(समालाप का दूसरा अंक सामने है. पहले तो हम गीत चतुर्वेदी से मिल आये हैं. इस दफ़ा मुखातिब होना है, कठोर कवि और प्रतिलिपि संपादक गिरिराज किराडू से. यहाँ गिरिराज के उत्तर इतनी सरल और 'सम्मुख' भाषा को निहित करते हैं, कि एक-एक वाक़या अन्फोल्ड होता है. पुरनियों और समकालीनों पर इतनी गहरी और पैनी नज़र होना अक्सर अचंभित करता है साथ ही साथ हिंदी के भविष्य को लेकर आश्वस्त भी करता है, उनका लहज़ा बेबाक़ है और एक खास किस्म की ताकत है, वह है प्रश्नों का उत्तर नए रूप में देने की. प्रश्नों को नकारने का जूनून और उन्हें एक भिन्न तरीके से अपने जवाब का केन्द्र बनाना गिरिराज को बखूबी आता है. इस तरह के प्रश्नों पर जितना कठोर और निर्मम होकर सोचा जा सकता था, उसे भी गिरिराज आजमा गए हैं. बुद्धू-बक्सा गिरिराज को धन्यवाद कहता है.)
गिरिराज किराडू से सिद्धान्त मोहन तिवारी की बातचीत...
अपने लिखने में आप 'समय' को क्या समझते हैं? क्या उसका कोई विकल्प मौजूद होता है? एक सम्पादक की दृष्टि से भी इस प्रश्न को देखिये.
समय को (लिखने में) समझने की अलग से कोई कोशिश नहीं करता हूँ. इस सवाल जैसे सवालों का सामना होने पर ही इस ढब से सोचना होता है. पर आपका सवाल देखकर आतंक कुछ कम हुआ. मैं उन मजमूनों की कल्पना करके डरने लगा था जिनमें समय शब्द आता है – 'इस' समय को अभूतपूर्व रूप से ख़राब समय मानने की विधियाँ, तर्क और उनका रैहट्रिक आश्वस्त नहीं करते. हालाँकि हौल तो मेरे भीतर भी यही बैठा है कि यही समय सबसे ख़राब समय है कमबख़्त ! पर अपने लिए रियायत या सहानुभूति सिर्फ इस वजह से क्यूं कि देखिये मैं कैसे समय में रह रहा हूँ! रियायत लेना रोने की पीड़ा से बचने का रास्ता है. ‘रोयेंगे हम हजार बार, कोई हमें सताये क्यूं’.
जीवन में 'समय' का अहसास मुझे दो-तीन तरीकों से होता है. एक अपने को, अपने शरीर को देखकर. समय का - एक कोई वो समय और एक कोई ये समय जैसे ढंग से - सबसे ज्यादा अहसास अपने को देखकर होता हैः एक दैनिक अनुभव. दूसरे उन लोगों की अचानक या स्थायी याद से जो मेरे देखते देखते संसार से गायब हो गए. मेरे बचपन के सब बुजुर्ग - एकाध को छोड़कर - अब नहीं हैं. एक पूरी पीढी गायब हो गयी है. शायद हर सौ बरस में हम एक बिल्कुल नयी दुनिया में होते हैं. सन् १९०० में जो जीवित थे उनमें से आज कोई नहीं. मैं 37 बरस का हूँ और अपनी आधी दुनिया खो चुका हूँ. इस अर्थ में मैं एक नए समय में जा रहा हूँ.
और तीसरा स्थापत्य से. मैं ज़्यादातर छोटे शहरों, गाँवों में गाँव-जैसे माहौल में रहता हूँ. सार्वजनिक और निजी स्पेस में जो स्थापत्य बड़े शहरों में और कुछ-कुछ छोटी जगहों में भी दिखाई देने लगा है वह उस समय का नहीं है जिसमें मैंने जन्म लिया या जिसे मैंने अपना माना. इस स्थापत्य ने मेरे लिए समय को बदलना शुरू कर दिया है. और मेरे ख़याल से यह एक बहुत अहम बदलाव है. आखिरी बार स्थापत्य आधुनिकता के आने के साथ बदला था - अब के जो स्थापत्य आया है वो बेहद ज़ालिम बेहद रंगबिरंगा और बेहद खाली है. वह पारदर्शी और ठस्स है. ऐसा कहा जाता है कि वह बहुत तिलस्मी और चंचल है. पर किसी किस्म के पेंच-ओ-असरार से इस कदर खाली स्थापत्य शायद ही कभी रहा हो.
मेरे लिखने में समय को महसूस करने के ये तरीके किस तरह आते हैं यह मैं उन के लिए छोड़ता हूँ जिनकी मेरे लिखे में दिलचस्पी है. खुद यह करूं उतना बेशऊर होने में अभी और वक़्त, काश, न होता.
बतौर संपादक काम कहीं आसान है. वे मज़मून मुझसे नहीं खुलते जिनमें समय को खुद महसूस करने की कोशिशें न हों. क्यूंकि हमने एक 'मास्टर नेरेटिव' पे सहमति करली है कि 'हमारा समय' ऐसा है और इससे पहले के समय ‘ऐसे’ थे तो अक्सर मेरे पास जो मज़मून आते हैं – चाहे किसी भी भाषा से आयें - उन पर उस मास्टर नेरेटिव का असर बहुत दूर तक होता है. पर कभी अंदाज़-ए-बयां कभी कहने की वहशत कभी उसकी मासूमियत उस असर को कुछ कम भी कर देते हैं.
आपने ‘समय का विकल्प’ जैसा जुमला इस्तेमाल किया है, माफ़ कीजियेगा अगर मैं खग की भाषा खग जाने वाले ढंग से इसका उत्तर न दे पाऊं. ‘समय का विकल्प’ उन कुछ ख़ास तरह के असरअंदाज लेकिन अस्पष्ट भाषा-व्यवहारों का एक प्रतिनिधि जुमला है जिसमें कहने वाले खग और सुनने वाले खग में बात समझ आ ही जायेगी वाला तालमेल होता है. हिन्दी भाषा में प्रचलित विचार-विमर्श के दायरे में अपने लिये ‘समय का विकल्प’ का खगानुवाद करूं तो आपकी मुराद शायद इस तरह की बात से है कि क्या लेखन के पास अपने समय को निरूपित करने, उसके विषय में होने के अलावा कोई विकल्प होता है? क्या ऐसा लेखन हो सकता है जो अपने समय को निरूपित न करे, उसके विषय में न हो? क्या मैं ठीक जा रहा हूँ? अगर हाँ तो इस प्रश्न में मेरी दिलचस्पी यहीं ख़त्म जानिये.
‘समय का विकल्प’ से मुझे यह लगा था कि आप हमारे होने के एक आयाम के रूप में समय के बारे में बात कर रहे हैं. अगर हम हैं, तो स्पेस और टाइम में हैं, बल्कि स्पेस-टाइम में हैं. मेरे अनुभव में स्पेस से बाहर समय का कोई अस्तित्व नहीं है. होना स्पेस-टाइम में होना है, उसका कोई विकल्प अब तक ज्ञात नहीं. मृत्यु को वह विकल्प होना चाहिये. अगर नहीं, तो मर कर भी क्या हासिल होगा!
स्टीफन हाकिंग कहते हैं बिग बैंग से पहले समय नहीं था, वह उसके साथ ही अस्तित्व में आया और अगर स्पेस सिकुड़ रहा है तो समय? अगर समय सीधी रेखा में प्रगति करने की बजाय (जैसा हम मानते हैं) पीछे भी जा रहा है तो भी हम जो अभी हैं उनके लिये टनल के दूसरे छोर पर स्थित वह ‘शून्य समय’ (या वह समयशून्यता) एक काल्पनिक, एक आनुमानिक शै से ज्यादा क्या है?
