[मंगलेश डबराल की ये कविताएँ आधुनिक ज़रूरतों, संस्कृति की कठिन और नवीन अंगड़ाईयों से सामना करती हैं. इनमें एक बैंक के नए हो जाने का विलाप मौजूद है, उसके अधिकतर लोगों के खो जाने से उपजा अकेलापन है. फ़िर-फ़िर और बार-बार ये कविताएँ तमाम सामंती ताक़तों का विरोध करती हैं. यहाँ विनोद कुमार शुक्ल के लहज़े का परिष्कृत और ताक़तवर रूप भी है, जो कुचले और मसले गए लोगों के सन्दर्भ में आता है, जहाँ चीज़ें नहीं रहतीं, बस उनकी जगहें खाली मिलती हैं. ऑक्सीजन की कमी की पूर्ति एक सत्तारूढ़ हँसी और सामन्ती उद्घोष के साथ होती है. तमाम विरोधों के बावजूद जो भी वैश्विक पटल पर घट रहा है, उसे ये कविताएँ बखूबी दर्ज़ करती हैं. पहाड़ों, जन-जंगल-जानवरों और चिड़िया-चुनमुनों से इनका वास्ता है. इनके पास यथार्थ, विकास और त्रासदियों की अपनी परिभाषाएँ हैं. पहले "हंस" में प्रकाशित हुईं और अब यहाँ. बुद्धू-बक्सा कवि और हँस-सम्पादक का आभारी. मंगलेश डबराल की पिछली कविताएँ यहाँ.]
अंततः हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी के भविष्य की ही तरह अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि अभी पूरी तरह नहीं जीता है
उसकी लड़ाइयां बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहां भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊंची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें
वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविजनों मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है
किसी महंगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है
लेकिन वहां पहुंचने पर दिखता है वह वहां नहीं है
बल्कि किसी दूसरी और ज़्यादा नयी गाड़ी में बैठ कर चल दिया है
कभी लगता है वह किसी फ़ैशन परेड में शिरक़त कर रहा है
लेकिन वहां सिर्फ़ बनियानों और जांघियों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर पर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहां से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झांकता हुआ टेलीविजन देख रहा
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है
हमारे शत्रु के पास बहुत से फोन नंबर हैं ढेरों मोबाइल
वह लोगों को सूचना देता है आप जीत गये हैं
एक विशाल प्रतियोगिता में आपका नाम निकल आया है
आप बहुत सारा कर्ज़ ले सकते हैं बहुत सा सामान ख़रीद सकते हैं
एक अकल्पनीय उपहार आपका इंतज़ार कर रहा है
लेकिन पलट कर फोन करने पर कुछ नहीं सुनाई देता
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए हम एक ही थाली में खायें एक ही प्याले से पियें
वसुधैव कुटुंबकम् हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि।
आदिवासी
इंद्रावती गोदावरी शबरी स्वर्णरेखा तीस्ता बराक कोयल
सिर्फ़ नदियां नहीं उनके वाद्ययंत्र हैं
मुरिया बैगा संथाल मुंडा उरांव डोंगरिया कोंध पहाड़िया
महज़ नाम नहीं वे राग हैं जिन्हें वह प्राचीन समय से गाता आया है
और यह गहरा अरण्य उसका अध्यात्म नहीं उसका घर है
कुछ समय पहले तक वह अपनी तस्वीरों में
एक चौड़ी और उन्मुक्त हंसी हंसता था
उसकी देह नृत्य की भंगिमाओं के सहारे टिकी रहती थी
एक युवक एक युवती एक दूसरे की ओर इस तरह देखते थे
