सोमवार, 13 अगस्त 2012

संगीतकार सज्जाद हुसैन की खोज में - ३ : अशरफ़ अज़ीज़

[इस लम्बे और सारवान लेख की यह अंतिम कड़ी है, इसके पहले का हिस्सा यहाँ. लेख के आखिर में अशरफ़ साहब का पत्र भी जस का तस (बिना अनुवाद) मौजूद है, जो उन्होंने इस लेख के मद्देनज़र मुझे लिखा था. इस पत्र को सार्वजनिक करने का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि फिल्म संगीत का किसी के दिल में क्या स्थान हो सकता है?इसे किसी अन्य आशय के साथ न देखा जाए.]

मुश्किल संगीत के मुश्किल फ़नकार
उन्होंने बताया कि एक दफ़ा सज्जाद हलचल फ़िल्म का गीत हारमोनियम पर बजा रहे थे। तो प्रोड्यूसर करीम आसिफ़ आए और धुन सुनते हुए बीच में ही सज्जाद को रोका और कहा, इसका स्वर थोड़ा सा बदल दीजिए। तो सज्जाद ने पूछा, आपको कौन सा स्वर चाहिए? तो आसिफ़ ने एक स्वर पर अपनी उंगली रख दी और कहा ये बहुत अच्छा चलेगा। सज्जाद ने उसी समय उस स्वर को उखाड़ कर दे दिया और कहा, ‘ये है आपका स्वर। हमारे बाजे में तो यह स्वर है नहीं। इसलिए हमारे गाने में यह नहीं लग सकता।’ और अपना काम बंद करके चले गए। सज्जाद हुसैन को हलचल से निकाल दिया गया और मोहम्मद शफ़ी को ले लिया गया। लेकिन उस फ़िल्म में सज्जाद का हर गाना अपने आप में एक ख़ज़ाना है।

आज मेरे नसीब ने मुझको रुला-रुला दिया
लूट लिया मेरा क़रार फिर भी...

दूसरी कहानी जो उन्होंने सुनाई वह इस प्रकार थी - एक दिन सज्जाद रिहर्सल कर रहे थे। सुबह बीती, शाम भी हो गई। गाना था कि बन ही नहीं रहा था। उन्होंने चपरासी को बुलाया और कहा, ‘दुकान से लंबी, तेज छुरी लेकर आओ।’ जब छुरी आ गई तो उन्होंने अपना बेटन रद्दी की टोकरी में फेंक दिया, छुरी से कंडक्ट करने लगे और उससे पहले आर्केस्ट्रा से कहा, ‘आप लोगों में बहुत ग़लतफ़हमी है। फ़िल्मी गीत जिंदगी और मौत का सवाल है, मनोरंजन का नहीं। अगर अब ये गीत ठीक से नहीं बना तो आज किसी का लहू बहेगा।’ उसके बाद गाने की रिकार्डिंग तुरंत हो गई।

कील, हथौड़ी और हाथ का संबंध
खाना खाते हुए हाजीभाई ने हमसे पूछा, ‘सिनेमा संगीत के सिवा आप और क्या करते हैं?’ मेरे भाई ने बताया, ‘हम बढ़ई और लोहार हैं।’ उन्होंने कहा, ‘आप तो अच्छी नस्ल के लोग हैं। ईसा मसीह भी यही काम करते थे। जिस सूली पर उन्हें चढ़ाया गया उसको बनाने की उन्हें अच्छी समझ थी।’ तब उन्होंने हमें कील, हथौड़ी और हाथ के रिश्ते नाते के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘इन तीनों के बगै़र कोई इमारत नहीं बन सकती। ब्रिटिश राज वह इमारत है जो इन्हीं मनसूबों से बनायी गई है। हिंदुस्तान में हम लोग कील थे, हथौड़ी थी, अंग्रेज़ों का मज़दूर वर्ग जो उनके इशारों पर चलता था और हाथ थे अफ़सर लोग। लेकिन अफ़रीक़ा में कील हैं अफ़रीक़ी भाई, और हम हैं हथौड़ी और अंग्रेज़ हैं हाथ। यह सिलसिला तो चलता रहेगा। लेकिन कभी-कभी अफ़सोस होता है और डर लगता है कि कील को हथौड़ी का एहसास है, लेकिन हाथ का नहीं।’ तब उन्होंने लालू भगत की कहानी सुनाई कि वह एक बार दारेस्सलाम गए थे, तो पता लगा कि वहाँ एक बहुत बड़ी म्यूज़िक पार्टी हो रही है जिसमें लालू भगत गाने वाले हैं। लालू भगत हिंदुस्तानी नहीं थे। वह जंज़ीबार के अफ़रीक़ी शिराज़ी थे। उनका यह नाम इसलिए रखा गया था क्योंकि वह लाल रंग की क़मीज पहनते थे। हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीतों से इतना लगाव था कि उन्होंने हमारा कल्चर अपना लिया था। वह एक्टर सुरेंद्र के गीतों की अच्छी कॉपी करते थे कि उन्हें अफ़रीक़ा का सुरेंद्र कहा जाता था। यह ख़बर मिलने पर कि पार्टी वह गाएँगे, सफ़र रोक कर मैं उस फ़ंक्शन में गया। वहाँ जब उनकी बारी आई तो उन्होंने अनमोल घड़ी फ़िल्म का ये गीत गाया:

क्यों याद आ रहे हैं गुज़रे हुए ज़माने

लोगों ने वाह-वाह ही नहीं की पैसों की बारिश की। इस तारीफ़ से जो हौसला मिला, उससे उन्होंने अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती की। उन्होंने सज्जाद की मौसीक़ी में सुरेंद्र का एक और गीत गाया, तो सबने उन पर कचरा, जूते और काग़ज़ फेंकने शुरू कर दिये। उन्हें स्टेज से बाहर फेंक दिया गया। लालू भगत की हार देखकर मैं एकदम जोश में उठा, भीड़ से निकलकर देखा तो वह निराश होकर जा रहे थे। मैंने उन्हें गले लगा लिया और उनकी जुर्रत की दाद दी। लेकिन मुझे नहीं लगा कि मैं उनका दिल बहला पाया था। वापसी के सफ़र में इस हादसे के बारे में बहुत विचार आते रहे। मैं सोचने लगा कि कोई भी गै़र हिंदुस्तानी हमारी कोई चीज़ पसंद करता है, तो हमें उस पर ख़ुशी होनी चाहिए और उसे अपनाना चाहिए जिसने हमें अपनाया है। मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि कील को हथौड़ी का इल्म हैं, हाथ का नहीं। जो ज़ख़्म हथौड़ी ने कील पर लगाये हैं वह मरहम भी लगाये तो एक अच्छा भविष्य बन सकता है।