कला और मादक द्रव्य दोनों एक स्तर पर यह दावा करते हैं, बल्कि उनके उपयोगकर्ता करते हैं कि उनके मार्फ़त स्पेस-टाइम से परे, कुछ देर के लिये ही सही, जाया जा सकता है. दोनों के साथ अपना सीमित अनुभव इस मामले में निराश करने वाला है.
‘कालातीत’, ‘समयातीत’ आदि शब्द-प्रेत हैं. अगर कोई लेखन आदि को कालातीत आदि कहता है तो ऐसी ही प्रेत-प्रतीति होती है. यह सब कैननाईजेशन की जटिल, हिंसक प्रक्रिया से अनजान हो कर ही कहा जा सकता है. पाठक कभी किताब के पास अपने आप नहीं पहुंचता – यह बहुत रोमेटिक अवधारणा है. उस तक किताब आती है, बल्कि लायी जाती है और ऐसा करने वाले लोगों का – कैननाईज करने वालों का एक संजाल होता है. आज एक नया पाठक अगर वाल्मीकि या दांते या शेक्सपियर या प्रेमचंद या बैकेट या मार्केस या निर्मल वर्मा की किताब ढूँढता है तो इसलिए कि उसे इस संजाल से कहीं पता चला है कि ये सब बढ़िया या महान लेखक हैं. अगर वह बिना कुछ जाने संयोग से उठाए तो भी उस बुकस्टोर या शेल्फ तक पहुँचने वाला संजाल तो वही है.
हिन्दी में निकट अतीत में प्रेमचंद या मुक्तिबोध या अज्ञेय आदि को कैननाईज करने के संघर्ष कितने लम्बे, बहुस्तरीय, हिंसक रहे हैं. बहुत सारे ‘कालजयी’, ‘कालातीत’ माने जाने वाले लेखन को सिलेबस-रिसर्च आदि से हटाने भर से उसकी नश्वरता एकदम से सामने आ जायेगी.
तो समय के सन्दर्भ में 'धर्म' का आपके लिए कितना महत्त्व है....क्या ये ज़रूरी है?
मैं फिर से एनेक्डोटल ढंग से अपनी बात कहता हूँ.
धर्म घर में कई तरह से था. दादी का वैष्णव धर्म जो साफ़ साफ़ अस्पृश्यता पर टिका था/है. यह हाई ब्रो वैष्णव धर्म ‘बाबा रामदेव’ (योग वाले समकालीन पहुंचेले नहीं, जैसलमेर के पास रामदेवरा के एक लोक देवता जिन्हें एक तरफ ग्रैंड ऐपिक ट्रेडिशन से जोड़ने के लिये ‘विष्णु का अवतार’ बनाने वाले भक्त हैं तो दूसरी तरफ़ हरिजनों को मंदिर में प्रवेश दिलाने वाले सुधारक के रूप में याद करने वाले प्रशंसक हैं तो तीसरी तरफ़ राम-देव नहीं राम-सा पीर मानने वाले अनुयायी हैं) के आराधक मेरे नाना के धर्म को निम्न मानता था और उसका उपहास करता था. बाबा रामदेव घर में धर्म की ‘दूसरी परंपरा’ थे. उनके अनुयायी सवर्ण दलित हिन्दू मुसलमान राजस्थानी गुजराती पंजाबी सब थे. वैष्णव दादी से रोज अच्छा प्रसाद मिलता था लेकिन साल में एक बार नाना द्वारा स्पांसर्ड जैसलमेर टूर का एडवेंचर उस डेली प्रसाद पर भारी पड़ता था.
दादा का धर्म काफ़ी सांगीतिक था. उनका हिप रिप्लेसमेंट हुआ था और वे कुर्सी पे बैठकर जब अपने बुलंद स्वर में पूरे दो घंटे भजन गाते थे तो उसका पुण्य लाभ आसपास के पचास परिवारों तक पहुंचता था. वे शायद अपने को ऐसा सुदामा मानते थे जिसे कभी कोई कृष्ण नहीं मिला. सुदामा वाला भजन आख़िरी से पहला होता था और वे विह्वल होने लगते थे. वे वैसे अपने में मस्त रहते थे पर अस्पृश्यता उनकी भी मानसिकता का हिस्सा थी. नानी की धार्मिकता टैक्सचुअल है. उसमें सामने पानड़ा रखकर जप करना, पर सुबह एक बार ही, अनिवार्य है. नानी अपने छूआछूत को लेकर सहमी रहती है.
माँ को साकार की जरूरत नहीं है, ऐसा मुझे लगता रहा बरसों तक पर पिछले कुछ चार-पाँच सालों में मथुरा-नाथद्वारा जाने से उसे जो खुशी मिलती है वह मुझे कुछ परेशान करती है. पापा को साकार की जरूरत क्यूं है यह कभी समझ नहीं आया. वे जिस मंदिर जाते हैं उसके पुजारियों और व्यवस्थापकों को गाली देते रहते हैं, पूजा कभी नहीं करते, कोई धार्मिक आयोजन कहीं भी हो कुढ़ते वे रहते हैं तो फिर वे हमारे घर के एकमात्र नियमित मंदिर जाने वाले क्यूं हैं, यह रहस्य है. पापा को दुपहिया चलाना नहीं आता था बहुत बाद तक (कॉलेज वे 8 किमी पैदल जाते थे, बैंक उन्हें कोई न कोई दोस्त ले जाता, छोड़ देता), कई बार थके हुए लौटते तो बाइक पर मंदिर ले जाना पड़ता था. मैं बाहर खड़ा हो जाता, वे अपना काम करके लौट आते. टु हिज क्रेडिट उन्होंने कभी नहीं कहा अंदर आने के लिये. न कभी डांटा या तंज़ किया.
एक लड़की को एक बार एक पराये मंदिर (लड़की हिंदू थी मंदिर श्वेतांबरी जैन था) में कुछ ऐसी शिद्दत से प्रार्थना करते हुए देखा है कि लगा काश मैं भी इस तरह किसी पर भरोसा कर पाता. वह एकदम घेर लेने वाला अनुभव था. यह पूरी तरह बरबाद करने वाला तादात्मय था, पर बरबाद उसे नहीं मुझे करने वाला. उस दोपहर के बाद मुझे उसके दिल में उस अमूर्त की जगह खुद जगह पाने की भयानक, सुंदर कोशिश करने से कुछ भी रोक नहीं सका. यह ‘ईश्वर’ और धार्मिकता से एक पीड़ादायक पर्सनल द्वन्द्व था. पर वो एक बिल्कुल अलहदा कहानी है, जाने दीजिये.
लेकिन धर्म और धार्मिकता से, उसके उन्माद से, उसकी निष्ठुर अभियांत्रिकी के नाखूनों से हम लोगों को एक दूसरे ढंग से खरोंचा जाना था. वैष्णव ददिहाल और शैव ननिहाल के बीच फंसा मेरा गर्वीला नास्तिक, 1992 में भौंचक था, मुझे विश्वास था यह नहीं होगा. मेरा गर्त में जा गिरा हीरो, वीपी सिंह, होता तो यह नामुमकिन था. 1989 से हर वक़्त घर से बाहर रहने के बाद मैं तब दिनों तक घर में बैठा रहता था.
1992 के बाद से भी मैं नास्तिक हूँ, उतना गर्वीला नहीं. मुझे धार्मिकता का सम्मान करना आ रहा था ठीक उसी समय जब यह हो रहा था. जो टूटा वो एक राष्ट्र का सेक्यूलर संकल्प भर नहीं था (और वह तो पहले भी टूटा था कई बार). यह कुछ लोगो के जीने का ढंग था. अपने पिता को मंदिर के बाहर छोड़कर बाहर ही खड़े रहने वाला काफिर यह सोचने लगा कि अगर इस मंदिर को जहाँ मेरे पिता रोज आते हैं कोई ढहा दे तो? यह धर्म या संस्कृति या राजनीति का प्रश्न होने से पहले उसका प्रश्न भी है जो वहाँ आता है. सेकुलर राज्य का काम धार्मिकों को सेकुलर में कन्वर्ट करने का नहीं, उसका काम धार्मिक को सुरक्षा देने का है, उसका काम मंदिर मस्जिद को ध्वस्त होने से बचाना है. राज्य की यह भूमिका हमारे जैसे सेकुलर नास्तिक व्यक्तियों की कामना से अलग है जो एक धर्मविहीन संसार चाहते हैं.