जैसे वे जीवन भर इसी तरह एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे
युवती बालों में एक फूल खोंसे हुए
युवक के सर पर बंधी हुई एक बांसुरी जो अपने आप बजती हुई लगती थी
अब क्षितिज पर बार-बार उसकी काली देह उभरती है
वह कभी उदास और कभी डरा हुआ दिखता है
उसके आसपास पेड़ बिना पत्तों के हैं और मिट्टी बिना घास की
यह साफ है कि उससे कुछ छीन लिया गया है
उसे अपने अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है अपने लोहे कोयले और अभ्रक से दूर
घास की ढलानों से तपती हुई चट्टानों की ओर
सात सौ साल पुराने हरसूद से एक नये और बियाबान हरसूद की ओर
पानी से भरी हुई टिहरी से नयी टिहरी की ओर जहां पानी खत्म हो चुका है
वह कैमरे की तरफ गुस्से से देखता है
और अपने अमर्ष का एक आदिम गीत गाता है
उसने किसी तरह एक बांसुरी और एक तुरही बचा ली है
एक फूल एक मांदर एक धनुष बचा लिया है
अख़बारी रिपोर्टें बताती हैं कि जो लोग उस पर शासन करते हैं
देश के 626 में से 230 जिलों में
उनका उससे मनुष्यों जैसा कोई सरोकार नहीं रह गया है
उन्हें सिर्फ़ उसके पैरों तले की ज़मीन में दबी हुई
सोने की एक नयी चिड़िया दिखाई देती है
एक दिन वह अपने वाद्ययंत्रों को पुकारता है अपनी नदियों जगहों और नामों को
अपने लोहे कोयले और अभ्रक को बुला लाता है
अपने मांदर तुरही और बांसुरी को ज़ोरों से बजाने लगता है
तब जो लोग उस पर शासन करते हैं
वे तुरंत अपनी बंदूक निकाल कर ले आते हैं।
बची हुई जगहें
रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूँ
चश्मा कहाँ रख दिया है क़लम कहाँ खो गया है
अभी-अभी कहीं पर नीला रंग देखा था वह पता नहीं कहाँ चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की किस्तें चुकाना भूल जाता हूँ
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूँ कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया
माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें फिर से मिल जाती थीं और मैं खुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नही है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है
चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं
जीवन भर साथ चलती रहती हैं
हम कहीं और चले जाते हैं अपने घरों लोगों अपने पानी और पेड़ों से दूर
मैं जहाँ से एक पत्थर की तरह खिसक कर चला आया
उस पहाड़ में भी एक छोटी सी जगह बची होगी
इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बांध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा यह वह नहीं है मेरा शहर एक खालीपन है
घटनाएँ विलीन हो जाती हैं
लेकिन जहां वे जगहें बनी रहती हैं जहां वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलतीं हैं
याद दिलाती हुईं कि हम क्या भूल गया हैं और हमने क्या खो दिया है।
यथार्थ इन दिनों
मैं जब भी यथार्थ का पीछा करता हूँ
देखता हूँ वह भी मेरा पीछा कर रहा है मुझसे तेज़ भाग रहा है
घर हो या बाज़ार हर जगह उसके दांत चमकते हुए दिखते हैं
अंधेरे में रोशनी में
घबराया हुआ मैं नींद में जाता हूँ तो वह वहां मौजूद होता है
एक स्वप्न से निकलकर बाहर आता हूँ
तो वह वहां भी पहले से घात लगाये हुए रहता है
यथार्थ इन दिनों इतना चौंधियाता हुआ है