इस हादसे ने अफ़रीक़ा के भविष्य के प्रति संदेह पैदा कर दिया। जब इस बातचीत में मैंने जोश में आकर हाजीभाई से सवाल किया, सज्जाद हुसैन के गीत की रेडियो नैरोबी पर भी फ़रमाइश नहीं आती, तो फिर लोग क्येां इन संगीतकार को इतना महत्त्व देते है? और अगर कोई उनका गीत गाता है, तो उसे इस तरह का अंजाम भुगतना पड़ता है। हाजीभाई खाना बंद करके मेरी तरफ़ देखने लगे। मुझे रात का सन्नाटा सुनाई दे रहा था। मुझे लगा, वह मुझे तमाचा जड़ देंगे। उन्होंने चुप्पी तोड़ी, सवाल करना बड़ों का काम है, जवाब देना छोटों का। तुमने काया पलट दी है। मैं तुम्हें सज़ा इसलिए नहीं दूँगा क्योंकि तुम्हारा सवाल बहुत अच्छा है। पहली बार किसी ने मजबूर किया है कि इस मुद्दे पर सोचूँ। अच्छा, खाने के बाद इसका जवाब दूँगा।

बाद में मैंने अपने भाई से पूछा, हाजीभाई की कहानी सच है या उन्होंने ख़ुद ही बना ली है? तो मेरे भाई ने समझाया, ‘सच्चाई तक पहुँचने के अलग-अलग रास्ते होते हैं। लालू भगत की कहानी में हक़ीक़ी हक़ीक़त है, बाक़ी में कविता की हक़ीक़त। लेकिन जो भी उन्होंने कहा वह सज्जाद हुसैन की सच्चाई को बयाँ करता है।’
सज्जाद हुसैन की कहानियाँ और हिंदुस्तानी फ़िल्म और उसके संगीत की देर तक बातें होती रहीं। आज जब उस रात की बातें याद आती हैं, तो लगता है हम सब एक ख़़ूबसूरत दुल्हन की गोद में बैठे हुए हैं और उसने काली चादर ओढ़ी हुई है। उस रात मैंने अपने आपको बड़ा रिलेक्स्ड महसूस किया। लगा, ऐसी सच्चाइयों में ही जिं़दगी है। रात ढल रही थी, मुझे अच्छा लगा कि बड़ों ने मुझे अपना लिया है। अपनी बैठक से अलग नहीं किया। आखिरकार हमने हाजीभाई से वादा करके जाने की इजाज़त माँगी कि हम उनसे फिर मिलने आएंगे। उन्होंने मुझसे पूछा क्या तुम भी आओगे? मैंने कहा, बिल्कुल ज़रूर आऊँगा। उस समय मैं तेरह बरस का था।
बालूसिंह के घर जाते वक़्त उन्होंने फिर हमसे तकरार की कि फ़िल्मी गीतों ने हमें अंघा बना दिया है। फ़िल्म देखने जाते नहीं। फ़िल्म ने फ़ोटोग्राफ़रों ने जो काम किया है इसका कोई इल्म नहीं, कोई ज़िक्र नहीं। दूसरे दिन हम फिर से बस से वापस लौट रहे थे। बारिश की वजसे रास्ते कीचड़ से भरे थे। गाड़ी को धक्का देकर, कभी गाड़ी में बैठकर आगे बढ़ते रहे। तभी मुझे यह समझ आया कि अच्छी कंपनी में मुसीबतों का रंग कुछ अलग ही होता है। एक बात जो वापसी के सफ़र की याद रही, वह यह कि मैंने अपने भाई से सवाल किया था कि क्या फ़िल्मी संगीत में कोई ऐब या ख़़राबी भी है? उन्होंने कहा एक बहुत बड़ा नुक़्स है। फ़िल्म संगीत में हिंदुस्तान के लोगों में एकता लाने की संभावना पर काम नहीं किया गया है। ये इंडिया के टुकड़े होने से नहीं बचा सका। किसी भी लेखक और आलोचक ने इस प्रश्न को नहीं उठाया। उन्होंने ये भी कहा, ‘ये ख़ुदा की मेहरबानी है, पार्टीशन से पहले ही उन्होंने सहगल को उठा लिया।’

बिजलीवाला शाह, दहशत में एक छोटा चश्मा
जब हम घर लौटे तो दोनों को मच्छर के काटे का वरदान मिला। दस बारह दिन तक डाक्टरों की सूइयाँ खाते रहे। बिजलीवाला शाह हमारी कम्युनिटी में उन गिने चुने लोगों में थे, जिनका पढ़ाई-लिखाई किताबों से नाता था। हमारी कम्युनिटी में वह एक गहरी सोच वाले इंसान थे। अलीगढ़ में मुग़ल शायरों पर उन्होंने थीसिस लिखी थी। वह कहते मेरा दिमाग़, सोच-समझ, मेरे जज़्बात हमारी तारीख़ के एक वर्ष में क़ैद है, वह है 1857। इस बरस में हिंदुस्तान में क्या हुआ। अगर हम ठीक से इसे समझें तो हमारे भविष्य का दरवाज़ा खुल जाएगा। वह ख़ुद कहते कि वह उस वक़्त के आदमी नहीं है, उनका जन्म तो इस सदी में हुआ। एक लिहाज़ से वह भाई अय्यूब के उस्ताद थे। ग़ालिब, दाग़, सौदा, हाली, ज़फ़र इनकी शायरी पर घंटों बातें करते ताकि मेरे भाई और अच्छा गा सकें। लेकिन बिजली वाले शाह एक अजीब शाह थे। मुझे ताज्जुब होता था कि जिस आदमी की इतनी पढ़ाई-लिखाई हो वह इस तरह का काम क्यों करता है? कम्युनिटी वालों को सबसे बड़ा एतराज़ यह था कि शाह ने काली अफ्ऱीक़़ी से शादी की थी। इसलिए बहुत से लोग कहते थे कि ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई इंसान के लिए अच्छी चीज़ नहीं है। मेरे भाई ने एक दिन समझाया कि उन्हें बिजली वाले के हौसले पर रश्क होता है। वह दुनिया में कितने अकेले हैं। उनके घर वाली के लिए उर्दू हवा में उड़ती हुई बेमानी आवाज़ है। शाह साहब चारदीवारी में अपनी यादों के सहारे एक लम्हे से दूसरे लम्हे पहुँच रहे हैं। मैं उनकी हिम्मत की दाद देता हूँ। इसी मुलाक़ात में बिजली वाले शाह ने हमें नायलोन की ईजाद के बारे में बताया। उन्होंने अख़बार में पढ़ा है, अमरीका में नायलोन का धागा बन चुका है और यह साइसेल का चक्कर ख़त्म होने वाला है। तो मेरे भाई ने कहा कि शाह साहब हमें बीमारी में ठीक करने आए हैं कि और बीमार करने? वह हँसने लगे। नहीं-नहीं, यह बदलाव तो सौ साल बाद होगा, अभी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। उन्होंने कहा मैं यह इसलिए बता रहा हूँ, क्योंकि नायलोन की कहानी बहुत दिलचस्प है। 1937 में अमरीका की डुपौंट कंपनी ने हारवर्ड विश्वविद्यालय के एक होनहार प्रोफ़ेसर वॉलस करदर्स को कंपनी में लिया ताकि वे नायलोन का धागा बनाये। वे कामयाब हुए। लेकिन पेटेंट मिलते ही अपनी ईजाद पर निराश होकर उन्होंने ख़ुदकुशी कर ली। 1940 में इस धागे का स्टॉकिंग जब न्यूयार्क के मेसी स्टोर में बिका तो, औरतों ने हंगामा कर दिया। जिस चीज़ का फ़ायदा करदर्स को मिलना चाहिए था, वह कंपनी ले रही थी।