सत्रह बरस की उम्र में, मैंने सोचा मैं भी ढह गया हूँ पर मैं एक ढाँचा नहीं था. मैं जल्दी ही एक कवि हो जाने वाला था.
'दर्शन' पर बात करना इतना मुश्किल क्यों है?
दर्शन के बारे में बात करना मुश्किल किसके लिए मुश्किल है? यदि आपकी मुराद लेखकों से हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा? जिस एक दर्शन का सर्वाधिक असर और नाम-जाप हिन्दी में है वह मार्क्सवादी दर्शन है लेकिन उसे मानने वाले कई कवि या उपन्यासकार फायरबाख के बारे में या हीगेल के बारे में या खुद मार्क्स के लिखे के बारे में बहुत नहीं जानते और इससे उनका "खराब" मार्क्सवादी होना या "खराब" लेखक होना सिद्ध नहीं होता. लेखक अक्सर दर्शन को एक तरह के भावात्मक सार में ग्रहण करता है और इसलिए उसकी खातिर मार्क्सवाद का अर्थ वह नहीं हुआ जो हीगेल से लेकर जिजेक तक है. उसके लिए उसका भावात्मक सार महज यह हो सकता है कि वह अमीरों के द्वारा किए जाने वाले अन्याय के विरुद्ध एक दर्शन है या यह कि वह लेखक को सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध होना सिखाता है. ऐसा ही उन लेखकों के साथ भी है जो खुद को गांधीवादी मानते हैं और उनके साथ भी जो खुद को अध्यात्मवादी आदि मानते हैं – अध्यात्म के बारे में उनके विचार, संगत दर्शन के नज़रिये से, किसी प्राइमर जैसे लगते हैं.
क्या आप यह मानते हैं कि साहित्य या सिनेमा या संगीत के बारे में बात करना आसान है? बहुत सारे दार्शनिक जब साहित्य के बारे में बात करते हैं तो खराब ढंग से करते हैं वैसे ही जैसे बहुत सारे लेखक जब दर्शन के बारे में बात करते हैं तो खराब ढंग से करते हैं.
लेकिन एक फ़र्क करना ज़रूरी है. साहित्य, जैसा देरीदा कहते थे, बहुत 'बदचलन' होता है; वह शायद एकमात्र ऐसी संहिता है जिसमें सिद्धांततः कुछ भी कहने की स्वतन्त्रता है और वह ज्ञान के विभागीय 'अनु-शासन' को नहीं मानता. वह मनुष्य के सारे कृतित्व में शायद सबसे खुला, सबसे वध्य और सबसे ज़्यादा लोकतान्त्रिक है – वह गैर-विशेषज्ञों के लिए सर्वाधिक खुला है. इसीलिए हम एक 'दार्शनिक' साहित्य की कल्पना जितनी आसानी से कर सकते हैं, 'साहित्यिक' दर्शन की उतनी आसानी से नहीं. दर्शन अपने साहित्यिक होने को प्रतिरोध देता है – नीत्शे जैसा अलंकारिक भाषा वाला दर्शन भी – लेकिन साहित्य अपने दार्शनिक होने या हो जाने को वैसा प्रतिरोध नहीं देता.
और ये क्या कम 'बदचलनी' की बात है कि मेरे जैसा शर्तिया कम-इल्म (और उतना ही कम-सुख़न) लेखक भी इस विषय पर इतना प्रवचन कर गया! इतने ही कम-इल्म किसी दार्शनिक के लिए साहित्य के बारे में इतना बोलना ही 'अनैतिक' होता!
'प्रेम' के सामाजिक और साहित्यिक अर्थ में क्या कोई अंतर है?
मेरी कम-अक्ली का कोई इलाज़ नहीं है इसके लिए क्षमा करें (और प्रेम और साहित्य/भाषा के अंतर्संबंधों के लिए रोलां बार्थ का लवर'स डिस्कोर्स और 'प्रेम के रूपक' पुस्तक की उसके संपादक मदन सोनी द्वारा लिखित विद्वतापूर्ण भूमिका देखें – उसमें भी लवर'स डिस्कोर्स का ज़िक्र है) लेकिन मुझे 'प्रेम का साहित्यिक अर्थ' जैसा पद बहुत असहज करने वाला लगता है. क्या ऐसा कोई अर्थ है जो साहित्य प्रेम को दे सकता है? साहित्य का स्वभाव है निर्वचन करना (और बमुश्किल कभी 'मौन' रहना) और वह प्रेम को एक तरह की अलंकारिकता दे सकता है लेकिन ऐसा करके वह उसे मिथकीय भी बनाता है. अगर हम 'रोमियो जूलिएट' जैसे एक प्रतिनिधि प्रेमाख्यान को देखें तो उस नाटक में जो होता है वह यथार्थ में होता रहा था, होता आया है. प्रेम करने वालों की जान लेने वाले और एक दूसरे के लिए जान देने वाले प्रेमी हमेशा रहे हैं (और उसके लिए दूसरों की लेने वाले भी). जो उस नाटक को विशिष्ट बनाती है वह है उसकी अलंकारिक भाषा, उसकी कविता. क्या वह कविता वह 'अतिरिक्त' अर्थ है जो यह कृति प्रेम को देती है? इस 'अतिरिक्त अर्थ' का लेकिन क्या एक 'अतिरिक्त मूल्य' भी नहीं है जो उस प्रेम को चुकाना पड़ता है? या कहीं यह 'अतिरिक्त अर्थ' स्वयं ही वह 'अतिरिक्त मूल्य' तो नहीं?
O, speak again, bright angel! for thou art
As glorious to this night, being o'er my head
As is a winged messenger of heaven
Unto the white-upturned wondering eyes
Of mortals that fall back to gaze on him
When he bestrides the lazy puffing clouds
And sails upon the bosom of the air.
यह रोमियो के मुंह से कहलवा रहा है नाटककार, खिड़की वाला प्रसिद्ध दृश्य है.
रोमियो यहाँ रोमियो नहीं एक कवि है. यथार्थ में एक 'प्रेम-पत्र' लिखना आउटसोर्स करना पड़ता है और यहाँ एक प्रेमी बिना किसी प्रयत्न के उच्चकोटि का कवि हो गया है! रोमियो, रोमियो नहीं रहा – यह वो 'अतिरिक्त मूल्य' है जो प्रेम को उसके साहित्यिक 'अर्थ' का सबसे पहले चुकाना पड़ता है. जैसे दुश्मन खानदान की Juliet Capulet उसे उसके नाम – Romeo Montague – की जगह सिर्फ 'लव' कह कर पुकारना चाहती है क्यूंकि रोमियो का सरनेम ही उसका दुश्मन है (Tis but thy name that is my enemy) और रोमियो कहता है Henceforth I never will be Romeo, वैसे ही इस काव्यमय भाषा में बोलते ही रोमियो, रोमियो नहीं रहा. अब से वह एक कवि है. मुझे लगता है जब हम किसी का रोमियो कहकर मज़ाक उड़ाते हैं तो उसके पीछे सबसे बड़ा कारण क्या यह काव्यमय भाषा ही नहीं है जो रोमियो नामक व्यक्तिवाचक संज्ञा को 'अव्यवहारिक' और 'पागल' होने के 'अतिरिक्त व्यंग्यार्थों' से भर देती है. लोकप्रिय स्मृति में वह अपने गहन प्रेम के कारण नहीं, अपने उत्सर्ग के कारण नहीं, सब भुला देने वाले एक मूर्ख के तौर पर याद रहता है: यह वो चरम 'अतिरिक्त मूल्य' है जो प्रेम को साहित्य द्वारा प्रदत्त 'अतिरिक्त अर्थ' के एवज में चुकाना पड़ता है? अगर इसी नाटक के प्रोलॉग को देखें तो वहाँ प्रेम का सामाजिक अर्थ (ख़ासकर ऑनर किलिंग के क्रूर समकालीन भारतीय 'सामाजिक' यथार्थ/ अर्थ की संगति में) बहुत स्पष्ट अंकित है:
Two households, both alike in dignity,
In fair Verona, where we lay our scene,
From ancient grudge break to new mutiny,
Where civil blood makes civil hands unclean.
