[पिछले महीने अविनाश मिश्र ने संज्ञा-क्रिया-तथाकथित परम्परा उमाशंकर चौधरी पर बेबाक़ आलोचनात्मक लेखन किया था. इस दफ़ा उनकी नज़र
समकालीन कहानी पर है, बहाना हैं कुणाल सिंह, उनका संग्रह और सभी पुरस्कार. यहाँ युवा कथाकारों का दो टूक विश्लेषण
उपस्थित है, एक नए और बेहद पाक़ खून ने कहानियों में हो रहे
या नहीं हो रहे समझौते अपने सामने देखे हैं, इस लिहाज़ से यह
यहाँ नामित हर कथाकार का एकदम अन-बायस्ड और नेकदिल विश्लेषण है. 'समकालीन सरोकार' में कुछ दिनों पहले इसी लेख का
संपादित रूप प्रकाशित, लेकिन यहाँ उपस्थित टेक्स्ट पूर्णतः
असंपादित. बुद्धू-बक्सा आलोचना के ऐसे प्रयासों में हमेशा साथ रहा है, और हिन्दी की उस सभ्यता का पुरज़ोर विरोध करता है जिसमें आलोचनाएं
व्यक्तिगत हो जाती हैं. बहरहाल, अविनाश सामने हैं, बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी]
नई उम्र की नई फसल
‘आप सबका शुक्रिया, आज के अखबार से पता चला कि मुझे 'साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार' मिला है, इस बार अपने उपन्यास 'आदिग्राम उपाख्यान' पर।‘ युवा कहानीकार और अब उपन्यासकार भी कुणाल सिंह 21 दिसंबर 2012 को अपनी फेसबुक वॉल पर यह लिखते हैं।
यह 'समाचार' लिखे जाने तक इस स्टेटस पर आए लगभग एक जैसे 235 कमेंट्स में से एक कमेंट यह था- 'झूठ क्यों बोलते हो कुणाल? मैंने तो तुम्हें कल ही बधाई दे दी थी।' हालांकि इस कमेंट के अंत में ‘स्माइली’ लगाकर इसमें मौजूद सच को दबाने की गैरजरूरी और नाकामयाब कोशिश की गई है, लेकिन फिर भी सच छुपता नहीं है, इन दिनों में तो और भी नहीं। यह कमेंट कुणाल सिंह से थोड़े उम्रदराज युवा कहानीकार शशिभूषण द्विवेदी का था।
हिंदी साहित्य में इस वर्ष का पुरस्कार घोषित होते ही, अगले वर्ष का पुरस्कार किसे मिलेगा यह तय हो जाता है। मुझे पढ़ रहे दोस्तों को शायद इस बात का यकीन नहीं हो रहा होगा, हालांकि यह मानने की कोई वजह नहीं है, मगर फिर भी मैं बताता हूं कि कैसे- अगले वर्ष का 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान' चंदन पांडेय को, 'भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार' अच्युतानंद मिश्र को और 'लमही सम्मान' जिसके निर्णायक विजय राय, आलोक मेहता, महेश भारद्वाज और सुशील सिद्धार्थ जैसे 'महान' लोग हैं, मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिल जाने के बाद आगामी ‘कथा यू.के. सम्मान’ भी उन्हें ही मिलेगा। मनीषा जी को इसके लिए अग्रिम बधाई। खुलासे तो अभी और भी बहुत से किए जा सकते हैं, लेकिन तथ्य को प्रामाणिक बनाने के लिए मुझे लगता है कि इतने ही काफी हैं। ऐसे में जो पहले भी कहीं कहा है उसे यहां फिर दोहरा देना जरूरी लगता है कि हिंदी साहित्य को अब एक बड़े 'पुरस्कारातीत संघर्ष' की जरूरत है।