तबीयत ठीक होने पर भाई तो नौकरी पर चले गए और मैं मास्टर दया भाई के डंडे खाने की तैयारी करने लगा। स्कूल जाने के पहले बारबार मेरे दिमाग़ में आ रहा था, काश, समय पीछे चला जाए जब हम सफ़र करने की तैयारी कर रहे थे। कोई भी इंसान तवारीख़ के बाहर नहीं रह सकता। जो इसकी कोशिश करता है, उसको सज़ा मिलती है। अगस्त 1947 में महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना जो क्रांति लाए, तीसरी दुनिया के देशों में ब्रिटिश राज की लगाम ढीली पड़ने लगी। लेकिन ये आज़ादी दक्षिण एशिया में आई। अफ्ऱीक़़ा के हिंदुस्तानियों को अभी भी उसकी कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई। वे ब्रिटेन के वफ़ादार बने रहे। उनके लिए किपलिंग का गंगादीन खलनायक नहीं हीरो था। हालाँकि रेलगाड़ी हमारे बाप-दादाओं ने बनायी थी, लेकिन हमें सिर्फ़ सेकेंड क्लास में बैठने की इजाज़त थी और उसमें भी हम ख़ुश थे। थर्ड क्लास के डिब्बे में क्या हो रहा है, उससे हमें कोई मतलब नहीं था।

दि एंड: हिंदुस्तानियों का पूर्वी अफ़रीक़ा में रुख़सत का वक्त
1956 में काले अफ़रीक़ी अध्यापक मिस्टर जूलियस न्येरेरे न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्रसंघ आए। जनरल एसेंबली में दरख़ास्त की कि टांगानिका आज़ादी के लिए तैयार है। उसे जल्द फ्री कर दिया जाए। जब ये ख़बर हिंदुस्तानियों तक पहुँची, तो बहुतों ने कहा - अरे, लंगूरों को भी आज़ादी चाहिए! किसी ने ये नहीं सोचा कि उनके मुल्क में रहकर हमें उनकी भावनाओं का कुछ तो ख़़याल रखना चाहिए। लेकिन हथौड़ी के कील के ज़ख़्मों का एहसास नहीं था। जो पढ़े-लिखे, होशियार और चालाक थे, अपने ब्रिटिश पासपोर्ट तैयार करके सेफ़ में रखे बैठे थे। जो हाथ हथौड़ी चला रहे थे वे ही अपने पासपोर्ट भी सहला रहे थे। जिनके पास बैंकों में पैसे थे, आहिस्ता आहिस्ता लंदन भेज दिये और ऊपर से एक दूसरे को फँसाने के लिए कह रहे थे, यहाँ कुछ नहीं होने वाला।

सुबह की बादे नसीम, चढ़ते दिन की सरकती हवा, शाम होते-होते आँधी बन गई। साइसेल, जो कोरिया के युद्ध में सुनहरा तार बना, पहले वह पीतल और आहिस्ता आहिस्ता अल्यूमिनम बन गया। नायलान के धागे, बंगाल के सस्ते जूट और अफ्ऱीक़़ी लेबर यूनियन ने इस काम में मुनाफ़ा कम कर दिया। वे साइसेल स्टेट, जिससे मेरे भाई की ज़िंदगी जुड़ी हुई थी, उनकी नौकरी छूट गई। वह और भी अंदरूनी इलाके़ में चले गए। उनसे जब भी मुलाक़ात होती, वह ज़िंदगी के पसोपेश में डूबे नज़र आते। लेकिन जब भी फ़िल्मी गीतों की बात चलती, तो वह खिल उठते।

1961 में जब मैं अपने घर से स्कालरशिप पर युगांडा में मैकरेरे कालिज गया, तो उसी ट्रेन पर जिसकी पटरी हमारे पुरखों ने लगाई थी। मुझे भरोसा था कि मैं, मेरा परिवार मेरा समाज यहाँ सब सुरक्षित है। मुझे यह नहीं मालूम था कि मैं उस रास्ते से कभी वापस नहीं लौट सकूँगा। उसी साल दिसंबर की छुट्टियों में जब मैं दारेस्सलाम में था, सुबोध मुखर्जी की फ़िल्म जंगली चैक्स सिनेमा में देखने गया। जब स्क्रीन पर ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ गीत आया तो सिनेमा के थर्ड क्लास में बैठे काले अफ्ऱीक़ी नौजवान गाना दोहराते हुए स्टेज पर आ गए कुछ फ़स्र्ट क्लास में जाकर हिंदुस्तानियों को निकालने लगे कि ये हमारा आज़ादी का गाना है। शम्मी कपूर हिंदुस्तानी नहीं अफ़रीक़ा है। उस पर थोड़ा सफे़द रंग लगा दिया है।

या हू... या हू... चाहे मुझे कोई जंगली कहे
हम प्यार के तूफ़ानों में घिरे हैं, हम क्या कहें
मेरे दिल में...