यह इस प्रेम कथा का 'सामाजिक अर्थ' है कि यह एक ऐसे समाज की कथा है जिसमें civil blood makes civil hands unclean!
इस मशहूर प्रेम कथा में, और उसके प्रसंग में, प्रेम के सामाजिक और 'साहित्यिक' अर्थों में जो फ़र्क है वह बहुत पैना और मार्मिक है.
भारतीय समाज में आप 'संगीत' को किस तरह तरज़ीह देते हैं? इसकी उपलब्धता इतनी कम क्यों है? भारत में वेस्टर्न संगीत ज़ोर पर है लेकिन हिन्दुस्तानी संगीत गायब, ऐसा क्यों?
एक, मुझे नहीं लगता संगीत की इस जमाने में उपलब्धता की कोई कमी है. बल्कि मेरा मानना है वह हर जगह, हर कहीं बेवक्त, बेजरूरत बज रहा है और बेवक्त, बेजरूरत होने के कारण शोर की तरह सुनाई देता है. दो, भारत में उन चीजों की संख्या बहुत बड़ी है जिनमें वेस्टर्न ज़ोर पर है और हिन्दुस्तानी गायब. इस पर बात करने के लिए कुछ हज़ार पृष्ठ कम होंगें. उपनिवेशिकरण की एक लंबी, जटिल हिस्ट्री है. लेकिन अपने जीवन का एक हिस्सा (सात साल) उत्तर-औपनिवेशिक विमर्शों के मार्फत उपनिवेशीकरण को समझने और उस पर रिसर्च करने के बाद (पढ़ें बर्बाद करने के बाद) मेरी पुख्ता सरल राय यह है कि जो हो गया उसे आप अकादमिक रूप से चैलेंज कर सकते हैं लेकिन उसे 'अन-डू' नहीं किया जा सकता. कई पुनरुत्थानवादी और भारत-व्याकुल विमर्श इसे स्वीकार न करने के दयनीय उदाहरण हैं.
भारतीय समाज के बारे में किसी एकवचन में बात करना हमेशा खतरनाक है लेकिन रोज़मर्रा के जीवन में संगीत बहुत महत्वपूर्ण रहा है. एक तरह की शैली है वह जीवन की. वह एमेच्योर संगीत है, उसका व्याकरण है लेकिन उसे गाने वाले उस व्याकरण को न समझते हैं न उसकी परवाह करते हैं. इस जन संगीत में मैं फिल्म संगीत को भी शामिल मानता हूँ. दूसरी तरफ शास्त्रीय संगीत है. दोनों के बीच जो हेजेमनिक संबंध बनाया जाता है उसे समस्याग्रस्त करना मुझे अपना, हम लोगों का काम लगता है.
मैं जिस निम्नमध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आता हूँ उसमें संगीत का पहला स्रोत दादाजी के भजन थे, दूसरा स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले विवाह गीत आदि और तीसरा फिल्म संगीत. गज़लें थीं पंकज उधास की. फिर पता चला नौशाद एस. डी. बर्मन को सुनने वाले कल्याणजी आनंदजी को कमतर मानते हैं, जगजीत गुलाम अली वाले पंकज को, मेहदी हसन वाले तीनों को और कुमार गंधर्व मल्लिकार्जुन मंसूर किशोरी अमोनकर सुनने वाले बाकी सबको. पश्चिमी लोकप्रिय संगीत मैंने पहली बार 16-17 बरस की उम्र में सुना. एब्बा. द विनर टेक्स इट ऑल और आई हैव ए ड्रीम का असर तंबाकू खाने जैसा था. भारतीय शास्त्रीय संगीत उसके दो साल बाद. पश्चिमी शास्त्रीय संगीत एम.ए. के दिनों में. एम.टीवी. ने बहुत असर नहीं डाला मेरी सुनने की आदतों पर लेकिन देखने की आदतों में बहुत फ़र्क आया. एक जमाने में एस.पी.बालासुब्रमण्यम की आवाज़ अपनी आवाज़ लगती थी वैसे ही जैसे अजहरुद्दीन की बल्लेबाजी अपनी बल्लेबाजी और वी.पी. सिंह की राजनीति अपनी राजनीति. उस चक्कर में बिना एक शब्द समझे तमिल और तेलुगू फिल्मों के कई कैसेट घर में आ गए. मुझे आज भी कई गाने याद हैं, बिना एक शब्द समझे मैं आज भी उन्हें गाता रहता हूँ.
मुझे संगीत का, कला मात्र का मेरिटोक्रेटिक, हेजमनिक श्रेणीकरण – श्रेष्ठ और मीडियाकर, 'हाई' और 'लो' – रेसिस्ट और जातिवादी लगता है और इससे लगभग आस्तित्विक चिढ़ है. भारत का बहुसंख्य सबआल्टर्न समाज लेकिन तथाकथित हाई आर्ट को सबवर्ट करने की ऐसी सहज (खुद उसके लिए) और विलक्षण (उसे जाहिल मानने वाले विद्वानों के लिए) तरकीबें जानता है कि दो मिनट में जुलूस निकाल देता है – और यही सबसे जोरदार चीज़ लगती है, जन साधारण में संगीत और कला के बारे में यह बेशकीमती अंतर्दृष्टि.
वर्चुअल वर्ल्ड में लिखना/ लिखवाना कैसा लगता है?
इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध 'आजादी' कैसे भ्रम साबित हो सकती है इसके कुछ अहसास के बावजूद, और हो सकता है यह नाईव लगे, लेकिन कार्पोरेट पूंजी और हिंदी साहित्य में पिछली पीढ़ियों के बनाई लगभग-सामंती, आडम्बरी संस्कृति का (यह एक सामान्यीकरण है और ऐसा होने के खतरे और फायदे के साथ ही कहा गया है) इंटरनेट के अलावा कोई विकल्प नहीं. प्रतिलिपि ज़्यादातर नए, युवा लोगों की टीम है और ऐसी ही रहेगी. हमने साहित्यिक नेटवर्किंग - न सीधी न 'परिष्कृत' - करने से इंकार किया है - पत्रिका को किसी के भी प्रमोशन का जरिया नहीं बनने दिया है, पुरस्कारों के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया है. हमें अपनी विविधता संतोष देती है: तीस भाषाएँ और करीब चार सौ लेखक. हमारी टीम में भी शुरू से विविधता रही है. पंजाबी और तमिल सलाहकार दलित लेखक हैं और अब पत्रिका का काम, प्रभावी रूप से तृषा गुप्ता और देवयानी ने संभाल लिया है. मलयालम, बंगाली, असमिया, डेनिश, स्वीडिश के लिए सलाहकार स्त्री-लेखक हैं. संपादक खुद अपनी कविताएँ, कहानियाँ नहीं प्रकाशित करते - वे दूसरों पर लिखते हैं या उनका अनुवाद करते हैं. आज तक कोई उल्लेखनीय रूप से ख़राब अनुभव नहीं रहा किसी लेखक अनुवादक के साथ. हमने प्रिंट से पुनर्प्रकाशन अपवादस्वरूप किया है इसलिए लेखकों का यह सहयोग और भी विनम्र करने वाला है. लेखकों ने उत्तर पूर्व, गुजरात, सीरियल ब्लास्ट्स, 'आतंक', तिब्बत आदि पर बहुत हिम्मत और संवेदनशीलता से लिखा है जिसे हमने इमेज़-बिल्डिंग के लिए, 'देखो हम कितना प्रतिरोध कर रहे हैं' वाले अंदाज़ में इस्तेमाल करने और इसके बहाने व्यक्तियों पर निशाना साधने की बजाय ऐसे काम की तरह रखा है जो आगे संवाद और बहस के लिए जगह बना सके. तीन चीज़ें नहीं कर पाने का अफसोस है – ज़्यादा युवा लेखकों की चीज़ें, खासकर फ़िक्शन अंग्रेज़ी में अब तक अनुवाद नहीं करवा पाये, लगातार अच्छी पुस्तक समीक्षाएं नहीं हो पायीं हैं और किसी बहसतलब मज़मून पर अच्छे सुचिन्तित, लिखित काउंटर-प्वाइंट नहीं लिखवा पाये हैं : इसके लिए अलग से एक कॉलम भी शुरू किया लेकिन नहीं हो पाया. अब प्रतिलिपि ब्लॉग से वह फिर से करने की कोशिश है, देखते हैं.