इस युवा-युवा कोलाहल में हिंदी साहित्य के कुछ युवा रचनाकार बहुत जल्द ही वह सब कुछ 'झपटने' में कामयाब हुए हैं, जो इनके ढीठ, दंभी, कटखने पूर्वजों को वर्षों के अनथक अध्यवसाय व श्रम के बाद प्राप्त हुआ या नहीं हुआ था। युवावस्था की इन गलतियों और कुसंगति के उलट यदि इनके पूर्वज संयम की जगह खुशामद, रियाज की जगह छपास और विनम्रता की जगह पलटवार को तरजीह देते या इसमें यकीन रखते तब शायद आज की यह युवा पीढ़ी अपने जीवन और लेखन दोनों में ही इतनी अविश्वसनीय, भ्रष्ट व चालू प्रतीत न होती।
2006 में कहानी विधा में और 2010 में उपन्यास विधा में 'भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार' हासिल करने वाले कुणाल सिंह के उपन्यास 'आदिग्राम उपाख्यान' पर कुछ कहने से पहले थोड़ी सी बातें इस उपन्यास को और 'महत्वपूर्ण' बनाने वाले 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान-2012' पर। इस पुरस्कार के लिए उस दिन से ही लॉबिंग शुरू हो गई थी, जिस दिन यह पुरस्कार उमाशंकर चौधरी ने ‘हासिल’ किया था। इसमें सबसे बड़ी रुकावट था कुणाल सिंह की ही तरह युवा कहानीकार और उनके ‘भूतपूर्व’ यार गौरव सोलंकी का कहानी संग्रह 'सूरज कितना कम' जिसे आज के वक्त में एकदम बेमानी 'अश्लीलता' का आरोप लगाकर प्रकाशन से रोका गया। इस किताब की कहानियां 'आदिग्राम उपाख्यान' को पछाड़ कर रख देने वाली हैं। इस दुरभिसंधि पर विस्तार से बात होनी चाहिए। और उस दुरभिसंधि पर भी जिसके चलते उपन्यास विधा पर ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार पंकज सुबीर को 'आदिग्राम उपाख्यान' से बांटना पड़ा था, वर्ना 'ये वो सहर तो नहीं' को यह पुरस्कार पूरा मिल रहा था।
फिलहाल अब बातें 'आदिग्राम उपाख्यान' की। 2010 में आए इस उपन्यास को 2009 में आई युवा पत्रकार पुष्पराज की 'नंदीग्राम डायरी' का आभार अदा करना चाहिए था, जोकि इस उपन्यास ने नहीं किया। इस उपन्यास का क्लाईमेक्स 'नंदीग्राम डायरी' से हद से ज्यादा मुतासिर है, इतना कि संदेह होता है। 'आदिग्राम में नंदीग्राम की छायाएं हैं' यह कहते हुए इस उपन्यास की भाषा पर बात करें तो यह रेणु, निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल का घोल है, जिन्हें लिक्विड में इंटरेस्ट नहीं है वे इसे मिक्सचर भी कह सकते हैं।
'आदिग्राम उपाख्यान' इसी शीर्षक से प्रकाशित कुणाल की पहली कहानी और उनके पहले कहानी संग्रह 'सनातन बाबू का दाम्पत्य' में शामिल एक लंबी कहानी का विस्तार व परिमार्जन है। लेकिन कुणाल सिंह जैसे कहानीकारों को यह समझना होगा कि उपन्यास एक जटिल और श्रमसाध्य विधा है। ऐसे में उस हाथ को जो अभी लंबी कहानी में ही ठीक से साफ नहीं हुआ है, उपन्यास में आजमाना उचित नहीं है।
जादुई यथार्थवाद जैसे फैशनेबल टूल और किरदारों के अंधविश्वासों के सहारे आगे बढ़ते इस उपन्यास में जबरन बिगाड़ दिए शब्द और वाक्य हैं जो पेज दर पेज प्रभाववंचित पैराग्राफ्स रचते हैं। बकौल रवींद्र कालिया, कुणाल शब्दों से खेलने वाले कहानीकार हैं, लेकिन कुणाल को अब यह अच्छी तरह से जानना होगा कि शब्द खेलने की चीज नहीं हैं। जब आप कहानियों के भीतर कई कहानियां सुनाना चाहते हैं, तो किस्सागोई का जरूरी हुनर भी आपको आना चाहिए, अन्यथा