1961 में ही टांगानिका आज़ाद हुआ। 1962 में युगांडा की आज़ादी का जश्न कंपाला में मनाया गया। संयोग से 1963 में कीनिया की आज़ादी के दौरान मैं वहाँ था। उसके बाद मैं दारेस्सलाम गया। एक शाम एवलौन सिनेमा के बाहर से गुज़र रहा था, वहाँ मेरे महबूब फ़िल्म का शो ख़त्म हो रहा था। पीछे से किसी ने मेरा नाम पुकारा तो देखा, मेरे भाई अय्यूब पिक्चर देख कर निकल रहे हैं। देखकर बड़े ख़ुश हुए । कहने लगे, बहुत देर के बाद अच्छा संगीत सुनने को मिला है। संगीत नौशाद का है। चलो, दूसरा शो शुरू हो रहा है। दोनों एक साथ फ़िल्म देखें।

याद में तेरी जाग-जाग के हम,
रात भर करवट बदलते रहे,
धीमे-धीमे चिराग़...

पिक्चर के बाद रेस्तराँ गए, और घंटों फ़िल्मों और संगीत की बातें होती रहीं। खाना खाने के बाद हम दोनों सी व्यू रोड की सैर करने गए। उस सैर में बहुत-सी बाते हुई। जिनमें से कुछ ऐसी भी है जिसने आज भी मेरा साथ नहीं छोड़ा है। एक बात उन्होंने ये कही थी, ‘मेरे महबूब फ़िल्म देखकर मुझे यह अफ़सोस हुआ है कि हिंदुस्तान में बारह सौ वर्ष रहने के बाद भी मुसलमानों को अजनबी की तरह देखा जाता है।’ उन्हें हैरानी थी कि पढ़े-लिखे लोग भी ये नहीं समझते कि पार्टिशन क्यों हुआ। फिर आकाश पर पूरा चाँद देखकर उन्होंने कहा था, ‘मेरा ख़़याल है, कहानी का मज़हब नहीं होता। मैं हिंदू नहीं हूँ लेकिन कृष्ण की कहानियों में बहुत सी इंसानी मुश्किलों के हल हैं। उन पर सोच-विचार करके किसी भी मज़हब का आदमी अपनी मुश्किलें दूर कर सकता है। अब देखो उस चाँद को, मेरे दोस्त धीरु भाई कहते हैं, चाँद कृष्ण का बड़ा भाई आकाश में अपना फ़र्ज़ निभा रहा है। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मुझे आसमान पर दो दोस्त अपनी दोस्ती का आनंद लेते नज़र आते हैं।’ यूँ ही बातें करते-करते वे मुझे हास्टल पर छोड़ने आए। कहने लगे कि ज़िंदगी हमेशा किसी प्लान पर नहीं चलती। आज हमारा यूँ अचानक मिलना इतनी ख़़ूबसूरत बात है कि उसको बयाँ नहीं कर सकता। ये कहकर उन्होंने अलविदा ली और जब मैंने पलट कर देखा तो वे अफ्ऱीक़ा की रात में एकदम अकेले चले जा रहे थे। दिल में एक तूफ़ान उठा कि भाग कर उनके पास चला जाऊँ लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस रात के बरसों बाद यहाँ अमरीका की कोलराडो पहाड़ी पर कैंपिंग करने गया। बर्फ़ जैसी ठंडी हवा सोने नहीं दे रही थी, सारा जिस्म काँप रहा था। ऐसी मुश्किल में अचानक मेरी निगाह आकाश की तरफ़ गई तो वैसा ही चाँद मैंने आकाश पर देखा। हवा चल रही थी कि नहीं, सर्दी थी कि नहीं मेरा बदन एकदम सहज हो गया। मैंने सकून महसूस किया।
इसी वर्ष ज़ंज़ीबार को भी आज़ादी मिली। लेकिन मैं वहाँ नहीं पहुँचा। 1964 में एक भयंकर कर्नल ओकेलो ज़ंज़ीबार में इंक़लाब लाए। कुछ ही रातों में हज़ारों अरब मर्द, औरतों और बच्चों को हलाक कर दिया गया। इस बदले में कि एक ज़माने में अरबों ने कालों को दास बनाया था। उन दिनों समुन्दर से आती हुई हवा में मुर्दों की बदबू आने लगी थी। फिर कर्नल ओकेलो ने ज़ोर ज़बर्दस्ती काले लड़कों की हिंदुस्तानी लड़कियों से सामूहिक शादियाँ करवाईं।

1964 में मुझे बी एस सी डिग्री मिली तो मैं टांगा में ही काले अफ्ऱीक़ियों के सैकेंडरी स्कूल में अध्यापक बन गया। नौकरी शुरू हुई ही थी कि फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की स्कालरशिप पर अमेरिका आ गया। आने से पहले मैंने एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीत ‘तुम हो साथ रात भी हसीन है, अब तो मौत का भी ग़म नहीं है’ इस रिकार्ड को अपने साथ लाने के लिए चुना। लेकिन जब पैक करने गया तो ख़़याल आया कि अमेरिका में इसकी क्या ज़रूरत पड़ेगी। मैंने रिकार्ड वहीं छोड़ दिया। जो बाद में मुझे अपनी ग़लती ही नहीं गुनाह महसूस होने लगा। नैरोबी से हवाई जहाज़ उड़ा तो ख़ुशी की जगह रिकार्ड के पीछे छूटने का ग़म हो रहा था जिससे मैं आज भी निजात नहीं पा सका हूँ।

तुम हो साथ रात भी हसीन है
अब तो मौत का भी ग़म नहीं है

इसके बाद अफ़रीक़ा की हालत और भी बिगड़ गई। 1966 में मारे डर के मेरी माँ दो बहनों को लेकर कराची चली गई। वहाँ से खत आया यहाँ सब कुछ ठीक है। मोहाजिर ज़्यादा है, पाकिस्तानी कम। यू पी के मोहाजिर के साथ हम अफ़रीक़ा के मोहाजिर एक दिन से दूसरे दिन में पहुँच जाते हैं। हमारे घर का पार्टिशन हो गया। सारे आदमी अफ्ऱीक़़ा में और बाहर थे, औरतें और बच्चे पाकिस्तान में। इरादा तो यही था कि सब कुछ ठीक होने के बाद अफ़रीक़ा लौट आऐंगे। लेकिन ये मालूम नहीं था, वह घर हमारा नहीं रहा। सच तो यह था, भारत और पाकिस्तान के लोगों ने अफ्ऱीक़़ा को अपना घर कभी बनाया ही नहीं। क्योंकि अगर साउथ एशिया को अपना घर समझते तो कभी छोड़ते ही नहीं और बाहर जाकर उसे भी अपनाया नहीं। साउथ एशिया में रहते बाहर के सपने देखते रहे और बाहर रहते हुए साउथ एशिया के। ऐसे लोग कितने डाँवाडोल होते हैं। 1967 में तंज़ानिया के प्रेसिडेंट नियरेरे ने अरूशा घोषणा के साथ अपने देश को समाजवाद के रास्ते पर लगा दिया। रातों रात राजनेता और बड़े सरकारी अर्दलियों के सिवा सब ग़रीब हो गए। जो हमारे लोग बचे, वे उन लोगों के साये में जी रहे हैं।