व्यक्तिगत रूप से भी वर्चुअल स्पेस मेरे लिए न सिर्फ़ लिबरेटिंग रहा है, असंख्य नए दोस्तों के साथ कुछ पुराने मित्रों से मिलाने वाला भी. इंटरनेट पर मुझे पहली बार देख कर प्रभात रंजन ने लिखा था मैं आपको यथार्थ में खो चुका था. अब इस आभासी में फिर से पाया है. हमारी सालों से बात नहीं हुई थी!! जहाँ तक लिखने का सवाल है मुझे यह माध्यम बेजोड़ लगता है लेकिन तुरंत रेस्पोंस आदि के कारण नहीं. मैंने जो मल्टी-मीडिया पाठ रचे हैं वे सिर्फ यहीं संभव थे.
इन सभी को यानी समय, धर्म, दर्शन, प्रेम और संगीत को अपने लिखने में कैसे
समायोजित करते हैं?
आप अपने लेखन पर फ़िल्म, चित्रकलाओं और दूसरी
दृश्य कलाओं का कितना प्रभाव पाते हैं?
अपनी लिखने की आदतों के बारे में कुछ बताइए, ख़ासकर उन चीज़ों के बारे में जिनके बारे में आप लिखते वक़्त सबसे अधिक सोचते
हैं.
इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दे रहा, कारण ऊपर दिया है.
क्या ऐसे पाँच लेखकों के नाम सकारण बताएँगे, जिन्हें तो आप ख़ुद कई बार पढ़ना चाहेंगे बल्कि दूसरों के लिए भी चाहेंगे कि वे उन्हें ज़रूर पढ़ें? अग़र रचनाकार और सम्पादक दृष्टि अलग-अलग है, तो उनके हिसाब से भी?
मैं साहित्यिक लेखकों, और हिन्दी तक, सीमित रख कर बात कर रहा हूँ लेकिन संख्या बढ़ा दी है. फणीशवरनाथ रेणु, विनोद कुमार शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मनोहर श्याम जोशी, राही मासूम रज़ा, बिज्जी, कृष्णा सोबती, मुक्तिबोध (कविता). रेणु और विनोद कुमार शुक्ल की नज़र खुद देखने में यकीन रखती है. उनके यहाँ 'साहित्यिक स्मृति' मुख्य नहीं है. रेणु में विद्यापति या अन्य लोक स्मृतियाँ हैं. मनोहर श्याम जोशी ने मानक राष्ट्रीयतावादी हिन्दी में कभी पूरा उपन्यास नहीं लिखा, रेणु की तरह, और यह एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट को दी गई एक बहुत बड़ी सर्जनात्मक चुनौती थी. मुक्तिबोध ने उसी मानक राष्ट्रीयतावादी हिन्दी में लिखते हुए भी उसके अन्तःकरण को ऐसी बेचैनी और पारदर्शिता से प्रश्नांकित और विस्तृत किया है कि उसके राष्ट्रीयतावादी रेशे बिखरने लगते हैं. राही मासूम रज़ा आधा गाँव में उपन्यास के 'पश्चिमी खिलौने' को विभाजन की कथा कहते हुए एक भारतीय विधा में रूपांतरित कर देते हैं (विडम्बना यह कि भारतीयता पर बहुत सारा विमर्श करने वाले और बाकायदा 'भारतीय उपन्यास की अवधारणा" विकसित करने की कोशिश करने वाले निर्मल वर्मा यह कभी नहीं कर पाये. उनके सारे उपन्यास मौलिक नहीं 'अनूदित' लगते हैं – वह अंग्रेज़ी में ही सोचा और लिखा गया लगता है) – हमें आधा गाँव पढ़ते हुए उस समय के योरोप के चर्चित फैशनेबल 'प्रयोगों' की कोई याद नहीं आती. यही हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी किया लेकिन उनका एक बड़ा कारनामा यह भी था कि संस्कृत की हेजेमनिक पंडिताऊ परंपरा को भीतर से तोड़ते हुए जन साधारण के विवेक की एक दूसरी परंपरा को खोज निकाला. बिज्जी ने यह काम एक दूसरे स्तर पर किया. उन्होने लोक आख्यानों और उनकी शैलियों का एकदम 'आधुनिक' आविष्कार किया और वर्चस्व के विभिन्न रूपों, जिनमें सामंतवाद से लेकर आख्यान शैलियों और फॉर्म का वर्चस्व भी शामिल है, का मज़े मज़े में मज़ाक उड़ा दिया. यह सब-आल्टर्न सबवर्जन का एक नायाब कारनामा है. हम लोग महमूद-दानिश के दास्तानगोई वाले काम को अहो भाव से देखते हैं लेकिन बिज्जी को नहीं. अकारण नहीं कि उन दोनों ने इधर बिज्जी की 'चौबोली' को पर्फार्म किया है. दिलचस्प यह है कि विनोदजी, हजारी या रेणु को छोड़ दें तो बाकी के काम में कई पश्चिमी लेखकों की प्रेरणा सक्रिय रही है. जोशीजी तो एक तरह से हिन्दी के पश्चिम विशेषज्ञ ही थे.
बाणभट्ट की आत्मकथा की भूमिका में एक अड़सठ साल की आस्ट्रियाई स्त्री की कल्पना है जो दूसरे महायुद्ध की विभीषिका से बच कर आई है, उसके नाज़ी दमन का गवाह होने का उपन्यास की कथा से क्या संबंध है? आखिर हजारी ने इस कल्पित स्त्री का प्रोफाइल यही क्यूँ रखा? कृष्णा जी ने कई रजिस्टर में लिखा है और उपन्यास को अपने ढंग से उन कथाओं के लिए उपलब्ध किया है जो उन्हें कहनी थीं – विभाजन से लेकर मित्रो तक.
अगर संपादक के रूप में यह लेखक मुझे मिले होते तो अपना जनम सफल हो गया होता, भाई. रेणु एकदम अनुवाद-दुर्गम लेखकों में हैं लेकिन रेणु का एक अनुवाद हमने प्रकाशित किया है, उन पर सदन झा और गिरीन्द्र ने लिखा है; विनोद जी के अनुवाद और उन पर लेख प्रकाशित किए हैं; बिज्जी का क्रिस्टी मेरिल का किया अनुवाद प्रकाशित किया है; 'आधा गाँव' पर हिमांशु पण्ड्या और मैंने लिखा है; मनोहर श्याम जोशी पर एक लेख है, कृष्णा जी का एक अनुवाद है. तो एक तरह से संपादक के रूप में भी यही लेखक हुए. मुक्तिबोध के अनुवाद शीघ्र ही.