कि उससे आंखें मिलाना मुश्किल है
मैं उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ता हूँ
तो वह हिंस्र जानवर की तरह हमला करके निकल जाता है
सिर्फ़ कहीं-कहीं उसके निशान दिखाई देते हैं
किसी सड़क पर जंगल में पेड़ के नीचे
एक झोपड़ी के भीतर एक उजड़ा हुआ चूल्हा एक ढही हुई छत
छोड़कर चले गये लोगों का एक सूना घर
एक मरा हुआ मनुष्य इस समय
जीवित मनुष्य की तुलना में कहीं ज़्यादा कह रहा है
उसके शरीर से बहता हुआ रक्त
शरीर के भीतर दौड़ते हुए रक्त से कहीं ज़्यादा आवाज़ कर रहा है
एक तेज़ हवा चल रही है
और विचारों स्वप्नों स्मृतियों को फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ा रही है
एक अंधेरी सी काली सी चीज़
हिंस्र पशुओं से भरी हुई एक रात चारों ओर इकठ्ठा हो रही है
एक लुटेरा एक हत्यारा एक दलाल
आसमानों पहाड़ों मैदानों को लांघता हुआ आ रहा है
उसके हाथ धरती के मर्म को दबोचने के लिए बढ़ रहे हैं
एक आदिवासी को उसके जंगल से खदेड़ने का ख़ाका बन चुका है
विस्थापितों की एक भीड़
अपनी बचीखुची गृहस्थी को पोटलियों में बांध रही है
उसे किसी अज्ञात भविष्य की ओर ढकेलने की योजना तैयार है
ऊपर आसमान में एक विकराल हवाई जहाज़ बम बरसाने के लिए तैयार हैं
नीचे घाटी में एक आत्मघाती दस्ता
अपने सुंदर नौजवान शरीरों पर बम और मिसालें बांधे हुए है
दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष अंगरक्षक सुरक्षागार्ड सैनिक अर्धसैनिक बल
गोलियों बंदूकों रॉकेटों से लैस हो रहे हैं
यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है
उसे समझना कठिन है सहन करना और भी कठिन।
नया बैंक
नया बैंक पुराने बैंक की तरह नहीं है
उसमें पुराने बैंक की कोई छाया नहीं है
उसका लोहे की सलाख़ों वाला दरवाज़ा और उसका अंधेरा नहीं है
लॉकर और स्ट्रांगरूम नहीं है
जिसकी चाभियां वह खुद से भी छिपाकर रखता है
वह एक सपाट और रोशन जगह है विशाल कांच की दीवार के पार
एअरकंडीशनर भी बहुत तेज़ है
जहाँ लोग हांफते पसीना पोंछते आते हैं
और तुरंत कुछ राहत महसूस करते हैं
नये बैंक में एक ठंढी पारदर्शिता है
नया बैंक अपने को हमेशा चमका कर रखता है
उसका फ़र्श लगातार साफ़ किया जाता है
वह अपने आसपास ठेलों पर सस्ती चीज़ें बेचने वालों को भगा देता है
और वहां कारों के लिए कर्ज़ देने वाली गुमटियां खोल देता है
बैंक के भीतर मेजें-कुर्सियां और लोग इस तरह टिके हैं
जैसे वे अभी-अभी आये हों उनकी कोई जड़ें न हों यह सब अस्थायी हो
नया बैंक पुराने बैंक से कोई भाईचारा महसूस नहीं करता
वह उसे अपने इलाक़े के पिछड़ेपन का कारण मानता है
और कहीं दूर ढकेल देना चाहता है
नये बैंक में वे ख़ज़ांची नहीं हैं जो महान गणितज्ञों की तरह बैठे होते थे
किसी अंधेरे से रहस्यमय पूंजी को निकाल लाते थे
और एक प्रमेय की तरह हल कर देते थे
वे प्रबंधक नहीं हैं
जो बूढ़े लोगों की पेंशन का हिसाब संभाल कर रखते थे
नया बैंक सिर्फ़ दिये जानेवाले कर्ज़
और लिये जानेवाले ब्याज का हिसाब रखता है
प्रोसेसिंग शुल्क मासिक क़िस्त पेमेंट चार्जेज़ चक्रवृद्धि ब्याज लेट
फ़ाइन और पैनल्टी वसूलता है
और एक जासूस की तरह देखता रहता है कि कौन अमीर हो रहा है
किसका पैसा कम हो रहा है कौन दिवालियेपन के कगार पर है
और किसका खाता बंद करने का समय आ गया है।