1972 में युगांडा के डिक्टेटर ईदी अमीन ने कुछ ही दिनों में मोहलत देकर एशियाई लोगों को निकाल बाहर किया। लेकिन इस बेरहम डिक्टेटर ने हमारे लोगों के साथ वह व्यवहार नहीं किया जो 1946-47 में पार्टिशन के समय हमने ख़ुद एक दूसरे के साथ किया। हमारी पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता हमें ख़ून-ख़राबे से बचा नहीं सकी।

1983 में वाशिंगटन में एक बार जब मैं शाम को घर लौटा तो मेरे नाम एक ख़त था। हैंडराइटिंग देखकर जानी पहचानी लगी। लेकिन तुरंत कुछ भी याद नहीं आया। जब पढ़ा, तो ये ख़त मेरे भाई अय्यूब का था। उसमें छोटा सा संदेश था कि मैं तुम्हारी कुछ मदद चाहता हूँ। कुछ इन्फ़ोरमेशन। क्योंकि तुम मेडिकल स्कूल में पढ़ाते हो। तुम बता सकते हो, कभी-कभी मैं बिला वजह रोता हूँ, क्या इसका कोई इलाज है? आखि़र में लिखा संगीत निर्देशक सी रामचंद्र अपना ही ख़ून बहाकर चले गए। ज़माना अच्छा नहीं है। मैंने उन्हें जवाब दिया। लेकिन याद नहीं मैंने क्या लिखा था।

1985 में मेरे भाई अकरम जो टांगों में हमारी आखिरी निशानी थे, वे भी लंदन चले गए। इससे पहले उन्होंने अपने घर में दोस्तों को पार्टी दी। और वे सारे रिकार्ड उन्हें दे दिये जो हमने 1946 से इकट्ठे करके एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी बनाई थी। ये रिकार्ड हमारे सुख-दुख के साथी थे। इनके साथ उन दिनों की यादें जुड़ी थीं जो हमने एक साथ गुज़ारी थीं। वे सारे रिकार्ड मेरे भाई अकरम ने एक बहुत कड़वा घूँट पीकर दोस्तों को गिफ़्ट में दे दिये। हमारे परिवार ने बैंक बैलेंस नहीं बनाया था। हज़ारों रिकार्डों का ख़ज़ाना कुछ देर में ही लुट गया।

तुम भी भुला दो, मैं भी भूला दूँ
क्या भुला दें गुज़रे ज़माने...

दिसंबर 1985 में शुक्रवार की दोपहर की नमाज़ पढ़ते हुए हमारी माँ बेहोश होकर गिर पड़ीं। फ़ौरन उनको अस्पताल ले जाया गया। डाक्टर ने बताया कि उनके दिमाग़ की नस फट गई हैं। आहिस्ता-आहिस्ता उनका दिमाग़ अपने ही लहू में डूबने लगा। हवा में बेबस चिराग़ की तरह यादें एक के बाद एक बुझने लगीं। कुछ ही घंटों में ज़िंदगी भर की यादें, जज़्बात, ख़़याल, उम्मीदें, एक लंबी चुप्पी में खो गईं। हम जिंदगी भर माँ को बेबे जी पुकारते थे। हमने इसी भूमिका में उन्हें जाना लेकिन उनका नाम रसूल बीबी था। रसूल बीबी कौन थीं, ये भेद उनके साथ ही चला गया। 1986 के नये वर्ष की रात, मेरी माँ को स्ट्रोक हुआ और वे गहरी नींद में सो गईं। उनकी मौत के साथ उनकी दो ख़्वाहिशें भी दफ़्न हो गईं। एक तो ये कि वो खडगपुर जाना चाहती थीं वो सपना कभी पूरा नहीं हुआ और दूसरा ये कि हज करें। जब मैं अपनी माँ के फ़्यूनेरल पर गया तो भाई अय्यूब से 22 वर्षों बाद मुलाक़ात हुई। मिलने के बाद ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं कोई अजनबी हूँ। और कहने लगे, अगर मैंने सड़क पर देखा होता तो कभी नहीं कह सकता था कि तुम मेरे भाई हो। वक़्त ऐसा भी करता है। मुझे भी भाई में एक बहुत बड़ा फ़र्क़ नज़र आया। उन्होंने चंद्रमोहन और सोहराब मोदी की स्टाइल छोड़ दी थी। अब वे दिलीप कुमार के देवदास और गुरुदत्त के काग़ज़ के फूल के सिनेमा के कैमरे के लिए तैयार थे।
ये भी एक रूप है...

ज़िंदगी का एक दौर वह होता है जब वक़्त हमें उड़ती कालीन पर बिठाकर एक लम्हे से दूसरे लम्हे तक ले जाता है। फिर एक दौर आता है जब वक़्त एक भारी पत्थर की तरह ढोना पड़ता है। मेरे भाई की जिंदगी के उस दौर में थे।

कराची में जब मैं एक शाम उनके घर पर बैठा था और हम चाय पी रहे थे, मैंने अपने कोट में हाथ डाला तो एक कैसेट हाथ में आया। उसमें पचास के दशक के गीत थे। मैंने उनकी इजाज़त से टेप बजाया तो पहला गाना फ़िल्म आज़ाद का था, ‘जा री, जा री ओ कारी बदरिया’। उनके चेहरे से चिंता के बादल दूर हो गए। गाने के साथ झूमने लगे।

जा री जारी ओ कारी बदरिया
मत बरसो....