लेकिन इसका तात्पर्य यह कतई नहीं कि मैं एकदम समकालीन लेखकों पर बात करने से बच रहा हूँ जो आजकल एक सामान्य बात हो गई है. अपने से ठीक पहले वाली पीढ़ी में देवी प्रसाद मिश्र, बद्रीनारायण, गगन गिल, उदयन वाजपेयी सबसे इंटेन्स कवि लगे थे. बोधिसत्त्व, अनामिका और आशुतोष दुबे की कवितायें भी मन पर असर करती थीं. उदय प्रकाश और प्रियंवद सबसे इंटेन्स लगते थे कथाकारों में, अखिलेश और उदयन वाजपेयी की कुछ कहानियाँ. जैसे अखिलेश की "शापग्रस्त" या उदयन की "दूर देश की गंध" और "सुदेशना". लेकिन मेरे लिए 'प्रिय' लेखकों की सूची बनाना मुश्किल होगा. एकाध चीज़ें होंगी बहुत सारे लोगों की. हमसे पहले की पीढ़ी में ही थे मनोज रूपड़ा, अनिरुद्ध उमट और आनंद हर्षुल.
बीकानेर से बाहर मेरे शुरुआती पाठकों और मित्रों में पीयूष दइया और प्रभात रंजन थे. प्रभात रंजन को कथाकार के साथ आलोचक के रूप में भी पसंद करना शुरू किया तब. आजकल वे अपने आलोचना कर्म पर उतना ध्यान नहीं देते लेकिन एक कथाकार के रूप में उन्होंने सबसे मुश्किल राह चुनी और उस पर अडिग रहे. एक संपादक के रूप में मैंने उन्हें हमारी पत्रिका का अब तक का सबसे लोकप्रिय कथाकार पाया है और उनका काम हर नयी कहानी के साथ नयी गहराई प्राप्त कर रहा है. पश्चिमी आख्यान शैलियों के इस अधिकारी विद्वान ने उनका इस्तेमाल या दिखावा करने से हमेशा इंकार किया है यह बहुत मानीखेज़ है. प्रभात रंजन से मैंने पंकज मित्र को एप्रिशिएट करना सीखा.
चन्दन पांडे की "जंक्शन" मुझे उनकी सबसे प्रभावी कहानी लगती है, वे लगातार बेचैन रहने वाले कथाकार हैं, उनके काम को पढ़ने का मन रहता है. आशुतोष भारद्वाज हिन्दी में अदृश्य से रहते हैं – निर्मल वर्मा और वैद से टकराने के बाद अब उनका काम एकदम नई राह पर है. उनके उपन्यास का इंतज़ार है. गौरव सोलंकी की कहानी "सुधा कहाँ है?" लाजवाब है. गौरव और कुछ अन्य युवा मित्र अनुराग कश्यप को जितना महत्वपूर्ण मानते हैं उससे आधा भी विनोद कुमार शुक्ल या मनोहर श्याम जोशी या शिवमूर्ति को मानने लगें तो और बढ़िया काम सामने आएगा. प्रत्यक्षा के काम में एक तरह की विरलता का एहसास होता है जो उसे मेरे साथ बहुत देर तक रहने नहीं देता लेकिन जितनी देर रहता है अच्छा लगता है. हल्द्वानी वाले अशोक पांडे बहुत बढ़िया किस्सागो हैं लेकिन हिन्दी लेखन और लेखकों के बारे में उनकी राय इतनी नकारात्मक है कि उनसे संवाद रुक जाता है.
कविता में शिरीष कुमार मौर्य तो लगभग हमउम्र है. वह अचानक कुछ ऐसा लिख डालता है साल छह महीने में जिससे ज़्यादा इंटेन्स और पीछा करने वाली कविता मेरे लिए और नहीं होती. प्रभात की कविता मेरे मन के सबसे करीब है – हर तरह के 'प्रदर्शन' से दूर, अपने कविता होने को लेकर सबसे कम वाचाल, अपने विषय पर एकाग्र, अनुरक्त, विरक्त. वह विकट जीवन जीने वाला विकट कवि है. महेश वर्मा 40 बरस के होने के बाद "प्रकट" हुए हैं लेकिन उनका काम बहुत प्रेरक लगता है. कुमार अनुपम की " …कुछ
न
समझे ख़ुदा करे कोई"
न
समझे ख़ुदा करे कोई"
एक उपलब्धि है समकालीन कविता की. मनोज कुमार झा की कविता और उनके व्यक्तित्व में एक सुखद फासला है, उनकी कविता एक प्रसंग पार कर रही है, आगे क्या वह खुद को नया कर पाएगी? यह प्रश्न व्योमेश शुक्ल की कविता के बारे में भी मन में रहा है, संग्रह तक उसकी कवितायें कई स्तरों पर इंगेज करती हैं लेकिन उसके बाद की कवितायें नहीं . मुक्तिबोध के एक पत्र के आधार पर लिखी गई उसकी कविता मुझे बहुत पसंद है. व्योमेश में इधर जेस्चर्स हैं, विनोदजी जैसे भाषा प्रयोगों का जो सार्थक इस्तेमाल पहले उसकी कविता में होता था अब उस तरह नहीं हो पा रहा. व्योमेश फिर भी, अब भी एक संभावना है J
अरुण देव, हरे प्रकाश उपाध्याय और तुषार धवल की कविता उनकी पहली किताबों के एक नई करवट ले रही है ऐसा लगता है. गीत चतुर्वेदी का उनके पहले संग्रह तक का काम जिस तरह पठनीय है मेरे लिए, उसके बाद का नहीं. विशाल श्रीवास्तव, अनुज लुगुन, मृत्युंजय , उस्मान खान और मोनिका कुमार की कवितायें पढ़कर वैसा ही बेचैनी और सुकून का अनुभव होता है जैसा इन बाकी कवियों का काम पढ़कर.
पर सबसे उलट-पुलट, आवारागर्द, शुद्ध अभिधा में 'अ-द्वितीय' होने के करीब, ख़ालिस जोखिमबाज़ कवि मेरे लिए पीयूष दईया है! हो सकता है उसके बीहड़ से कुछ बेहद अनमोल निकले हो सकता है कुछ भी नहीं लेकिन दोनों के लिए तैयार! पैथोलॉजिकल आत्म-मुग्धता के इन दिनों में, जब लेखक लोग अपना टी.आर.पी खुद ही जमाते, नापते, कंट्रोल करते रहते हैं वह महीनों सालों में नमूदार होता है कुछ ऐसा लेकर जो या तो गहरे तक विचलित कर देता है या एकदम बकवास लगता है. पर न दूसरों की खुशामदी न कोई मध्यवर्गीय ख़्वाब कि चलो क्रिकेटर या रॉक स्टार या कार्डियोलोजिस्ट नहीं बन पाये तो अब यहीं स्टार बनने की हसरत जैसे तैसे पूरी करके हिन्दी साहित्य पे एहसान किया जाय.
प्रभात रंजन, अनिल यादव, यतीन्द्र मिश्र का कथेतर गद्य बेहद प्रभावित करता है. प्रभात भाई की "बदनाम बस्ती" का कब से इंतज़ार है, बतौर प्रकाशक भी. कुछ समय पहले व्योमेश ने किशन महाराज और बिस्मिल्लाह खान पर जो गद्य लिखा था बहुत बढ़िया लगा था. आलोचकों में प्रणय कृष्ण, संजीव कुमार और पंकज चतुर्वेदी का काम ज़्यादातर मुझे कंविन्स कर लेता है. इधर अशोक कुमार पांडे का नागार्जुन पर एक लेख बहुत प्रभावी लगा. उनकी एक कहानी भी, जो जानकीपुल पर शाया हुई थी, बहुत गहरे में याद रह जाने वाली थी. आशुतोष कुमार और हिमांशु पंडया इतना कम क्यूँ लिखते हैं? खूब लगन से और ठोस लिखने वाले मिहिर से सिनेमा के बारे में रिसर्च से बहुत आगे के काम की उम्मीद बनती है. विनीत कुमार जब 'पर्सनल एस्से' लिखते हैं तो कभी एकदम दिल को छू देने वाला लिखते हैं, उम्मीद है वे इतने सारे त्वरित मुद्दों, जिन पर उनके जैसी निरंतरता से कोई नहीं लिखता, के साथ साथ शुद्ध 'स्कालर्ली' भी लिखेंगे.