हमारे शासक
हमारे शासक ग़रीबी के बारे में चुप रहते हैं
शोषण के बारे में कुछ नहीं बोलते
अन्याय को देखते ही वे मुंह फेर लेते हैं
हमारे शासक ख़ुश होते हैं जब कोई उनकी पीठ पर हाथ रखता है
वे नाराज़ हो जाते हैं जब कोई उनके पैरों में गिर पड़ता है
दुर्बल प्रजा उन्हें अच्छी नही लगती
हमारे शासक ग़रीबों के बारे में कहते हैं कि वे हमारी समस्या हैं
समस्या दूर करने के लिए हमारे शासक
अमीरों को गले लगाते रहते हैं
जो लखपति रातोंरात करोड़पति जो करोड़पति रातोंरात
अरबपति बन जाते हैं उनका वे और भी सम्मान करते हैं
हमारे शासक हर व़क़्त देश की आय बढ़ाना चाहते हैं
और इसके लिए वे देश की भी परवाह नहीं करते हैं
जो देश से बाहर जाकर विदेश में संपति बनाते हैं
उन्हें हमारे शासक और भी चाहते हैं
हमारे शासक सोचते हैं अगर पूरा देश ही इस योग्य हो जाये
कि संपति बनाने के लिए बाहर चला जाये
तो देश की आय काफ़ी बढ़ जाये
हमारे शासक अक्सर ताक़तवरों की अगवानी करने जाते हैं
वे अक्सर आधुनिक भगवानों के चरणों में झुके हुए रहते हैं
हमारे शासक आदिवासियों की ज़मीनों पर निगाह गड़ाये रहते हैं
उनकी मुर्गियों पर उनकी कलाकृतियों पर उनकी औरतों पर
उनकी मिट्टी के नीचे दबी हुई बहुत सी चमकती हुई चीज़ों पर
हमारे शासक अक्सर हवाई जहाज़ों पर चढ़ते और उनसे उतरते हैं
हमारे शासक पगड़ी पहने रहते हैं
अक्सर कोट कभी-कभी टाई कभी लुंगी
अक्सर कुर्ता-पाजामा कभी बरमूडा टी-शर्ट अलग-अलग मौक़ों पर
हमारे शासक अक्सर कहते हैं हमें अपने देश पर गर्व है।
टॉर्च
मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुंदर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं
हमारे इलाक़े में रोशनी की वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बांट देती थी
एक सुबह मेरी पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी सी आग दे दो
पिता ने हंस कर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता है
इसे रात होने पर जलाते हैं
और इससे पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैं
दादी ने कहा उजाले में थोड़ा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात से ही सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
पिता को कोई जवाब नहीं सूझा वे ख़ामोश रहे कुछ देर तक
इतने वर्ष बाद वह घटना टॉर्च की वह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे व़क़्त की विडंबना में कविता की तरह।
ग़ुलामी
इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता
हर कोई कुछ छिपाता हुआ दिखता है
दुख की छोटी-सी कोठरी में कोई रहना नहीं चाहता
कोई अपने अकेलेपन में नहीं मिलना चाहता
लोग हर वक्त घिरे हुए रहते हैं लोगों से
अपनी सफलताओं से ताक़त से पैसे से अपने सुरक्षादलों से
कुछ भी पूछने पर तुरंत हंसते हैं
जिसे इन दिनों के आम चलन में प्रसन्नता माना जाता है
उदासी का पुराना कबाड़ पिछवाड़े फेंक दिया गया है
उसका ज़माना ख़त्म हुआ
अब यह आसानी से याद नहीं आता कि आख़िरी शोकगीत कौन-सा था
आख़िरी उदास फ़िल्म कौन-सी थी जिसे देखकर हम लौटे थे
बहुत सी चीज़ें उलट-पुलट हो गयी हैं
इन दिनों दिमाग़ पर पहले क़ब्ज़ा कर लिया जाता है
ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए लोग बाद में उतरते हैं
इस तरह नयी ग़ुलामियां शुरू होती हैं
तरह-तरह की सस्ती और महंगी चमकदार रंग-बिरंगी
कई बार वे खाने-पीने की चीज़ से ही शुरू हो जाती हैं
और हम सिर्फ़ एक स्वाद के बारे में बात करते रहते हैं
कोई चलते-चलते हाथ में एक आश्वासन थमा जाता है
जिस पर लिखा होता है "मेड इन अमेरिका'
नये ग़ुलाम इतने मज़े में दिखते हैं
कि उन्हें किसी दुख के बारे में बताना कठिन लगता है
और वे संघर्ष जिनके बारे में सोचा गया था कि ख़त्म हो चुके हैं
फिर से वहीं चले आते हैं जहां शुरू हुए थे
वह सब जिसे बेहतर हो चुका मान लिया गया था पहले से ख़राब दिखता है
और यह भी तय है कि इस बार लड़ना ज़्यादा कठिन है
क्योंकि ज़्यादातर लोग अपने को जीता हुआ मानते हैं और हंसते हैं
हर बार कुछ छिपाते हुए दिखाई देते हैं
कोई हादसा है जिसे बार-बार अनदेखा किया जाता है
उसकी एक बची हुई चीख़ जो हमेशा अनसुनी छोड़ दी जाती है।
जापान : दो तस्वीरें
(सूनामी की तस्वीरें देखने के बाद)
एक
भूकंप, सूनामी विकिरण से घिरी हुई
एक छोटी-सी बच्ची अथाह मलबे में रास्ता बनाती चली जा रही है
वह सत्रह अक्षरों से बने हुए एक हाइकू जैसी दिखती है
उजड़े हुए घरों के बीच एक अकेला आदमी साइकिल पर कहीं जा रहा है
एक शरणार्थी शिविर के सर्दी में एक वृद्ध चाय मिलने की उम्मीद में है
एक औरत अपने घर के खंडहर से बिस्तर खींचकर समेट रही है
एक गुड़िया कीचड़ के समुद्र में पड़ी हुई है
हाइकू जैसी छोटी-सी बच्ची
अपने पीछे तस्वीरें छोड़ती हुई चली जाती है
तस्वीरें जमा होती रहती हैं
उसकी ख़ुद की तस्वीर एक घर के खंडहर में फर्श पर चमक रही है
एक क्षत-विक्षत समय अपनी विकराल छायाएं फेंकता है
थर्राती हुई धरती की छाया प्रचंड पानी की छाया
ज़हरीली हवा की छाया
एक अवाक् हाइकू की तरह सत्रह नाज़ुक अक्षरों की बनी हुई वह
चलती जाती है उस तरफ़
जहाँ बिछुड़े हुए लोग एक दूसरे को फिर से मिलने की बधाई दे रहे हैं
और फिर बहुत सारी मशीनें हैं
जो हर आनेवाले के शरीर में विकिरण नापती हैं।
दो
शरणार्थी कैंप में बच्चों की तस्वीरें धोई जा रही हैं
ताकि यह पहचाना जा सके कि वे कौन थे
उन्हें धोनेवाले सावधानी से तस्वीरों का कीचड़ मिटा रहे हैं
उनका 8.9 रिश्टर पैमाने का भूकंप भगा रहे हैं
उनकी 20 मीटर ऊंची सूनामी लहरों को पोंछ रहे हैं
उनके 7 स्तर के विकिरण को मिटा रहे हैं
दीवार बेशुमार तस्वीरों से भर गयी है
उन बच्चों की जो खो चुके हैं
उनकी याद को धो-पोंछ कर दीवार पर टांका जा रहा है
नाजुक हाइकू जैसे शिशु जो अब कही नहीं हैं
पुराने हाइकू जैसा एक बूढ़ा एक तालाब पर
देर तक प्रार्थना करता हुआ सा झुका रहता है
उस गहराई में जहां अब पानी नहीं बचा है।
पंचम
किराना घराने के सबसे अज़ीम गायक
अब्दुल करीम ख़ां से एक दिन उनके एक मुरीद ने पूछा
उस्ताद आपने तो सातों सुर साध लिये हैं अब कुछ बचा नहीं
खरज से रिखभ तक तीनों पर्दों के आरपार चली जाती है आपकी मीठी आवाज़
करीम ख़ां उदास स्वर में बोले
अरे कहां बेटा सिर्फ़ पंचम को ही मैं थोड़ा-सा समझ पाया हूँ
और अब इस उम्र में क्या कर पाऊंगा और
मुरीद भी उदास हो गये
उन्हें उम्मीद थी उस्ताद कुछ और रोशनी डालेंगे
अपने बेजोड़ रियाज़ पर
बहुत पहले किसी किताब में पढ़ा था यह वाक़या