फिर एक के बाद एक गाने बजने लगे, तो बिना कुछ कहे ऐसा लगा कि हम फिर एक दूसरे के बहुत क़रीब आ गए हैं। कुछ गानों के बाद अचानक एक नया गीत बजा। वह था, ‘जाते हो तो जाओ हम भी यहाँ यादों के सहारे जी लेंगे’। सज्जाद हुसैन के संगीत में फ़िल्म खेल का गीत शुरू होते ही भाई एकदम भौंचक्के रह गए।
जाते हो तो जाओ हम भी यहाँ यादों के सहारे जी लेंगे

जब गीत पूरा हुआ तो उन्होंने टेप बंद कर दिया। एकदम आकर गले लगा लिया और कहा, ‘मैंने न तो भाई का और न ही दोस्त का फ़र्ज़ निभाया है। मैं वो वादा पूरा नहीं कर सका कि हम हाजीभाई को फिर से मिलने जाएँगे। मजबूरी की वजह से पूरा नहीं कर सके। कोई भी इंसान अपने आप में मुकम्मल नहीं है। अगर वो ऐसा है, तो वो फरिश्ता है।’ वो बैठ गए और मुझे ग़ालिब का ये शेर याद आया:
बस के दुश्वार है, हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

माहौल में चुप्पी छाई हुई थी। मेरे दिमाग़ में आ रहा था, भाई की ज़िंदगी की मुश्किलों ने उन्हें एक अच्छा इंसान बनाया है। कुछ ही देर पहले उन्होंने जो कुछ कहा, वह इसका सबूत है। चुप्पी उन्होंने ही तोड़ी और कहा, इस गीत को ढूँढ़ने के लिए हम अफ्ऱीक़़ा में कहाँ-कहाँ गए थे। लोगों ने वादा करने पर भी न सुनाया। लेकिन इन्हें उसका मलाल नहीं था। कहने लगे, ‘जिनके पास है, वह अपने ख़ज़ाने की क़ीमत जानते हैं।’ सज्जाद को फ़िल्म रुस्तम सोहराब के बाद किसी ने और मौक़ा नहीं दिया। फिर पूछा, ‘क्या तुम्हें मालूम है कि फ़िल्म दोस्त के गीत, ”कोई प्रेम का देके संदेसा“ इसके पीछे कौन-सा गीत था?’ तो, मैंने कहा, ‘आपके बग़ैर यह मालूम करना मुझे ठीक नहीं लगा, मुझे भी नहीं मालूम।’ मेरे दिमाग़ में एक बात उठी, मेरे भाई ने तो अपनी इंसानियत का सबूत दे दिया, मरे दिल में उनके लिए जज़्बात भर उठे। लेकिन जोश ने साथ नहीं दिया कि मैं भी उन्हें वैसे ही गले लगाऊँ जैसाकि उन्होंने किया था। कुछ ही पलों में वह सुनहरा मौक़ा हाथ से निकल गया। मेरी इंसानियत मेरे सामने थी लेकिन मैं उस तक नहीं पहुँच सका। बातें करते-करते शाम ढल गई। एक दिन हम कराची की सैर पर निकले। जो अचानक एक ऐसी सड़क पर आ गए जिसमें न इधर था, न उधर था। जब साइनबोर्ड देखा तो वो थी जिगर मुरादाबादी रोड। ये पढ़कर हम दोनों हँसने लगे। इतना हँसे कि पेट में दर्द होने लगा। फिर तो हमने पंजाब और इंडिया जाने का इरादा किया था छोड़ दिया। उनके मुँह से एकाएक जिगर मुरादाबादी का ये शेर निकला:

वही है ज़िंदगी लेकिन जिगर, ये हाल है अपना
जैसे कि जिंदगी से जिंदगी कम होती जाती है

मैं अमरीका लौट कर आया। कुछ ही महीने बाद एक शाम घर लौटा तो एक टेलीग्राम था कि अय्यूब अब हमारे बीच नहीं रहे। जब मैंने तार पढ़ा तो वो साइसेल की धागे के हार की टूटने की आवाज़ आई। उसमें पिरोई यादें गर्द में बिखर गईं। घुटनों में ताक़त नहीं रही। वक़्त थोड़ी देर के लिए ठहर गया। बाद में पता चला एक मनहूस रात उन्हें छाती में दर्द हुआ। उनके बेटे अस्पताल लेकर गए। लेकिन रास्ते में ही वह उस रास्ते पर चल पड़े जहाँ कोई किसी का साथी नहीं होता। डाक्टर ने जब नब्ज़ देखी तो कहा ये तो कब के जा चुके हैं। उनका देहांत उनकी बेटी की शादी के एक सप्ताह पहले हुआ। शादी की तारीख़ बढ़ा दी गई। छह महीने बाद मेरे भाई असलम ने उनकी जगह खड़े होकर बेटी को विदाई दी। जिंदगी के दाम वक़्त से चुकाये जाते हैं। उनके हार्ट अटैक के वक़्त जब मेरे भाई ने जेब में हाथ डाला तो वे जेबें ख़ाली हो चुकी थीं। पहले वे पैसे से ग़रीब हुए फिर वक़्त से। उस समय उनकी उम्र 58 थी। जब मैं छोटा था, अगर किसी का हार्ट अटैक से देहांत होता तो बड़े लोग कहते, बनाने वाले की बड़ी मेहरबानी कि जल्दी उठा लिया। मेडिकल कालेज में आने के बाद जानकारी ये हुई कि इस रोग से जो भी मरता है, वह इस दुनिया में बेहिसाब पीड़ा झेलकर जाता है। मेरे भाई का ये अंजाम मुझे कभी-कभी बेबस कर देता है। तब मुझे उनकी कही बात याद आती है कि जिंदगी एक बहुत बड़ा तोहफ़ा है। जिसकी हर अच्छी और बुरी बात उससे अलग नहीं की जा सकती। इस जिंदगी के लिए ख़ुदा के शुक्र के सिवा और कुछ नहीं सोचना चाहिए।

राही कई अभी आएंगे
कई अभी जाएंगे...