इन में से कुछ को छोड़कर बाकी सबको बतौर संपादक प्रकाशित भी किया है. उसके अलावा प्रभात रंजन और मनोज रूपड़ा की पुस्तकें प्रतिलिपि बुक्स ने प्रकाशित की हैं. कविता समय नामक पुस्तक में बोधिसत्त्व और अशोक कुमार पांडे के लेख और कुमार अनुपम की लंबी कविता है.
मुझे समकालीन परिदृश्य अतिरंजना में खराब और अच्छा दोनों नहीं लगता. जो लोग किसी तंग-नज़र मेरिटोक्रेटिक बाड़े में नहीं रहते, जो बाकी सब को अपने से कमतर नहीं मानते उनके लिए यह खूब जीवंत है.
पर भीडू सब तरह का प्राणी होना मांगता, इसी से रौनक रहती है. कुफ़्र कुछ हुआ चाहिए कि नहीं?
24 टिप्पणियाँ:
बिला शक कुफ़्र कुछ हुआ चाहिए...इस समालाप में वह बखू़बी हुआ है।
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मुझे समकालीन परिदृश्य अतिरंजना में खराब और अच्छा दोनों नहीं लगता. जो लोग किसी तंग-नज़र मेरिटोक्रेटिक बाड़े में नहीं रहते, जो बाकी सब को अपने से कमतर नहीं मानते उनके लिए यह खूब जीवंत है.
- यही सच है.....खूबसूरत बात जो गिरि के व्यक्तित्व का आईना है।
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धर्म पर गिरि की राय ख़ूब स्पष्ट है। अच्छी लगी।
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देरिदा-प्रसंग मुझे जमा नहीं, शायद मेरी निजी समस्या हो, पर नहीं जमा।
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अपनी कहूं तो आगे इस कड़ी में मुझे मनोज कुमार झा, व्योमेश शुक्ल, चन्दन पांडे, आशुतोष कुमार, पंकज चतुर्वेदी, प्रणयकृष्ण, आशुतोष भारद्वाज आदि नामों की प्रतीक्षा है। उम्मीद है इनमें से कुछ ज़रूर आपकी योजना में होंगे सिद्धान्त।
अभी कुछ "स्कालर्ली" कहना मुहाल है, पर रोचक बन् पड़ा है गुरू.... जियो !!!!
’आगे के काम की उम्मीद’ याने? किताब देखे बिना ही खारिज़ कर दी ;)
वैसे पिछले हफ़्ते किसी और सिनेमा आलोचक ने मेरे लिखे पर टिप्पणी दी कि मैं भावना में बहाने वाला जब लिखता हूँ, बहुत अच्छा लिखता हूँ। लेकिन जाने क्यूं वैसा इतना कम क्यूं लिखता हूँ? और मुझे आपकी एक पुरानी टिप्पणी याद आई जो इसके ठीक उलट थी।
मैं अगर अपने प्रसंगों को छोड़ दूँ तो बढ़िया बातचीत लगी. खिलंदड़ अंदाज में गहरी बात कैसे कही जाती है गिरिराज से सीखनी चाहिए.
मिहिर: किताब तो भाई यार पढी ही नहीं. फुटकर लेख और वह एक पी.डी.एफ. कभी पढ़ा था. मैंने कहा है "रिसर्च से आगे" यानी अब तक का काम मुझे रिसर्च के दायरे में लगता है, और बेहद अच्छा लगता है, लेकिन इस दायरे से आगे के काम की उम्मीद की है. मुझे भावनाओं वाला लेखन तभी पसंद आता है जब वह पर्सनल एस्से हो अगर वह आलोचना आदि की तरह हो तो ज़्यादातर नहीं.
शिरीष: देरिदा को गोली मारो :-) प्रभात रंजन: शुक्रिया हुज़ूर. मृत्युंजय: आप स्कालर्ली के चक्कर में काहे पड़ते हैं.
Filhal Badhai Siddhant Ko Bahut Achche Smvaad Muhhaiya Krane K Liye.Pdh Kr Apni Ray Likhunga.
का कहूँ? बढ़िया लिक्खे हो भाई. पसंदगी-नापसंदगी से ऊपर साफगोई अच्छी लगी. नाम लेकर बोलने की छूटती जा रही तहजीब में साफगोई जैसे बहुत कीमती चीज बन गयी है.
सिद्धांत को बधाई इस आयोजन के लिए.
अपने समकालीनो पर पैनी निगाह, भाषा और लेखन पर उन्मुक्त सहजता किराडू की शक्ति है जो इस साक्षात्कार को हास्यास्पद उद्धरण-प्रेम से बचा ले जाती है. इसकी वजह शायद यह कि "कठोर कवि" के भीतर एक चुलबुला और चौंका देने वाला कथाकार भी है जो अपने किरदारों को पानी सी सतह पर चलवा, विचार और विचारधारा से भिड़वा सकता है. मेरी दृष्टि में पिछले कुछ वर्षों की सबसे मारक हिंदी कहानी मर्डर ऑफ़ मार्क्स रही. लगभग सवा दो साल पहले इस पर कुछ लिखा था, किराडू से पूरा इत्तफाक रखते हुए कि हिंदी परिद्रश्य बहुत जीवंत है इसे यहाँ शेयर कर रहा हूँ कि हिंदी पर सार्वजनिक मातम द्रश्तान्धता का अकाट्य प्रमाण है.
http://galpaatal.wordpress.com/2010/06/16/ah-that-doppelganger%E2%80%A6/
साक्षात्कार पढ़ गया. मेरिटोक्रेसी के खिलाफ़ सैद्धांतिक अवस्थिति ली गयी है, लेकिन देरिदा को ग्लैमरसली कोट किया गया है और कई रचनाकारों की मेरिट लिस्ट दी गयी है. बहरहाल, मेरी एक कविता की गिरिराज किराडू की प्रशंसा पर प्रभात रंजन द्वारा हडकाए जाने के बाद उन्होंने पहली बार मेरे बारे में मुंह खोला और वो भी कुहेलिका आछन्न भाषा में. मैं साफ़-साफ़ पूछना चाहता हूँ, मेरे व्यक्तित्व और मेरी रचना में एक सुखद फासला है, इससे गिरिराज किराडू का क्या तात्पर्य है? या मैं ये कहूँ, कि गिरिराज के बुद्धि और देह में एक सुखद फासला है, उसका क्या अर्थ होगा?
श्री मनोज झा से: मेरी देह और बुद्धि दोनों एक से हैं - मोटे. तस्वीरें देखिये. बातचीत पढ़िए. प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? प्रभात भाई और आपके बीच क्या किस्सा था आप जाने. आप प्रतिलिपि की ही तरह जानकीपुल के भी सम्मानित रचनाकार रहे हैं. बाकी जो प्रश्न आपने मुझसे पूछा है वह अपने आपसे पूछिए - व्यक्तित्व भी आपका है और कृतित्व भी. हमारी तो सिर्फ टिप्पणी है :-)
आप भी भाई गज़बगो हैं. टिप्पणी करते हैं और कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में टिप्पणी करते हैं, और पूछने पर बताते हैं कि खुद जानिये.
आपकी बात से इतना तो स्पष्ट हो गया, कि प्रभात रंजन द्वारा आपको मेरी कविता की प्रशंसा पर हड़काए जाने का कारण कोई किस्सा था.
शुभकामनाएँ.