उसे याद करते हुए सहसा हाथ रुक जाता है
जब भी लिखने बैठता हूं कोई कविता।
घटती हुई ऑक्सीजन
अक्सर पढ़ने में आता है
दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रही है
कभी ऐन सामने दिखाई दे जाता है कि वह कितनी ते़जी से घट रही है
रास्तों पर चलता हूँ खाना खाता हूँ पढ़ता हूँ सोकर उठता हूँ
तो एक लंबी जमुहाई आती है
जैसे ही किसी बंद वातानुकूलित जगह में बैठता हूँ
उबासी एक झोंका भीतर से बाहर आता है
एक ता़कतवर आदमी के पास जाता हूँ
तो तत्काल ऑक्सीजन की ज़रूरत महसूस होती है
बढ़ रहे हैं नाइट्रोजन सल़्फर कार्बन के ऑक्साईड
और हवा में झूलते अजनबी और चमकदार कण
बढ़ रही है घृणा दमन प्रतिशोध और कुछ चालू किस्म की खुशियां
चारों ओर गर्मी स्प्रे की बोतलें और खुशबूदार फुहारें बढ़ रही हैं
अस्पतालों में दिखाई देते हैं ऑक्सीजन से भरे हुए सिलिंडर
नीमहोशी में डूबते-उतराते मरी़जों के मुँह पर लगे हुए मास्क
और उनके पानी में बुलबुले बनाती हुई थोड़ी सी प्राणवायु
ऐसी जगहों की तादाद बढ़ रही है
जहाँ सांस लेना मेहनत का काम लगता है
दूरियां कम हो रही हैं लेकिन उनके बीच निर्वात बढ़ता जा रहा है
हर ची़ज ने अपना एक दड़बा बना लिया है
हर आदमी अपने दड़बे में क़ैद हो गया है
स्वर्ग तक उठे हुए चार-पांच-सात सितारा मकानात चौतऱफ
महाशक्तियां एक लात मारती हैं
और आसमान का एक टुकड़ा गिर पड़ता है
गरीबों ने भी बंद कर लिये हैं अपनी झोपड़ियों के द्वार
उनकी छतें गिरने-गिरने को हैं
उनके भीतर की हवा वहां दबने जा रही है
आबोहवा की फ़िक्र में आलीशान जहा़जों में बैठे लोग
जा रहे हैं एक देश से दूसरे देश
ऐसे में मुझे थोड़ी ऑक्सीजन चाहिए
वह कहाँ मिलेगी
पहाड़ तो मैं कब का छोड़ आया हूँ
और वहाँ भी वह
सि़र्फ कुछ ढलानों-घाटियों के आसपास घूम रही होगी
दम साधे हुए मैं एक सत्ताधारी के पास जाता हूँ
उसे अच्छी तरह पता है दुनिया का हाल
मुस्कराते हुए वह कहता है तुम्हें क्यों फ़िक्र पड़ी है
जब ज़रूरत पड़े तुम माँग सकते हो मुझसे कुछ ऑक्सीजन।
माँगना
जब भी खुद पर निगाह डालता हूँ
पलक झपकते ही माँ स्मृति में लौट आती है
मैं याद करता हूँ कि उसने मुझे जन्म दिया था
कभी-कभी लगता है वह मुझे लगातार जनमती रही
पिता ने मुझ पर पैसे लुटाये और कहा
शहरों में भटकते हुए तुम कहीं घर की सुध लेना भूल न जाओ
दादा ने पिता को नसीहत दी
जैसा हुनरमंद मैंने तुम्हें बनाया उसी तरह अपने बेटे को भी बनाओ
दोस्तों ने मेरी पीठ थपथपायी
मुझे उधार दिया और कहा उधार प्रेम की कैंची नहीं हुआ करती
जिससे मैंने प्रेम किया
उसने कहा मेरी छाया में तुम जितनी देर रह पाओ
उतना ही तुम मनुष्य बन सकोगे
किताबों ने कहा हमें पढ़ो
ताकि तुम्हारे भीतर ची़जों को बदलने की बेचैनी पैदा हो सके
कुछ अजीबो़गरीब है जीवन का हाल
वह अब भी जगह-जगह भटकता है और दस्तक देता है
माँगता रहता है अपने लिए
कभी जन्म कभी पैसे कभी हुनर कभी उधार
कभी प्रेम कभी बेचैनी।
नुकीली चीज़ें
(हिन्दी कवि असद ज़ैदी और चेक कवि लुडविक कुंडेरा के प्रति आभार सहित)
तमाम नुकीली चीज़ों को छिपा देना चाहिए
कांटों-कीलों को वहीं दफ्न कर देना चाहिए जहाँ वे हैं
जो कुछ चुभता हो या चुभने वाला हो
उसे तत्काल निकाल देना चाहिए
जो चीज़ें अपनी जगहों से बाहर निकली हुई हैं
उन्हें समेट कर अपनी जगह कर देना चाहिए
फूलों को कांटों के बीच नहीं खिलना चाहिए
धारदार ची़जें सि़र्फ सब्जी और फल काटने के लिए होनी चाहिए
उन्हें उस स्त्री के हाथ में होना चाहिए
जो एक छोटी सी जगह में धुएं में घिरी कुछ बुनियादी कामों में उलझी है
या उस डॉक्टर के हाथ में होना चाहिए
जो ऑपरेशन की मेज पर तन्मयता से झुका हुआ है
तलवारों बंदू़कों और पिस्तौलों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए
खिलौना निर्माताओं से कह दिया जाना चाहिए
कि वे खिलौने को पिस्तौल में न बदलें
प्रतिशोध हिंसा हत्या और ऐसे ही समानार्थी शब्द
शब्दकोशों से हमेशा के लिए बाहर कर दिये जाने चाहिए
जैसा कि हिंदी का एक कवि असद ज़ैदी कहता है
पसलियों में छुरे घोंपनेवालों को उन्हें वापस खींचना चाहिए
और मरते हुए लोगों को वापस लाकर उन्हें उनकी बैठकों
और काम की जगहों में बिठाना चाहिए
हत्यारों से कहा जाना चाहिए
कि एक भी मनुष्य का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है
दुनिया को इस तरह होना चाहिए
जैसे एक चेक कवि लुडविक कुंडेरा
पहली बार मां बनने जा रही एक स्त्री को देखकर कहता है
कि पृथ्वी आश्चर्यजनक ढंग से गोल है
और अपने तमाम कांटों को झाड़ चुकी है।
*****
5 टिप्पणियाँ:
सिद्धान्त अच्छी प्रस्तुति। कविताएं हंस में पहले भी पढ़ीं। एक सवाल-सा उठ रहा है कि अगर यहां विनोद कुमार शुक्ल के लहजे का परिष्कृत और ताक़तवर रूप है तो क्या ख़ुद विनोद जी का लहजा उतना परिकृष्त और ताक़तवर नहीं है...कुचले और मसले गए लोगों के कई सन्दर्भ मैंने 'कभी के बाद अभी' में देखे हैं... ये तुलना एक उलझन को जन्म दे रही है...या फिर, जैसा कि मैं बार-बार कहता रहा हूं अपने समय के बहुत समझदार लोगों से,ये मेरी समझ की सीमा और मेरी अपनी उलझन भी हो सकती है।
विनोद कुमार शुक्ल का लहज़ा ख़ालिस उनका लहज़ा ही है. उस लहज़े को मैं सर्वथा तरल मानता आया हूँ, इस तरलता में विरोधों और आन्दोलनों का बेहद कम योगदान है लेकिन कवित्व में है. लेकिन जो उसी लहज़े का परिष्कृत रूप है, वह कठिनाई और तमाम विद्रोहों की भाषा का संबोधन हो रहा है. मेरी समझ से यह एक लंबे वक्त तक टिके रहने वाले प्रभाव का हिसाब है.
तुम्हारा नुक़्ता अब बेहतर समझ में आ रहा है। शुक्रिया दोस्त।
अच्छी कविताऍं। पढ कर लगा कि बहुत दिनों बाद ऐसी कविताएं पढ रहा हूँ।
फिर से पढ़ा एक बार . लगा अभी तो इन कविताओं के पंचम तक भी नहीं पहुँच पाया ठीक से . फिर से लगा कि इन्हे बार बार पढ़ना चाहिए . बिम्बों का रचाव इतना बारीक़ है कि शब्दों का अहसास ही नहीं होता . मानो सीधे चित्र आ रहे हों सामने . और ये चित्र जितनी बड़ी दृष्टि, ताक़त्वर थॉट्स , और ईमानदार चिंताओं से परिचालित हैं उतने ही प्रामाणिक , सहज ग्राह्य और प्रेरक भी हैं .माने, इन्हे पढ़ कर आप फक़त सोचने के लिए विवश ही नहीं होते हो बल्कि बाक़ायदा एक दिशा मे चलने के लिए, कुछ करने के लिए उद्धत हो जाते हो.
क्या ये कविताएं काफी पुरानी हैं ? पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि टॉर्च कविता अन्यत्र भी पढ़ रखी है मैंने . टिप्पणी में हंस पत्रिका का ज़िक़्र है , वह तो मैंने तक़रीबन 10-12 सालों से नहीं पढ़ी है !!
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