श्रद्धांजलि
इस याद को ताज़ा करते हुए मुझे कहना पड़ेगा कि बच्चों की परवरिश में उनको यह सिखाया जाना बहुत ज़रूरी है कि वह जिनसे मोहब्बत करते हैं, अगर उसका उन्होंने खुलकर इज़हार नहीं किया तो यह ग़लती ही नहीं गुनाह है। मेरे कहने से भाई अय्यूब की ज़िंदगी नहीं बढ़ती लेकिन उनका हौसला तो बढ़ सकता था।

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गई है
छुपाते-छुपाते बयाँ हो गई है

ये बेमिसाल गीत सुरैया के आखि़री गीतों में से है। यह रुस्तम सोहराब फ़िल्म का गीत है जो सज्जाद हुसैन की आखि़री फ़िल्म थी। इसके बाद वे अपनी इज़्ज़त आबरू लेकर फ़िल्मी दुनिया से दूर हो गए। किसी भी प्रोड्यूसर को ऐसा हौसला नहीं आया कि वे फिर उनको एक और मौक़ा देते। 1950 के दशक में लता मंगेशकर ने हिंदुस्तान के कोई पाँच-छह बढ़िया म्यूज़िक डाइरेक्टरों में सज्जाद हुसैन का ज़िक्र किया था। 1984 में फ़िल्मी गीत के पचास वर्ष होने पर एक मैगज़ीन में वही पुराना लेख दुबारा छापा गया था, लेकिन इस बार उसमें सज्जाद हुसैन का नाम नहीं था। तक़रीबन उसी समय यहाँ वाशिंगटन के गीतांजलि कार्यक्रम में ‘ये हवा, ये रात चाँदनी...’ गीत बजा तो एम सी ने कहा ये गीत मदनमोहन ने कंपोज़ किया था। ये वह मदनमोहन थे जिन्होंने आखिरी दाँव फ़िल्म में ‘तुझे क्या सुनाऊँ ऐ दिलरुबा’ में उसी गीत की कार्बन कापी बनाई। कहते हैं, जब सज्जाद हुसैन ने ये गीत सुना तो कहने लगे आजकल तो हम क्या हमारे साये भी उठकर चलने लगे हैं। ये कहकर वे फिर से ग़ायब हो गए। जब लता मंगेशकर के जीवन पर 1992 में वीडियो बना तो सज्जाद की झलक इस वीडियो में मिली जिसमें वह लता को ऑनर कर रहे हैं। दो-तीन मिनट में ऐसा दिखाई पड़ता है, उनका मुँह नहीं हाथ बोल रहा है। लेकिन उनकी जिंदगी में एक मिठास तो आ ही सकती थी।

ऐ दिलरुबा, नज़रें मिला... कुछ तो ...

1992 में यहाँ वॉयस ऑफ अमेरिका की ब्रॉडकास्टर  विजयलक्ष्मी ने मुंबई में उनसे इंटरव्यू करने की बात कही तो लोगों ने कहा आप किसका इंटरव्यू करना चाहती हैं। सज्जाद हुसैन मिलनसार इंसान नहीं थे। लेकिन इतनी दूर से आए श्रोता को निराश नहीं कर सके, तो उनका आखि़री इंटरव्यू वॉयस ऑफ अमेरिका ने लिया और उन पर तीन प्रोग्राम पेश किये। 1994 में वे हाथ जिसने इटली के मेंडलिन को हिंदुस्तानी गाना गाना सिखाया, इस साज़ से हमेशा के लिए दूर हो गए।

मेरे यहाँ से चल दिये
मेरा खु़दा भला करे
शौक़ से ग़म उठाब
शिकवे न लब पे लाएँगे

उनकी एक छोटी सी श्रद्धांजलि राजू भारतन ने स्क्रीन पत्रिका में दी लेकिन उसके इर्द-गिर्द के दूसरे आर्टिकल के शोरोग़ुल ने उसकी अहमियत को ढँक दिया। एक दिन मैं अपने एक छात्र को जो फ़िल्मी संगीत में दिलचस्पी रखते हैं, उनसे सज्जाद के गीत का ज़िक्र कर रहा था, तो उन्होंने पूछा, ये सज्जाद कौन था?
1988 में मेरे पिता की मृत्यु तंज़ानिया के इरिंगा शहर में हुई और उनको इरिंगा के उसी क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया जिसे वे दुनिया का स्वर्ग समझते थे।

बालूसिंह 1970 के दशक में अफ़रीक़ा में पाबंदी आने से पहले लंदन पहुँच गए और वहाँ वह वेल्फ़ेयर पर हैं। ख़बर आई कि कोयले के काम की वजह से उन्हें काले फेफड़े की बीमारी हो गई है जिसे एम्फ़ीज़ीमा कहते हैं। इसमें मरीज़ को लगता है, वह पानी में डूब रहा है। यहाँ हक़ीक़त ये थी कि आग से काम करने वाला पानी में डूब रहा था। हो सकता है वे अब तक डूब चुके हों।

सब कहाँ कुछ लाला-ओ गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब

हाजीभाई एक रात ख़्वाब में मिले, बहुत जल्दी में थे, कहने लगे, बेटा, तुमने बहुत देर कर दी। सुना है, अमरीका में तुम्हें बहुत कामयाबी मिली, वक़्त बहुत कम है। एक बहुत ज़रूरी काम तुम मेरा कर सकते हो। चलो, जल्दी चलो। वह मुझे उलुगुरू पहाड़ में एक गुफा में ले गए। बहुत अंदर जाकर उन्होंने बत्ती जलाई, तो देखा, एक बहुत बड़े म्यूज़ियम में हैं जिसकी दीवारों पर तस्वीरों की तरह वह फ़िल्मी गीत फ्ऱेम में लगे हुए हैं जो अब गुल हो चुके हैं। उन्होंने एक चाबी दी और कहा, अब ये अमानत नयी पीढ़ी की है, उन तक पहुँचा देना। यह कह कर वह नज़रों से गुल हो गए।
आय हाय लूट गया...