मनोज जी, यह हडकाना मतलब? गिरिराज जी, मेरे पुराने मित्र हैं, उनकी लभग सारी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं. असल में मैं सच बताऊँ तो आप लोगों की तरह पढ़ा-लिखा नहीं हूं बात-बात में देरिदा, जेमसन को नहीं ला पाता हूं. इसलिए कभी कभी मेरी भाषा में गंवारपान आ जाता है, इसलिए आपको ऐसा लगा होग. इस बेबाक बातचीत को व्यापक परिप्रेक्ष्य देखिये.
श्री झा: एक प्रकाशक और आयोजक के रूप में आपके व्यक्तित्व को जानने का जो सुअवसर मुझे मिला है उसके बारे में आप चाहे तो लिख देता हूँ. जानकीपुल संपादक ने आपको आदर से छापा है उनके आप के बीच क्या है मैं क्या कहूं? प्रभात भाई को मैं आज १३ बरस से जानता हूँ हम दोनों को एक दूसरे को "हड्काने" की ज़रुरत नहीं लगी.
श्री किराडू से - हड़काना शब्द आप लोगों को अच्छा नहीं लगा, मुझे भी यह शब्द प्रिय नहीं है. मगर जिस तरह वह प्रसंग घटा था, यही शब्द चुनना पड़ा.
आप और प्रभात रंजन जी पुराने मित्र हैं, इसे एक बार फिर जानकार खुशी हुई. मित्रताएं यूं ही बढ़ती रहें, प्रगाढ़ हों. मुझे भी आपके व्यक्तित्व को जानने का मौक़ा मिला है. वह सब लिखना breach of trust होगा, इसलिए मैं अपनी बात इसी टिप्पणी के साथ खत्म करता हूँ. आप अपनी योजनाओं में सफल हों. शुभकामनाएँ.
नहीं ब्रीच कर ही लिया जाए, लगता है आपको चैन तभी मिलेगा :-)
आप सभी से एक विनती है कि व्यक्तिगत होती जा रही इस बहस को यहीं खत्म किया जाए. ऐसा कोई आदेश तो नहीं दे सकता, क्योंकि उम्र और ओहदा दोनों ही कम है, लेकिन इस विनती की सुनवाई होगी, ऐसी आशा है.
मैं ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहता हूँ, जिसके तहत आप लोगों के इस मुद्दे से जुड़े कमेन्ट मैं न मॉडरेट कर पाऊँ.
यहाँ बहस के लिए एक बहुत बड़ी सामग्री दी गयी है, समय, धर्म, प्रेम और कलाएं......क्या उन पर एक सम्यक बहस संभव नहीं है?
भाई, इंटरव्यू बढिया लगा. बधाई!!
बड़ी मेहनत से, एक लंबा-सा, साहित्यिक टाईप का टीप छाप रहा था कि पता नहीं कौन-सा बटन दब गया कि सब उड़ गया. लगा कि ज्ञानियों के बीच घुसपैठ न करने का दैवी संकेत है ये...तो अब ’साईड’ से अपना ’कमैंट’ दे रहा हूँ.
वर्तमान हिंदी साहित्य के भूगोल का अच्छा खाका खींचा है आपने..भले ही सहमती-असहमती की भरपूर गुंजाईश के साथ.
प्रेम,धर्म,दर्शन और समय पर आपकी टिप्पणी बेहद इंट्रस्टिंग लगी...खासकर ’समयातीत’, ’कालातीत’ साहित्य के बारे में (असहमती की भरपूर गुंजाईश के बावजूद).
मुझे लगता है कि यह कह कर - "मुझे संगीत का, कला मात्र का मेरिटोक्रेटिक, हेजमनिक श्रेणीकरण – श्रेष्ठ और मीडियाकर, 'हाई' और 'लो' – रेसिस्ट और जातिवादी लगता है और इससे लगभग आस्तित्विक चिढ़ है" - आप बहुतसे विख्यात-कुख्यात कलाप्रेमियों(वादियों के भी) के हिटलिस्ट में शामिल हो गये होंगे.
हाँ ’लिस्ट’ की बात पे और जोड़ दूं कि प्रश्नकर्ता और आप (दोनों ही), कविता के मामले में फ़िर कवियों की लिस्ट पर ही रुक गये, कविताओं का उल्लेख रह गया....
बहरहाल इंटरव्यू अच्छा लगा हालांकी सबजेक्ट्वाईज़ आपके ’डिसकोर्स’ में बहुत कुछ रह गया.....मगर ये तो प्रश्नकर्ता की सीमा थी आपकी नहीं.....खुदा के करम से कभी इस लायक हो पाया कि आपका साक्षात्कार कर सकूं तो ये कसर पूरी कर लेंगे
पुनश्च बधाई...
प्रशांत बाबू शुक्रिया बहस को राह पर लाने के लिए. मज़ा तो तब आएगा जब आप अपनी भरपूर असहमतियां सामने लायेंगे. जब और किसी लिस्ट में नहीं होते तो सोचा अब हिट लिस्ट में ही आ जाएँ. :-) बाकी अपन फॉर्म में हैं आप मूड बना लीजिये.
सिर्फ और सिर्फ आत्म अनुभूति या प्रसंशा के लिए लिखे गए इस लेख को या कथित साक्षात्कार को किसी श्रेणी में रख पाना थोडा मुश्किल लग रहा हैं. गिरिराज अच्छे कवि हैं और संभवत उनके दस प्रतिशत पाठको को अवश्य समझ आती होगी उनकी कविता. बाकि सम्मिलित नामो पर चर्चा करना वैसे ही हैं जिस रूप में वो प्रस्तुत की गई हैं. उसका कोई विशेष प्रयोजन भी हो सकता हैं. पुरे लेख में सिर्फ यही पंक्ति उल्लेखनीय हैं संभवता सत्य भी इस हिंदी समाज या युग का ..जिसपर विचार विमर्श किया जा सकता हैं "
मुझे समकालीन परिदृश्य अतिरंजना में खराब और अच्छा दोनों नहीं लगता. जो लोग किसी तंग-नज़र मेरिटोक्रेटिक बाड़े में नहीं रहते, जो बाकी सब को अपने से कमतर नहीं मानते उनके लिए यह खूब जीवंत है.
पर भीडू सब तरह का प्राणी होना मांगता, इसी से रौनक रहती है."
अब आपको ग़ालिब कहूँ या आवारा,
प्रश्न ही ऐसे हैं, कि उनके जवाबों में आत्मानुभूति होगी और व्यक्तिपरक तारीफ़ें भी होंगी. गिरिराज जी की कवितायेँ एक बार फिर पढियेगा.
ये लेख तो वैसे भी नहीं है, और कथित साक्षात्कार तो है ही.
सिद्धांत जी आप तो डिफेंसिव हो गए ..हिंदी कि ये परम्परा अच्छी नहीं, साथ ही साथ धन्यवाद दूँगा इस स्वीकृति के लिए भी, वैसे भी योजनाबद्ध तरीके से चुने गए प्रश्नोत्तर से आत्मानुभूति ही होगी, जवाब नहीं पाए जायेंगे. और हाँ मैं उन्ही दस प्रतिशत पाठकों में से हूँ इसलिए कहा हैं ..जो नाम हैं वही कहें तो बेहतर होगा. अच्छा लगेगा.:):)
यहाँ डिफेंसिव होने जैसा कुछ नहीं है भईया. मैं बस ये कहना चाह रहा हूँ, कि इन प्रश्नों पर आत्मानुभूति ही तो जज़्ब होगी न. यदि मैं ऐसे प्रश्न पूछता जिनमें, 'क्या पढ़ना पसंद करते हैं?', 'कब लिखना और कितना लिखना पसंद करते हैं?' या 'आपकी रचनाओं में ये या वो....?' तो एक परम्परागत साक्षात्कार सामने आता, जिनके साथ 'जवाब' होते. क्यों?
भाई सिद्धांत मानना होगा कि आवारा ग़ालिब साहब के "रंग" निराले हैं... अपन तो इस कारण से भी इस साक्षात्कार के साथ हैं कि हमें प्रेरक बताया गया है.
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