कहानियां ब्यौरों से आगे नहीं बढ़ पातीं। यहां असर साफ पहचाने जाते हैं और मौलिकता दगा दे जाती है। और फिर यह खबरों या घटनाओं को इस तरह से साहित्य में 'सेव' करने का दौर भी नहीं है। यह रीत बीत गई मेरे दोस्त। यह सुविधा आपको अपनी कहानियों को लंबी करने और लंबी कहानियों को उपन्यास करने की छूट तो दे देती है, लेकिन कथ्य में कुछ अनूठा करने की गुंजाइश नहीं रहने देती। इस वजह बेवजह दोहराव भी बेहद आते हैं और भटकाव भी।
कहानी में एक और कहानी। कथा के पीछे एक दूसरी ही कथा। पहली की पूरक नहीं, एक बिलकुल ही अलग। इस तरह कथाओं का अनुवर्तन करतीं एक पर एक कई कथाएं, कि कोई ओर-अंत ही न सूझता। और कथाएं भी कैसी ? सुनने वाले को एकबारगी विश्वास ही न हो, ऐसी एकदम से अनोखी। कई बार तो लगता, परिमलेंदू दा अपनी इन कथाओं की अविश्वसनीयता को खुद ही भांप जाते हैं और जान-बूझकर एक दूसरी कथा के उड़ते रेशे पकड़ने लगते हैं। कहानी कहते हुए ही उनके मुंह में संशय का एक छिछोरा स्वाद घुलने लगता होगा। उन्हें महसूस होता होगा कि सामने वाला उनकी कथा की नंगई अचानक साफ-साफ देखने लगा है।
परिमलेंदू दा में ‘उपन्यासकार’ की छवि है और पता नहीं किस 'लेखक' ने इस उपन्यास का ब्लर्ब लिखा है जो कहता है कि इस उपन्यास में कुणाल की लेखनी का जादू अपने उत्कर्ष पर है। यहां इतना और जोड़ देना चाहिए कि कहीं-कहीं यह उपन्यास इतना उबाऊ है कि इसके अंतिम पृष्ठ तक पहुंचने की पाठकीय चाह इसके कुछ पृष्ठ छोड़ देने पर विवश करती है। और यहां आकर यह कहना पड़ता है कि 'क्या 'आदिग्राम उपाख्यान' उपन्यास है।' मैं इनवर्टेड कॉमा में लिखे गए इस वाक्य के आगे प्रश्नचिन्ह(?) नहीं लगा रहा हूं, मैं इसका जवाब भी दे रहा हूं... दरअसल, यह उपन्यास है नहीं इसे उपन्यास बनाया गया है।
उपन्यासों सरीखी लंबी कहानियां लिखने वाले और लंबी कहानियों को उपन्यास कहकर छपवाने वाले हिंदी साहित्य के युवा रचनाकारों में 'स्मार्टनेस' ज्यादा है, 'जेनुइननेस' नदारद। नामालूम इस 'फेकनेस' में वह 'रीडिंग प्लेजर' कहां बिला गया है जो इन युवाओं की शुरुआती कहानियों की जान हुआ करता था। इस संदर्भ में मुझे सीधे-सीधे पांच नामों से शिकायत है। इनमें सबसे पहले कुणाल सिंह का नाम है, इसके बाद जैसा कि 'परंपरा' है कि कुणाल सिंह के बाद चंदन पांडेय का नाम लेना ही लेना पड़ता है, सो यहां भी है। तीसरा नाम नीलाक्षी सिंह का है। चौथा नाम शशिभूषण द्विवेदी का है और पांचवां प्रत्यक्षा का।
इसके अतिरिक्त कुछ कहूं तो राकेश मिश्र सिर्फ दो कहानियों के कहानीकार हैं, हालांकि यह भी कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन उनसे उम्मीदें वैसे ही पाली जा सकती हैं, जैसे चार कहानियों के कहानीकार मनोज कुमार पांडेय से और केवल एक कहानी के कहानीकार विमल चंद्र पांडेय से। श्रीकांत दुबे नाम का भी एक 'कहानीकार' है, लेकिन वह नाराज क्या करेगा जब उसने कभी खुश ही नहीं किया। दुर्गेश सिंह और रविंद्र आरोही अभी साहिब-ए-किताब नहीं हैं, लेकिन संभावनाशील हैं। मैं जानता हूं कि यहां कुछ नाम छूट रहे हैं, चलिए ले लेता हूं- मनोज रूपड़ा, सत्यनारायण पटेल, भालचंद्र जोशी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज मित्र, अल्पना मिश्र, प्रभात रंजन, गीत चतुर्वेदी, रवि बुले, राजीव कुमार, उमाशंकर चौधरी... जैसे प्रौढ़ युवाओं की बहुत लंबी होती जा रहीं कहानियों का स्तर एक निरंतरता में गिर रहा है। और ऐसे में ज्योति कुमारी जैसी अन्य कुमारियां हिंदी कहानियों के साथ वही कर रही हैं, जो 'हंस' ने स्त्री-विमर्श के साथ किया।
मैं जानता हूं कि अब भी बहुत कुछ छूट रहा है। चंदन पांडेय ने अपनी किसी कहानी में कहा है कि नाम गिनवाने में नाम छूटने के खतरे ज्यादा रहते हैं। मैं ऐसा महसूस करता हूं कि यह बात बिलकुल ठीक है, फिर मैं नाम गिनाने वाला, शिकायत करने वाला होता भी कौन हूं। और फिर इस दौर के एक सबसे जुदा युवा कहानीकार अनिल यादव इस बात के मोहताज तो हैं नहीं कि कोई कहीं उनका नाम गिनवाए, उन्हें 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान' दिलवाए... न दिलवाए... वैसे इस यायावर लेखक को मेरा सुझाव है कि वे दिल्ली को छोड़कर फिर कहीं और की यात्रा पर निकल लें क्योंकि फिलहाल दिल्ली में विचारों की कमी है...।
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7 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छे... यानी दिल्ली में रहनेवालों के लिए भी दिल्ली दूर है... साहित्य में गणित का घालमेल बहुत अच्छा विषय है... लेकिन गणित को ही साहित्य बनाना सही नहीं है... हमारे नए कहानीकारों को यह समझना होगा... अन्यथा वे साहित्यकार की जगह गणितज्ञ बन जाएँगे... अपने पुरखों से सीखें तो साहित्य लिखना सीखें, उनके गणितज्ञ रूप से बचें... वैसे भी 'उनके' दिन लद चुके हैं, जो इन युवा रचनाकारों की रचनाशीलता को 'हिसाबी' साहित्य में तब्दील कर रहे हैं... वक्त किसी को नहीं बख़्शता...
अनिल यादव मेरी जानकारी में दिल्ली में नहीं रहते। वैसे पूरा आलेख पढ़ने में मजा आया।
yo yo kunal singh
भाई लेख में वे सभी तत्व हैं जो किसी भी लेख को रुचिकर बनाते हैं। मगर आपके लेख से लगता है कि आपको इस बात का बिल्कुल ज्ञान नहीं है कि हिन्दी कहानी अब वैश्विक होती जा रही है और भारत के बाहर भी अच्छी हिन्दी कहानी लिखी जाती है। या तो आपको पढ़ने का समय नहीं मिला या फिर शायद आप भी उसे मुख्यधारा की कहानी के साथ ना रखते हुए उसे प्रवासी कहानी की बैसाखी का सहारा देना चाहते हैं।
रोचक ! .... युवा कहानी के अँधेरे कमरे की नग्न आकृतियों पर भक्क तीन सेलवा टॉर्च बार दिए आप तो .. एन्ने वोन्ने चद्दर की खींचातानी चलेगी अब ..
पर एक बात कहूँगा अविनाश .. केकरो पकडिये तो अकेले घेर कर मारिये .. जैसे पिछली बार किये थे गुरु चेला के साथ .. दू चार गो को एक साथ छेडिएगा तो सब अपना अपना दांत सटाकर एगो बड़का सींग बना लेगा और फिर आपको ही रगेदना शुरू कर देगा .. ;-)
शुक्रिया आपको भी सिद्धांत महोदय आपके 'बुद्धू बक्सेपने' के लिए ...
अविनाश, हिंदी कहानी या हिंदी साहित्य का जो अँधेरा है, इसमें कौन किसको कब से और कितना नोच रहा है, ठीक से किसी को नहीं पता। शब्दों को सब तलकर खा रहे हैं, कहानियां लेखक के जीवन मूल्यों से इतनी अलग हैं कि यह वाक्य,जो मैं लिख रहा हूं, किसी उबाऊ साहित्यिक आलोचना का हिस्सा लगने लगता है।
जिनके मित्र और शत्रु ना हों, ऐसे आलोचक मुझे नहीं दिखते। अपवाद हैं जितने हुआ करते हैं। पाठक हैं नहीं, और ये संपादकों,प्रकाशकों और लेखकों ने मिलकर किया है। पहले बुरा लगता था, लेकिन अब ख़ुशी होती है कि यह पाठकों का जवाब है साहित्य को।
अब ना पाठक हैं, ना आलोचक कहे जा सकने लायक ज़्यादा आलोचक, तो बस अँधेरा है, जिसमें पुरस्कार हैं, जिन्हें किताब के पिछले इनर कवर पर लिखा जाना है। ऐसी लिजलिजी छोटी सी दुनिया, जिसके बाहर किसी को इन पुरस्कारों का नाम तक नहीं पता, किसे मिला इसकी फ़िक्र तो क्या होगी! ऐसा साहित्यिक समाज, सिर्फ़ जिसके भीतर पुरस्कारों का प्रदर्शन किया जा सकता है और जिसका हर आदमी जानता है कि किसे कौनसे सेठ का, कौनसी पत्रिका, कौनसी अकादमी का पुरस्कार, कैसे मिल रहा है. फिर भी इन पुरस्कारों का इतना मोह किसे दिखाने के लिए? इतनी तिकड़में, बरसों बरस का गिड़गिड़ाना, चापलूसी किसलिए? अपने लिखे के हर मूल्य की आँखों में आँखें डालकर चाकू से उसका गला रेतना बरसों तक. क्यों? पाने के लिए कुछ बड़ा होता तो ये लोग क्या करते? तुमने कभी किसी ऐसे आदमी को देखा है जो ट्रेन के टिकट की लाइन में थोड़ा आगे जाने के लिए रुआंसा चेहरा बनाकर कहता है कि उसके पिता की मृत्यु हो गई है? आगे जाकर टिकट खरीद लेने के बाद लौटते हुए उसके चेहरे की बदसूरत हँसी देखोगे तो शायद हिंदी का लेखक याद आए। उसे लगता है कि वह औरों को बेवकूफ़ बना रहा है।
जुगाड़ के ये पुरस्कार, पद और किताबें क्या पॉर्न से ज़रा भी ज़्यादा होती होंगी, जिन्हें देखकर आप अकेले अँधेरे कमरे में भले ही उत्तेजित हो लें, लेकिन Masturbation का शिखर चेहरा उठाकर भी देखेगा तो भी उसे सुकून का शिखर नहीं दिखेगा। तो शायद यह उन लोगों के जीवन का, लिखे का खालीपन है, निरर्थकता है, जिसे भरने के लिए पुरस्कारों के इस नेटवर्क के सब लोग लगातार हस्तमैथुन कर रहे हैं। जो शक्तिशाली हैं, उनके पास इस काम के लिए दूसरे लोग हैं। यही नए लेखकों का पुराना होना है।
तुम या दूसरे जो भी लोग इन बातों को दर्ज़ कर रहे हैं, बड़ा काम कर रहे हैं। तुम्हारी कुछ बातों से मेरी असहमति भले ही हो, या इनमें से कुछ बातें हैं, जिनका सच झूठ मुझे नहीं पता। शायद समय बताए। लेकिन तुम हमेशा ऐसे ही कच्चे रहो, यही कामना! वही बोलो, जो तुम्हारा सच हो!
मेरी किताब को शायद साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने के लिए ही रोका गया, ऐसा मुझे चंदन पांडेय ने कहा था, और यह मैंने पिछले साल भी पब्लिकली लिखा था। इस लेख में उस मामले का ज़िक्र हुआ है तो पुष्टि कर रहा हूं।
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