सबक़
1952 में, एक दिन मैं अपने मास्टर बी एन नायक के साथ चाल्र्स डिकिन्स के नौवेल डेविड कापरफ़ील्ड पर बात कर रहा था, तो उन्होंने बताया कि ये किताब आधी हक़ीक़त और आघा फ़साना है। ये कहानी डिकिन्स की अपनी जिंदगी पर आधारित है। तो, मैंने पूछा, ऐसा क्यों? तो, उन्होंने समझाया, डाक्यूमेंटरी हर समय इंसान को सच्चाई तक नहीं ले जा सकती। फ़साना भी उस तक पहुँचने का मंसूबा है। तुम्हारी तरह जब मैं छोटा था, अपने देवताओं के बारे मे मुझे बहुत ख़राब लगता था कि गणेश जी आधे इंसान है, आधे हाथी। ये हमारे कैसे भगवान हैं। धड़ इंसान का, सिर हाथी का। मैं चूँकि वेस्टर्नाइज होने लगा, सोचता ये क्या चक्कर है। मैं सोचने लगा क्या गणेश जी हाथी की शक्ल में इंसान हैं या इंसान की शक्ल में हाथी! उस दौरान जिस चीज़ न मेरी ज़िंदगी काफ़ी बदली, ये समझ कि गणेश जी वो इंसान है जिनमें हाथी की विज़डम है। और इतनी है कि उतनी सामान्य इंसान में नहीं है। जिस आर्टिस्ट ने इस देवता की कल्पना की, सामान्य लोगों को समझाने के लिए हाथी का सिर बनाया कि उनमें बहुत ज्ञान है। गणेश जी की इस अक़्लमंदी की बुनियाद है हाथी की याददाश्त की शक्ति। इसके बगैर विज़डम का मंसूबा ही नहीं हो सकता। जिसको गए हुए कल का इल्म ही न हो, वह आने वाले कल में कामयाब हो ही नहीं सकता। गणेश जी हमें समझाते हैं, हम कितनी भी मुसीबत में क्यों न हों, अगर हमें ये याद रहे कि हम उस मुसीबत में किन रास्तों से होकर पहुँचे तो उन्हीं से होकर निकल भी सकते हैं। वे कहने लगे मैं मुसलमान नहीं हूँ। लेकिन मुझे मालूम है, आप लोगों को क़ुरान इक़रा से शुरू होता है। जिसका मतलब है, पढ़ो। अगर कोई सारा कु़रान शरीफ़ न भी पढ़े, सिर्फ़ इस शब्द को पढ़कर अक़्ल बढ़ती है। क्योंकि ये शब्द उस इंसान ने लिखवाया है जो पढ़ नहीं सकते थे। उन्होंने कहा, तुम होनहार बनने की कोशिश कर रहे हो, तुम कभी इन बातों पर सोचना।

हर इंसान के नाम में उसके माता-पिता की आशाएँ और उम्मीदें होती हैं। मेरा नाम अशरफ़ अज़ीज़। मैं यहाँ हावर्ड युनिवर्सिटी के मेडिकल स्कूल में प्रोफ़ेसर हूँ। इस संस्मरण में, मैंने जिन लोगों का ज़िक्र किया है, मैं उनका साथी हूँ। मैं अक्सर वाशिंगटन डी सी से न्यूयार्क जाता हूँ, तो डेलावेयर नदी के पुल के बायीं ओर डुपोंट कंपनी की फै़क्टरी मुझे साफ़ नज़र आती है। ये वह कंपनी है, जिसके नक़ली धागे ने साइसेल के असली धागे को सस्ता करके जिन लोगों की ज़िंदगियों का ज़िक्र कर रहा था बेकार कर दिया। मेरा एक भाई इसी कंपनी में था। लेकिन डुपोंट के व्यापार की उसे कोई जानकारी नहीं थी। मैं ख़ुद उस देश का नागरिक हूँ जिसके कारपोरेशन उन मुल्कों पर लगाम लगाये बैठे हैं जहाँ आज भी हमारे भाई-बहन कड़े संघर्ष में जी रहे हैं। मेरा नाम अशरफ़ अज़ीज़ है, अशरफ़ होने की गुंजाइश नहीं रही, लेकिन अज़ीज़ बनने की जद्दोजहद अभी जारी है।


हाय लूट गया... हाय लूट गया...

कहते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। उसका पहला दौर एक गंभीर नाटक है और दूसरा दौर तमाशा। दूसरे दौर को अर्थशास्त्रियों ने ग्लोबलाइजेशन और ग्लोबल इकाॅनोमी नाम दिया है। पिछली सदी का साम्राज्यवाद एक गंभीर नाटक की तरह गुज़र गया, अब जो तमाशा शुरू हुआ है उसका असर हमारे भाई बहनों पर क्या होगा, वो देखना अभी बाक़ी है।

आज भी बहुत से हिंदुस्तानी जिन्होंने थोड़ी बहुत पढ़ाई की है अपने आप को बुद्धिजीवी समझते हैं। वे न हिंदुस्तानी गीत और न ही लोक संगीत को वह इज़्ज़त देने को तैयार हैं जो वे शास्त्रीय संगीत को देते हैं। साउथ एशिया की आज़ादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर, मैंने एक हिन्दुस्तानी फ़िल्मी गीत की क़ीमत क्या है, इसके जवाब में एक ऐसी आपबीती लिखी है, जिसमें कुछ लोगों की जानें ही चली गई होतीं। हो सकता है, इस संस्मरण को पढ़कर फ़िल्म संगीत की गहराई समझ में आए। इस लेख में ये भी ज़ाहिर है कि विकासशील देशों में फ़िल्म संगीत कितना बड़ा सहारा है। इसकी कितनी क़द्र की जाती है। 1985 में जब मैं दारेस्सलाम गया, तो वहाँ बहुत कम हिंदुस्तानी बचे थे। वहाँ पुराने एंबेसी सिनेमा के रास्ते पर भीड़ लगी हुई थी। जब थियेटर पर देखा, ‘मिस्टर इंडिया’ फ़िल्म लगी हुई थी। मैं कभी भी इंडिया नहीं गया। लेकिन फ़िल्मी गीतों ने मुझे हमेशा इंडिया से जोड़े रक्खा। मैं हिंदुस्तानी ज़बान अच्छी तरह बोल सकता हूँ, लिख नहीं सकता।
*****


अशरफ़ साहब का मेल/ पत्र -

Dear Tiwary Ji: Greetings.

So kind of you to write such a complimentary note regarding my memoir in search of a rare Hindi film song in the hinterland of East Africa.  In this chronicle of a lost time I tried my best to pay my deep respect (and yes! Love) of  lost time and to our popular film songs (and music).  Time and experience have not in any way diluted my appreciation of the beauty of so much of our film music of the 40s, 50s, and 60s.  Even today, once in a while, I hear a new song which moves the soul.  With all due respect to A.R. Rahman ( a fabulous talent, no doubt), we do not have the likes of Sajjad, Anilda, C. Ramchandra, Madan Mohan, Salil Chowdhry, Naushad, Ghulam Haider, S.D. Burman, Roshan, Khemchand Prakash, Shankar Jaikishan and others.  My parents left British India for good in early 20th century and we, their children, were born in Africa.  Indian films and songs connected us to our ancestral home.  Even here in America when I hear a Hindi Film Song I immediately know where my journey started.  Any Hindi film geet has a dimension deeper than we care to admit.  My whole memoir tried to speak of my appreciation of one old Hindi film song.  Of course, my narrative is also a love note to my elder brother Ayub who on some lucky nights enters my dream world and starts a conversation about Hindi films and their songs…….

Any way I thank you.

Sincerely
Ashraf Aziz
 

0 टिप्पणियाँ: