पणियाँ:
बहुत शानदार लेख। रवीन्द्रनाथ ठाकुर और नोबेल पर लगभग सभी जानकारियां हिंदी के लिए नई हैं। यह अब एक स्थापित तथ्य है कि कई इलाक़ो में हमारे अनपढ़पन में खरे जी अकसर ज़रूरी सुधार करते रहे हैं।
और यही मैं भी लगातार कह रहा हूं इधर जो खरे जी ने कहा कि ''अपना व्योमेश जो ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’ के लोकप्रिय किन्तु प्रभाव में संदिग्ध समझे जा सकने वाले निजी मंचनों तथा श्रीकांत वर्मा के शोधन में अपना त्रैलोक्य नष्ट करता घूम रहा है''
हम लोग अनजाने ही उस मनसे तत्व का शिकार हो गए थे पर मैंने कई जगह अनजाने हुई उस दुर्घटना की सार्वजनिक माफी मांगी थी...अशोक जी जानते बूझते गए हैं और अब इसे कई तरह से अपना अधिकार भी बता चुके हैं।
बहरहाल, यह प्रकरण हमारी सकारात्मकता को ही नष्ट कर रहा है। मैंने सभी हमउम्र मित्रों से कहा भी है कि फेसबुक पर नहीं, अगर कहना है तो अशोक जी या कमलेश जी कविता पर आलोचना लिख कर कुछ कहो, जिसका कोई गंभीर महत्व हो भी सकता है। फेसबुक पर छीछालेदर के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता।
इस लेख के लिए खरे जी को सलाम और शुक्रिया - ठाकुर के सन्दर्भ में बार-बार पढ़ने के लिए मैंने इसे सम्भाल लिया है। सिद्धान्त का भी धन्यवाद।
विष्णु खरे का लेख खोजपूर्ण और उत्तेजक है ,पर उस की भाषा कई जगह गाली की सीमा तक अभद़ है । पर उन का यह सुझाव महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय भाषाओं की रचनाओं के व्यापक अनुवाद कराने की व्यवस्था के बाद ही स्वीडिश अकादमी के कानों पर जूँ रेंग सकती है । पर तब भारत सरकार का ट्रान्ललेशन कमीशन बीच में कूद कर अड़ंगा लगा सकता है ।
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